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EXCLUSIVE: पूर्वांचल में बीजेपी के खांचे में कितने फिट साबित होंगे सुभासपा के मुखिया ओमप्रकाश राजभर?

"ओमप्रकाश राजभर को पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि वो भाजपा के साथ क्यों गए और क्यों बैरंग लौट आए? इसी तरह सपा के साथ क्यों गए और उनका उस पार्टी से मोहभंग क्यों हो गया। अब दोबारा इनके अंदर भाजपा प्रेम जागने की वजह क्या है? "
Om Prakash Rajbhar

पूर्वांचल की सियासत में हमेशा चर्चा में रहने वाले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के मुखिया ओमप्रकाश राजभर ने अपने पुत्र की शादी में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के दिग्गज नेताओं का जमघट लगाकर उन अटकलों को जन्म दे दिया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में वह सत्तारूढ़ दल के साथ तालमेल कर सकते हैं। इसके बाद से ओमप्रकाश के धुर विरोधी माने जाने वाले राजभर समाज के कद्दावर नेता एवं काबीना मंत्री अनिल राजभर के सुर बदल गए हैं। ओमप्रकाश को बीजेपी के करीब लाने में पुल का काम कर रहे हैं यूपी के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, बृजेश पाठक और परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह। राजभर की राह में सबसे बड़े रोड़ा हैं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, जिन्हें लगता है कि पूर्वांचल की सियासत में ओमप्रकाश सिर्फ खोटे सिक्के साबित होंगे। अब इनके पास न तो वोटबैंक है और न ही विचारधारा की ताकत।

वाराणसी में ओमप्रकाश राजभर के बेटे अरुण राजभर की शादी के दावतनामे पर बीजेपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य, प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी, कई मंत्री, सांसद और विधायक पहुंचे तो कहा जाने लगा कि सत्तारूढ़ दल और ओमप्रकाश के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलने लगी है। बीजेपी के कुछ नेता भी यह सुर अलापने लगे कि पूर्वांचल में सियासी आधार को और मजबूत बनाने के लिए राजभर का साथ जरूरी है। हालांकि टीकाकारों का मानना है कि अगले लोकसभा चुनाव में बीजेपी अगर ओमप्रकाश राजभर के साथ समझौता करती है तो राजभर अपने सिंबल पर एक भी सीट जीत पाएंगे, यकीनी तौर पर यह कह पाना बेहद मुश्किल है।

यूपी में साल 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ओमप्रकाश राजभर से समझौता किया था। चुनाव जीतने के बाद राजभर यूपी सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाए गए, लेकिन विवादित बयानबाजी के चलते मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को उन्हें बाहर का रास्ता दिखाना पड़ा। लगातार दो बरस तक वो बीजेपी को कोसते रहे और उसके खिलाफ बयानबाजी करते रहे। तल्खी इतनी बढ़ी कि पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने राज्य की 39 सीटों पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए, लेकिन किसी भी प्रत्याशी को जीत के करीब भी नहीं पहुंचा सके। किसी सीट पर सुभासपा को 35-40 हजार से ज्यादा वोट नहीं मिले।

कैसे बढ़ा ओमप्रकाश का क़द

बनारस के सारनाथ स्थित महाराजा सुहेलदेव राजभर पार्क में करीब 22 साल पहले सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी का गठन किया गया था। इससे पहले साल 1981 में ओमप्रकाश राजभर कांशीराम से जुड़े और वहीं से उन्होंने सियासत का ककहरा सीखा। सियासत में आने से पहले वह बनारस में सिंधोरा से फूलपुर तक भाड़े की जीप चलाया करते थे। राजभर को कांशीराम के पास पहुंचाने का श्रेय बसपा के वरिष्ठ नेता जगन्नाथ कुशवाहा को जाता है। कुशवाहा ने उन्हें गाड़ी चलाने व पार्टी का प्रचार करने के लिए अपने साथ जोड़ा और बाद में कांशीराम एवं मायावती के करीब पहुंचाया। साल 1996 में बसपा ने उन्हें वाराणसी का जिलाध्यक्ष बनाया।

भदोही जिले का नाम संत रविदास नगर किए जाने पर ओमप्रकाश और तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के बीच वैचारिक मतभेद उभरे। साल 2001 में उन्होंने बसपा को अलविदा कह दिया और वह सोनेलाल पटेल की पार्टी अपना दल के साथ जुड़ गए। सोनेलाल से भी उनके वैचारिक मतभेद उभरे और वो वहां भी नहीं टिक पाए। फिर उन्होंने सुभासपा बनाई और खुद उसके मुखिया बन बैठे।

सुभासपा के गठन के बाद ओमप्रकाश ने राजभर समाज के लोगों को लामबंद करना शुरू किया। वह यूपी और बिहार में राजभरों का सबसे ताकतवर नेता बनना चाहते थे। दोनों राज्यों में सुभासपा हर चुनाव लड़ती रही। साल 2004 के लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी यूपी की 14 और बिहार की एक सीट पर मैदान में उतरी। उसे कुल 2,75,267 (0.07) फीसदी वोट मिले। बिहार की एक सीट पर सुभासपा को सिर्फ 16,639 वोट (0.06 फीसदी) पर संतोष करना पड़ा। यूपी में साल 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश राजभर ने 97 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और उन्हें 4,91,347 (0.94) वोट मिले। साल 2009 में लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपना दल से समझौता किया तो उन्हें 3,19,307 वोट मिले। साल 2010 में बिहार विधानसभा चुनाव में उन्होंने छह प्रत्याशी खड़ा किए और सुभासपा प्रत्याशियों को सिर्फ 15,347 वोट मिले।

यूपी में साल 2012 के विधानसभा चुनाव में वह मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के साथ तालमेल करके चुनाव लड़े। कौमी एकता दल दो सीटों पर चुनाव जीत गई, लेकिन राजभर की पार्टी सुभासपा को 52 सीटों पर पर सिर्फ 4,77,330 वोट मिल पाए। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने 13 सीटों पर अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे तो सुभासपा को सिर्फ 1,18,947 वोट मिले। ओमप्रकाश खुद देवरिया की सलेमपुर सीट से चुनाव मैदान में उतरे और उन्हें सिर्फ 66,068 वोटों पर संतोष करना पड़ा। इनकी पार्टी के सभी प्रत्याशी अपनी जमानत गंवा बैठे।

लगातार हार का सामना कर रहे ओमप्रकाश ने बाद में बसपा की तर्ज पर सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लेना शुरू किया। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बीजेपी के साथ समझौता किया। गठबंधन में इन्हें राज्य की आठ सीटें मिलीं और चार सीटों पर सुभासपा चुनाव जीत गई। ओमप्रकाश राजभर जहूराबाद से विजयी हुए तो उनके तीन विधायक रामानंद बौद्ध-रामकोला, त्रिवेणी राम-जखनिया और कैलाशनाथ सोनकर ने अजगरा से बाजी मारी। इस चुनाव में सुभासपा को 6,07,911 वोट मिले। इसके बाद बीजेपी ने ओमप्रकाश को कैबिनेट मंत्री बना दिया। बीजेपी के साथ उनकी खटपट तब शुरू हुई जब उन्होंने बलिया, गाजीपुर, भदोही आदि जिलों में अपने हिसाब से अफसरों की तैनाती की डिमांड शुरू की। सीएम योगी और ओमप्रकाश के बीच यहीं से तनातनी का दौर शुरू हुआ, जो बाद में उनकी बर्खास्तगी की वजह बनी। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में कमल और छड़ी की लड़ाई ही दोनों के अलग होने का कारण बनी।

बाद में ओमप्रकाश ने गोरखपुर, कुशीनगर, संत कबीर नगर, महराजगंज, देवरिया, सलेमपुर, बलिया, घोसी, गाजीपुर, चंदौली, श्रावस्ती, गोंडा, डुमरियागंज, बस्ती, बांसगांव, लालगंज, आजमगढ़, लखनऊ, वाराणसी, मोहनलालगंज, धौरहरा, सीतापुर, रायबरेली, अमेठी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बांदा, फतेहपुर, फूलपुर, इलाहाबाद, बाराबंकी, फैजाबाद, अंबेडकरनगर, कैसरगंज, जौनपुर, मछलीशहर, चंदौली, भदोही, मिर्जापुर, रॉबर्ट्सगंज आदि सीटों पर अपना उम्मीदावार मैदान में उतारा, जिनमें सात के पर्चे खारिज हो गए। उन्होंने बिहार की 14 सीटों पर भी अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन कामयाब नहीं हो सके।

इसके बाद वो बीजेपी को सबक सिखाने की मुहिम में जुट गए। कुशीनगर, देवरिया, सलेमपुर, बलिया, घोसी, गाजीपुर, चंदौली, भदोही में वह लगातार जनसभाएं करते रहे। बाद में उन्होंने सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव से हाथ मिला लिया।

साल 2022 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अखिलेश से 12 सुरक्षित और चार अन्य सामान्य सीटों की डिमांड की। लेकिन सपा ने उन्हें इससे भी ज़्यादा 18 सीटें दे दी, लेकिन सिर्फ छह सीटों पर ही सुभासपा को जीत मिली। जखनिया के विधायक बेदीराम को छोड़कर अब कोई जनप्रतिनिधि ओमप्रकाश राजभर के पाले में नहीं खड़ा है। सब के सब समाजवादी पार्टी के साथ हैं।

राजभर का दावा कितना सच

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के मुखिया ओमप्रकाश राजभर यूपी में राजभर वोटरों की तादाद 12 फीसदी और पूर्वांचल में 22 फीसदी बताते हैं। वह दावा करते हैं, "राजभर समुदाय के लोग लोकसभा की करीब दो दर्जन सीटों को प्रभावित करते हैं, जिनमें घोसी, बलिया, चंदौली, सलेमपुर, गाजीपुर, देवरिया, आजमगढ़, लालगंज, अंबेडकरनगर, मछलीशहर, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर, भदोही प्रमुख हैं। इन सीटों पर राजभर समुदाय की आबादी 50 हजार से ढाई लाख के बीच है।"

नेपथ्य में देखें तो राजभर समाज पहले बसपा के ज्यादा करीब था। सुखदेव राजभर, राम अचल राजभर, रमाशंकर राजभर सरीखे नेताओं को बसपा पहली पांत में बैठाया करती थी। इससे बसपा को काफी मजबूती मिली और राजभर समुदाय के लोग मायावती के साथ तनकर खड़े हो गए। जब बीजेपी, सपा, बसपा ने ओमप्रकाश को तवज्जो नहीं दी तो उन्होंने राजभर समुदाय को सुभासपा के पीले झंडे के नीचे लामबंद करने के लिए पृथक पूर्वांचल राज्य, पिछड़ों को अति पिछड़ों को अनुसूचित जाति मैं शामिल करने और अनुसूचित जाति का कोटा बढ़ाने की डिमांड शुरू कर दी। साथ ही यह भी करना शुरू कर दिया, "ओबीसी आरक्षण का लाभ सिर्फ यादव और कुर्मी समुदाय को ही मिल पाया है। मौर्या-कुशवाहा, राजभर, चौहान, प्रजापति, पाल, नाई, गोंड, केवट, मल्लाह, गुप्ता, चौरसिया, लोहार, अंसारी, जुलाहा, धनिया की सभी दलों ने अनदेखी की। इसी तरह एससी आरक्षण का लाभ चमार, धुसिया, जाटव को मिला, लेकिन मुसहर, बांसफोर, धोबी, सोनकर, दुसाध, कोल, पासी, खटिक, नट को हमेशा हाशिए पर रखा गया।"

कुछ सालों से सुभासपा ओबीसी आरक्षण को पिछड़ा, अति पिछड़ा और सर्वाधिक पिछड़ा में बांटकर उनकी संख्या के अनुसार आरक्षण की मांग उठा रही है। इसी तरह राजभर स्नातकोत्तर तक मुफ्त शिक्षा, पंचायत चुनाव की तरह लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कराने के अलावा प्राथमिक विद्यालय स्तर से तकनीकी शिक्षा शुरू करने, सच्चर कमेटी व रंगनाथ मिश्र कमेटी की रिपोर्ट को लागू करने, हर महीने सभी वोटरों को पांच हजार पेंशन देने की मांग प्रमुखता से उठाते रहे हैं, लेकिन इनकी मुहिम की धार अब भोथरी होती जा रही है। इसकी बड़ी वजह यह समझी जाती है कि पहले वो पहले दरी बिछाकर आंदोलन किया करते थे, अब वह लग्जरी गाड़ियों में घूमते दिखते हैं और महंगे होटलों में ठहरते हैं।

न्याय के दर्शन से दूर ओमप्रकाश

पत्रकार और विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, " सामाजिक न्याय का जुमला उछालकर जातीय समूहों को गोलबंद करने वाले ओमप्रकाश राजभर का सामाजिक न्याय के दर्शन से दूर-दूर का कोई लेना नहीं है। इनकी समूची राजनीति सौदेबाज की तिकड़म पर आधारित है। एक ऐसी तिकड़म जिसमें वह अपने समाज के उत्थान के नाम पर खुद को लड़ते हुए दिखाते हैं, लेकिन सचाई इसके ठीक उलट है। सियासत में वो सिर्फ अपने परिवार की भलाई के लिए अपने सामाज का इस्ताल करते हैं। इनकी राजनीति से न तो राजभर समाज में राजनीतिक चेतना पैदा हुई है और न ही वो अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मजबूत संकल्प बना पाए है।"

"अगर बीजेपी फिर से ओमप्रकाश राजभर के प्रति दिलचस्पी दिखा रही है तो उसके पीछे सामाजिक न्याय का दर्शन नहीं, बल्कि 2024 में पूर्वांचल की कुछ अदद लोकसभा सीटों का सियासी समीकरण साधना है। यही स्थिति ओमप्रकाश राजभर की भी है। इन्हें तो पहले यह स्पष्ट करना चाहिए कि वो भाजपा के साथ क्यों गए और क्यों बैरंग लौट आए? इसी तरह सपा के साथ क्यों गए और उनका उस पार्टी से मोहभंग क्यों हो गया। अब दोबारा इनके अंदर भाजपा प्रेम जागने की वजह क्या है? हमें लगता है कि वो अपने बेटों को भले ही विधायक नहीं बना सके, लेकिन अबकी अपने किसी बेटे को संसद में जरूर पहुंचा देना चाहते हैं। इन्हें राजभर समाज का वोट तो चाहिए, लेकिन इस समाज का कोई दूसरा बड़ा नेता नहीं चाहिए। ये अवसरवादी लोग हैं जो सत्ता के गलियारों में पहुंचने के लिए अपने समाज का इस्तेमाल करते हैं। जब राजभर समाज मुश्किल में फंसता है तो वो कहीं नजर नहीं आते हैं।"

"राजभर का सामाजिक न्याय का नारा अपने परिवार के लिए मलाई काटने के लिए है। कुछ जुमले ये एक सांस में उछालते हैं, ताकि उनकी बिरादरी के लोग उन पर लट्टू हो जाएं। लेकिन ऐसे नारे वक्त के साथ दफन हो जाया करते हैं। कुछ साल पहले इसी तरह के जुमले बसपा सुप्रीमो मायावती भी उछाला करती थी, जो वक्त के साथ अपनी चमक खो बैठे। जिन जुमलों और सोशल इंजीनिरिंग के दम पर मायावती सत्ता में आई उनकी आज क्या हैसियत है, हर किसी को पता है। राजभर बसपा से दांव-पेच सीखकर निकले हैं और उन्हें भी शायद एहसास हो कि देर-सबेर उनकी सियासी स्थिति भी मायावती जैसी होने वाली है। इसलिए वो छटपटा रहे हैं और ऐन-केन-प्रकारेण भाजपा को लुभाने में जुटे हैं। राजभर कोई मौलिक चिंतक नहीं है। ये सियासी मुनाफे के लिए समय-समय पर कुछ लच्छेदार बातें करते हैं। लेकिन उसमें न कोई दर्शन दिखता है और न ही समाजिक उत्थान की कोई चिंता-पीड़ा। जब तक आप मनुवाद पर हमला नहीं करेंगे, तब तक सामाजिक न्याय की जमीन तैयार नहीं होगी। इस मोर्चे पर राजभर का नजरिया ढुलमुल नजर आता है।"

छीज रही ओपी की ताक़त

सुभासपा मुखिया ओमप्रकाश राजभर के साथ पिछले 17 सालों तक उनके सबसे करीबी और सलाहकार रहे शशि प्रकाश सिंह (चार सालों तक सुभासपा के प्रवक्ता भी रहे) अब उनका साथ छोड़ चुके हैं। न्यूज़क्लिक ने उनसे विस्तार से बात की तो उन्होंने राजभर की सियासत परत दर परत खोलकर रख दी।

वह कहते हैं, "ओमप्रकाश नहीं चाहते कि राजभर समुदाय का कोई दूसरा नेता उनके मुकाबले सियासत में उभरे। उन्हें सबसे ज्यादा छटपटाहट अपने बेटे अरविंद राजभर और अरुण राजभर को सियासत में जमाने की है। बनारस की जिस सीट पर राजभर वोटरों की तादाद सबसे ज्यादा है वहां बीजेपी के अनिल राजभर के मुकाबले अपने बेटे को पिछला विधानसभा चुनाव नहीं जिता सके। इस बार वह बीजेपी के साथ तालमेल करने के लिए बेचैन हैं। हाल ही में योगी आदित्यनाथ बनारस के सर्किट हाउस में ठहरे तो राजभर भी वहां पहुंच गए। योगी से उनकी मुलाकात भले ही नहीं हुई, लेकिन उनके बेटे अरविंद राजभर ने मीडिया में यह बात फैला दी कि दोनों के बीच बंद कमरे में करीब आधे घंटे तक गुफ्तगू हुई।"

"कड़वा सच यह है कि ओमप्रकाश के पास अब वोट बैंक नहीं रह गया है। राजभर समुदाय के लोगों का उनसे मोहभंग हो गया है, क्योंकि उन्हें यह पता चल गया है कि वो उनके वोटों के सौदागर हैं। पिछले एक दशक में कोई ऐसा अवसर नहीं आया जब राजभर समुदाय के हितों के लिए ओमप्रकाश कभी तनकर खड़े दिखे हों। उनके साथ गिने-चुने लोग रह गए हैं, तभी तो बनारस की शिवपुर सीट पर 18 हजार राजभर वोटों में से सिर्फ पांच हजार का वोट ही ले पाए। लोकसभा की बात करें तो पिछले चुनाव में उन्हें बलिया सीट पर करीब 30 हजार और घोसी में सिर्फ 32 हजार वोटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि दोनों सीटें सुभासपा की गढ़ मानी जाती रही हैं। चंदौली सीट पर भी उन्हें करीब 18 हजार और गाजीपुर में 22 हजार वोट मिले। इसके बाद इनका ग्राफ गिरता गया। पहले वो बनारस में आते थे तो उनके साथ गाड़ियों का बड़ा काफिला होता था। भीड़ उमड़ती थी और जलवा देखने लायक होता था और अब वो आते हैं और चले जाते हैं, पर कोई जानता तक नहीं है। मौजूदा समय में सुभासपा के पास गैर राजभर जातियों का एक भी वोट नहीं है। इसलिए सीएम योगी उन्हें अपने साथ जोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।"

राजभर के सिपहसलार रहे शशि प्रकाश सिंह यह भी दावा करते हैं, "यूपी में हाल ही में निकाय चुनाव हुआ तो सुभासपा ने पूर्वांचल की ज्यादातर सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे, लेकिन उनका कहीं भी खाता नहीं खुला। उसे कहीं दूसरा-तीसरा स्थान भी नहीं मिला। राजभरों के गढ़ में भी वो बुरी तरह चुनाव हार गए। उन्हें चौथे-पांचवें स्थान संतोष करना पड़ा। राजभर समुदाय के लोग अच्छी तरह समझ गए हैं कि ओमप्रकाश उनके मसीहा नहीं, सिर्फ जुमलेबाज हैं। वह सिर्फ नारे गढ़ना और उछालना जानते हैं। खुद चार-पांच गाड़ियों के काफिले के साथ चलते हैं और खुद को गरीबों का मसीहा बताते हैं। यूपी की सियासत में जो हश्र बसपा की मायवाती का होने वाला है, वैसा ही ओमप्रकाश का भी होगा।"

"राजभर को अब कोई भी पार्टी अपने साथ जोड़ने के लिए तैयार नहीं है, क्योंकि सभी को मालूम है कि वो जिसकी थाली में खाते हैं उसमें छेद जरूर करते हैं। वह भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा और अपना दल (सोनेलाल) के साथ जुड़े तो इन दलों के साथ दगाबाजी करने से बाज नहीं आए। बड़े दलों का साथ पकड़ना और फिर उन्हें गाली देना इनकी पुरानी फितरत है। साल 2017 से पहले इन्होंने कांग्रेस से टिकट मांगा और पैसा भी। पैसा नहीं मिला तो साथ छोड़ दिया। फिर कई छोटे दलों को मिलाकर एकता मंच बनाया और ऐन वक्त पर उन्हें भी छोड़ दिया। साल 2017 में बीजेपी से गठबंधन हुआ तो तय हुआ कि वो मुख्तार के खिलाफ चुनाव लड़ेंगे, मौका आया तो खुद जहूराबाद चुनाव लड़ने चले गए और बाहुबली मुख्तार अंसारी से अंदरूनी तालमेल बनाकर अपने ही प्रत्याशी महेंद्र को चुनाव हरवा दिया।"

"धोखेबाज़ नेता हैं राजभर"

शशि प्रताप ऐलानिया तौर पर कहते हैं कि पूर्वांचल की सियासत में ओमप्रकाश सबसे बड़े धोखेबाज और झूठे आदमी हैं। राजभर वोटरों का झूठा आंकड़ा गिनाकर वो बड़े दलों को अर्दब में लेने की कोशिश करते हैं। सच यह है कि सिर्फ घोसी, गाजीपुर, चंदौली और बलिया में क्रमशः 01 लाख, 65 हजार, 64 हजार, 50 हजार वोटर हैं। राजभर के गिना देने भर से उनकी बिरादरी के वोटर बढ़ जाएंगे, ऐसा नहीं है। पूर्वांचल के मिर्जापुर, इलाहाबाद, फैजाबाद और बस्ती मंडलों में राजभर वोटर नहीं के बराबर हैं, जबकि वहां वो अपना भारी जनाधार गिनाते रहे हैं। पूर्वांचल में इनसे ज्यादा तो प्रजापति समुदाय के वोटर हैं। इस समुदाय के वोटरों की तादाद 3.9 फीसदी है, जबकि राजभर 1.5 फीसदी से ज्यादा नहीं हैं। पूर्वांचल में बीजेपी के साथ ओबीसी की जातियों में सिर्फ पटेल ही नहीं, मौर्य-कुशवाहा, प्रजापति, मल्लाह, बिंद, केवट, सोनकर हैं तो सपा के साथ यादव, पाल, मुसलमान। मुफ्त आवास और राशन के चलते जाटव को छोड़कर मैक्सिमम दलित बीजेपी के पाले में खड़े दिखते हैं।"

शशि प्रकाश कहते हैं, "आगामी लोकसभा चुनाव में ओमप्रकाश अगर अपने बूते पर चुनाव लड़ेंगे तो किसी भी सीट पर सुभासपा 20 हजार से ज्यादा वोट हासिल नहीं कर पाएगी। इसीलिए वह बीजेपी में जाने के लिए लालायित हैं और अंदरखाने चर्चा यह है कि सीएम योगी इन्हें कोई अवसर नहीं देना चाहते। इनकी पैरोकारी उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, केशव मौर्य और परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह इसलिए कर रहे हैं, क्योंकि इन तीनों नेताओं का खेमा योगी से इतर है। राजभर की अवसरवादिता को देखते हुए सपा, कांग्रेस और बसपा फिलहाल उनसे जुड़ने के लिए तैयार नहीं है। लोकसभा चुनाव आते-आते अगर भाजपा की हालत डंवाडोल हुई तो वह राजभर के साथ सिर्फ घोसी सीट पर समझौता कर सकती है। यह सीट बसपा के पास है, जिसके सांसद अतुल राय एक संगीन मामले में पिछले सवा चार सालों से जेल में बंद हैं। ओमप्रकाश चाहते हैं कि उनके दोनों बेटे किसी तरह से संसद में पहुंच जाएं। इसीलिए वो दो सीटों पर बीजेपी से समझौता करने के लिए सियासी गणित फिट करने में जुटे हैं। हमें लगता है कि अबकी बीजेपी से तालमेल हुआ तो वह सिर्फ एक सीट पर अपने कमल सिंबल पर चुनाव लड़ने के लिए कहेगी। अपने बेटों को जिताने के लिए वह मना नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि सुभासपा की अंदरूनी स्थित डंवाडोल हो चुकी है।"

सियासत संभावनाओं का गणित: अरुण राजभर

इन पूरी राजनीतिक चर्चाओं पर सुभासपा सुप्रीमो ओमप्रकाश राजभर से बात करने की कोशिश की गई, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई। अलबत्ता इस मसले पर उनके पुत्र अरुण राजभर से विस्तार से बात हुई। अरुण राजभर पूर्वांचल की सियासत को नए तरीके से देखते हैं। वह मीडिया से कहते हैं, "सियासत संभावनाओं का गणित होती है। सियासत में कोई किसी का दोस्त और कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है। परिस्थितियां राजनीति में लोगों को एकजुट कर देती हैं और वह कब बदल जाएं कुछ नहीं कहा जा सकता है। वोट के लिए सब दोस्त बन जाते हैं। वोट जिसके पास ज्यादा होता है उसकी सबको जरूरत पड़ती है। जिसको जरूरत होगी, वह हमें अपने साथ रखेगा। हमारी किसी दल अथवा किसी नेता से कोई दुश्मनी नहीं है। हम मुखर तब होते हैं जब राजभर समाज का अहित होता है। पिछड़ी जातियों के बड़े नेता अति पिछड़े नेताओं को लीडर बनने नहीं देना चाहते। वो चाहते हैं कि अति पिछड़े हमेशा पैदल रहें और हर जगह फटे जूते में दिखें। फटे कपड़े पहने और फैशनेबल चश्मा भी नहीं लगाएं। सिर्फ बोरा पहनकर घूमें। शायद उन्हें पता नहीं है कि दिल्ली का रास्ता पूर्वांचल से होकर ही जाता है। वक्त की नजाकत यह है कि विपक्षी दल लामबंद हो तब हमसे बात करेंगे।"

क्यों कमज़ोर हुई सुभासपा

पूर्वांचल की राजनीति को गहराई से समझने वाले पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "यूपी के पूर्वी अंचल में मौर्य-कुशवाहा, पटेल-कुर्मी, यादव, निषाद, राजभर, प्रजापति आदि जातियों की बिसात पर ही सारे सियासी दांव खेले जाते हैं। बीजेपी को आगे बढ़ाने में जातिवादी पार्टियों का बड़ा हाथ है। ये पिछड़ों और दलितों को गोलबंद नहीं होने दे रहे हैं। राजभर ने मुख्तार अंसारी के भरोसे पिछला चुनाव जीता था। वो जब मुसीबत में फंसे तो उन्हें सांप सूंघ गया और उनके मसले पर चुप्पी साध ली। बीजेपी भले ही मुख्तार के पीछे पड़ी है, लेकिन हर कोई जानता है कि पूर्वांचल की राजनीति में सवर्ण जातियों के तिलिस्म को उसी शख्स ने तोड़ा है। कितनी अजीब बात है कि यूपी में ठाकुर माफियाओं पर एक्शन नहीं हो रहा है, चाहे वो किसी दल में क्यों न हों? फिलहाल सिर्फ दबंग अल्पसंख्यक नेताओं को ही टारगेट किया जा रहा है।"

राजीव यह भी कहते हैं, "लगता है कि इस बार राजभर का तिलिस्म टूटेगा। कोई भी सियासी दल उनसे तालमेल करने के लिए आगे नहीं आएगा। वो बीजेपी में जाने के लिए भले ही छटपटा रहे हैं और जोड़तोड़ कर रहे हैं, लेकिन पार्टी हाईकमान उन्हें कोई सिग्नल ही नहीं दे रहा है। ये अपनी करतूतों के चलते भाजपा के खांचे में कभी फिट नहीं हो सकते। सच यह है कि राजभर दलितों-पिछड़ों को छोड़कर सामंतवादी सोच की गिरफ्त में आ गए हैं। लोकलुभावन जुमले सुनाकर मीडिया में छा जाना एक अलग बात है और वोट हासिल करना दूसरी बात। जिस सपा को राजभर ने छोड़ा है वह पिछड़ों को रिझाने के लिए पिछड़ों की जनगणना कराने का कार्ड खेलने लगी है। यह कार्ड हिन्दू कार्ड से बड़ा है। बसपा की तरह सुभासपा भी बुरी तरह कमजोर हुई है और सिर्फ ओमप्रकाश की इमेज से कोई लोकसभा सीट नहीं जीती जा सकती है। जब-जब बड़ी पार्टियां छोटे दलों को अपने साथ जोड़कर चुनाव में जाती हैं तो उन्हें इसका फायदा मिलता है, लेकिन बाद में वो उनके लिए चुनौती बन जाते हैं। बीजेपी नेताओं की राजभर के साथ मुलाकातें यह बता रही हैं कि इस समय बीजेपी भी किसी चुनावी विवशता से गुज़र रही है।"

पत्रकार देवेश पांडेय कहते हैं, "यूपी की राजनीति में छोटे दलों की स्थिति कमोबेश ओमप्रकाश राजभर और निषाद पार्टी के डॉ. संजय निषाद जैसी ही है। जन अधिकार पार्टी के बाबू सिंह कुशवाहा, जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) के संजय चौहान, पीस पार्टी के डा. अयूब (पीस पार्टी) आदि दलों के नेताओं को भाजपा ने अब हाशिये पर ला दिया है। जातीय आधार पर अपनी बिरादरी को गोलबंद कर सियासत में अपनी दखल बढ़ाने का ख्वाब पाले बैठे छोटे दलों को बीजेपी अब आजादी के साथ खड़ा नहीं होने देना चाहती है। भाजपा को पता है कि इन दलों के खड़ा होने से उनकी सियासत खतरे में पड़ जाएगी। बीजेपी समेत सभी बड़े दल इन्हें टिकट तो देते हैं, लेकिन ज्यादातर सीटों पर उनके प्रत्याशियों को अपने सिंबल पर ही चुनाव लड़ाते हैं। सुभासपा का बड़े दलों के साथ जुड़ना और टूटना उसकी नियति बन गई है। फिलहाल उसके अंदर स्वतंत्र हैसियत बनाने की छटपटाहट साफ-साफ परिलक्षित होती है।"

बदल सकती है पूर्वांचल की सियासत

राजभर फैक्टर से इतर देखें तो पूर्वांचल की सियासत में अबकी कई नए मोड़ देखने को मिल सकते हैं। माना जा रहा है कि बीजेपी इस बार चंदौली के सांसद एवं कैबिनेट मंत्री महेंद्र पांडेय को शायद रिपीट नहीं करेगी। चुनाव से पहले उन्हें किसी सूबे का राज्यपाल बनाया जा सकता है अथवा संगठन में कोई अहम जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। पिछले चुनाव में इलाहाबाद के फूलपुर सीट पर बीजेपी के कौशलेंद्र सिंह पटेल चुनाव हार गए थे। समाजवादी पार्टी अबकी फूलपुर सीट जदयू के नीतीश कुमार के लिए छोड़ सकती है। सियासी हलके में चर्चा है कि पूर्वांचल में कांग्रेस के इकलौते वजनदार नेता अजय राय को बीजेपी गाजीपुर लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ाना चाहती है। पिछले चुनाव में मुख्तार अंसारी के भाई अफजाल अंसारी इस सीट पर चुनाव जीते थे और एक मामले में सजा के बाद उनकी सदस्यता चली गई थी।

हाल ही में अजय राय के भाई अवधेश राय की हत्या के मामले में नामजद अफजाल के छोटे भाई मुख्तार अंसारी को कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि तभी से बीजेपी और उनके बीच खिचड़ी पक रही है। अजय राय मुख्तार के धुर विरोधी रहे हैं। बीजेपी को लगता है कि उप-चुनाव में सिर्फ अजय राय ही गाजीपुर सीट से जीत सकते हैं। पिछले दो चुनाव में वह पीएम नरेंद्र मोदी को टक्कर देने के लिए मैदान में उतरे थे। इनके गाजीपुर चले जाने से जहां कांग्रेस कमजोर होगी, वहीं इस कांग्रेस के पास मोदी के मुकाबले मैदान में उतरने के लिए कोई दिग्गज कांग्रेसी नेता बचेगा ही नहीं। मनोज सिन्हा के जम्मू कश्मीर के राज्यपाल बनने के बाद गाजीपुर में बीजेपी के पास कोई दमदार भूमिहार चेहरा नहीं बचा है।

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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