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धरोहर: पूर्वी उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक पुनर्जागरण का एक प्रमुख केंद्र 'प्रेमचंद साहित्य संस्थान'

आज प्रेमचंद साहित्य संस्थान तथा प्रेमचंद पार्क कला, साहित्य, संस्कृति का गोरखपुर में एक प्रमुख केंद्र बन गया है इसमें विभिन्‍न संगठन अपने आयोजन करते रहते हैं।
Premchand Sahitya Sansthan

हिन्दी साहित्य के प्रख्यात रचनाकार मुंशी प्रेमचंद का जन्म पूर्वी उत्तर प्रदेश में बनारस के पास लमही नामक गांव में हुआ था लेकिन उनके जीवन का‌ एक बड़ा महत्वपूर्ण भाग गोरखपुर में बीता। यहां वे शिक्षा विभाग में डिप्टी इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे तथा गांधी जी के असहयोग आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने यहीं पर इस्तीफा भी दे दिया था। उनके बड़े बेटे अमृत राय का जन्म और एक बेटे की‌ मृत्यु यहीं हुई थी। उन्होंने अपना महत्वपूर्ण उपन्यास ‘हुस्न-ए-बाज़ार’ उर्दू भाषा में यहीं पर लिखा था और बाद में इसका हिन्दी अनुवाद उन्होंने ‘सेवासदन’‌ के रूप में किया।

गोरखपुर में नार्मल स्कूल के निकट वर्तमान में बेतियाहाता मोहल्ले के पार्क में एक मकान है, जिसमें प्रेमचंद लंबे समय तक किराये पर रहते थे। यहीं पर आजकल प्रेमचंद पार्क और प्रेमचंद साहित्य शोध संस्थान है उसके पीछे एक ईदगाह है। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने अपनी बहुचर्चित कहानी ‘ईदगाह’ इसी को देखकर लिखी थी। इसके अलावा भी अनेक स्मृतियां यहां पर है जैसे कि प्रख्यात शायर फ़िराक़ गोरखपुरी से मिलना और नौकरी से इस्तीफ़े के बाद गोरखपुर के निकट पीपीगंज में रहना आदि। इन स्मृतियों का विस्तृत वर्णन उनके बेटे अमृत राय ने प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम के सिपाही’ में किया है लेकिन अपने गौरवशाली इतिहास, राजनीति और साहित्य के बावज़ूद गोरखपुर तथा उसके आसपास का‌ पूर्वांचल का इलाक़ा दुनिया के सबसे ग़रीब इलाक़ों में से एक है इसकी तुलना सहारा के अफ्रीकी देश से की जा सकती है।

मानव विकास दर यहां अत्यन्त दयनीय है। बाढ़-सूखे और इंसेफेलाइटिस जैसी बीमारियों से इस इलाक़े में हर‌ वर्ष हज़ारों लोग मरते हैं। प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के पात्र आज़ादी के छिहत्तर साल बीत जाने के बाद आज भी यहां के गांवों-शहरों में दिखते हैं। रोज़ी-रोटी की तलाश में लाखों मज़दूर-किसान दिल्ली, मुम्बई और पंजाब में श्रम बेचने पर मजबूर हैं।

छात्र जीवन में जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय में अध्ययनरत था तथा एक संगठित छात्र संगठन से जुड़ा था तब मैंने और मेरे अनेक साथियों ने महसूस किया कि इस इलाक़े की ग़रीबी, बेकारी और बदहाली से संघर्ष करना है तो हमें इस ज़मीन के नायकों की प्रगतिशील परम्परा को याद करना होगा। इसके अन्तर्गत हम लोग समय-समय पर कबीर, बुद्ध और प्रेमचंद पर आधारित कार्यक्रम करते रहते थे। हर वर्ष चौरीचौरा दिवस मनाते थे। बाद में ऐसा महसूस हुआ कि इस इलाक़े में साहित्य और संस्कृति के सबसे बड़े आइकॉन प्रेमचंद ही हैं जिन्होंने लंबे समय तक इस इलाक़े की‌ ग़रीबी और बदहाली को देखा और उसे अपने साहित्य में उतारा। यहां का बौद्धिक वर्ग ही इस मामले में विस्मृति का शिकार था। केवल स्कूल और विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में ‌प्रेमचंद पढ़ाए जाते थे इसलिए मैंने और हमारे साथियों ने महसूस किया कि इस इलाक़े में जन आंदोलनों को विकसित करने के लिए एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की‌ ज़रूरत हैं जिसमें बुद्ध, कबीर और प्रेमचंद तीनों ही होंगे। इस पहल में डॉ० सदानंद शाही, डॉ० राजेश मल्ल और डॉ० अनिल राय प्रमुख थे।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एक ‘प्रेमचंद पीठ’ अवश्य थी लेकिन वह बिलकुल निष्क्रिय थी। गोरखपुर के बेतियाहाता इलाक़े में स्थित प्रेमचंद का निवासस्थान बिलकुल जर्जर हो चुका था तथा लोगों की निगाहों से भी विस्मृत हो गया था। यह स्थान बेतियाहाता के पॉश इलाक़े में होने के कारण इस‌ पर बिल्डरों की निगाह थी जो इसको तोड़कर शॉपिंग मॉल बनाना चाहते थे। वीर बहादुर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में वर्ष1987 में इसे घेरकर एक‌ पार्क बनाया गया था तथा प्रेमचंद की आदमकद मूर्ति लगाई गई थी लेकिन प्रेमचंद का निवासस्थान अभी भी काफ़ी जर्जर था। वहा़ं पर एक छोटा सा पुस्तकालय चलता था लेकिन कोई स्थायी कर्मचारी न होने के कारण अकसर बंद रहता था। तब हम लोगों ने बड़ा प्रयास किया कि प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना करने के लिए उनका यह ऐतिहासिक निवासस्थान हम‌ लोगों को मिल जाए लेकिन हमें इसमें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। बाद में हम लोगों को गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग की एक प्रोफेसर श्रीमती शान्ता सिंह ने अपने घर में इसके लिए दो कमरे बिलकुल मुफ़्त में दे दिए। यहीं पर पहली बार प्रेमचंद साहित्य संस्थान की‌ स्थापना हुई। यहां पर हम लोगों ने प्रेमचंद तथा अन्य प्रगतिशील साहित्यकारों पर अनेक कार्यक्रम किए तथा इसके पुस्तकालय के‌ माध्यम से बड़ी संख्या में छात्रों को इससे जोड़ा। इसके कई वर्षों बाद हरिश्चन्द्र जी कमिश्नर बनकर आए उनकी साहित्य में गहरी रुचि थी। उन्होंने काफ़ी प्रयास करके प्रेमचंद साहित्य संस्थान को बेतियाहाता स्थित प्रेमचंद का निवासस्थान दिलवा दिया। कुछ शासन और कुछ चिन्तकों के सहयोग से एवं कुछ निजी प्रयासों से धन जमा करके उस इमारत की मरम्मत करवाई गई। यहीं पर मकान की सफाई के दौरान गोदाम में एक प्रेमचंद की छोटी मूर्ति मिली जिसका अनावरण बहुत पहले प्रेमचंद की‌ पत्नी शिवरानी देवी ने किया था जिसे बाद में गोदाम में डाल दिया गया था। उसे हम‌ लोगों ने पार्क के मुख्य स्थान पर स्थापित करवाया। यहां आने के बाद प्रेमचंद साहित्य संस्थान को‌ काफ़ी गति मिली। यहीं पर एक बड़े पुस्तकालय की स्थापना की गई। एक स्थायी पुस्तकालयाध्यक्ष की नियुक्ति की गई। यद्यपि आर्थिक संकट के कारण अकसर वेतन देने में देरी होती है क्योंकि इसके लिए संसाधन निजी सम्पर्कों से ही जुटाए जाते हैं। सरकारी अनुदान नाममात्र का‌ था वह‌भी भाजपा के शासनकाल में बंद हो गया। लेकिन हम लोग लगातार यह महसूस करते हैं कि संसाधनों की कमी से किसी भी सामाजिक कार्य की गति धीमी तो हो सकती,पर रुक नहीं सकती।

बहरहाल पूर्वांचल के छात्र-नौजवानों को प्रेमचंद की प्रगतिशील परम्परा से जोड़ने में इस संस्थान की बड़ी भूमिका है। संस्थान ने कुछ महत्वपूर्ण आयोजन किए जिसमें वर्ष 2000 में दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया। उत्तर प्रदेश में इस विषय पर यह पहली संगोष्ठी थी जिसमें उस समय के क़रीब- क़रीब सभी दलित साहित्यकार शामिल हुए थे। इसमें कंवल भारती, मोहनदास नैमिशराय, शयोराज सिंह बेचैन आदि प्रमुख थे। इसके अलावा नामवर सिंह और परमानन्द श्रीवास्तव सहित हिन्दी के‌ सभी बड़े साहित्यकार, आलोचक और विचारक शामिल थे। यह संगोष्ठी लंबे समय तक अपनी बहसों और विवादों के‌ कारण चर्चा में रही। संस्थान के निदेशक सदानन्द शाही के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर होने के बाद हम लोगों ने अपने संस्थान के‌ अनेक कार्यक्रम वाराणसी में किए। इसमें प्रमुख था-6 से 8 नवम्बर 2005 में ‘गोदान को फिर से पढ़ते हुए’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का‌ आयोजन हुआ था जिसमें न केवल भारत के बल्कि अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, मारिशस और सुरीनाम से भी अनेक प्रेमचंद साहित्य संस्थान के विद्वानों ने भाग लिया था। यह इस तरह की देश में गोदान पर पहली संगोष्ठी थी। इसी संगोष्ठी के बाद संस्थान ने प्रेमचंद पर केन्द्रित कर्मभूमि नामक एक महत्वपूर्ण पत्रिका निकालने का निर्णय लिया जिसके अंतर्गत साल में दो अंक प्रकाशित होते हैं जो पूर्णतः प्रेमचंद के साहित्य पर आधारित होते हैं। इसमें अब तक कफ़न, गोदान और सेवासदन पर अंक निकल चुके हैं तथा प्रेमचंद के संपूर्ण साहित्य पर केन्द्रित और भी अंक आए हैं।

गोरखपुर में जीडीए में एक प्रगतिशील साहित्यप्रेमी अधिकारी के आने के बाद उनके सहयोग से अनेक नयी योजनाओं का क्रियान्वयन हो रहा है। इसके अंतर्गत प्रेमचंद साहित्य संस्थान के साथ-साथ एक शोध संस्थान की‌ स्थापना की गई है। इसमें हर वर्ष दो शोधकर्ताओं के लिए प्रेमचंद साहित्य संस्थान पर शोध करने के लिए एक स्कालरशिप की व्यवस्था की गई है जिसमें वे संस्थान के निर्माणाधीन गेस्ट हाउस में रहकर शोध कर सकते हैं तथा पुस्तकालय का लाभ उठा सकते हैं। संस्थान में एक आर्ट गैलरी और एक संग्रहालय की स्थापना भी की जा रही है जिसमें प्रेमचंद से संबंधित चित्रों, उनकी पाण्डुलिपियों तथा उनके अन्य निजी सामानों को एकत्र करके रखने की योजना है। प्रेमचंद पार्क में उनके नाटकों के मंचन के‌ लिए एक खुला मंच बनाया गया है और इसकी दीवारों पर प्रेमचंद साहित्य से संबंधित भित्तिचित्र बनाए गए हैं। आज प्रेमचंद साहित्य संस्थान तथा प्रेमचंद पार्क कला, साहित्य, संस्कृति का गोरखपुर में एक प्रमुख केन्द्र बन गया है, इसमें अन्य ढेरों साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन; जिसमें- इप्टा, दलित लेखक और सांस्कृतिक संगठन, जनवादी लेखक संगठन, प्रगतिशील लेखक संगठन और जनसंस्कृति मंच के लोग भी अपने विभिन्न आयोजन करते रहते हैं। अभी हाल में संस्थान की एक वेबसाइट लॉन्च की गई है जिसमें यहां के कार्यक्रमों तथा गतिविधियों के बारे में कोई भी जानकारी प्राप्त कर सकता है। मुझे यह पूर्ण विश्वास है कि न केवल गोरखपुर में बल्कि संपूर्ण पूर्वांचल में यह संस्थान सांस्कृतिक पुनर्जागरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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