NewsClick

NewsClick
  • English
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • हमारे लेख
  • हमारे वीडियो
search
menu
image/svg+xml
  • सारे लेख
  • न्यूज़क्लिक लेख
  • सारे वीडियो
  • न्यूज़क्लिक वीडियो
  • राजनीति
  • अर्थव्यवस्था
  • विज्ञान
  • संस्कृति
  • भारत
  • अंतरराष्ट्रीय
  • अफ्रीका
  • लैटिन अमेरिका
  • फिलिस्तीन
  • नेपाल
  • पाकिस्तान
  • श्री लंका
  • अमेरिका
  • एशिया के बाकी
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें
सब्सक्राइब करें
हमारा अनुसरण करो Facebook - Newsclick Twitter - Newsclick RSS - Newsclick
close menu
भारत
राजनीति
बंगाल में हिंदुत्व का इतिहास 
लगभग आधी सदी बाद पश्चिम बंगाल ने ख़ुद को वैसे ही चट्टान के समीप पाया है, जिससे टकरा कर वह गिर पड़ा था। आने वाला विधानसभा चुनाव निश्चित रूप से अनिश्चित अंत वाला चुनाव होगा। यह चुनाव हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों के ग़रीब तबकों के  लिए कठिन परीक्षा साबित होने वाला है।
शुभम शर्मा
12 Jan 2021
बंगाल में हिंदुत्व का इतिहास 

भारतीय जनता पार्टी ने जबकि पश्चिम बंगाल में विपक्षी नेताओं के न्यूनतम खरीद मूल्य (एमएसपी) खोज लिया है, इस क्षेत्र में हिन्दुत्व और साम्प्रदायिकता ने अपना इतिहास गंवा दिया है और इसकी अनियंत्रित वृद्धि स्वयं के स्मरण करने का आह्वान करती है। यह हमें भाजपा द्बारा बंगाल पर थोपे जाने वाले आसन्न खतरों के मूल के आकलन की इजाजत देगा। 

तथ्य इस आम धारणा के विपरीत है कि हिन्दुत्व शब्द सावरकर  का ईजाद किया हुआ  था। दरअसल, सावरकर के कहने के कोई 40 साल पहले गुरुदास चटर्जी ने  1892  में चंद्रनाथ बासु की किताब हिन्दुत्व को प्रकाशित किया था। इसके प्रकाशन ने 1891 में हुई जनगणना रिपोर्ट पर हंगामा मचा दिया था कि मुसलमानों ने संख्या बल में हिन्दुओं को पीछे छोड़ दिया है, उनकी आबादी में 1872 की जनगणना में दर्ज 48 फीसद से बढ़ोतरी हुई है। 

हिन्दू पुनरुत्थानवादी स्वर के दखल वाले स्वदेशी अभियान में, मुसलमानों की बड़ी आबादी ने बंगाल में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। अब्दुर रसूल और लियाकत हुसैन अतिवादी झुकावों के साथ एक महत्त्वपूर्ण स्वदेशी समर्थक के रूप में तेजी से उभरे थे। अभियान की पहली लहर के दौरान ही, देश के विभाजन की मांग करने वाले मुस्लिम लीग के नये समर्थक का प्रतिरोध करने के लिए बंगाल मोहम्डेन एसोसिएशन और इंडियन मुसलमान एसोसिएशन की क्रमश: 1906 और 1907 में स्थापना की गई थी। 

यद्यपि, मुस्लिम प्रेस मिहिर-ओ-सुधाकर (व्यापक प्रसार संख्या वाला मुस्लिम अखबार)  तथा धनाढ्य एवं ज्यादा ताकतवर ढाका के सलीमुल्लाह और मेमेन्सिंघ के सर्वाधिक ताकतवर सैयद नवाब अली चौधरी ने स्वदेशी समर्थक अपने प्रतिद्बंद्वियों को जल्द ही पछाड़ दिया। सिमला प्रतिनियुक्ति ब्रिटिश सरकार के साथ कुलीन स्तर के इसी समन्वय का नतीजा था, जिसने उन हिन्दुओं से अलग मुसलमानों के विशिष्ट हितों को मान्यता दिये जाने पर जोर दिया, यह ब्रिटिश उपनिवेश विरोधी भारतीय राजनीति के साम्प्रदायिक विभाजन का चिह्न था। 

स्वदेशी अभियान विदेशी वस्तुओं या उत्पादों के बहिष्कार की मांग करता था, जिसकी कड़ी मार गरीबों पर पड़ती थी। इतिहासकारों ने रेखांकित किया है कि गरीब मुसलमान और नामशूद्रों ने सस्ती दरों पर मिलने वाली आयातित वस्तुओं एवं नमक को खरीदना छोड़ दिया था, वे स्वदेशी अभियान के कठोर नियमों को पालन करने विफल हो रहे थे। और हिन्दू राष्ट्रवादी स्वदेशी अभियान के विफल हो जाने पर संस्कृति राष्ट्र के मुहावरे की तरफ मुड़ गये थे, प्रारंभिक औपनिवेशिक चरण के दौरान बंगाल के पुनर्जागरण के तुरंत बाद लेकिन वे बंगाल के व्यावसायिक क्षेत्र में गिरावट के साथ विलुप्त हो रहे थे। 

बुद्धिजीवी इतिहासकार एंड्रयू सार्तोरी ने लिखा कि, “यहां तक कि कांग्रेस के पूर्व संयत उदारवादी भी सांस्कृतिक भारतीयता के बदला लेने वाले दूत हो गए, प्रतीत होते थे।” यह 19वीं सदी की बौद्धिक-राजनीतिक परम्परा से मूलत: भिन्न था, जो हिन्दुत्व के आंतरिक सुधार पर केंद्रित था। उदाहरण के लिए, 1830 की शरद ऋतु में, एक नियतकालीन पत्रिका में पार्थेनोन के युवा हिन्दुओं ने घोषणा की कि “दुर्गा पूजा मेरे सिद्धांतों के सर्वथा विरुद्ध है। मैंने कभी उनके विरुद्ध कभी काम नहीं किया है और न कभी करूंगा, यद्यपि मैं अपने कुनबे में नापसंद किया जा सकता हूं।’’

इसी तरह, ताराचंद चक्रवर्ती जैसे  सुधारक ने सत्ता के बंटवारे, प्रतिनिधिक सरकार के मुद्दे पर अपनी बात रखी है, जबकि रसिक कृष्ण मल्लिक ने समाज में व्यक्ति के सभी कार्यों के लिए उसकी आत्मा के मार्गदर्शक होने के तर्क का स्वागत किया है। उन्होंने लिखा, “एक आदमी के लिए विज्ञान की तरह ही धर्म प्राणी जगत में विचित्र है। दोनों  विषय सामान्य जिज्ञासा के स्वाभाविक पाठ के हिस्सा हैं।” इसलिए धर्म के बीज मनुष्य के सामाजिक होने के कारण बोए जाते हैं, वह दूसरी मायावी दुनिया से नहीं आते, यह तथ्य बाद में हुए मानवशरीर विज्ञान के अनुसंधान में भी उद्घाटित हुआ है। 

जिस तथ्य को दिमाग में सही से बिठाने की आवश्यकता है, वह ये कि बंगाल में पुनर्जागरण दौर के ये प्रख्यात और उच्च वर्ग के लोग अपने सूबे के आम गरीब-गुरबों से सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर एकदम कटे-छंटे रहे हैं। प्रो. सुशोभन सरकार ने भी टिप्पणी की है कि  “हिन्दू परम्पराओं के प्रति सनक ने पुनर्जागरण के हमारे लोगों को व्यापक जनता से उदासीन रखने में सहयोग किया है।” इसके बाद हुए, अरबिंदो घोष और बिपिन चंद्र प़ॉल जैसे चिंतकों ने उपनिवेशी आधुनिकता की चुनौतियों से लड़ने के लिए हिन्दू विरासत की पुनर्कल्पना की है। हालांकि, ऐसी परिकल्पनाएं की जड़ें हिन्दुत्व की प्राच्यवादी संरचना में थीं। 

यह नई स्थिति सर्वाधिक शक्तिशाली उपनिवेशी राज्य के सामने राष्ट्रवादियों की कमजोरी को ही जाहिर करती थी। मोरली-मिंटो की तरफ से 1909 में प्रतिनिधिक राजनीति की शुरू की गई पहलें  किसी क्षेत्रीय या नागरिक राष्ट्रवाद की तरफ अग्रसर नहीं कीं बल्कि साम्प्रदायिक ढरें पर न्यूनतम राजनीतिक  प्रतिनिधित्व को ही बढ़ावा दिया।  इस अधिनियम के पारित हो जाने के बाद, इस विषय पर इंडियन मेडिकल सर्विस के लेफ्टिनेंट-कर्नल यू.एन. मुखर्जी ने ‘ए डाइंग रेस’ शीर्षक से कई लेख प्रकाशित कराये थे। 

जनगणना (1872-1901) रिपोर्टस के आधार पर उन्होंने दिखाया था कि बंगाल में मुस्लिम आबादी एक तिहाई की दर से बढ़ी है, जबकि हिन्दू आबादी सौ में पांच से भी कम बढ़ी है। उनका यह तर्क गलत आधार वाक्य पर आधारित है, क्योंकि इसमें अप्रवासन, सर्वे के तरीकों के बदलने और क्षेत्र के पुनर्आकलन जैसे अन्य प्रभावी कारकों पर विचार नहीं किया गया है।

मार्क्सवादी इतिहासकार विजय प्रसाद ने गौर किया है कि उन सारे आलेखों ने हिन्दुओं में भय और संविभ्रम को ही बढाया, लेकिन लेखक का सारा का सारा मकसद पूरा नहीं हुआ क्योंकि  जनगणना विभाग के एक सदस्य ई.ए.गैट ने मुखर्जी के शरारती दावों-जाति-के बड़े दोषों स्पष्ट तरीके से पोल खोल कर रख दी। उन्होंने लिखा था, ‘‘जनगणना में हिन्दुओं के विवरण गुमराह करने वाले हैं, क्योंकि उन्होंने इसमें उन लाखों लोगों गिन लिया है, जो वास्तविक रूप से कतई हिन्दू नहीं हैं, जो ब्राह्मणों के सम्पर्क से वंचित कर दिये गए हैं, जिन्हें हिन्दुओं के मंदिरों में घुसने तक की इजाजत नहीं है। कई मामलों में तो इन्हें इतना मलिन माना जाता है, जिनका स्पर्श करना, यहां तक कि उसके आसपास फटकना भी पाप है, उन्हें दूषण का कारण माना जाता है।” गैट की आपत्ति निराधार नहीं थी। आजादी के बाद यह सच साबित हो गया, जब पूरे देश ने देखा कि भीम राव अम्बेडकर ने दलितों से बौद्ध धर्म अपनाने का आह्वान किया और खुलेआम घोषणा की कि “मैं हिन्दू के रूप में नहीं मरूंगा।”

बंगाल में ग्रामीण क्षेत्र की मुस्लिम आबादी ने अपने सामाजिक जीवन में काफी बदलाव देखें हैं। 1857 के उत्तरार्द्ध में, मुस्लिमों में सामंतवादी-अभिजात्य वर्ग में साफ गिरावट देखी है, जबकि मुस्लिम कृषक समाज को ब्रिटिश सरकार के काश्तकारी कानून लागू करने से कुछ राहत मिली है। हालांकि, 1859 के अधिनियम X के जरिये, काश्तकार अपने पेशेगत अधिकारों को लेकर ज्यादा दृढ़ हो गए हैं, जो स्थायी रूप स्थिर हिन्दू जमींदारों के लिए सीधे तौर पर अस्थिर होने की चुनौतियां दरपेश कर रहा था। काश्तकार वर्ग के इस निश्चयात्मक रुख को धार्मिक पुनरुत्थानवादी अभियानों जैसे, फ़ारिज़ी आंदोलन के युक्तिसंगत तालमेल द्बारा चिह्नित किया था, जिसने इस तनातनी की साम्प्रदायिक मुठभेड़ों परिणति को लगभग अपरिहार्य करार दिया था। 

उस समय के ब़ड़े अखबारों ने जैसे हिन्दू पैट्रियाट ने भी साम्प्रदायिक रुख अख्तियार कर लिया था। एक वीकली पत्रिका सोम प्रकाश ने जमींदारों के संदेह के बारे में लिखा था, “मुसलमान काश्तकार जमींदारों की चिंता के विषय हो गए हैं। वे रेंट चुकाने के लिए जल्दी तैयार नहीं होते और इससे बचने के लिए हर बहाना बनाते हैं।”

यह वर्गीय दृढ़ता मुसलमानों के पुनर्विन्यास से बनी सामाजिक-पहचान से भी अंतर्गुम्फित है। ग्रामीण इलाकों के ज्यादा से ज्यादा मुसलमानों ने खुद को एक ‘बंगाली’ कहे जाने के बजाय फारसी-अरबी नामों को अख्तियार करते हुए ‘मुस्लिम’ कहने लगे थे। संयुक्त रूप से, खुद को एक विदेशी विरासत का दावा करने का व्यापक अभियान था, खास कर यह हिन्दू के सर्वव्यापक तथा मुसलमानों में अशरफिया दोनों ही जातियों के सार्वत्रिक होने के दावे तथा उनकी निंदा को नकारने के मकसद से था। अशरफिया मुसलमान ग्रामीण मुसलमानों को निचली जातियों को कन्वर्टेड कह कर उनकी निंदा करते हैं। 1891 की जनगणना में, बहुत सारे मुस्लिमों ने अपने नाम के आगे ‘ शेख’ जोड़ लिया है, जिससे 1872 की जनगणना में उनकी आबादी 1.5 फीसद से बढ़ कर 99.1 फीसद हो गई, यह ग्रामीण क्षेत्रों के गरीब हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदायों के साझा सामाजिक समन्वय से प्रस्थान था।

विगत वर्षों में, जब प्रतिनिधिक राजनीति ने, यद्यपि साम्प्रदायिक बक्से में सजाई हुई, एक व्यापक बाना धारण किया तो कांग्रेस भी इससे पैदा हुए साम्प्रदायिक ज्वार को नहीं रोक सकी, जो उसका ठोस वर्गीय धार था। बंगाल काश्तकारी अधिनियम 1928 से प्रेरित हो कर मुसलमानों ने किसान प्रजा पार्टी बनायी थी, जो जमींदार विरोधी नारों के साथ अपने मिजाज में गैर साम्प्रायिक पार्टी थी। बंगाल कांग्रेस में, 1937 के चुनाव के दौरान, फजलुल हक ने जिन्नका की शर्तो को मानने से इनकार कर दिया था, उन्होंने चुनाव पूर्व गठबंधन की मंशा को थाहने के लिए कांग्रेस के पास एक दूत को भेजा था, लेकिन दुर्भाग्य से यह तालमेल कभी नहीं हुआ। बाद में, आजादी के मौके पर बंगाल हिन्दू और मुसलमान आपस में बंट गए थे और एक दूसरे के खून से सने थे, इनमें हताहत होने वाले दोनों समुदायों के लोग बेहद गरीब थे। 

इसकी आधी सदी के बाद पश्चिम बंगाल स्वयं को वैसे ही चट्टान के समीप पाया है, जिससे वह टकरा कर गिर पड़ा था। आने वाला विधानसभा चुनाव निश्चित रूप से अनिश्चित अंत वाला चुनाव होगा। यह हिन्दू और मुसलमान दोनों समुदायों के गरीब तबके के  लिए कठिन परीक्षा होगा। वामदलों के लिए लक्ष्य पहले से तय है, स्पष्ट है। वह है, धोखेबाज तृणमूल कांग्रेस और साम्प्रदायिक भाजपा के खिलाफ गरीबों में वर्गीय एकता को संगठित करना। 

(लेखक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में विश्व इतिहास विभाग में रिसर्च स्कॉलर हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

History of Hindutva in Bengal

West Bengal assembly elections
Hindutva in Bengal
Communalism
BJP in Bengal
TMC
2021 Assembly Elections

Trending

क्या फिर से मंदिर मस्जिद के नाम पर टकराव शुरू होगा?
क्या राजनेताओं को केवल चुनाव के समय रिस्पना की गंदगी नज़र आती है?
बंगाल चुनाव: पांचवां चरण भी हिंसा की ख़बरों की बीच संपन्न, 78 फ़ीसदी से ज़्यादा मतदान
नौकरी देने से पहले योग्यता से ज़्यादा जेंडर देखना संविधान के ख़िलाफ़ है
भाजपा की विभाजनकारी पहचान वाले एजेंडा के कारण उत्तर बंगाल एक खतरनाक रास्ते पर बढ़ सकता है
लेबर कोड में प्रवासी मज़दूरों के लिए निराशा के सिवाय कुछ नहीं

Related Stories

Gyanvapi Masjid
राम पुनियानी
ज्ञानवापी मस्जिद : अनजाने इतिहास में छलांग लगा कर तक़रार पैदा करने की एक और कोशिश
19 April 2021
भारत के लोगों के लिए हाल के कुछ घटनाक्रम चिंताजनक और अहम हैं। इनमें से पहला घटनाक्रम वाराणसी की एक ज़िला अदालत
बंगाल चुनाव: पांचवां चरण भी हिंसा की ख़बरों की बीच संपन्न, 78 फ़ीसदी से ज़्यादा मतदान
न्यूज़क्लिक रिपोर्ट
बंगाल चुनाव: पांचवां चरण भी हिंसा की ख़बरों की बीच संपन्न, 78 फ़ीसदी से ज़्यादा मतदान
17 April 2021
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के पांचवें चरण में 45 सीटों पर 78 फ़ीसदी से अधिक मतदान की ख़बर है। इस दौरान कई जगहों से  हिंसा की ख़बरें आईं।  दक्षिण 24
पश्चिम बंगाल चुनाव: पहाड़ी में स्थानीय संगठनों के निर्णय को निर्देशित करतीं बाध्यताएं
रबींद्रनाथ सिन्हा
पश्चिम बंगाल चुनाव: पहाड़ी में स्थानीय संगठनों के निर्णय को निर्देशित करतीं बाध्यताएं
16 April 2021
कोलकाता : ऐसा मालूम होता है कि दार्जिलिंग पहाड़ी क्षेत्र, जिसमें दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और कुर्सियांग के विधानसभा शामिल हैं, वहाँ

Pagination

  • Next page ››

बाकी खबरें

  • MIgrants
    दित्सा भट्टाचार्य
    प्रवासी श्रमिक बगैर सामाजिक सुरक्षा अथवा स्वास्थ्य सेवा के: एनएचआरसी का अध्ययन
    20 Apr 2021
    ‘अंतरराज्यीय प्रवासी श्रमिकों का अनुभव एक सहायक नीतिगत ढाँचे की ज़रूरत पर ध्यान दिला रहा है। प्रवासी श्रमिकों की इन जटिल समस्याओं का निराकरण करने के लिए केंद्र, राज्य एवं समुदाय आधारित संगठनों द्वारा…
  • Election Commission of India
    संदीप चक्रवर्ती
    बंगाल चुनाव: निर्वाचन आयोग का रेफरी के रूप में आचरण उसकी गरिमा के अनुकूल नहीं
    20 Apr 2021
    निर्वाचन आयोग ने बंगाल में जारी लंबी चुनावी प्रक्रिया में आलोचना के कई कारण दे दिए हैं। अगले तीन चरण बहुत महत्वपूर्ण हैं।
  • library
    अनिल अंशुमन
    ख़ुदाबख़्श खां लाइब्रेरी पर ‘विकास का बुलडोजर‘ रोके बिहार सरकार 
    20 Apr 2021
    ख़ुदाबख़्श खां लाइब्रेरी के प्रति वर्तमान सरकार के उपेक्षापूर्ण रवैये और तथाकथित फ्लाई ओवर निर्माण के नाम पर लाइब्रेरी के वर्तमान अध्ययन कक्ष लॉर्ड कर्ज़न रीडिंग रूम को तोड़ने के सरकारी फरमान के खिलाफ…
  • tunisia
    पीपल्स डिस्पैच
    ट्यूनीशियाई राज्य समाचार एजेंसी टीएपी के विवादास्पद प्रमुख ने विरोध के बाद इस्तीफा दिया
    20 Apr 2021
    देश के पत्रकार संघ ने बाद में घोषणा की कि वह 22 अप्रैल को अपनी पहली हड़ताल की योजना को वापस लेगा और इसके साथ ही सरकार के बारे में समाचारों के बहिष्कार को भी बंद करेगा।
  • corona
    अजय कुमार
    20 बातें जिन्हें कोरोना से लड़ने के लिए अपना लिया जाए तो बेहतर!
    20 Apr 2021
    न लापरवाह रहिए, न एकदम घबराइए। न बीमारी से डरिए, न सरकार से। जहां जब जो ज़रूरी हो वो सवाल पूछिए, वो एहतियात बरतिये।
  • Load More
सब्सक्राइब करें
हमसे जुडे
हमारे बारे में
हमसे संपर्क करें