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कैसे भारतीय माताओं के लिए निर्धारित 84,000 करोड़ रुपयों से उन्हें वंचित रखा गया

पिछले सात वर्षों से मातृत्व लाभ की योजना कुप्रबंधन का शिकार रही है। सरकार को इसमें बाधाएं खड़ी करने और बजट में कटौती करने के बजाय इस महत्वपूर्ण योजना तक कैसे पहुँच बन सके, इस पर फिर से ध्यान देने की जरूरत है।
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प्रतीकात्मक फोटो

केंद्र सरकार ने पिछले सात वर्षों के दौरान लाखों भारतीय महिलाओं को उनके 84,000 करोड़ रूपये के मातृत्व लाभ के क़ानूनी हक से वंचित कर रखा है। 2013 में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम ने महिलाओं के लिए मातृत्व लाभ का प्रावधान तैयार किया था। इस कानून की धारा 4 के अनुसार, प्रत्येक गर्भवती एवं स्तनपान कराने वाली माँ कम से कम 6,000 रूपये मूल्य के पौष्टिक भोजन एवं मातृत्व लाभ की हकदार है, जिसे केंद्र सरकार के द्वारा नियत किश्तों में प्रदान किया जाना निर्धारित किया गया है।

इस क़ानूनी वचनबद्धता को पूरा करने के लिए अतिरिक्त बजटीय आवंटन की आवश्यकता थी। 132 करोड़ आबादी के पूर्वानुमान के साथ, प्रति हजार पर 20 की जन्म दर और 90% कवरेज को ध्यान में रखते हुए, इस योजना के लिए अनुमानित वार्षिक बजट 14,000 करोड़ रूपये का रखा गया, जो कि सकल घरेलू उत्पाद के 0.05% से भी कम बैठता है, और माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य एवं पोषण की रक्षा करने के लिए अनुपातहीन तौर पर बेहद लाभ मुहैय्या कराने में सक्षम हो सकता है।

इसे ध्यान में रखते हुए, सरकार को इस क़ानूनी वचनबद्धता को काफी पहले ही लागू कर देना चाहिए था। भले ही सरकार ने इस योजना को वित्तीय वर्ष 2015-16 में शुरू किया हो, लेकिन अब तक इसके समस्त लाभों को शुरू हो जाना चाहिए था। इस आधार पर देखें तो 2015-16 से लेकर 2021-22 तक पिछले सात वित्तीय वर्षों के दौरान अब तक 98,000 करोड़ रूपये मुहैय्या कराए जाने चाहिए थे। 

हालाँकि, इस क़ानूनी दायित्व पर वास्तविक खर्च से पता चलता है कि जितना पैसा सिर्फ एक साल में खर्च किये जाने की जरूरत थी (14,000 करोड़ रूपये), उतना धन को पिछले सात वर्षों के दौरान खर्च किया गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो, इन सात वर्षों के दौरान भारतीय माताओं को 84,000 करोड़ रुपयों (कुल 98,000 करोड़ रूपये में से 14,000 करोड़ रूपये घटाने पर) से वंचित रखा गया। ये 84,000 करोड़ रूपये औसत वार्षिक व्यय के हिसाब से 12,000 करोड़ रूपये प्रति वर्ष या लगभग 1.5 अरब अमेरिकी डॉलर होते हैं।

इस क़ानूनी पात्रता को अमली जामा पहनाने के लिए जिस खर्च को हमने देखा है उसे मुख्य रूप से 2017 में आरंभ की गई प्रधान मंत्री मातृ वंदन योजना (पीएमएमवीवाई) योजना के तहत किया गया।

इसीलिए, इस क़ानूनी हक़ को लागू करने की तैयारियों के लिए लगभग दो वर्ष खर्च कर देने के बाद भी 2015-16 और 2016-17 के दौरान न के बराबर आवंटन किया गया था। वर्ष 2017-18 में 2,700 करोड़ रूपये आवंटित किये गए थे, लेकिन बाद में बजट अनुमान को बाद में कम कर दिया गया अगले वर्ष इसमें और भी अधिक कटौती कर दी गई 2020-21 में, यह कटौती व्यापक पैमाने पर की गई, 2,500 करोड़ रूपये के बजटीय आवंटन को घटाकर मात्र 1,300 करोड़ रूपये कर दिया गया। 

जब सरकार ने 2017 में पीएमएमवीवाई के लिए विस्तृत दिशानिर्देशों को तैयार किया था, तो इसके द्वारा इस पात्रता के लिए मूल क़ानूनी प्रावधानों की अनदेखी की गई। इसने मातृत्व लाभ पात्रता को पहले जीवित बच्चे तक सीमित कर दिया और फिर क़ानूनी तौर पर अनिवार्य न्यूनतम 6,000 रूपये के बजाय इसे घटाकर 5,000 रूपये कर दिया, जिसका भुगतान तीन किश्तों में किया जाना है। 

इसके अलावा, इस लाभ को हासिल करने की प्रक्रिया को इतना जटिल बना दिया गया कि कई माताओं को इस योजना को हासिल करने में बेहद कठिनाई का सामना करना पड़ा, विशेष रूप से गरीब एवं अल्पशिक्षित वर्गों से सम्बद्ध माताओं को जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत थी। कभी-कभी, उन महिलाओं जिनके बच्चों का जन्म घर पर हुआ था या जिनके पास आधार कार्ड या अन्य जरुरी दस्तावेज नहीं थे, उन्हें इन लाभों से वंचित कर दिया गया था। इस प्रावधान को हासिल करने के लिए कई लंबे- लंबे फार्मों को भरना पड़ता है, और इतना ही नहीं बल्कि एमसीपी (जच्चा-बच्चा सुरक्षा) कार्ड, माँ और पिता का आधार कार्ड, बैंक पासबुक, और बैंक अकाउंट को आधार से लिंक करने जैसे दस्तावेजों की आवश्यकता पड़ती है। यहाँ तक कि यदि दस्तावेजों में छोटी सी भी विसंगतियाँ पाई गईं तो उसके कारण बड़े पैमाने पर भुगतान करने से इंकार कर दिया गया है। मातृत्व लाभों को हासिल करने के लिए माँ का आवेदन आंगनबाड़ी कार्यकर्ता जैसे स्थानीय कर्मचारियों पर निर्भर करता है। यहाँ पर सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि जटिलताओं वाले मामलों पर वे अपना कितना समय खर्च करती हैं। 

यहाँ तक कि सारे प्रयासों के बावजूद, भुगतान के लिए ऑनलाइन आवेदन कई कारकों के कारण ख़ारिज या त्रुटियाँ बताकर वापिस किये जा सकते हैं। या, भले ही आवेदन मंजूर कर लिया गया हो, लेकिन इसके बावजूद भुगतान में देरी हो सकती है। कई बार तो गलत खाते में पैसा जमा हो जाता है। इस प्रकार की गलतियों में सुधार करना एक और चुनौती है।

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के मातृत्व लाभ घटक को लागू करने के दौरान कई अन्याय हुए हैं जिन्हें दूर करने के लिए तत्काल सुधारात्मक उपायों को अपनाये जाने की आवश्यकता है। मनमाने तरीके से सिर्फ पहले जीवित बच्चे तक इस योजना को सीमित रखने को हटाकर इसे सभी जन्मों के हक में किया जाना चाहिए। सरकार को 6,000 रूपये की राशि को मनमाने तरीके से घटाकर 5,000 रूपये कर देने वाले फैसले वापस लेना चाहिए। याद रखें कि 6,000 रुपया कानून के द्वारा अनिवार्य न्यूनतम भुगतान है और इस लाभ के मूल्य को बनाये रखने के लिए मुद्रास्फीति के साथ इसमें संशोधन करते रहने की आवश्यकता है। यह वह राशि है जिसे आठ साल पहले निर्धारित किया गया था और इसमें उर्ध्वगामी सुधार लंबे समय से देय है। यह प्रावधान कम से कम 18,000 करोड़ रूपये के वार्षिक बजट की मांग करता है और माताओं और बच्चों के लिए स्वास्थ्य लाभ को ध्यान में रखते हुए यह पूरी तरह से यथोचित है। 

इस प्रकार की महत्वपूर्ण योजना के लाभों को हासिल करने के लिए इसे एक सरल प्रकिया के माध्यम से उपलब्ध कराया जाना चाहिए, और भारत को विशेष रूप से आधार कार्ड और बैंक खातों से लिंक किये जाने की आवश्यकता से परे बने रहने की जरूरत है। इस बात पर मुख्य जोर दिया जाना चाहिए कि इन लाभों की उपलब्धता को सुनिश्चित किया जा सके, न कि उन लोगों की राह में बाधाएं खड़ी की जाएँ जिनको इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। 

लेखक कैंपेन टू सेव अर्थ नाऊ के मानद संयोजक हैं। उनकी हालिया पुस्तकों में प्लेनेट इन पेरिल और मैन ओवर मशीन शामिल हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।

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