सिकुड़ते पोषाहार बजट के त्रासद दुष्प्रभाव
भारत में पोषाहार की स्थिति लगातार चिंता का विषय बनी हुई है। सन 2000 के मध्य में पोषाहार की मांग बढ़ने के अनुपात में खर्च की स्थिति को सुधारने की अल्प अवधि के बाद, इस मद में बजट आवंटन को एक तरह से रोक दिया गया है। अब देश के ज्यादातर हिस्सों में पोषाहार मानकों में भारी गिरावट आई है। इसका सीधा संबंध पोषाहार और स्वास्थ्य की देखभाल के लिए किए जाने वाले खर्च में कमी से है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें चक्र से लिए गए आंकड़े ने, जो 22 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पोषाहार की स्थिति पर केंद्रित हैं, यह खुलासा किया है कि देश के कई भागों में बच्चों में बौनापन, थकान और खून की कमी बढ़ गई है।
भोजन का अधिकार अभियान ने रेखांकित किया है कि 5 साल से कम के 35 फ़ीसदी बच्चे बौनापन के शिकार हैं, 33 फ़ीसदी बच्चों का वजन कम है और 17 फ़ीसदी थकान के शिकार हैं। ये सभी लंबे समय तक कुपोषित रहने के दुष्परिणाम हैं। यह कामगार वर्गों तथा मध्य वर्गों की सबसे निचली पंक्ति की बुनियादी जरूरतों के खर्च में कटौती को परिलक्षित करता है। खासकर, पिछले 6 सालों में जरूरत से कम खर्च करने और बच्चों-किशोरों की स्वास्थ्य जरूरतों के प्रति उपेक्षा की प्रवृत्ति उभरी है। यही पोषाहार कार्यक्रमों ने कमतर प्रदर्शन की वजह है।
पोषाहार के मोर्चे पर समग्र स्थिति कई कारकों के जटिल समुच्चय से प्रभावित होती है, इसके अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा पोषाहार मिशन में उपलब्ध कराई जाने वाली सेवाएं से लेकर, केंद्र द्वारा राज्य को दिए जाने वाले बजट, राज्य के स्वास्थ्य की देखभाल और पोषाहार के मानक, और क्षेत्रों तथा परिवारों की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियां तक शामिल हैं। ये कारक और इनके साथ अन्य कारकों के मिश्रित प्रभावों के कारण देश में पोषाहार का स्तर कोविड-19 वैश्विक महामारी के पहले से ही गिरता रहा है। लॉकडाउन के कारण स्कूलों और आंगनबाड़ी योजनाओं को स्थगित करने पर विवश कर दिया, जिसके चलते आवश्यक सेवाओं के वितरण को नुकसान पहुंचा है।(बच्चों के पोषाहार और विकास पर इसके असर का खुलासा केवल अगले स्वास्थ्य सर्वे में ही हो सकेगा, यद्यपि भूख और पोषाहार से वंचित होने के साक्ष्य तो पहले से ही उपलब्ध हैं।)
विश्व की कुल आबादी का छठा हिस्सा भारत में निवास करती है, लेकिन विश्व में कुपोषण के शिकार बच्चों का एक तिहाई हिस्सा यहीं है। यह एक गंभीर राष्ट्रीय संकट है और इसके साथ ही विश्वव्यापी चिंता का विषय भी। वैश्विक महामारी और इसके ऐहतियात में लाए गए लॉकडाउन ने कुपोषण के संकट को और बढ़ा ही दिया है। लॉकडाउन को तो पूरे विश्व में सर्वाधिक अवरोधक के रूप में जाना गया, जिसने लोगों की आजीविका को ठप कर दिया और लाखों परिवारों के अपने बच्चों को बुनियादी जरूरतों के समर्थन की क्षमता को घटा दिया।
आखिरकार, अदालत को राज्यों को निर्देश देना पड़ा कि वह पोषाहार योजनाओं पर बढ़ती निर्भरता तथा लॉकडाउन के दौरान लोगों के भोजन तक उनकी बुनियादी पहुंच को ध्यान में रखे और राशनकार्ड धारकों के घर तक सूखे खाद्यान्न पहुंचाने की व्यवस्था करे। जहां कहीं भी इस निर्देश का पालन किया गया, वहां शुरुआत में रहे अभावों में बाद में कमी आ गई।
इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि भारत में खाद्यान्न की प्रचुरता है। प्रचुर खाद्यान्न भंडार का मतलब है कि पोषाहार सेवाओं को भी जारी रखा जा सकता है या उसमें गुणात्मक बढ़ोतरी संभव है, खासकर लॉकडाउन जैसे सर्वाधिक अवरोधक वाले चरणों के गुजर जाने के बाद। हालांकि, मुफ्त में कुछ खाद्यान्नों तथा दालों की आपूर्ति करने के साथ सरकार ने पोषाहार योजनाओं को समर्थन देने के बजाय उन्हें घटाने का ही काम किया है। यह भी पिछले नवंबर में रोक दिया है, जबकि इसको आगे भी बढ़ाए जाने की आवश्यकता थी।
फिर 2021-22 का केंद्रीय बजट आया। पोषाहार आवश्यकताओं की बाध्यताओं को देखते हुए अपेक्षा की जा रही थी कि बजट में पोषाहार योजनाओं में राशि वृद्धि होगी, इसके बजाय कुछ योजनाओं में कटौती ही कर दी गई। इन कटौतियों को पिछले कैलेंडर वर्ष और उसके पहले के वित्तीय वर्ष में व्यय में की गई कटौतियों के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में, वित्तीय वर्ष 2020-21 के संशोधित अनुमानों (आरई) को इस वित्तीय वर्ष के वास्तविक आवंटन अथवा बजट अनुमानों (बीई) से तुलना किया जाना है। इसके अलावा, हमें अवश्य ही 2020-21 के बजट अनुमानों तथा वित्तीय वर्ष 2021-22 बजट अनुमानों के साथ तुलना करनी चाहिए।
समेकित बाल विकास परियोजना (आइसीडीएस) (आंगनवाड़ी केंद्रों) के लिए बजट अनुमान 2020-21 में 20,532 करोड़ रुपये था। संशोधित अनुमान 17,252 करोड़ था। इसी तरह, पोषण अभियान के लिए बजट अनुमान में 3,700 करोड़ रुपये था, जिसे संशोधित अनुमान में घटाकर 600 करोड़ रुपये कर दिया गया था।
युवा लड़कियों के लिए सबल योजना में बजट अनुमान 250 करोड़ रुपये रखा गया था, जिसे संशोधित अनुमान में घटाकर 50 करोड़ रुपये कर दिया गया था। राष्ट्रीय पालनाघर (क्रेच) योजना मद में बजट अनुमान 75 करोड़ रुपये था जिसे संशोधित अनुमान में 15 करोड़ कर दिया गया था।
ताजा बजट में इन चारों योजनाओं को पांचवें वित्त आयोग के सुझावों के मुताबिक एक नई योजना “सक्षम आंगनवाड़ी” या मिशन पोषण 2.0 में शामिल कर दिया गया है। इसलिए अब इन चारों योजनाओं के लिए संयुक्त आंकड़े दिए जा रहे हैं। 2020-21 के लिए बजट अनुमानों में, इन चारों योजनाओं में व्यय को एक साथ मिला दिया गया है, जो 18.5 फीसदी होता है और यह इसके पूर्व के वित्तीय वर्ष 2020-21 में इन चारों योजनाओं के बजट अनुमान से काफी कम है।
अब इन चारों योजनाओं में प्रत्येक के लिए अलग से बजट आवंटन के आंकड़े को जुटाना संभव नहीं रहा, क्योंकि केवल उनकी कुल योग के आंकड़े ही मुहैया कराए जा रहे हैं। यह इन योजनाओं हुई प्रगति की निगरानी प्रक्रिया को भी कठिन बनाएगा। हालांकि, किसी भी मानक के लिहाज से सभी मदों में 18.5 फ़ीसदी की कटौती बड़ी मानी जाएगी और अब इसमें बड़ी वृद्धि की आवश्यकता है। इसलिए, हमें दो स्तरों पर कटौती की गई है-पिछले वर्ष के संशोधित अनुमानों की तुलना में बजट अनुमानों में गिरावट हुई है और दोनों वर्षों के बजट अनुमानों में कमी दर्ज की गई है।
केंद्रीय बजट के पहले जारी की गई ऑक्सफैम की असमानता रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकारी स्कूलों के बंद होने से दोपहर भोजन योजना बाधित हुई है। यह स्कीम 1.26 मिलियन (लगभग 13 लाख) स्कूलों के 120 मिलियन (12 करोड़) बच्चों को दोपहर का भोजन कराती है। ऑक्सफैम के सर्वे में पाया गया कि इस स्कीम को अवश्य ही जारी रखने के सर्वोच्च न्यायालय की हिदायत के बावजूद 35 फ़ीसदी बच्चों को दोपहर का भोजन नहीं दिया जाता था। बाकी 65 फ़ीसदी बच्चों में से 8 फ़ीसदी को पका आहार मिलता था, 53 फ़ीसदी को सूखा खाद्यान्न और 4 फ़ीसदी बच्चे को भोजन के बदले पैसे दिए जाते थे। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि इस योजना के लिए संशोधित अनुमान क्या है, बजट के मुताबिक तो बजट अनुमानों के 11,000 करोड़ रुपये की तुलना में 12,900 करोड़ की वृद्धि की गई है। अगले वित्त वर्ष के लिए बजट अनुमान 11,500 करोड़ रुपये रखा गया है। लंबी अवधि के परिप्रेक्ष्य में, भोजन-अधिकार अभियान का आकलन (महंगाई में सालाना 5 फ़ीसदी वृद्धि के अनुमानों के साथ) किया गया है कि वास्तविक मायने में, दोपहर भोजन योजना के लिए आवंटन में 2014-15 से लेकर 2021-22 के बजट अनुमानों में 38 फ़ीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। कुछ बुनियादी अनुमानों के आधार पर, आइसीडीएस के लिए 36 फ़ीसदी की गिरावट का आकलन किया गया है।
अब इन योजनाओं के जरिए बच्चों और महिलाओं को जोड़ा गया है, जिनकी तादाद लगातार बढ़ रही है। इसीलिए, आवंटन राशि में गिरावट और भी भयावह है। 2015-16 में,देश के ग्रामीण क्षेत्रों में, मात्र 48 फ़ीसदी बच्चे और 51 फ़ीसदी गर्भवती महिलाएं (शहरी क्षेत्रों में क्रमशः 40 फ़ीसदी और 36 फ़ीसदी) ही इस योजना के दायरे में आती थीं। अब इसकी पहुंच और घटने की संभावना है। बजट और प्रशासन जवाबदेही केंद्र ने 2021-22 के केंद्रीय बजट अपनी समीक्षा में कहा है कि अनुपूरक पोषाहार कार्यक्रम में 2016 के कुल 10.2 करोड़ लाभान्वितों के बनिस्बत 2020 में 8.6 करोड़ ही रह गए हैं यानी 15 फीसद की गिरावट आई है।
कुछ समय पहले पोषण (POSHAN) पर होने वाले व्यय की समीक्षा की गई थी, जिसमें यह खुलासा हुआ था कि बजट की बड़ी फ़ीसदी रकम मोबाइल फोन खरीदने में खर्च की गई थी। इसका मतलब यह हुआ कि वास्तविक पोषाहार आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वहां कम राशि ही उपलब्ध थी।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अभियान में 2020-21 का बजट अनुमान 2,100 करोड़ रुपयों से घटाकर संशोधित अनुमान में 1,864 करोड़ रुपये कर दिया गया था। उसी वर्ष, श्वेत क्रांति (दूध उत्पादन और उसकी खपत) के लिए बजट अनुमान 1,805 करोड़ रुपये के बजाय संशोधित अनुमान में 1,642 करोड़ रुपये कर दिया गया था। 2021-22 के बजट अनुमान में यह राशि घटाकर 1,177 करोड़ रुपये कर दी गई।
गंभीर आर्थिक संकट के दौरान पोषाहार के लिए बजट आवंटन में गिरावट ने पहले से ही लोगों के व्यापक कष्ट और कठिनाइयों के दौर में इजाफा किया है और इसने बच्चों एवं महिलाओं के स्वास्थ्य एवं कल्याण पर गंभीर और त्रासद असर डाला है।
(भारत डोगरा एक पत्रकार और लेखक हैं। उनकी पुस्तकों में हालिया प्रकाशित ‘प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रन एंड प्लानेट इन पेरल’ भी शामिल है। आलेख में व्यक्त उनके विचार निजी हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें ।
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