गुजरात कोर्ट: 2002 के दंगे 'स्वतःस्फूर्त' थे; मीडिया, नेताओं, संगठनों ने 'प्रमुख हिंदुओं को फंसाने' के लिए पुलिस पर 'दबाव' डाला
छवि का इस्तेमाल प्रतिनिधित्वात्मक उद्देश्य के लिए किया गया है। साभार: द इंडियन एक्सप्रेस
नई दिल्ली: 2002 के गुजरात दंगों के मामले में 35 लोगों को बरी करते हुए, गुजरात के पंचमहल जिले के हलोल में एक सत्र अदालत ने फैसला सुनाया कि 2002 में गोधरा ट्रेन के जलने के बाद राज्य में सांप्रदायिक हिंसा "स्वतःस्फूर्त” थी और "योजनाबद्ध नहीं" थी जैसा कि "छद्म-धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों" ने वर्णित किया था। अदालत ने आगे कहा कि पुलिस ने "छद्म-धर्मनिरपेक्ष" मीडिया, संगठनों और राजनेताओं के "दबाव" में आकर हिंदू समुदाय के प्रमुख सदस्यों को "फंसाया" था।
यह घटना 27 फरवरी, 2002 को सुबह 4:43 बजे हुई थी, जब अहमदाबाद जाने वाली साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन गोधरा रेलवे स्टेशन से निकली और बमुश्किल एक किलोमीटर ही चली थी तब गोधरा रेलवे स्टेशन के बगल में स्थित सबसे संवेदनशील इलाकों में से एक - सिग्नल फलिया में किसी ने ट्रेन की आपातकालीन ज़ंजीर को खींच दिया था।
ट्रेन लगभग 1,700 तीर्थयात्रियों और कार सेवकों (स्वयंसेवकों) को उनके अंतिम गंतव्य स्थान तक ले जा रही थी। स्वयंसेवक विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) द्वारा आयोजित पूर्ण आहुति महायज्ञ नामक एक समारोह में भाग लेने के बाद घर लौट रहे थे - वीएचपी एक निजी हिंदू मिलिशिया – जो ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर राम मंदिर बनाने के अपने एजेंडे के तहत काम कर रही थी।
अदालत के अनुसार, ट्रेन पर एक हजार से अधिक लोगों की भारी भीड़ ने हमला किया था, जो "पेट्रोल बम, एसिड बम, तलवार आदि से लैस थे।" “उन्होंने तीन कोचों को निशाना बनाया और पांच-छह डिब्बों में पेट्रोल डाला और फिर उसमें आग लगा दी थी जिससे 59 यात्रियों की मौत हो गई थी और करीब 40 लोगों को चोटें आई थीं।”
आरोपी 35 लोगों को सभी आरोपों से मुक्त करते हुए, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश हर्ष बालकृष्ण त्रिवेदी ने अपने 36 पन्नों के फैसले में कहा कि, "इस घटना से शांतिप्रिय गुजराती लोग हैरान और परेशान थे। हमने देखा कि छद्म धर्मनिरपेक्ष मीडिया और राजनेताओं ने पीड़ित लोगों के जख्मों पर नमक छिड़का। रिपोर्ट कहती है कि गोधरा दंगों के बाद, गुजरात के 24 में से 16 ज़िले साम्प्रदायिक दंगों की चपेट में आ आगे थे। कहीं भी भीड़ 2000 से 3000 से कम नहीं थी। अक्सर, इनकी संख्या 5000 से 10,000 तक होती थी। गुजरात में स्वतःस्फूर्त दंगे हुए हैं। उन्हे योजना बनकार अंजाम नहीं दिया गया था, जैसा कि छद्म-धर्मनिरपेक्ष व्यक्तियों ने आरोप लगया था या वर्णित किया गया था।”
हालांकि, ट्रेन मेओन आग किस वजह से लगी यह अभी भी विवादित है। जबकि नानावती-मेहता आयोग, जिसने 2008 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, ने घोषणा की थी कि आग मुस्लिम षड्यंत्रकारियों का पूर्व नियोजित काम था, जबकि 2004 में स्थापित यूसी बनर्जी आयोग ने इस घटना को एक दुर्घटना बताया था।
स्वतंत्र जांच ने भी यह निष्कर्ष निकाला था कि यह घटना एक दुर्घटना थी। 2006 में, गुजरात उच्च न्यायालय ने, हालांकि, बाद के आयोग को "असंवैधानिक और अवैध" घोषित किया और उसके सभी निष्कर्षों को रद्द कर दिया था।
दोनों आयोगों की जाँचों को संबंधित विरोधी राजनीतिक संगठनों ने "राजनीति से प्रेरित" बताया और जांच का उपहास किया। लेकिन घटना को लेकर अनिश्चितता बनी हुई है।
गोधरा कांड के तुरंत बाद, गुजरात में बड़े पैमाने पर लक्षित मुस्लिम विरोधी हिंसा देखी गई, जिसमें लगभग 1,044 लोग मारे गए और 2,500 लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। कम से कम 223 लोग लापता हुए, और उनका कभी पता नहीं चला।
न्यायाधीश ने जोर देकर कहा कि "पुलिस ने क्षेत्र के प्रमुख हिंदू व्यक्तियों - डॉक्टर, प्रोफेसर, शिक्षक, व्यवसायी, पंचायत अधिकारी, आदि को इसमें फंसाया था।" न्यायाधीश ने पाया कि, "छद्म-धर्मनिरपेक्ष मीडिया और संगठनों के हंगामे के कारण, आरोपियों को अनावश्यक रूप से लंबे समय तक मुकदमे का [सामना] कारना पड़ा है।"
मामला (एफआईआर संख्या 33/2002, कलोल पुलिस स्टेशन) गोधरा जिले के हलोल इलाके में सांप्रदायिक हिंसा का है, जिसमें हजारों "कट्टर" हिंदू भीड़ ने कथित तौर पर हमला किया और तीन स्थानों में मुसलमानों के घरों, दुकानों और संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया।
यह देखते हुए कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा "कोई नई घटना नहीं है", न्यायाधीश ने अपने आदेश में कहा कि, "भारत में सांप्रदायिक दंगे लंबे समय से जारी हैं और आमतौर पर तुच्छ विवाद और असहिष्णुता, धार्मिक कलाकृतियों में हेरफेर, दूसरों द्वारा त्योहारों पर घुसपैठ के कारण, परस्पर विरोधी प्रार्थना के कारण, पूजा स्थलों पर विवाद, अंतर्विवाह, पवित्र स्थानों का अपमान, यौन अपराधों की अफवाहें, अतिक्रमण के मुद्दे पर, या भारत विरोधी एजेंटों की उपस्थिति के कारण होते हैं।
उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अभियोजन "दबाव" में था; और इसलिए कई गवाहों को बुलाकर मामले को अनावश्यक रूप से लंबा खींचा। अदालत ने पाया कि लगभग सभी गवाह पूरी तरह से अविश्वसनीय निकले।
"एक शांत दिमाग चीजों को भावनाओं से उत्तेजित व्यक्ति से बेहतर देखता है। गोधरा ट्रेन कांड के एक दिन बाद, रेलवे पुलिस को छद्म-धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं और मीडिया ने भारी दबाव में डाल दिया था," उन्होंने कहा कि, "अभियोजक जो विशिष्ट समुदाय के नेतृत्व वाले एनजीओ से [डरता था] शायद ही कभी कोई सहारा ले पाता।"
न्यायाधीश ने कहा कि, “मुस्लिम समुदाय के कई लोग जिन्हें डेलोल, डेरोल, कलोल आदि में सांप्रदायिक हिंसा का शिकार बताया गया था, उन्होंने विभिन्न उच्च अधिकारियों के समक्ष अपनी शिकायत का मौखिक और लिखित प्रतिनिधित्व किया था … मैंने उनके लिखित आरोपों और उनके बयानों को देखा है पुलिस डायरी में उन आरोपों पर गौर करने पर, मैंने पाया कि हर बार उन्होंने एक नई कहानी पेश की थी।”
इस मामले में, न्यायाधीश ने कहा, अभियोजन पक्ष के गवाहों, विशेष रूप से मुस्लिम, जो दंगों के कथित पीड़ित हैं, ने दंगों के "व्यापक रूप से भिन्न" संस्करण दिए हैं।
अदालत ने कहा कि, "सांप्रदायिक दंगों के मामले में आम तौर पर बड़ी संख्या में लोग शामिल होते हैं और सबूत अक्सर पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण होते हैं। इसके अलावा, दोषियों के साथ-साथ निर्दोष व्यक्तियों को भी फंसाए जाने का बड़ा खतरा होता है, ऐसे मामलों में पार्टियों की प्रवृत्ति के कारण वे अपने कई दुश्मनों को झूठा फंसाने की कोशिश करते हैं। इसलिए, निर्दोष व्यक्तियों को झूठा फंसाए जाने की संभावना को न्यायाधीश द्वारा हमेशा ध्यान में रखा जाना चाहिए।”
और अंत में निष्कर्ष निकालते हुए जोड़ा गया कि अभियोजन पक्ष भीड़ के मूवमेंट के तथ्य को साबित करने में विफल रहा जैसा कि प्राथमिकी और आरोप पत्र में उल्लेख किया गया है। "हालांकि प्राथमिकी तुरंत दर्ज की गई थी, लेकिन यह बिना किसी का नाम लिए दोनों समुदायों की भीड़ के खिलाफ थी।"
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