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लॉकडाउन ने कैसे छीना बच्चों के मुँह से पोषक आहार

लॉकडाउन के दौरान आंगनवाड़ी केंद्रों और स्कूलों में भोजन वितरण में काफ़ी कमी आई क्योंकि मोदी सरकार ने इनको जारी रखने के लिए कोई योजना नहीं बनाई थी। 
Mid-day Meal

भारत सरकार द्वारा संचालित दुनिया के दो सबसे बड़े बाल पोषण कार्यक्रम – जिन्हे आईसीडीएस या इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम और मिड-डे मील (MDM) कार्यक्रम कहा जाता है - को इस वर्ष मार्च और अप्रैल के माह में एक बड़ा झटका लगा, क्योंकि 24 मार्च की मध्य रात्रि से अचानक शुरू हुए बेतरतीब लॉकडाउन के चलते उन्हे खाद्यान्न का आवंटन नहीं किया गया था। 

मिड-डे मील कार्यक्रम के लिए खाद्यान्न (चावल, गेहूं और मोटा अनाज) का उठाव 335,000 टन से घटकर मात्र 109 टन रह गया था, यह ऐसा कार्यक्रम है जिसके माध्यम से वर्तमान में कक्षा 1-8 में पढ़ने वाले अनुमानित 12 करोड़ बच्चों को खाना खिलाया जाता है। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में भी देखा जा सकता है, मिड-डे मील का उठाव पिछले साल की समान अवधि में घटकर लगभग एक तिहाई रह गया था।

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आईसीडीएस या इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम के तहत आंगनवाड़ी केंद्रों द्वारा संचालित पोषण कार्यक्रम के लिए, खाद्यान्न का उठाव पिछले साल (मार्च और अप्रैल में) 238,000 टन से घटकर इस साल दो महीनों में केवल 97,000 टन हो गया था। इन आंगनवाड़ी केंद्रों में 0-6 वर्ष आयु वर्ग के लगभग 14 करोड़ बच्चों को खाना खिलाने का अनुमान है। मध्याह्न भोजन गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं और किशोर लड़कियों के लिए भी पूरक पोषण प्रदान करता है, क्योंकों ये दोनों वर्ग अक्सर कुपोषण और एनीमिया से पीड़ित होते हैं।

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खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग द्वारा जारी मासिक फूड ग्रेन बुलेटिन में ऑफटेक यानि खाद्दान्न के उठान का डेटा उपलब्ध है।

भारत में बच्चों को पोषण प्रदान करने के मामले में दोनों कार्यक्रम एक महत्वपूर्ण कड़ी का काम करते हैं, जहां पांच साल से कम उम्र के एक तिहाई से अधिक बच्चे कम वजन के है और उनमें से आधे से अधिक एनीमिया यानि खून की कमी से पीड़ित हैं, जैसा कि पिछले राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) में बताया गया है।

इन बच्चों के लिए पोषण के प्रावधान को नष्ट करने से उनके भविष्य के मानसिक और शारीरिक विकास पर बहुत गंभीर परिणाम पड़े हैं, विशेषकर ऐसे समय में जब उनके माता-पिता भी लॉकडाउन की वजह से अपनी कमाई खो चुके हैं।

आख़िर ग़लती कहाँ हुई  

खाद्यान्न को हमेशा से केंद्रीय पूल से आवंटित किया जाता है, जिस पूल को सरकारी एजेंसियों साल भर खाद्यान्न की खरीद करके स्थापित करती है। इस वर्ष अप्रैल में सरकार के स्टॉक में 570 लाख टन खाद्यान्न आया है। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग के अनुसार मई में इसमें 644 लाख टन अनाज जोड़ा गया है और फिर जून में 834 लाख टन ओर जोड़ा गया है। इतना बड़ा खाद्यान्न भंडार अपने आप में एक रिकॉर्ड हैं।

इस खाद्यान्न स्टॉक के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली या पीडीएस के माध्यम से देश की खाद्य आवश्यकता को पूरा करने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता हैं और साथ ही कुछ महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाएं जैसे आईसीडीएस और मिड-डे=मील को भी अनाज उपलब्ध कराया जाता है।

एक बार जब केंद्र सरकार खाद्यान्न का आवंटन कर देती है, उसके बाद इसे विभिन्न राज्यों में पहुँचाया जाता है, उनके पास जिनके पास अपने स्टॉक का अपेक्षित भंडार नहीं होता है। फिर इसे विभिन्न चैनलों के माध्यम से हजारों राशन की दुकानों, आंगनवाड़ियों और स्कूलों को वितरित किया जाता है।

मार्च में लॉकडाउन की अचानक घोषणा के बाद केंद्र सरकार ने उपभोक्ताओं को खाद्यान्न उपलब्ध कराने की सभी कोशिशों को जटिल बना दिया था और वह इसके वितरण के लिए कोई भी बेहतरीन योजना बनाने में विफल रही। चूंकि रेलवे को भी बंद कर दिया गया था और सड़क परिवहन पर रोक थी,  इसलिए अनाज को तय स्थानों पर नहीं भेजा जा सकता था। केंद्र सरकार की ओर से इस बारे में कोई स्पष्ट निर्देश जारी नहीं किए गए थे कि इन कार्यक्रमों को कैसे चलाया जाएगा, जिसकी वजह से कर्मचारियों के साथ-साथ लाखों बच्चे भी प्रभावित हुए।

योजना से जुड़े श्रमिक भी इससे पीड़ित हुए 

उपेक्षा की इस कहानी में एक दुखद मोड़ ये है, कि 25 लाख से अधिक आंगनवाड़ी मजदूर और सहायकों तथा 29 लाख से अधिक कुक/हेल्पर्स को गंभीर तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा जो इन दो बड़े कार्यक्रमों में वास्तविक रूप से जमीनी स्तर काम कर रहे थे। उनमें से कई को अन्य काम थमा दिए गए थे - जैसे सर्वेक्षण, क्वारंटाईन सेंटर चलाना, लॉकडाउन के उपायों को लागू करने में मदद करना आदि।

उनकी कमाई को भी एक बड़ा झटका लगा, इसके अलावा उनके खूंखार वायरस के संपर्क में आने भी खतरा बढ़ा। इनमें से अधिकांश ने बिना पर्याप्त सुरक्षात्मक गियर के महामारी से संबंधित कार्यों को किया। कई लोगों को अपनी अल्प मजदूरी भी नहीं मिली और इन कठोर परिस्थितियों में ज़िंदा रहने का संघर्ष करना पड़ रहा हैं।

ग़लतियों की लंबी फेहरिस्त  

यह जानबूझकर की गई गलती या चूक, ऐसी लंबी सूची में शामिल हो जाती है जिनमें जमीनी वास्तविकताओं की उपेक्षा करते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने नाटकीय ढंग से "सदमे और विस्मय" से भरा लॉकडाउन लागू किया था।

इस सूची में अन्य गलतियों में उस तथ्य की भी घोर उपेक्षा शामिल है कि लोकडाउन के समय  रबी की फसल खेतों में खड़ी थी (यानि लॉकडाउन के तीन दिन बाद कटाई की अनुमति दी गई थी), दूर शहरों में कमाई के लिए गए प्रवासी श्रमिकों की दुर्दशा हुई और वे वहां फस गए और इनमें कई को मजबूर होकर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने पर मजबूर होना पड़ा,  श्रमिकों, दोनों औद्योगिक और कृषि की उपेक्षा हुई जो अचानक आय से वंचित हो गए थे और भुखमरी का सामना कर रहे थे, सेवा क्षेत्र के कर्मचारियों की विशाल सेना की भी उपेक्षा हुई, मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में जहां उन्होने अपनी नौकरी और कमाई दोनों को खो दिया था, नियमित स्वास्थ्य सेवाओं को रोक देना जिसमें टीकाकरण कार्यक्रम आदि शामिल है ऊपर से ग्रामीण नौकरी गारंटी योजना (MGNREGS) आदि को भी थाम दिया गया था।

लेकिन इस तरह की आवश्यक सेवाओं में कटौती, जैसे कि शिशु पोषण कार्यक्रम और एमडीएम कार्यक्रम बच्चों की पूरी पीढ़ी के लिए एक आपूरणीय क्षति है। हालाँकि सरकार ने कागज पर घोषित किया है कि बच्चों के घरों में भोजन या सूखा राशन उपलब्ध कराया जाएगा, लेकिन ज्यादातर राज्य सरकारें केरल और कुछ अन्य अपवादों को छोड़कर ऐसा करने में असमर्थ हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस लेख को भी आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

How the Lockdown Destroyed Children’s Nutrition Programmes

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