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क्या भारत समलैंगिक विवाह को स्वीकारने के लिए तैयार है?

भारत में भी, हिंदू, मुस्लिम और ईसाई रूढ़िवादियों के बीच इस बाबत सामंजस्य है। इसलिए LGBTQ अधिकारों की लड़ाई लम्बी है।
LGBTQ
फ़ोटो साभार: ट्विटर

समलैंगिकता पर कानून का इतिहास

समय बदल रहा है! 6 सितंबर 2018 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। औपनिवेशिक युग (1861) के IPC की धारा 377 को रद्द कर दिया गया (इस धारा के तहत पुरुषों व महिलाओं के बीच समलैंगिक यौन संबंध और LGBTQ समुदाय के अन्य सदस्यों के बीच समलैंगिक यौन संबंध कानून द्वारा दंडनीय अपराध माना गया था)।

IPC की धारा 377 के तहत कानून ने निर्धारित किया था कि " यदि कोई भी व्यक्ति जो स्वेच्छा से प्रकृति के आदेश के खिलाफ किसी भी पुरुष महिला या जानवर के साथ संभोग करता है" कानून के तहत एक अपराधी होगा। रूढ़िवादी समाज को यह कानून ठीक लगता था।

हालांकि इस कानून के तहत अभियोग और दोषसिद्धि बहुत दुर्लभ थे, यह LGBTQ समुदाय के सिर पर एक तलवार जैसे लटका था। यौन संबंध तो व्यक्तियों के बीच विशुद्ध रूप से व्यक्तिगत मामला है। किसी व्यक्ति की यौनिकता (sexuality)और यौन पसंद (sexual preference) उसका अपना अधिकार है। इसलिए यह अधिकार का प्रश्न या व्यक्तिगत स्वतंत्रता का प्रश्न बनता है, यदि कोई ज़ोर-जबरदस्ती की बात न हो। ज़ाहिरा तौर पर, तब दूसरों को, यहां तक कि राज्य को भी इससे कोई वास्ता नहीं होना चाहिए। लेकिन इसे शयनकक्षों से बाहर लाकर आपराधिक कानून का मामला बनाकर, LGBTQ समुदाय को कठघरे में खड़ा कर दिया गया था। उन्हें भय के माहौल में जीना पड़ा और अपने रिश्तों को छिपाना पड़ा। समाज द्वारा उनके बहिष्कार को कानून ने मजबूत किया।

साथ रहने के लिए उन्हें किराए पर मकान नहीं मिलते और नौकरियों में उनके साथ भेदभाव किया जाता। वे अन्य लोगों जैसे अपना व्यवसाय या पेशा चलाने में दिक्कत झेलते रहे। इस प्रकार कानून में यह प्रावधान भारतीय संविधान द्वारा समानता की गारंटी के खिलाफ था। फिर, यह अमानवीय भी था।

LGBTQ समुदाय ने इस कठोर प्रावधान के खिलाफ आंदोलन किया और कई न्यायविदों, अधिकार कार्यकर्ताओं, मनोवैज्ञानिकों और सांस्कृतिक आधुनिकतावादियों ने इसे असमर्थनीय बताते हुए कानून का विरोध किया। 6 सितंबर 2018 को इस कानून को खत्म करते हुए, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, ( 5-सदस्यीय खंडपीठ के अध्यक्ष) ने कहा: “LGBTQ समुदाय के पास नागरिकों के बराबर मौलिक अधिकार हैं। हर व्यक्ति की पहचान बहुत महत्वपूर्ण होती है और हमें पूर्वाग्रह को खत्म करना होगा, समावेश को गले लगाना होगा और समान अधिकार सुनिश्चित करना होगा।”

पीठ की एक अन्य सदस्य, न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा, और भी अधिक स्पष्ट थीं: "इतिहास समुदाय के सदस्यों को उनके अधिकार सुनिश्चित करने में देरी के लिए माफी मांगता है"। यह संयोग है कि वह पितृसत्तावादी भारतीय समाज में सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नत होने वाली पहली महिला थीं।

आगे और लड़ाई है

लेकिन 6 सितंबर 2018 के फैसले ने LGBTQ अधिकार के मुद्दे को पूरी तरह सुलझाया नहीं। बस समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। कानून के लिए अगला तार्किक कदम होता समलैंगिक संबंधों को विवाह के तहत संस्थागत दर्जा देना और परिवार की तरह रहने के हक को मान्यता देना। लेकिन कानून LGBTQ समुदाय को इससे वंचित करता रहा। विवाह और परिवार की पुरानी परिभाषा आज भी कायम है। सबसे हास्यास्पद बात तो यह है कि विवाह और परिवार को केवल यौन संबंध तक सीमित कर देखा गया है।

इसलिए, जब 20 पूर्व IIT छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट में 2018 का ऐतिहासिक केस जीता, LGBTQ अधिकार कार्यकर्ताओं के एक और समूह ने समलैंगिक विवाह को कानूनी जामा पहनाने हेतु सर्वोच्च न्यायालय में नई याचिका दायर की जिसपर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 5 सदस्यीय बेंच का गठन किया।

RSS की सोच क्या है

लेकिन भाजपा और संघ परिवार के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने नाटकीय रूप से पलटी मारी है। 9 जनवरी 2023 को RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र और पाञ्चजन्य को दिए गए अपने बहुचर्चित व महत्वपूर्ण साक्षात्कार में सरसंघचालक मोहन भागवत ने समलैंगिक संबंधों के मुद्दे पर संघ परिवार में परिवर्तित सोच का संकेत दिया था।

यदि मोहन भागवत के शब्दों को उद्धृत करें: “जब-तब, एक गौण सवाल सामने आ जाता है, जिसे मीडिया द्वारा बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है, क्योंकि तथाकथित नव-वामपंथी इसे अग्रणी मुद्दा मानते हैं, LGBT/ट्रांसजेंडर मुद्दे की तरह। लेकिन ये कोई नए मुद्दे नहीं हैं; वे हमेशा से रहे हैं। इन लोगों को भी जीने का अधिकार है। ज्यादा हो-हल्ला किए बिना, हमने उन्हें सामाजिक स्वीकृति प्रदान करने के लिए एक मानवीय दृष्टिकोण के साथ रास्ता खोज लिया है, यह ध्यान में रखते हुए कि वे भी मनुष्य हैं जिनके पास जीने का अविच्छेद्य अधिकार है। हमारे पास एक ट्रांसजेंडर समुदाय है; हमने इसे समस्या के रूप में नहीं देखा। उनका एक संप्रदाय है और उनके अपने देवता हैं। आज उनका अपना महामंडलेश्वर भी है। कुंभ के दौरान इन्हें विशेष स्थान दिया जाता है। वे हमारे रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा हैं। जब कोई बच्चा पैदा होता है वे हमारे घरों में गाने आते है। भले ही उनका एक अलग सामुदायिक स्थान है, फिर भी वे मुख्यधारा का हिस्सा हैं। हमने इस व्यवस्था के बारे में कभी वाक्पटुता नहीं बरती; हमने इसे कभी भी वैश्विक बहस का विषय नहीं बनाया है।

LGBT की समस्या ऐसी ही है। जरासंध के दो सेनापति थे-हंस और डिम्भक। जब कृष्ण ने यह अफवाह उड़ाई कि डिम्भक की मृत्यु हो गई है, तो हंस ने आत्महत्या कर ली। इस तरह कृष्ण ने उन दोनों सेनापतियों से छुटकारा पाया। इसके बारे में सोचें: कहानी क्या कहती है? यह वही बात है। दो सेनापति वैसे ही रिश्ते में थे। ऐसा नहीं है कि ये लोग हमारे देश में कभी रहे ही नहीं। ऐसे झुकाव वाले लोग हमेशा से रहे हैं; जब से मनुष्यों का अस्तित्व है। चूंकि मैं जानवरों का डॉक्टर हूं, इसलिए मैं जानता हूं कि जानवरों में भी ऐसे लक्षण पाए जाते हैं। यह जैविक है, जीने का एक तरीका है। हम चाहते हैं कि उनका अपना निजी स्थान हो और यह महसूस हो कि वे भी समाज का एक हिस्सा हैं। यह इतना आसान मामला है। हमें इस दृष्टिकोण को बढ़ावा देना होगा क्योंकि इसे हल करने के अन्य सभी तरीके व्यर्थ होंगे। इसलिए ऐसे मामलों में संघ हमारी परम्पराओं के ज्ञान पर भरोसा करता है।”

RSS और सरकार का विचार बदला नहीं है

यदि आप इटैलिक्स वाले शब्दों को बारीकी से पढ़ें, तो संघ परिवार के इस सर्वशक्तिमान नेता की बातों से केवल यह लगता है उन्हें अचानक पता लगा है कि LGBTQ इंसान हैं। लेकिन वह चाहते हैं कि वे अपने “निजी स्थान” में रहें। उनकी स्पष्ट घोषणा कि "मुद्दे को हल करने के अन्य सभी तरीके व्यर्थ होंगे", को समझने की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि वह विवाह कर एक परिवार की तरह रहने के उनके अधिकार को पहचानने को तैयार नहीं है। अधिक से अधिक, हिंदू पौराणिक कथाओं के डिम्भक और हंस की तरह, वे केवल एक (छिपे हुए) रिश्ते में रह सकते हैं! मीडिया के एक हिस्से ने इसे गलत ढंग से समझकर LGBTQ अधिकार के मुद्दे पर RSS की ओर से विचार में बदलाव के रूप में व्याख्यायित किया, जबकि ऐसा कुछ नहीं है । यह हिंदू ऑर्थोडाक्सी के पुराने रूढ़िवाद के दोहराव के आलावा कुछ न था; यह नाटक या दिखावे के लिए भी नहीं था कि संघ परिवार, सत्तारूढ़ हिंदू दक्षिणपंथी, आधुनिकता की ओर बढ़ रहा है।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार के रुख से क्या समझ में आता है? सरकार की ओर से सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता द्वारा, सुप्रीम कोर्ट में 18 अप्रैल को सुनवाई के पिछले दौर में समलैंगिक विवाह के अधिकार की मांग करने वाली याचिका पर अर्ज़ किया गया कि सुप्रीम कोर्ट को पहले समलैंगिक विवाह को वैध बनाने के लिए दाखिल याचिका पर सरकार की आपत्तियां सुन लेनी चाहिए ।

उन्होंने यह तर्क भी दिया कि भारतीय समाज में विवाह धर्म द्वारा स्वीकृत है और कोई भी धर्म समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं देगा; और प्रत्येक प्रमुख धर्म के सिद्धांतों पर आधारित व्यक्तिगत कानून (personal laws) पाक हैं और इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।

बहस में सर्वोच्च न्यायालय का रुख़

इसका जवाब देते हुए, बेंच के एक सदस्य न्यायमूर्ति एस के कौल ने कहा, "कभी-कभी सामाजिक प्रभाव के मुद्दों में क्रमिक वृद्धि वाले परिवर्तन बेहतर होते हैं। हर चीज़ के लिए एक समय होता है।“

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रहे अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने 18 अप्रैल 2023 को पीठ के समक्ष तर्क दिया, “अपराध अब खत्म हो चुका है। हमारे विधान से प्रकृति का अप्राकृतिक भाग या व्यवस्था समाप्त हो गई है। इसलिए, हमारे अधिकार समान हैं… यदि हमारे अधिकार समान हैं…, तो हम संविधान के (अनुच्छेद) 14, 15, 19 और 21 के तहत अपने अधिकारों का पूरा उपभोग करना चाहते हैं।” दूसरे शब्दों में, उन्होंने LGBTQ हेतु पूर्ण अधिकारों की वकालत की, जिसमें समानता का अधिकार, सम्मान के साथ जीवन जीने का अधिकार यानी विवाह और पारिवारिक जीवन का अधिकार शामिल है।

उनके शब्दों में, “हम अपने घरों में गोपनीयता चाहते हैं और सार्वजनिक स्थानों पर कलंकित नहीं होना चाहते। इसलिए हम दो लोगों के बीच वही संस्था चाहते हैं जो दूसरों को उपलब्ध है - विवाह और परिवार की अवधारणा। क्योंकि हमारे समाज में विवाह और परिवार को सम्मान दिया जाता है। एक बार जब अदालत यह घोषित कर देगी कि हम अपनी शादी को विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriages Act) के तहत पंजीकृत कर सकते हैं, तो समाज हमें स्वीकार कर लेगा। राज्य द्वारा इसे मान्यता देने के बाद ही कलंक (stigma) हटेगा। वह पूर्ण और अंतिम रूप से आत्मसात होगा ”।

याचिकाकर्ताओं की ओर से दलील देते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने पीठ के समक्ष प्रस्तुत किया कि उक्त विवाह न केवल गरिमा का सवाल है, बल्कि इसके साथ अधिकारों का “एक गुलदस्ता” भी है जो LGBTQ समुदाय को नवतेज जौहर (जिसमें धारा 377 को 6 सितंबर 2018 को असंवैधानिक ठहराया गया था) के बाद इनकार कर दिया गया, उदाहरण के लिए, बैंक खाते, जीवन बीमा, चिकित्सा बीमा से संबंधित अधिकार। "मैं सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (SCBA) चिकित्सा बीमा नहीं खरीद सकती," उन्होंने दावा किया क्योंकि उनकी जीवन-साथी एक पुरुष नहीं बल्कि एक अन्य वरिष्ठ महिला अधिवक्ता अरुंधति काटजू थीं।

अपनी अंतरिम टिप्पणियों के साथ दलीलों के दौरान हस्तक्षेप करते हुए, भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने, 5-सदस्यीय खंडपीठ का नेतृत्व करते हुए, पर्याप्त संकेत दिया कि अदालत किस दिशा में आगे बढ़ रही है । CJI ने कहा, "नवतेज जौहर के फैसले और आज के समय के बीच, हमारे समाज में समलैंगिक जोड़ों ने बहुत अधिक स्वीकृति पाई है। यह बहुत सकारात्मक है क्योंकि आप पाते हैं कि हमारे विश्वविद्यालयों में इनकी अधिक स्वीकार्यता है।" उन्होंने कहा कि "इस उभरती आम सहमति में, अदालत भी उस आम सहमति को तैयार करने में और एक समान भविष्य की ओर बढ़ने हेतु संवादात्मक (dialogical)भूमिका निभा रही है"।

यह महसूस करते हुए कि न्यायिक हवा किस ओर बह रही है, सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता ने यह कहकर परिणाम में देरी करने की कवायद की कि इस मुद्दे पर राज्यों की बात को भी सुना जाना चाहिए। यह बहस अभी भी जारी है। 5 सदस्यीय बेंच इस मुद्दे को कितना महत्व देती है, इसका संकेत देते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई का लाइव-स्ट्रीम किया जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट के एक प्रमुख एक्टिविस्ट-वकील रवींद्र गढ़िया ने न्यूज़क्लिक के लिए बात करने पर बताया, "सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस मामले की सुनवाई शुरू की है, जो जारी रहेगी। भले ही कानूनी रूप से स्वीकृत विवाह और परिवार के लिए LGBTQ के अधिकार को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सैद्धांतिक रूप से मान्यता दे दी जाए, कानून के कई लंबित मुद्दे हैं जिन्हें हल करना होगा। दरअसल, विवाह और परिवार की कानूनी परिभाषा को बदलना पड़ेगा। और कई लंबित अनसुलझे मुद्दे भी हैं जैसे समलैंगिक कपल्स के बीच साझा सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार, बच्चों को गोद लेने का मुद्दा क्योंकि वर्तमान दोनों में से केवल एक ही व्यक्ति बच्चे को गोद ले सकता है, तलाक की स्थिति में समलैंगिक जोड़े में से किसे भरण-पोषण का भुगतान करना होगा, और यदि पेंशन प्राप्त करने वाले भागीदारों में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है, तो अन्य जीवित आश्रित साथी के पेंशन अधिकारों का क्या होगा, इत्यादि। यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रतिवादी पक्षों की दलीलें कैसे आगे बढ़ती हैं और अदालत अंतिम फैसले में कई अन्य महत्वपूर्ण लेकिन पेचीदा मुद्दों का समाधान कैसे करती है।"

चेन्नई के वरिष्ठ अधिवक्ता एस कुमारस्वामी कहते हैं, ‘‘कानून को समय के साथ बदलना चाहिये। जब संसद में बहुसंख्यक दक्षिणपंथी रूढ़िवादियों का वर्चस्व है तो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समानता और स्वतंत्रता के संवैधानिक सिद्धान्त की पुष्टि करना स्वगतयोग्य होगा।’’

ऐसे जोड़े अधिक दिखाई देंगे तो स्वीकार्यता बढ़ेगी

कुछ महिला अधिकार व समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने भी न्यूज़क्लिक के लिए बात करने पर बताया कि वे सीजेआई की अंतरिम टिप्पणियों का स्वागत करते हैं। कानूनी बाधा को दूर करना केवल पहला कदम है। पर बड़े पैमाने पर समाज में भेदभाव मौजूद है। अधिकार प्रचारकों को इस चुनौती से कैसे निपटना चाहिए? प्रख्यात महिला अधिकार कार्यकर्ता रूथ वनिता ने इस संबंध में कहा, "मुझे लगता है कि यह रोज़मर्रा के अनुभव और ऐसे कपल्स को अपने परिवार के सदस्य, पड़ोसी अथवा सहयोगियों के रूप में जानने-समझने से अधिक होता है, राजनीतिक अभियानों के माध्यम से नहीं।

"यह अन्य देशों से अलग नहीं है। ठीक इसी तरह का विरोध और तर्क (विवाह हमेशा स्त्री-पुरुष के बीच होता है; समलैंगिक विवाह धर्म के खिलाफ है, जैसे ईसाई धर्म में, संस्कृति व सामाजिक तानाबाना ढह जाएगा, आदि) हर एक देश में था जहाँ अब यह कानूनी है। और इसके कानूनी होने के बाद, स्वीकृति की दर बढ़ गई है।

रूथ वनिता ने आगे कहा: "पहले से ही कई समलैंगिक जोड़े धार्मिक संस्कारों के तहत विवाहित हैं या विवाहित जोड़ों के रूप में रह रहे हैं, जिनमें गांवों और छोटे शहरों के कपल शामिल हैं। यह कम से कम 50 साल से हो रहा है, शायद उससे भी ज्यादा। स्वीकृति के स्तर फैमिली टू फैमिली, एक समुदाय से दूसरे समुदाय में भिन्न होते हैं। हालाँकि, जैसे-जैसे ऐसे जोड़े अधिक दिखाई देंगे, स्वीकार्यता बढ़ती जाएगी।“

विश्व में समलैंगिक विवाह कानून

मार्च 2023 तक, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, ब्राजील, कनाडा, कोलंबिया, डेनमार्क, इक्वाडोर, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, आइसलैंड, आयरलैंड, लक्समबर्ग, माल्टा, मैक्सिको, नीदरलैंड, न्यूजीलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, दक्षिण अफ्रीका, स्पेन, स्वीडन, ताइवान, यूनाइटेड किंगडम, संयुक्त राज्य अमेरिका, उरुग्वे और कोस्टा रिका सहित 30 से अधिक देशों ने समलैंगिक विवाह को वैध घोषित कर दिया है। केवल चीन और रूस में, न तो समलैंगिक विवाह को मान्यता दी गई न ही समलैंगिक जोड़ों को एक साथ रहने की अनुमति है।

यूएस में 32 राज्यों में जब समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिली थी, वहां 15-19 वर्ष आयु के बच्चों में आत्महत्या की दर 7 प्रतिशत घट गई थी। स्वीडन और डेनमार्क में भी समलैंगिक कपल्स के आत्महत्या दर में 46 प्रतिशत कमी आई थी जबकि सामान्य कपल्स में वह केवल 28 प्रतिशत घटी। स्वीडन में समलैंगिक विवाह कानून 2009 में बना और डेनमार्क में 2012 में।

भारत में भी, हिंदू, मुस्लिम और ईसाई रूढ़िवादियों के बीच इस बाबत सामंजस्य है। इसलिए LGBTQ अधिकारों की लड़ाई लम्बी है।

अब यह देखना बाकी है कि भारत सर्वोच्च न्यायालय के सौजन्य से कितनी जल्द ऊपर लिखित 30 राष्ट्रों की लीग में शामिल होता है।

(लेखिका महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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