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भारतीय राष्ट्र, माओवादी और आदिवासी

भारतीय राष्ट्र को माओवादी प्रभावित इलाक़ों में टकराव/संघर्ष के समाधान की कला सीखने की ज़रूरत है। इसका मतलब है कि आदिवासियों को स्वीकार करना ताकि राष्ट्रीय नीति को बनाने की दिशा मिल सके और सभी पक्ष हिंसा का त्याग कर सके।
भारतीय राष्ट्र, माओवादी और आदिवासी
चित्र सौजन्य: डिफेंस टॉक 

बीजापुर में हाल ही में घटी माओवादी हिंसा की घटना जिसमें 22 जवान मारे गए थे के बाद, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जो कुछ कहा उसमें नया कुछ नहीं था। "माओवादियों के खिलाफ लड़ाई को तेज करने" का मतलब, अधिक हिंसा और अधिक समन्वित तरीके से सुरक्षा बलों का इस्तेमाल हो सकता है। इसका मतलब, उन राज्यों के बीच बेहतर समन्वय भी हो सकता है जहां माओवादी सक्रिय हैं और केंद्र की अधिक सक्रिय भूमिका है, जिसे कि राज्यों के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता है।

इसके अलावा, इसका मतलब यह भी हो सकता है कि सीआरपीएफ और बीएसएफ की जगह  विशेष कार्य बल का इस्तेमाल किया जाए, जैसे कि आंध्र प्रदेश में माओवादियों का शिकार करने के लिए किया गया था, जिसे सेना और वायु सेना की सहायता से पूरा किया जा सकता है। अंतत, इसका मतलब यह भी हो सकता है कि माओवादी खतरे को एक पूर्ण गृहयुद्ध मानना और पारंपरिक युद्ध लड़ा जाएगा, जिसमें हवाई बमबारी भी की जा सकती है जो वर्तमान में चल रहे खोजी अभियान से परे होगा।

राज्य सरकार की संप्रभुता को चुनौती देने वाले सशस्त्र समूहों के खिलाफ बल का प्रयोग करना भारत सरकार की कानूनी शक्तियों के भीतर आता है। माओवादियों के पास प्रशिक्षित दस्ते और उन्नत हथियार भी हैं। हालाँकि, सबसे बड़ी समस्या यह है कि बिना "बड़े" नुकसान के उनसे कैसे लड़ें। माओवादी मिलिशिया के साथ सशस्त्र लड़ाई में स्थानीय नागरिक/आदिवासी आबादी को बड़ा नुकसान होने की संभावना रहेगी।

तथ्य यह है कि आदिवासियों की बड़ी संख्या सक्रिय रूप से या मौन रूप से नक्सलियों का समर्थन करती है। कोई भी सरकार, स्थानीय आदिवासी आबादी को एक तरह से या किसी अन्य तरीके से "निशाना" बनाकर माओवादियों को नहीं "मिटा" सकती है। इसलिए इलाके के तलाशी अभियान दौरान नियमित रूप से यही होता है। सुरक्षा बल, रणनीतिक कारणों या सक्रिय रूप से जानबूझकर ज्यादती करने पर मजबूर हो जाते हैं, साथ ही वे स्थानीय आबादी को भी निशाना बना लेते हैं। पिछले गृहमंत्री पी चिदंबरम की रहनुमाई में सबसे कुख्यात आतंकवाद विरोधी अभियानों में से एक चलाय गया था। इसे ऑपरेशन ग्रीन हंट के नाम से जाना जाता है, और इसके लिए हुकूमत ने एक निजी मिलिशिया यानि सलवा जुडूम का आविष्कार किया था। इसने आदिवासियों के खिलाफ हिंसा को बढ़ावा दिया, उन्हें अपने गांवों से भागने पर मजबूर किया और अंतत उन्हे सरकार द्वारा चलाए जा रहे शिविरों में शरण लेनी पड़ी थी।

सारे सबूतों से पता चलता है कि ये सभी रणनीतियाँ, जो बड़े नुकसान को सही ठहराती हैं, वे माओवादी भर्ती को कई गुना बढ़ा देती हैं। हुकूमत की बेपनाह हिंसा से माओवादियों का जमीनी समर्थन भी बढ़ जाता है। हालाँकि, जो बात आदिवासियों को माओवादियों की तरफ आकर्षित करती वह उनका जमीन से बेदखल होने का खतरा है, जिसमें सरकार और कॉर्पोरेट क्षेत्र वहां दबे खनिज भंडार तक पहुंचने की इच्छा रखते हैं और हमेशा कोशिश करते हैं। आकलन कुछ ये है कि आदिवासी बेल्ट में हजारों करोड़ रुपये के खनिज संसाधन दांव पर लगे हैं।

फिर, पिछली सरकार ने "राष्ट्रीय हित" में खनन को वैध ठहराने के अपने प्रमुख डोमेन का इस्तेमाल किया। ये हुकूमत द्वारा अपनाए गए विकास के मॉडल के बारे में सवाल उठाता है और क्या आदिवासियों को खनन की प्रक्रियाओं को अनुमति देने या इनकार करने का हक़ रहेगा या नहीं। वन अधिकारी और गैर-आदिवासी लोग आदिवासी इलाकों से कुदरती संसाधनों का नियमित दोहन करते हैं, जो केवल तलाशी अभियान में लगे सुरक्षा बलों की कठिनाइयों को बढ़ा देते है। आदिवासियों के स्थानीय समर्थन के बिना, वे माओवादियों के खिलाफ इस "लड़ाई" को जीतने में कामयाब नहीं होंगे।

कुछ समझदार मानवाधिकार समूह माओवाद को एक सामाजिक-आर्थिक समस्या के रूप में मानने का सुझाव देते हैं, न कि कानून-व्यवस्था की समस्या। यह मानना जरूरी है कि माओवादी समूह आदिवासी समर्थन को राजनीतिक रूप से जुटाते हैं, न कि जबरदस्ती या भय के डंडे से। इसलिए, कुछ मानव अधिकार समूह और उनसे जुड़े कार्यकर्ता हिंसा के दुष्चक्र से बाहर निकलने और "शांति वार्ता" का सुझाव देते हैं। वे आदिवासी इलाकों में राजनीति का मतलब वहां प्रशासन के मुद्दों को संबोधित करना, राजनीतिक साधनों, विकास मॉडल और अन्य चिंताओं के बारे में कहते हैं। चिंतित नागरिकों की समिति (जिसे सीसीस के नाम से जाना जाता है) ने 2004 में आंध्र प्रदेश सरकार और माओवादियों के बीच शांति वार्ता आयोजित करने का प्रयास किया था, हालांकि वे इस वार्ता से कुछ भी ठोस समाधान निकालने में नाकामयाब रहे थे।

भारतीय हुकूमत ने इस बात को हमेशा महसूस किया है कि शांति वार्ता माओवादियों के लिए फिर से संगठित होने और कमजोर अवस्था से कुछ राहत पाने का जरिया है। हुकूमत यह भी मानती है कि नागरिक अधिकार कार्यकर्ता शांति वार्ता को आगे बढ़ाते हुए माओवादियों की सहायता करते हैं और सरकार को कार्यवाही करने से रोकते हैं। यही कारण है कि वर्तमान सरकार शहरी नक्सलियों के रूप में उन्हे ब्रांडिंग करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है और ऐसी आवाज़ों को निशाना बना रहे हैं जी इस समस्या का सामाजिक-राजनीतिक समाधान चाहते है। क्या भारतीय हुकूमत को मानवाधिकारों का समर्थन करने वाली आवाजों को निशाना बनाने या उन्हे बदनाम करने से कुछ हासिल होगा जो आज भी माओवादियों से बातचीत कर सकते हैं और हिंसा के चक्र को तोड़ने में मदद कर सकते हैं?

माओवादी समस्या पर भारतीय हुकूमत की नीति में कुछ भी नया नहीं है – बस वह अधिक हिंसा की वकालत करती है और उन समस्याओं का जिक्र करती हैं जिन्हे ऊपर सूचीबद्ध किया जा चुका है। यह भी उल्लेख करने की जरूरत है कि माओवादियों और उनकी विद्रोही रणनीतियों ने हिंसा के चक्र को तेज़ किया है। माओवादी अब उन्नत हथियार का इस्तेमाल करते हैं और उनकी हिंसा पर निर्भरता भी बढ़ रही है – जो अब राजनीतिक गोलबंदी के लिए तैयार नहीं है। इस इस रणनीति ने उनकी आम जनता तक पहुंच को गंभीर रूप से सीमित कर दिया है और रचनात्मकता को भी कम किया है। आंशिक रूप से देखा जाए तो हिंसा पर अधिक जोर माओवादी दर्शन से ही मिलता है जो कहता है कि ताक़त/सत्ता बंदूक की नाली से निकलती है। आंशिक रूप से, यह सोच राज्य सत्ता की लेनिनवादी केंद्रीय सोच से निकलती है।

कोई भी राजनीतिक आंदोलन जो मानता है कि हुकूमत को उखाड़ फेंकना सत्ता पाने का एक वैध तरीका है – चाहे किसी भी किसी भी उद्देश्य से – उस ताक़त को समाज का बड़ा हिस्सा नैतिक ताक़त के रूप में कभी नहीं देख सकता है। हुकूमत को उखाड़ने फेंकने पर विलक्षण जोर, माओवादियों की रचनात्मक क्षमता को बाधित या कमजोर करता है। यही कारण है कि वे धीरे-धीरे समाज के विभिन्न वर्गों का समर्थन खोते जा रहे हैं। उन्हें अब खुद के समर्थन के लिए समाज के सबसे कमजोर हिस्से पर निर्भर होना पड़ता है और इसके जरिए वे अपने औचित्य को साबित करने कि कोशिश करते है। यह माओवादी राजनीतिक कल्पना का केंद्रीय दुष्चक्र है।

मौजूदा चल रहे किसान आंदोलन ने यह साबित किया है कि अहिंसक आंदोलन अभी भी काम कर सकते हैं। उन्होंने यह भी दिखाया है कि किस तरह से जनसमूह को बनाए रखने के लिए कई अन्य छोटे-छोटे संघर्षों को हल करना आंदोलनों की जरूरत होती है - जिनमें जाति और लिंग संबंधी पूर्वाग्रहों से जुड़े मुद्दे शामिल हैं। भारत एक जटिल और विविधतापूर्ण समाज है जिसे नए-नए तरीकों की जरूरत है - न कि यांत्रिक रूप से वर्ग संघर्ष पर विचारों की पुनरावृत्ति करना। हालांकि, भारतीय हुकूमत सोचने से इनकार कर रही हैं, और माओवादी अपनी राजनीतिक रणनीति पर पुनर्विचार करने से इनकार कर रहे हैं। यही कारण है कि लंबे समय तक गतिरोध और जीवन का अनुचित नुकसान हो रहा है। इन हिंसाओं में मरने वालों की बड़ी संख्या आदिवासी और गरीब समुदाय से हैं जिनके नाम पर दोनों तरफ की राजनीतिक ताक़तों में  गतिरोध जारी है।

लेखक दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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