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जम्मू-कश्मीर में आम लोगों के बीच की खाई को पाटने के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं

इन भाषाई एवं जातीय रूप से विविध क्षेत्र की अपनी विशिष्ट समस्याएं हैं, जिनके लिए अनुकूलित विशेष पहल की दरकार है, जिन पर लगता है कोई भी काम नहीं कर रहा है। 
jammu and kashmir

1980 के दशक के मध्य में गर्मियों का दिन था, जब एक प्रमुख इस्लामिक विद्वान और 20वीं सदी के सबसे प्रभावशाली राजनीतिज्ञों में से एक, मौलाना मसूदी से उनके जीवन पर एक विस्तृत साक्षात्कार के लिए राज्य मीडिया, दूरदर्शन श्रीनगर की ओर से संपर्क साधा गया था। वे राजी हो गए लेकिन इस शर्त पर कि एक लंबे समय से कार्यकर्त्ता-विद्वान यदि उनका साक्षात्कार लें। 

मसूदी का कश्मीरी समाज के भीतर बेहद सम्मान था, कुछ मामलों में तो उनकी तुलना नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक शेख अब्दुल्ला के साथ की जाती है। 13 दिसंबर 1990 को उग्रवादियों की गोलियों का शिकार होने वाले 87 वर्षीय मसूदी कश्मीर के अस्थिर इतिहास के कई नाजुक क्षणों में बेहद मशहूर हुए, जिसमें 1947 से 1953 तक का महत्वपूर्ण दौर भी शामिल है। 27 दिसंबर 1963 को एक पवित्र स्मारक-चिन्ह, मोई--मुकद्दस जिसके बारे में कई लोगों की धारणा है कि यह पैगंबर मोहम्मद के बालों का एक कतरा है, हज़रतबल दरगाह से गायब हो गया था। उनके नेतृत्व और राजनीतिक सूझबूझ ने इस बात को सुनिश्चित किया कि प्रदर्शनकारी व्यापक पैमाने पर शांतिपूर्ण बने रहें, और उनका आंदोलन कहीं से भी अराजकता में न तब्दील हो जाये।

साक्षात्कार के दौरान भविष्यदर्शी आदान-प्रदान में, मसूदी ने साक्षात्कारकर्ता के इस आकलन को स्वीकारा कि यदि मौलना एक जातीय कश्मीरी रहे होते तो जम्मू-कश्मीर का एक अलग ही इतिहास हो सकता था। एक पहाड़ी जुबान बोलने वाले मुस्लिम, मसूदी का जन्म बारामूला जिले के उरी क्षेत्र में हुआ था, जहाँ पर कश्मीर घाटी समाप्त होती है और पहाड़ी पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर शुरू होता है। वे अपनी जातीयता के द्वारा थोप दी गई राजनीतिक सीमाओं के बारे में गहराई से समझ रखते थे, और उस दिन की उनकी बातचीत 1947 के बाद की वास्तविकताओं द्वारा निर्धारित कर दी गई कई संरचनात्मक वास्तविकताओं में से एक को प्रकट करता है। 

अविभाजित जम्मू-कश्मीर में कश्मीरी-बोलने वाली आबादी अनुमानतः 38.5% है, जो कि क्षेत्र में चार अन्य भाषाओँ पोठवारी, डोगरी, गोजरी और पंजाबी बोलने वालों की तुलना में कम है। भाषाविदों ने पहले पहल तो इन तीन बोलियोंको पंजाबी भाषा के तौर पर मान लिया था, लेकिन समय के साथ, इन भाषाओं ने अपनी विशिष्ट पहचान हासिल की। सभी चारों भाषाई समूह एक दूसरे की रचनात्मक चीजों को ग्रहण करते हैं, जैसे कि गीतों को। उदाहरण के लिए, आमतौर पर यह देखने को मिलता है कि एक खानाबदोश बकरवाल महिला, जिसकी मूल भाषा गोजरी है, उसे आप एफएम रेडियो पर पंजाबी गाने सुनते देख सकते हैं। (जहाँ गोजरी बोलने वाले लोग सभी चार भाषाओं को समझ और बोल सकते हैं, वहीँ पोठवारी, डोगरी और पंजाबी बोलने वाले गोजरी को छोड़कर बाकी सभी भाषाओँ को समझने में सक्षम हैं।

1947 से पहले, जम्मू प्रान्त- जिसमें वर्तमान पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर और नियंत्रण रेखा से सटी घाटी में बारामुला और कुपवाड़ा जिलों के कुछ हिस्सों में ये चारों भाषाएँ समान रूप से बोली जाती थीं। नियंत्रण रेखा ने जम्मू-कश्मीर की रियासत को विभाजित कर दिया, और समूचा क्षेत्र जो पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर बन चुका है, वह इलाका गैर-कश्मीर भाषी है, जिसमें प्रमुख भाषाओं के तौर पर पोठवारी और गोजरी बोली जाती है।

आज के पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर में मुज़फ्फराबाद को छोड़कर, बाकी के सभी जिले प्रशासनिक तौर पर जम्मू प्रांत का हिस्सा थे। यहाँ तक कि पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर का मुज़फ्फराबाद जिला भी एक गैर-कश्मीरी भाषी क्षेत्र है। जम्मू के विपरीत, विभाजन ने कश्मीरी-भाषी आबादी के जातीय आधार को प्रभावित नहीं किया, क्योंकि घाटी अपनेआप में एक एकल अस्तित्व के तौर पर बनी रही। इस प्रकार, कश्मीरी-भाषी आबादी, मुख्यतया घाटी में रहने वाली आबादी, विभाजित जम्मू-कश्मीर का सबसे बड़ा एकजुट जातीय समूह बनकर उभरा।

जम्मू-कश्मीर की जातीय या क्षेत्रीय होड़ “कश्मीर की उलझनके लिहाज से एक महत्वपूर्ण घटक के तौर पर हैं। इसके बावजूद इस विषय पर काफी कम शोध हो पाया है, भले ही इस बारे में कठोर अंतर-अनुशासनिक ज्ञान की जरूरत है। 19वीं सदी में इसके निर्माण को विविध सांस्कृतिक एवं भौगौलिक ईकाईयों के विलय से बनाया गया, जिसमें जम्मू-कश्मीर सबसे बड़ी रियासतों में से एक था और भूगोल, जातीयता एवं धर्म के मामले में सबसे अधिक विविध स्वरुप लिए हुए था। 1941 की जनगणना के मुताबिक, जम्मू की कुल जनसंख्या जहाँ 19 लाख थी, वहीँ कश्मीर की 17 लाख थी। भौगौलिक, जातीयता एवं धार्मिक दृष्टि से देखें तो जम्मू की तुलना में घाटी अपेक्षाकृत तौर पर कहीं अधिक समरूप है। 

2011 के जनगणना के मुताबिक, कश्मीर की आबादी जम्मू से तकरीबन 16 लाख अधिक है, यद्यपि जम्मू का क्षेत्रफल घाटी के आकार से लगभग दोगुना है। इसी के साथ ही, कश्मीर घाटी के पास गैर-कश्मीरी बोलने वाली आबादी गुज्जर और पहाड़ी भी है। इसलिए कुलमिलाकर देखें तो घाटी में रह रहे जातीय कश्मीरी लोग और जम्मू-कश्मीर में रह रहे गैर-जातीय कश्मीरी संख्यात्मक लिहाज से लगभग बराबर ही हैं। 

5 अगस्त 2019 के बाद नए विधानसभा क्षेत्रों के आवंटन और सीमांकन के लिए परिसीमन आयोग का गठन किया गया था। इससे एक उम्मीद यह थी कि इसकी रिपोर्ट बढ़ते जातीय एवं क्षेत्रीय ध्रुवीकरण को संबोधित करेगी, जिसने गंभीर राजनीतिक घटनाक्रमों की शक्ल अख्तियार कर ली है। दिसंबर 2021 में, आयोग ने जम्मू में छह नए विधानसभा क्षेत्रों और कश्मीर में एक को प्रस्तावित किया था। पिछली विधानसभा में, कश्मीर घाटी के पास 46 सीटें थीं, जबकि जम्मू के पास 37 थीं। दोनों क्षेत्रों में इसको लेकर विरोध प्रदर्शन हुए थे, क्योंकि प्रत्येक को लगता है कि इस प्रस्ताव में उनके लिए पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं किया गया है। जहाँ घाटी के राजनेताओं ने दावा किया कि सिर्फ आबादी को ही विधानसभा क्षेत्रों के आवंटन को तय करने का मानदंड निर्धारित किया जाना चाहिए, वहीँ दूसरी तरफ जम्मू के राजनेताओं के मुताबिक बीहड़ भौगौलिक स्थिति के लिहाज से उन्हें अधिक सीटें मिलनी चाहिए।  

घाटी के विपरीत, भौगौलिक तौर पर जम्मू प्रांत एक विविध ईकाई है। जम्मू का क्षेत्रफल जहाँ 26,689.4 वर्ग किमी है, वहीँ कश्मीर का क्षेत्रफल 15,520 वर्ग किमी है। रावी नदी और पीर पंजाल रेंज से घिरे, जम्मू प्रांत की ऊँचाई भी समुद्र-तल के स्तर से लेकर (अविभाजित पंजाब से सटे इसके हिस्से के तौर पर) 16,000 फीट तक अलग-अलग है। किश्तवाड़ में पैडर को ही ले लें, जिसे जम्मू में एक नए विधानसभा क्षेत्र के तौर पर प्रस्तावित किया गया है, और लद्दाख के जांसकर क्षेत्र से सटा हुआ है। एक नई सीट संभवतः जम्मू-कश्मीर विधानसभा में ऐसे दुर्गम क्षेत्र को बेहतर प्रतिनिधित्व प्रदान कर सकती है, लेकिन इस प्रकार के किसी भी क्षेत्र की विशिष्ट समस्याओं के समाधान के लिए पर्याप्त संस्थागत मदद मिल पाने की बात अभी भी दूर की कौड़ी है। 

इसके विपरीत, कश्मीर घाटी के एक मैदानी क्षेत्र होने की वजह से, इसमें थोड़ी-बहुत विभिन्नताएं हैं क्योंकि समुद्र तल से इसकी औसत ऊँचाई 6070 फीट है, और घाटी के प्रांतीय मुख्यालय के रूप में श्रीनगर से इसके अन्य हिस्सों की दूरी में कुछ ही घंटे लगते हैं। नियंत्रण रेखा के साथ लगी हुई घाटी की मुख्य सीमा उरी भी श्रीनगर से तीन घंटे की ड्राइव से भी कम दूरी पर है। 

इसी प्रकार, भाषाई तौर पर समान होने के बावजूद, गैर-कश्मीरी भाषी जातीय समूहों के अपने खुद के विशिष्ट मुद्दे हैं। फरवरी 2022 में, नियंत्रण रेखा के पास के राजौरी-पुंछ बेल्ट में अनुसूचित जनजाति (एसटी) विधानसभा क्षेत्रों के बड़े हिस्से को जम्मू के लिए आवंटित कर दिया गया था। यहाँ पर गुज्जर-बकरवाल की आबादी औसतन 35 फीसदी है और ये सभी मुस्लिम हैं। 19 अप्रैल 1991 को, बढ़ते उग्रवाद के संदर्भ में, यह पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की मंजूरी थी, जिसने गुज्जर-बकरवालों की एसटी दर्जे को मंजूरी दिला दी। लेकिन इसने कश्मीर के कुपवाड़ा और बारामुला जिलों के अलावा जम्मू के राजौरी-पुंछ क्षेत्रों में रहने वाले पहाड़ी लोगों के भी एसटी का दर्जा दिए जाने की उनकी मांग को पुनर्जीवित कर दिया। हालाँकि, गुज्जर समुदाय पहाड़ी लोगों को एसटी का दर्जा प्रदान किये जाने के विरोध में हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि इससे उनके आरक्षण की स्थिति प्रभावित होगी। इस घटनाक्रम से आशंकित गुज्जर समुदाय सडकों पर उतर आया है। समुदाय के सदस्य पहाड़ी लोगों के आदिवासी दर्जे के दावे को गलत मानते हैं, और उनका आरोप है कि पहाड़ियों के पास भाषा के अलावा कोई जुड़ाव की वजह नहीं है, जिसके आगे उनके पास विविध जातीय समूह हैं, जिनमें कुलीन-जाति के मुस्लिम और हिन्दू शामिल हैं। वहीँ दूसरी तरफ, पहाड़ी नेताओं का कहना है कि सिर्फ खानाबदोश बकरवाल समुदाय ही सच्चे अर्थों में आदिवासी होने की शर्तों को पूरा करते हैं। उनका तर्क है कि गुज्जरों में से कई लोग स्थायी रूप से रह रहे हैं, और अच्छी खासी सामाजिक-आर्थिक हैसियत रखते हैं। 

किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के तौर पर निर्दिष्ट करने का आधिकारिक मानदंड यह है कि क्या उनमें आदिम लक्षण हैं, विशिष्ट संस्कृति, भौगौलिक अलगाव, बाहरी संपर्क में झिझक और पिछड़ेपन जैसे लक्षण मौजूद हैं। बंगाल और पंजाब की तरह जम्मू-कश्मीर में भी 1947 के बाद एक आमूलचूल परिवर्तन का दौर आया था। दूसरे शब्दों में कहें तो पहाड़ी पहचान एक सामाजिक-राजनीतिक निर्माण है जिसने नियंत्रण रेखा के इस तरफ एक बदली हुई वास्तविकता के तहत आकार ग्रहण किया है।

जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया जा चुका है, जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में, पहाड़ी भाषा को पंजाबी की एक बोलियों में से एक के तौर पर माना गया था, कुछ इसे पहाड़ी मैदानवाली पंजाबी कहते थे। 1911 की जनगणना में इसे अलग मान्यता मिली। पहाड़ी वह भाषा है जिसे लोग कश्मीर और जम्मू में एलओसी के पास के इलाकों में बोलते हैं। 1947 में पाकिस्तान-नियंत्रित कश्मीर से आये हिन्दू और सिख शरणार्थियों (इनमें से अधिकांश की अब मौत हो चुकी है) के द्वारा भी पहाड़ी बोली जाती है।  

एलओसी से लगे इलाकों में कम से कम चार विधानसभा सीटों पर सभी राजनीतिक दलों के पहाड़ी नेताओं को, 2019 में अनुच्छेद 370 को निरस्त किये जाने के परिणामस्वरूप, राजनीतिक आरक्षण की वजह से राजनीतिक तौर पर विलुप्त होने का सामना करना पड़ रहा है। उनकी ओर से मुखर रूप से इस मांग का समर्थन किया जा रहा है। यह मांग राज्य में रोजगार को संचित करने का भी एक साधन है। भारत के अन्य हिस्सों के विपरीत, जम्मू-कश्मीर के भीतर शायद ही कोई ऐसा भौतिक बुनियादी ढांचा हो, जो गैर-राज्य क्षेत्र में सतत, दीर्घकालिक आर्थिक सुरक्षा को पैदा कर सके।

एक सकारात्मक कार्य नीति के लिए भी सभी मुद्दों के बारे में बारीक समझ की आवश्यकता होती है। बकरवाल समुदाय के लिए डिजाइन की गई एसटी योजनायें कमजोर थीं, और उन्हें इस प्रकार से लक्षित किया गया था कि वे अपने खानाबदोश चरित्र को संबोधित कर पाने में विफल रहे। यहाँ तक कि सकारात्मक कार्यवाई को लेकर चलने वाली बहस भी एक विशिष्ट क्षेत्रीय चरित्र लिए हुए है, जिसके लिए जमीनी स्तर के अध्ययन और समझ की जरूरत पड़ती है। 

जहाँ तक घाटी का प्रश्न है, कश्मीरी भाषी समाज भले ही किसी भी धर्म का हो, लेकिन भाषाई एवं जातीयता के लिहाज से अपनेआप में एक समरूप समाज है। जबकि गुज्जर अपनी विशिष्ट संस्कृति के साथ, वहां अलग-थलग खड़े हैं। आर्थिक तौर पर भी, वे लोग अपेक्षाकृत कम एकीकृत हैं। कश्मीरी भाषी मुसलमानों के वागे जाति के लोग दुग्ध व्यापार से जुड़े हैं, जो कि गुज्जरों का पारंपरिक व्यवसाय है। जम्मू क्षेत्र के पीर पंजाल रेंज के दक्षिण में यह वास्तविकताएं बदल जाती हैं  - जहाँ धर्म और जातीयता के मामले में अधिक विविधता मौजूद है। गोजरी के अलावा गुज्जर समुदाय पहाड़ी, डोगरी और पंजाबी जैसी अन्य भाषाओं से पूरी तरह से वाकिफ हैं।

उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में हिन्दू गुर्जरों की तरह ही सदियों से जम्मू-कश्मीर में मुस्लिम गुज्जर भी डेयरी फार्मिंग के काम में शामिल रहे हैं। पड़ोसी अविभाजित पंजाब में, 1901 की जनगणना में कथित तौर पर गुज्जर मुसलमानों की आबादी तकरीबन 4.6 लाख थी। उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में हिन्दू गुज्जरों की तरह ही यहाँ पर भी हाशिये पर डाल दिए जाने का लेंस एक जैसा है। और इसी तरह से पहाड़ी भाषी लोगों में लोहार, तेली एवं अन्य कई समुदाय हैं जो ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर बने हुए हैं।

इन वजहों से, व्यापकता, अंतर-अनुशासनिक ज्ञान के बगैर ही सभी के लिए एक ही आकार की नीतियों वाली सकारात्मक कार्यवाई नीति को तैयार करने के नुकसानदेह प्रभाव हो सकते हैं, और समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ आपस में भिड़ा सकते हैं। एलओसी के आसपास इस प्रकार की चिंताजनक स्थिति बनती दिख रही है।

दोनों क्षेत्रों में विशिष्ट समस्याएं हैं जो विषम संघवाद के व्यापक ढांचे में अनुकूलित क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण के अधिकार की मांग करती है। पिछले 75 वर्षों में, जम्मू-कश्मीर के संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित करने वाला एकमात्र विस्तृत प्रस्ताव, जम्मू-कश्मीर मामलों पर एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विख्यात हस्ती, कार्यकर्ता-विद्वान स्वर्गीय बलराज पुरी की रिपोर्ट है। उनकी जम्मू-कश्मीर क्षेत्रीय स्वायत्तता रिपोर्ट को 1999 में पुस्तक की शक्ल में जारी किया गया था। यह पुस्तक सार्वजनिक क्षेत्र में व्यापक रूप से उपलब्ध है, और इन मुद्दों को हल करने के किसी भी ईमानदार प्रयास में इससे परामर्श लिया जाना चाहिए।

परिसीमन आयोग के प्रति निष्पक्ष बने रहने के लिए, इसके सदस्यों को इसमें शामिल समुदायों के सीमित जनादेश को देखते हुए बहु-स्तरीय जातीय एवं क्षेत्रीय दरारों को अवरुद्ध नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही, राजनीतिक तौर पर सक्रिय लोगों के पास आज इनके बीच की खाई को पाटने के लिए बेहद कम प्रोत्साहन बचा है, क्योंकि इस तरह की पहल से क्षेत्रीय एवं जातीय विभाजन की संरचनात्मक वास्तविकताओं के सामने बुलडोजर से कुचली जा सकती हैं। जिस प्रकार से सर्कस में मौत के ग्लोब में स्टंट बाइकर बार-बार गोले के भीतर लगातार चक्कर लगाता रहता है, उसी प्रकार से कश्मीर की संरचनात्मक वास्तविकताएं जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक अभिनेताओं की एक और पीढ़ी को जातीय एवं क्षेत्रीय मुकाबले में बार-बार होने वाले आंदोलनों में उलझने के लिए बाध्य करती रहती हैं।

(लेखक अक्रॉस द एलओसी, कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस सहित जम्मू-कश्मीर पर दो पुस्तकों के लेखक हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)

 अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

In Jammu and Kashmir, No Incentive to Build Bridges Between People

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