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मजबूत सरकार से हाहाकारः मजबूर सरकार की दरकार

उत्तर भारत में दलित आंदोलन के प्रणेता कांशीराम की एक बात बहुत याद आती है। वे कहा करते थे कि हमें देश में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए। क्योंकि मजबूर सरकार जनता के लिए जवाबदेह होती है और मजबूत सरकार अहंकार में डूबी होती है।
मजबूत सरकार से हाहाकारः मजबूर सरकार की दरकार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चल रही मौजूदा (एनडीए नहीं भाजपा) सरकार के सात साल पूरे होने पर बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक और उत्तर भारत में दलित आंदोलन के प्रणेता कांशीराम की एक बात बहुत याद आती है। वे कहा करते थे कि हमें देश में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए। क्योंकि मजबूर सरकार जनता के लिए जवाबदेह होती है और मजबूत सरकार अहंकार में डूबी होती है। मजबूत सरकार को सिर्फ अपनी छवि की चिंता रहती है और वह विपक्ष के दमन का कार्यक्रम बनाती रहती है जबकि मजबूर सरकार को अपने अस्तित्व की चिंता रहती है इसलिए वह सदैव अपने सहयोगी गुटों के साथ विपक्ष का आदर करते हुए जनता के लिए काम करती है। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत जैसे असमानता वाले समाज में वास्तविक सामाजिक परिवर्तन तभी हो सकता है जब एक मजबूर सरकार रहे। आज एक मजबूत सरकार के कार्यकाल में कोरोना जैसी महामारी से मचे हाहाकार के दौर में यह तेजी से महसूस किया जा रहा है कि न तो अच्छे दिन आए और न ही सबका साथ और सबका विकास हुआ। यानी न खुदा ही मिला न बिसाले सनम।

अगर हम ध्यान से देखें तो बीसवीं सदी का आखिरी दशक और इक्कीसवीं सदी का पहला दशक मजबूर सरकारों का  रहा है। संयोग से इसी दौरान भारत में और विशेषकर उत्तर भारत में बड़े बदलाव लाने वाले राजनीतिक आंदोलन हुए। इसी दौरान भारत का औद्योगिक और आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित विकास हुआ। इसी दौरान भारत का राजनीतिक ढांचा वास्तविक अर्थों में संघीय बना और केंद्र की राजनीति की डोर दिल्ली से हटकर राज्यों के हाथों में गई। इसी दौरान भारतीय न्यायपालिका ने अपनी स्वायत्तता का खुलकर प्रदर्शन किया और उसके कई आदेश और फैसले कभी पर्यावरण आंदोलन, कभी स्त्री आंदोलन, कभी मानवाधिकार आंदोलन के पक्ष में आए। न्यायपालिका ने राज्यों से लेकर केंद्र तक की सरकारों को जवाबदेह बनाने के लिए और भ्रष्टाचार रोकने के लिए कई जांच के आदेश दिए।

सबसे बड़ी बात यह है कि इसी दौरान न्यायपालिका ने एसपी गुप्ता यानी जजों के तबादले के मामले में न्यायाधीशों के नियुक्ति को कार्यपालिका से स्वायत्त रहने और कालेजियम बनाने वाला फैसला दिया। लेकिन आज मजबूत सरकार के दौर में सुप्रीम कोर्ट ने एक नहीं पांच पांच बड़े फैसले सत्तारूढ़ दल के पक्ष में दिए और जनता के मानवाधिकार के हित में एक भी महत्वपूर्ण फैसला नहीं दिया। अयोध्या, सबरीमाला, रफाल, तीन तलाक और कर्नाटक के विधायकों के दल बदल संबंधी ऐसे निर्णय थे जिसने भारतीय न्यायपालिका की साख को बड़ा बट्टा लगाया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को इन फैसलों के तत्काल बाद राज्यसभा भेजने से न्यायपालिका की छवि और भी धूमिल हुई है। जबकि कश्मीर में लंबे समय तक पाबंदी के बावजूद वहां से दायर सैकड़ों बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं पर ध्यान न देकर न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों की हिफाजत की अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ा है।

गौर करने लायक बात है कि जब इस देश में मजबूर सरकारों का दौर रहा तब भारतीय मीडिया को अपनी स्वायत्तता दिखाने और समाज की जीवंत बहसों को उठाने का मौका मिला। चिंता की बात यह नहीं है कि इसी दौरान देश में तमाम बड़े घोटाले हुए बल्कि खुशी की बात यह है कि भारत के मीडिया ने आगे बढ़कर उन्हें उजागर किया और उस दौरान ऐसा करते हुए बहुत कम पत्रकार ऐसे रहे जिन्हें उत्पीड़ित किया गया। बल्कि वे समाज के नायक बने। एक तरह से कहा भी जाता है कि भारतीय पत्रकारिता न सिर्फ विपक्ष की भूमिका निभा रही है बल्कि वह हमारी राजनीति और समाज के आगे चेतना की मशाल लेकर चल रही है।

भारत के प्रमुख राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी कहा करते थे कि नब्बे के दशक में मंडल, मंदिर और वैश्वीकरण के मुद्दे पर भारत के भाषायी अखबारों ने जितनी बढ़िया बहस चलाई वैसी बहस तो अकादमिक जगत में नहीं चली। यह जीवंतता आज शायद ही भाषाई अखबारों में बची हो। थोड़ी बहुत अच्छाई और सच के प्रति आग्रह गुजरात के अखबार संदेश और दिव्य भास्कर (दैनिक भास्कर समूह के गुजराती संस्करण) में जरूर देखी जा सकती है, जिसने आगे बढ़कर कोविड-19 से होने वाली मौतों की तथ्यात्मक रिपोर्टिंग की।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के सात साल होने की उपलब्धियों के तौर पर मन की बात के 77वें एपिसोड में जिन बातों को खास उपलब्धि के तौर पर बताया है वे हैं ग्रामीण विद्युतीकरण का ढांचा खड़ा करना, वित्तीय समावेशिता निर्मित करना, घरों में पानी पहुंचाना और स्वास्थ्य का बीमा करना। इसी के साथ उन्होंने कहा है हमने पूर्वोत्तर से लेकर कश्मीर तक अमन कायम कर दिया है। उन्होंने इस साल किसानों की ओर से की गई अनाज की रिकार्ड उगाही को भी अपनी उपलब्धि के तौर पर पेश किया है। उन्होंने अपनी कोविड से लड़ाई को बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश करते हुए कहा है कि हमने ऑक्सीजन का उत्पादन दस गुना कर दिया है। लोगों की कोविड टेस्टिंग बहुत तेजी से चल रही है। देश भर में 2500 टेस्टिंग लैब बनाए गए हैं और रोजाना 20 लाख टेस्टिंग चल रही है। इसी के साथ उन्होंने डिजिटलाइजेशन को भी अपनी सरकार की बड़ी उपलब्धि बताया है।

लेकिन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर पिछले सात साल में भारत की जो उपलब्धियां रही हैं वे देश की उपलब्धियां नहीं रही हैं। वे उपलब्धियां एक पार्टी और एक नेता की भले रही हों। वह भी लगातार चुनाव जीतते जाने की या जहां नहीं जीते वहां विधायकों को खरीदकर सरकार बनाने की। सरकार के नोटबंदी, जीएसटी और दूसरे किस्म के वित्तीय रूप से दुस्साहसी और दिखावटी फैसलों के कारण जीडीपी को दो प्रतिशत के नुकसान की भविष्यवाणी पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने की थी और उनकी बात सही साबित हुई। इस बारे में रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर रघुराम राजन ने भी सचेत किया था लेकिन उनकी अनसुनी का परिणाम विकास दर में गिरावट के रूप में सामने आया।

एनएसओ के अनुमान के अनुसार 2019-20 में जीडीपी 4 प्रतिशत की दर से बढ़ी लेकिन 2020-21 के दौरान यह 8 प्रतिशत की दर से गिरी। यह वर्ष महामारी का है। अभी यह अनुमान लगाना कठिन है कि महामारी के अगले वर्ष में विकास दर स्थिर रहेगी या बढ़ेगी। एक आकलन के अनुसार 2019 से 2022 तक तीन साल में जीडीपी पर 20 लाख करोड़ के नुकसान होने का अनुमान है।

सेंटर फार मानिटरिंग इंडियन इकानमी के अनुसार 26 मई 2021 को भारत में बेरोजगारी दर 11.17 प्रतिशत थी। 2020-21 में एक करोड़ वेतनभोगी लोगों की नौकरियां गई हैं। उल्टी दिशा में होने वाले पलायन के कारण ग्रामीण क्षेत्र पर 90 लाख नौकरियों का दबाव बना है।

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दावा किया जा सकता है कि एक मजबूत सरकार देश की सीमाओं की बेहतर सुरक्षा कर सकती है तो मौजूदा सरकार का रिकार्ड तो उस बारे में भी संदेहास्पद रहा है। पुलवामा में केंद्रीय सुरक्षा बलों के काफिले पर हमले के बाद जो सर्जिकल स्ट्राइक हुई और जिसके आधार पर 2019 का चुनाव जीता गया उसकी सत्यता संदिग्ध है। लद्दाख में चीन के साथ जो भी खींचतान मची है उसमें भी सरकार का दावा संदिग्ध है। एक ओर सरकार के ही तमाम पूर्व सैन्य अधिकारी और राजनयिक दावा कर रहे हैं कि चीन हमारी जमीन के टुकड़े टुकड़े काट रहा है तो दूसरी ओर सरकार कह रही है कि न कोई किसी की जमीन में आया न कोई गया।

भारत की एक मजबूत सरकार ने सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लोकतंत्र को कितनी क्षति पहुंचाई है इस बात को तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं रेखांकित कर रही हैं। अमेरिका की निगरानी संस्था यूएस वाचडाग का कहना है कि भारत अब एक आजाद देश से आंशिक रूप से आजाद (फ्री से पार्शियली फ्री) मुल्क की श्रेणी में आ गया है। संस्था का कहना है कि लोकतांत्रिक वातावरण के इस ह्रास को यहां के अल्पसंख्यक, विपक्षी नेता, पत्रकार और अकामिक लोग सभी महसूस कर रहे हैं। इसी तरह 2019 में इकानामिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट ने भी कहा था कि 2014 से 2019 तक भारत डेमोक्रेसी इंडेक्स पर 27 वें रैंक से खिसक कर 41 वें रैंक पर आ गया है। दिक्कत यह है कि सरकार के छवि निर्माता पत्रकार इसे अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा बता रहे हैं और कह रहे हैं कि जो लोग 2014 में मोदी के आगमन की आलोचना कर रहे थे वे ही अब भी भारत के ढलान की बात कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि ऐसे लोग न तो तथ्यों के आधार पर बात करते हैं और न ही तटस्थता के आधार पर। वे एक पूर्वाग्रह का माहौल बनाते हैं और अपने को राष्ट्र से और आलोचक को परराष्ट्र से जोड़ देते हैं।

दिक्कत यह है कि सरकार के अगुआ, उसे चलाने वाले नौकरशाह और दूसरे नीति निर्माता तथ्यों और आंकड़ों पर बात करने की बजाय अपने आईटी सेल की एक लाइन की आक्रामक टिप्पणियों पर बात करते हैं। यह महज संयोग नहीं है कि कोविड-19 महामारी के बारे में जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी न्यूयार्क टाइम्स के इस अनुमान को ट्वीट करते हैं कि भारत में महामारी से मरने वाले लोगों का आंकड़ा तीन लाख नहीं छह लाख से ऊपर है तो स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जैसे शालीन कहे जाने वाले नेता भी उन्हें गिद्ध कहने लगते हैं। इसी तरह जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बैठक का बायकाट करती हैं तो सारे केंद्रीय मंत्री तथ्यों और स्थितियों का संज्ञान लिए बिना आईटी सेल की आक्रामक भाषा में ट्वीट करने लगते हैं और उसे संघीय ढांचे का अपमान बताते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस डिजिटलाइजेशन को अपनी उपलब्धि बताते हैं वही दरअसल इस सरकार की सबसे बड़ी कमजोरी और समाज के लिए सबसे ज्यादा घातक हथियार साबित हो रहा है। इसीलिए यह महज संयोग नहीं है कि व्हाटसऐप जैसी कंपनी कह रही है कि भारत में अभिव्यक्ति की आजादी को खतरा है।

जनवरी और जून 2020 के बीच सरकार ने ट्विटर से कुछ टिप्पणीकारों की पहचान बताने के लिए 2367 आवेदन किए थे। आज सरकार सत्तारूढ़ दल के एक प्रवक्ता के टूलकिट संबंधी विवादित टिप्पणी को लेकर ट्विटर के दफ्तर पर पुलिस भेजने का सरकार का फैसला यही बताता है कि वह डिजिटलाइजेशन का इस्तेमाल पूर्वाग्रह वाले एजेंडा को चलाने के लिए करना चाहती है। इसीलिए सूचना प्रौद्योगिकी नियमावली लागू करने की जल्दी है। इसी स्थिति को जार्ज आरवेल ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास 1984 में-- बिग ब्रदर इज वाचिंग यू—जैसे चर्चित मुहावरे से वर्णित किया है। इसी को जुआस नोवा हरारी अपनी पुस्तक  ‘होमो डियस’ में डाटा रिलीजन और `ट्वेंटीवन लेशन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ में डाटा डिक्टेटरशिप कहते हैं।

आजाद भारत का अनुभव यही कहता है कि मजबूत सरकारों ने मीडिया और सूचनाओं को अपने हित में और जनता के विरुद्ध नियंत्रित करने का प्रयास किया है। वे इसी प्रकार दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाओं को नियंत्रित करती हैं। हालांकि बाद में वे स्वयं इसका खामियाजा भुगतती हैं। पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे लोकतांत्रिक नेता भी नेशनल मीडिया को अपने पक्ष में बखूबी इस्तेमाल करते थे। ऐसे में मीडिया में नेहरू की आलोचना वर्जित सी थी। एक तरह से इस पर राष्ट्रीय आम सहमति थी। अगर क्षेत्रीय मीडिया करता भी था तो उसे उतनी अहमियत नहीं मिलती थी। इंदिरा गांधी ने तो आपातकाल में प्रेस की आजादी का दमन किया ही लेकिन उनके बेटे और उदार समझे जाने वाले उत्तराधिकारी राजीव गांधी के कार्यकाल में भी एक बार बिहार प्रेस विधेयक लाया गया तो दूसरी बार वही विधेयक राष्ट्रीय स्तर पर आया। मौजूदा सरकार की तमाम कोशिशें भी सूचना के प्रवाह को एकतरफा ढंग से नियंत्रित करने का ही है।

लोकतंत्र का अनुभव और उसका सैद्धांतिक पक्ष यही कहता है कि उसका भला सूचनाओं को दबाने से नहीं बल्कि उसके मुक्त प्रवाह से होता है। अगर अमेरिकी राष्ट्रपति को यह नहीं मालूम चलेगा कि वहां महामारी से कितने लोग मर रहे हैं और अस्पतालों में किस बात की कमी है और कौन सी दवाई और टीके की उपलब्धता कितनी है तो वह कैसे इंतजाम करेगा। सूचनाओं के मुक्त प्रवाह को आधार बनाकर ही नोबेल अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने कहा था कि अब अकाल (और महामारी) की स्थितियां नहीं बनेंगी क्योंकि सूचनाओं और संचार के प्रवाह के चलते एक जगह से दूसरी जगह मदद पहुंच जाएगी। लेकिन मजबूत सरकारों का इरादा सूचनाओं के मुक्त प्रवाह पर कार्रवाई करने की बजाय उसका खंडन करने का रहता है। यही वजह है कि तमाम चेतावनियों की अनसुनी की गई है और कोविड की दूसरी लहर ने भारत में कहर बरपाया।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 18 जून 1940 को पूना की डेकन सभा की ओर से रानाडे, गांधी और जिन्ना पर आयोजित व्याख्यान में कहा था कि महान नेता न तो लोगों को अपनी गंभीरता के बारे में जागरूक करते हैं और न ही बोलते हैं। किसी भी नेता को उसके नैतिक गुण ही उसे महान बनाते हैं। किसी को महान बनाने के लिए गंभीरता और बौद्धिकता ही काफी नहीं है। उस नेता में नैतिकता होनी बहुत जरूरी है। मौजूदा नेतृत्व की नैतिकता निरंतर संदिग्ध साबित हो रही है। इसलिए उसकी महानता का दावा खोखला लगता है।

मौजूदा सरकार के सात साल होने पर कहा जा सकता है कि भारत का संवेदनशील और सोचने समझने वाला तबका इस बात के लिए पछता रहा है कि जनता ने उसे लगातार दो बार मजबूत सरकार दी लेकिन उससे न तो अच्छे दिन आ सके और न ही सबका साथ सबका विकास हो सका। न ही लोकतंत्र मजबूत हो सका और न ही अर्थव्यवस्था का विकास हो पाया। उसे जनता और विपक्ष के पास जाना चाहिए इस फरियाद को लेकर कि कांशीराम की उस बात पर गौर किया जाए कि देश में मजबूत नहीं मजबूर सरकार होनी चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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