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अमेरिका में लीगल होंगी समलैंगिक शादियां, भारत में और कितना इंतज़ार?

भारत में केंद्र सरकार के नकारात्मक रुख के बाद समलैंगिक शादियों को क़ानूनी मान्यता देने का मामला फ़िलहाल सुप्रीम कोर्ट में है।
Same Sex Marriages
फ़ोटो साभार: रॉयटर्स

समलैंगिक संबंध औऱ विवाह बीते कुछ दिनों से देश-दुनिया की सुर्खियों में बने हुए हैं। एक ओर जहां अमेरिकी संसद ने समलैंगिकों और अलग-अलग नस्लों के बीच होने वाली शादियों की हिफ़ाजत के लिए एक ऐतिहासिक विधेयक पास किया है तो वहीं इंडोनेशिया की संसद ने नए कानून के जरिए प्री-मैरिटल सेक्स और लिव-इन रिलेशनशिप को आपराधिक करार दिया। ये नियम इंडोनेशिया में एलजीबीटीक्यू समुदाय के लिए एक नकरात्मक प्रभाव के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि यहां अभी समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं है। इन सब के बीच भारत में भी समलैंगिक शादियों को मान्यता देने का मामला सुप्रीम कोर्ट में है।

बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने छह सितंबर, 2018 को एक अहम फैसला सुनाते हुए समलैंगिकता को अवैध बताने वाली भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 को रद्द कर दिया था। तब अदालत ने कहा था कि अब से सहमति से दो वयस्कों के बीच बने समलैंगिक यौन संबंध अपराध के दायरे से बाहर होंगे। हालांकि, उस फैसले में समलैंगिकों की शादी का जिक्र नहीं था। अब इसी समलैंगिक विवाह को मान्यता दिलाने के लिए एलजीबीटी समुदाय का कोर्ट में संघर्ष जारी है।

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अमेरिका में मान्यता मिलने के बाद क्या भारत में आसान होगी राह?

समलैंगिक विवाह से जुड़े कानून पर अमेरिकी सीनेट के नेता चक शूमर ने मीडिया को बताया था कि यह समाज में समानता का दायरा बढ़ाने की दिशा में उठाया गया एक अहम क़दम है। उन्होंने कहा कि ये ज़रूरी नहीं है कि आप कौन हैं और किससे प्यार करते हैं, जरूरी ये है कि आप कानून के तहत सम्मान और समान बर्ताव के अधिकारी हैं।

एलजीबीटीक्यू समुदाय दुनियाभर में इसी सम्मान और समान बर्ताव के अधिकार के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहा है। तमाम विकास और प्रगति के दावों के बिच आज भी एलजीबीटी कम्युनिटी के लोग देश में भेदभाव का सामना करते हैं। समाज का एक बड़ा तबका समलैंगिक लोगों को ना तो नॉर्मल मानता हैं और ना ही उन्हें इज्ज़त की नज़रों से देखता है। शादी की मान्यता न होने से ये कई अधिकारों से भी वंचित रह जाते हैं। न्यूज़क्लिक ने इस संबंध में इस समुदाय से जुड़े कुछ लोगों से बात कर पूरे मामले की गंभीरता और उनके पक्ष को समझने की कोशिश की।

ट्रांस एक्टिविस्ट ऋतुपरना अमेरिकी संसद के फैसले को सकारात्मक बताते हुए भारत सरकार के रूख में भी बदलाव की उम्मीद करती हैं। वो कहती हैं कि विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं। वे अपने सारे हक़ों से महरूम है, जो अपनी शादी का क़ानूनी तौर पर रजिस्ट्रेशन करा चुके स्त्री-पुरुष को मिलते हैं।

ऋतुपरना के अनुसार, “हम अभी-अभी महामारी के दौर से बाहर निकले हैं, और इस समय ने हमें अपनों के साथ और जरूरत का सही मायने में एहसास करवाया है। लेकिन कानूनी तौर पर समलैंगिक जोड़ा एक-दूसरे को अपना परिवार नहीं बना सकता। ऐसे में अगर किसी के भी साथ कोई अनहोनी हो जाए तो दूसरा जो उस पर आश्रित है, उसकी पूरी जिंदगी रुक जाती है। शादीशुदा का टैग नहीं होने की वजह से आप मेडिक्लेम, इंश्योरेंस, जॉइंट बैंक अकाउंट, प्रॉपर्टी कार्ड और अन्य दस्तावेज में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते, नाही कुछ क्लेम कर सकते हैं।

थर्ड जेंडर को सिर्फ़ क़ानूनी मान्यता ही नहीं उनके अधिकार भी चाहिए!

ग्रेस एक गे हैं, समानाधिकार कार्यकर्ता और पेशे से अधिवक्ता भी हैं इसलिए तमाम कानूनी दांव-पेच को समझाते हुए कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि अमेरिका में समलिंगी शादियों को क़ानूनी मंज़ूरी मिलते ही वहां समाज में सब कुछ ठीक हो जाएगा या तुरंत बदल जाएगा लेकिन कम से कम उन तमाम लोगों को बराबरी से रहने का हक तो मिल जाएगा जो आज छुप-छुप कर अपना जीवन बिता रहे हैं।

ग्रेस के अनुसार, बराबरी की शुरुआत समानता से ही होती है, जिसे कानून के जरिए बल मिलता है। क्योंकि समलिंगी शादियों को भारत में क़ानूनी मान्यता नहीं है, इसलिए यहां इन रिश्तों में कुछ भी आधिकारिक नहीं है। और इसका मुख्य कारण है कि ये शादी की व्यवस्था एक तरह से पितृसत्ता से भरी हुई है। इसमें सिर्फ एक पुरुष और एक महिला का ही कॉन्सेप्ट है। इसमें अलग-अलग धार्मिक क़ानूनों का हिसाब अलग-अलग हैं लेकिन सब में शादी को स्त्री और पुरुष के बीच का ही संबंध माना गया है। साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी इसी आधार का इस्तेमाल होता है। ऐसे में बदलाव के लिए कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं। अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलाव होगा। जिसके बाद थर्ड जेंडर को सिर्फ क़ानूनी मान्यता ही नहीं उनके अधिकार भी मिल सकेंगे।

मान्यता न मिलना भेदभाव की मुख्य वजह है!

नेहा एक लेस्बियन हैं और पांच साल से अपनी पार्टनर के साथ रह रही हैं। नेहा की मानें तो भेदभाव हमारे देश में ऑफिशियल फॉर्म से ही शुरू हो जाता है। हम एलआईसी की ज्वाइंट पॉलिसी नहीं ले सकते। पार्टनर के तौर पर वीज़ा के लिए एप्लाई नहीं कर सकते। एक-दूसरे को जरूरत पड़ने पर किडनी नहीं दे सकते क्योंकि कानून के अनुसार किडनी देने की इज़ाजत परिवार के ही सदस्य को होती है। कुल-मिलाकर शादीशुदा होने पर एक स्पाउस के जो भी अधिकार हैं वो हमें बिना शादी के टैग के नहीं मिल सकते। अस्पताल से लेकर बैंक और तमाम जगह स्पाउस के नाम की जरूरत होती है। अगर रिश्ता ही डिफाइन नहीं होगा, तो आप अपना अधिकार कैसे ले पाएंगे नेहा आगे कहती हैं, “आज जब हम कह रहे हैं कि जिंदगी का भरोसा नहीं है, तो ऐसे में पता नहीं कि किसी को कब अस्पताल के चक्कर लगाने पड़ जाएं। कोई कब हमारा साथ छोड़ दे, ऐसे में शादी की मान्यता और भी जरूरी हो जाती है क्योंकि बिना कानूनी मान्यता के आप अपने पार्टनर के लिए चाह कर भी कुछ नहीं कर पाते। आप अस्पताल में क्या अपनी आईडेंटीटी बताएंगे, आप किसी पार्टनर के चले जाने के बाद उसकी चीजों पर उसकी प्रापर्टी पर कैसे अपना क्लेम करेंगे।”

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सुप्रीम कोर्ट में क्या याचिका है?

इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में हैदराबाद के एक गे कपल ने एक याचिका दायर कर सेम सेक्स शादी को मान्यता देने की मांग की है। सर्वोच्च न्यायालय में यह याचिका अनुच्छेद 32 के तहत डाली गई है। इस अनुच्छेद के तहत भारत का हर नागरिक मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायलय के समक्ष याचिका डाल सकता है। इस जोड़े के अनुसार अपनी पसंद का विवाह करने का अधिकार संविधान द्वारा दिया गया है,जो कि एलजीबीटीक्यू+ समुदाय पर भी लागू होना चाहिए।

याचिका में सुप्रीम कोर्ट से मांग करते हुए कहा गया है कि सेम सेक्स जोड़ों को शादी की मान्यता ‘स्पेशल मैरिज’ एक्ट के तहत दी जाए। साथ ही इसके लिए सभी अधिकारियों को दिशा-निर्देश भी दिए जाए। याचिकाकर्ता ने अपनी पसंद से शादी करने के अपने मौलिक अधिकार पर जोर दिया है। मौलिक अधिकारों के तहत ही उन्होंने अदालत से सेम सेक्स शादी की अनुमति देने की मांग की है। साथ ही उन्होंने इस मामले की सुनवाई का सीधा प्रसारण करने की गुहार भी लगाई है।

अदालत में एक क्वीयर जोड़े ने भी कहा है कि वह बीते 17 सालों से एक दूसरे के साथ संबंध में हैं और दो बच्चों की परवरिश भी कर रहे है। लेकिन उनकी शादी को कानूनी मान्यता न मिलने की वजह से वे अपने बच्चों को न ही अपना नाम दे सकते हैं और न ही उनसे कानूनी संबंध रख सकते हैं। इसलिए स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत सेम सेक्स शादी को कानूनी मान्यता दी जाए

इस पूरे मामले पर सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हिमा कोहली की बेंच सुनवाी करेगी। इस मामले में कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल को नोटिस जारी कर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। कोर्ट ने सरकार को चार हफ्तों के भीतर जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। इसके साथ ही शीर्ष अदालत ने केरल सहित अन्य उच्च अदालत में लंबित याचिका को सुप्रीम कोर्ट में स्थानांतरित करने का आदेश दिया है। सभी को एक साथ सुना जाएगा।

केंद्र सरकार का नाकारात्मक रूख

इससे पहले केंद्र सरकार ने दिल्ली हाईकोर्ट में समलैंगिक विवाह का विरोध करते हुए कहा था कि हमारा समाज, हमारा कानून और हमारे नैतिक मूल्य इसकी मंजूरी नहीं देते। केंद्र ने अपने हलफ़नामे में कहा कि संसद ने देश में विवाह क़ानूनों को केवल एक पुरुष और एक महिला के मिलन को स्वीकार करने के लिए तैयार किया है। ये क़ानून विभिन्न धार्मिक समुदायों के रीति-रिवाजों से संबंधित व्यक्तिगत क़ानूनों/ संहिताबद्ध क़ानूनों से शासित हैं। इसमें किसी भी हस्तक्षेप से देश में व्यक्तिगत क़ानूनों के नाजुक संतुलन के साथ पूर्ण तबाही मच जाएगी।

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गौरतलब है कि दुनिया भर में करीब 29 देश ऐसे हैं जहाँ समलैंगिक विवाह को तमाम कानूनी दिक्कतों के बावजूद कोर्ट के ज़रिए या क़ानून में बदलाव करके या फिर जनमत संग्रह करके मंज़ूरी दे दी गई है। प्यू रिसर्च की एक रिपोर्ट के अनुसार नीदरलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश है जहां साल 2000 में सेम सेक्स शादी को मंजूरी मिली थी। उसके बाद से तकरीबन 17 यूरोपीय देश ऑस्ट्रिया, ब्रिटेन, बेल्जियम, फिनलैंड, डेनमार्क, फ्रांस, जर्मनी, आयरलैंड, आइसलैंड, लक्जमबर्ग, माल्टा, नॉर्वे, पुर्तगाल, स्पेन, स्वीडन, स्लोवेनिया और स्विटजरलैंड सेम सेक्स मैरिज को वैध बना चुके हैं। साल 2019 में ताइवान एशिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जहां सेम सेक्स मैरिज को कानूनी मान्यता दी गई। इसी साल मेक्सिको के सभी राज्यों में समलैंगिक विवाह अब क़ानूनी रूप से मान्य करार दे दिए गए हैं। इसके अलावा अन्य कई देश भी धीरे ही सही लेकिन इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं। हालांकि भारत में इसकी मान्यता को लेकर केंद्र सरकार के नकारात्मक रुख के बाद इस समुदाय के लोगों को भी अपने हकों के लिए और कितना लंबा रास्ता तय करना होगा, ये गंभीर सवाल है।

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