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जब तक ग़रीबों की जेब में पैसा नहीं पहुंचेगा, अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आएगी!

वित्त वर्ष 2021-22 के दूसरे तिमाही की जीडीपी ग्रोथ 8.4% की है। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या भारत की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आई है?
GDP

पिछले कुछ सालों से या यह कह लीजिए कि नरेंद्र मोदी के आने के बाद भारत की अर्थव्यवस्था बीमारी के दौर से गुजर रही है। इसलिए जब भी जीडीपी के आंकड़े प्रकाशित होते हैं, तो लोग झट से यह पूछते हैं कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आई या नहीं? अर्थव्यवस्था ठीक हुई या नहीं?

30 नवंबर को साल 2021-22 के दूसरी तिमाही के जीडीपी के आंकड़े प्रकाशित हुए। तो फिर से यही सवाल सामने खड़ा हुआ कि अर्थव्यवस्था पटरी पर आईं या नहीं? प्रेस इनफॉरमेशन ब्यूरो की साइट पर रिलीज हुई सरकारी विज्ञप्ति बताती है कि साल 2021-22 के दूसरे तिमाही (जुलाई से सितम्बर) की जीडीपी ग्रोथ 8.4% की है। (साल 2011-12 के कीमतों के आधार पर)

थोड़ा सा और सरल तरीके से समझा जाए तो यह कि पिछले साल यानी साल 2020-21 के दूसरी तिमाही के जीडीपी के मुकाबले 2021-22 के दूसरी तिमाही की जीडीपी 8.4% अधिक है। पिछले साल की दूसरी तिमाही में भारत की कुल अर्थव्यवस्था तकरीबन 32.97 लाख रुपए की थी। अब यह बढ़कर 35.73 लाख रुपए की हो गई है। यानी 8.4 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है।

लेकिन यह तो जीडीपी को सरकारी ढंग से पढ़ने का तरीका है। अर्थव्यवस्था पटरी पर पहुंची या नहीं यह समझने के लिए इसे सरकारी ढंग से पढ़ने की बजाय इस तरह से पढ़ना चाहिए जिससे जीडीपी के लिहाज से अर्थव्यवस्था की हालत का ठीक-ठाक अंदाजा लग पाए।

पिछला साल कोरोना महामारी का साल था। काम-धंधा ठप्प था। अर्थव्यवस्था शून्य से भी नीचे चली गई थी। ₹100 की अर्थव्यवस्था में 24 फ़ीसदी की कमी आई थी। अर्थव्यवस्था ₹76 की हो गई थी। अगर इसमें 30 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी होगी तब भी यह ₹100 पर नहीं पहुंचेगी, ₹100 से कम ही रहेगी। इसलिए पिछले साल के मुकाबले इस साल होने वाली बढ़ोतरी को लेकर अर्थव्यवस्था को ढंग से न पढ़ा जा सकता है न ही मापा जा सकता है। ढंग से मापने का सबसे अच्छा तरीका है कि से लंबे समय से मौजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति को मापा जाए? साथ में जीडीपी के जो प्रमुख घटक हैं उनके कुल मूल्य के आधार पर अर्थव्यवस्था को मापने पर अर्थव्यवस्था पटरी पर आईं या नहीं इसका ठीक-ठाक जवाब मिल पाएगा।

वरिष्ठ आर्थिक पत्रकार औनिदों चक्रवर्ती एक छोटे से वीडियो क्लिप के सहारे भारत की अर्थव्यवस्था का ट्रेंड बताते हुए दिखाते हैं कि वित्त वर्ष 2008-09 से औसत निकाला जाए तो दिखता है कि भारत की अर्थव्यवस्था वित्त वर्ष की पहली छमाही में औसतन बढ़ोतरी दर साल 2020 तक 7.2 फ़ीसदी की रही। लेकिन 2020 में भारत की अर्थव्यवस्था कोरोना की वजह से गड्ढे में ढह गई। अब जाकर साल 2021-22 की पहली छमाही के आंकड़ों से लग रहा है कि भारत की अर्थव्यवस्था थोड़ी सी उबरी है। लेकिन अगर 7.2 फ़ीसदी की औसत दर से बढ़ोतरी का आकलन किया जाए तो भारत की अर्थव्यवस्था अब भी 20% कम है। यानी पटरी पर नहीं लौटी है।

भारत की जीडीपी प्रत्येक व्यक्ति के खर्च से मिलकर बनती है। सरकार द्वारा लोगों पर किए गए खर्च से मिलकर बनती है। कारोबारियों के खर्च और निवेश से मिलकर बनती है। निर्यात और आयात के अंतर से मिलकर बनती है। इन सबको जोड़ देने पर भारत की जीडीपी बनती है। यह जीडीपी के प्रमुख घटक होते हैं।

इसके आधार पर देखा जाए तो कोरोना से पहले के वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में लोगों ने तकरीबन 20 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे। लेकिन इस वर्ष की दूसरी तिमाही में यह आंकड़ा तकरीबन एक लाख करोड़ से कम 19 लाख करोड़ रुपए का है। इसी घटक से मिलकर के जीडीपी का तकरीबन 55 फ़ीसदी हिस्सा बनता है। सरल शब्दों में कहा जाए तो लोग अब भी कोरोना से पहले के वित्त वर्ष के मुकाबले कम खर्च कर रहे हैं।

कम खर्च करने का मतलब है कि लोगों के जेब में अब भी कोरोना से पहले के साल से कम पैसा पहुंच रहा है। लोगों के जेब में कम पैसा होने के बेरोजगारी से लेकर के कम आमदनी जैसे ढेर सारे कारण हैं। अगर लोगों की स्थिति ठीक होगी तभी अर्थव्यवस्था की स्थिति ठीक होगी। इस लिहाज से अब भी अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं आई है।

आयात निर्यात के हिसाब से देखा जाए तो भारत में निर्यात की अपेक्षा तकरीबन एक लाख करोड़ अधिक आयात हुआ है। इस दहलीज पर भी स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। आंकड़े कहते हैं कि भारत में महज 1 से 2 फ़ीसदी लोगों की आमदनी महीने में ₹50 हजार से अधिक की है। ऐसे देश में मांग में इजाफा सरकार द्वारा लोगों पर किए गए खर्च पर बहुत अधिक निर्भर करता है। और जीडीपी के आंकड़े बता रहे हैं कि सरकार ने कोरोना से पहले के वर्ष के दूसरे तिमाही में तकरीबन 4 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे। इस बार यह आंकड़ा महज तीन लाख करोड़ रुपए का है। यानी सरकार की तरफ से हवा हवाई कोई भी बात की जाए लेकिन हकीकत में सरकार पहले से भी कम लोगों पर खर्च कर रही है।

केवल कारोबारियों द्वारा अपने बिजनेस पर किए जाने वाले खर्च में पहले की अपेक्षा इजाफा हुआ है। निवेश पहले की अपेक्षा बढा है। यह संकेत धरातल पर तभी अच्छा लगेगा जब इसकी वजह से रोजगार पैदा होंगे और लोगों की जेब में पैसा पहुंचेगा।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट के प्रोफेसर अनिल के सुद ने अपने ट्विटर अकाउंट पर विश्लेषण करते हुए बताया कि वित्तवर्ष 2021-22 के आधे साल के आंकड़े बताते हैं कि अब भी भारत के लोगों का खर्चा और निवेश कोरोना से पहले के वित्त वर्ष के छमाही से कम है। उन क्षेत्रों को जहां से बहुत अधिक रोजगार मिलता है, उनमें सुधार होना जरूरी है। नहीं तो गरीबी बढ़ती रहेगी। लोग गरीबी रेखा के नजदीक और गरीबी रेखा को पार कर गरीब होते रहेंगे। पिछले 4 साल का कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट देखा जाए तो कृषि क्षेत्र की बढ़ोतरी 3.75 फ़ीसदी के हिसाब से हुई है। यही बढ़ोतरी दूसरे अन्य क्षेत्रों के मुकाबले सबसे अच्छी है। नहीं तो विनिर्माण, व्यापार, यातायात और संचार सब की बढ़ोतरी दर शून्य से नीचे चल रही है। सब नेगेटिव दर से बढ़ रहे हैं।

अनिल के सुद कहते हैं कि जिस तरह कि मौजूदा नीतियां और आर्थिक संरचना है, उसके भीतर किसानों को अपना जीवन स्तर बढ़ाने के लिए सही परिवेश नहीं मिलता है। सरकार को चाहिए कि वह कृषि क्षेत्र से जुड़े कामगारों का जीवन स्तर बढ़ाने पर काम करें। विनिर्माण और कंस्ट्रक्शन क्षेत्र बहुत लंबे समय से ढीला ढाला चल रहा है। गिर रहा है। इसे उठाने की जरूरत है। इन क्षेत्रों सहित व्यापार, यातायात और संचार क्षेत्र की बढ़ोतरी से रोजगार बढ़ते हैं। इनका नेगेटिव रहने का मतलब है बेरोजगारी की अवस्था से लड़ने की कोशिश ना करना। कुछ कारपोरेट को वित्तीय मदद और वित्तीय छूट देने से भारत की अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं होगा। जलवायु परिवर्तन, तकनीक और सामाजिक बदलाव को ध्यान में रखते हुए सरकार को ठोस प्लान के हिसाब से चलना चाहिए और गरीबों पर पहले से अधिक खर्च करना चाहिए। तब जाकर अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी।

जीडीपी का विश्लेषण करते समय ध्यान देने वाली बात यही है कि जीडीपी का मतलब कहीं से भी यह नहीं होता है कि आम लोगों के जीवन में हो रहे बदलाव को ढंग से भांप लिया जाए। आम लोगों के जीवन स्तर को देखने के अगर सौ तरीके हैं, तो जीडीपी महज एक तरीका है। यह तरीका भी बता रहा है कि आम लोगों के आर्थिक जीवन में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।

कई अर्थशास्त्री कहते हैं कि केवल कुछ लोगों के अमीर होने से जीडीपी में बहुत बड़ा बदलाव नहीं होगा। वह एक जगह पर आकर अटक जाएगी। यही हो रहा है। अमीर लोग खर्चा करेंगे तो उनका खर्चा ट्रिकल डाउन होते हुए गरीबों तक पहुंचेगा। इससे गरीबों की भी आमदनी बढ़ेगी। यह मॉडल फेल हो चुका है। अमीर लोग चाहे जितना खर्चा कर लें, लेकिन वह गरीबों तक नहीं पहुंचने वाला। उनसे भारत की बहुत बड़ी गरीब आबादी को फायदा नहीं होने वाला। इसलिए सरकार को चाहिए कि वह कुछ अमीरों के अलावा  उस बहुत बड़े असंगठित क्षेत्र पर फोकस करे, जो कृषि क्षेत्र में काम करता है, मजदूरी करता है, दिहाड़ी करता है। बहुत बड़ा मानव संसाधन सरकारी खर्चे के अभाव में बहुत पिछड़ा हुआ है। इस पर खर्चा होगा, तभी अर्थव्यवस्था की गति बढ़ेगी। सरकार चाहे तो एमएससी की लीगल गारंटी देकर अर्थव्यवस्था को सुधारने की अपनी गंभीरता प्रस्तुत कर सकती है।

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