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जम्मू-कश्मीर: अनुच्छेद-370 निरस्त होने के चार साल और आज की हक़ीक़त

“विकास के नाम पर इतना अधिक कुछ नहीं हो रहा जितना प्रायोजित मीडिया में बताया और दिखाया जा रहा है”। जम्मू-कश्मीर के बुद्धिजीवियों से विशेष बातचीत
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ठीक चार साल पहले 5 अगस्त, 2019 को केंद्र की नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का अति महत्वाकांक्षी एजेंडा लोकसभा में चंद पंक्तियों में लागू करने की घोषणा की थी। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने सीधे कहा कि जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और अनुच्छेद 35-ए को तत्काल प्रभाव से निरस्त किया जाता है। वहां अब नया राज्य लद्दाख भी होगा। इतने बड़े और विवादास्पद फैसले से पहले विपक्ष के साथ तो क्या विमर्श करना था, मंत्रिमंडल की औपचारिक बैठक भी नहीं बुलाई गई। जम्मू-कश्मीर में घोषित लॉकडाउन और अनिश्चित काल के लिए कर्फ्यू लागू कर दिया गया। केंद्रीय गृहमंत्री के एक कथन के बाद ही वहां का पूरा आलम गोया नर्क में तब्दील हो गया। इस संवाददाता ने जम्मू और कश्मीर (वहां रह रहे) के कुछ प्रबुद्ध लोगों से बातचीत में जानना चाहा कि चार साल के बाद अब वहां के जमीनी हालात कैसे हैं? धारा-370 निरस्त करने के बाद क्या परिवर्तन हुए हैं? बातचीत फोन के जरिए हुई।

श्रीनगर के पूरे इलाके के प्रख्यात मेडिकल कॉलेज के मेडिसिन विभाग के अध्यक्ष रहे और अब  'इंडियन डॉक्टर्स पीस एंड डेवलपमेंट' राष्ट्रीय महासचिव डॉ. गुलाम मोहम्मद के मुताबिक "घाटी में हालात काफी नारकीय हैं। 2019 के बाद बेरोजगारी में इजाफा हुआ है और लोगों के आगे रोजी-रोटी का गंभीर संकट है। तदर्थ कामों से उनका गुजारा होता है। मसलन इन दिनों चल रही अमरनाथ यात्रा और पर्यटन। मौसम की मार ने इसे भी बाधित कर दिया। आपको हैरानी होगी कि यहां तकरीबन छह लाख से ज्यादा बेरोजगार हैं। युवा नशे के नर्क में गर्क हो रहे हैं। हालात उन्हें नशों का आदी और मानसिक रोगी बना रहे हैं। कोविड से भी काफी नुकसान हुआ। हालांकि सरकार ने कोविड में अच्छा काम किया लेकिन यह उसकी अच्छाई का प्रतिनिधित्व नहीं करता। भ्रष्टाचार बढ़ा है। इसके बावजूद कि लोगों के पास भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों को देने के लिए पैसे नहीं हैं। मीडिया यहां का सच नहीं दिखाता। हर चौथे घर के आगे सुरक्षाबल का जवान तैनात है। दिल्ली से जब कोई बड़ा शासकीय नेता आता है या राज्यपाल और उनके सलाहकारों का दौरा होता है तो अघोषित कर्फ्यू लगा दिया जाता है। लोग घरों से बाहर नहीं निकल पाते। चंद फर्जी लोगों को वीवीआइपी से मिलाया जाता है और चैनलों में खबर चला दी जाती है और अगले दिन के अखबारों में बड़ी़-बड़ी सुर्खियोंं के खबर छाप दी जाती हैं घाटी में सब सामान्य है।

राहुल गांधी की यात्रा केे वक्त खुद सरकार ने माहौल बनाया कि सब कुछ सामान्य लगेे। आखिर क्यों नहीं मान लिया जााता कि कश्मीर अंतरराष्ट्रीय मसला है। आज अगर यहां चुनाव हो भी जातेे हैं तो क्या होगा? धारा-370 निरस्त करने के बाद 80 फीसदी अफसरशाही को बाहर से लाकर यहांं बैठाया गया है। सरकार डॉ. कर्ण सिंह और फारूक अब्दुल्लाह जैसे लोगों सेेे बात क्यों नहीं करती? उनकी छवि उदार और कमोवेश विश्वसनीय है। लद्दाख को अलग करना गलत था। व्यापार अथवा आर्थिक स्थिति पर इसका नागवार असर पड़ा। भाजपा सरकार ने दिखावेेेे के तौर पर कुछ विकास कार्य भी किए हैं लेकिन जो करना चाहिए था, वह नहीं किया। बंदूूूक के जोर पर यहां पर्यटन फिर फैलने लगा है। फौरी जरूरत लोकल लीडरशिप से बातचीत करने की है। उससे गुरेज किया जा रहा है।

यह सरकार की अपनी सियासत है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी कश्मीर भाजपा का बहुत बड़ा मुद्दाा होगा। आप लिखिए कि हम कश्मीरियों की जिंदगी में 370 टूटने केेे बाद कोई सुधार नहीं आया। सरकार और मीडिया झूठ बोल रहेे हैं।" डॉ. गुलाम मोहम्मद मलिक का कहना है जैसे 70 साल बीत गए, वैसे चार साल गुजर गए। यह पूछने पर कि अब पाकिस्तान ने अपनी (भारतीय) कश्मीर नीति बदल ली है - वह कहते हैं कि पाकिस्तान तो खुद अब कंगाल हो गया है और गृह युद्ध के हालात से गुजर रहा है। उसे तो कश्मीर की ओर देखना बंद करना ही था। दूसरी बड़ी वजह यहां के चप्पे-चप्पे पर फौज और अर्धसैनिक बलों की तैनाती भी है।

डॉ. लतीफ भी कश्मीर की एक बड़ी शख्सियत हैं। वह इन दिनों अमन और सद्भाव के लिए काम करने वाली एक एनजीओ से जुड़े हुए हैं। वह कहते हैं, "अनुच्छेद-370 के खात्मे ने कश्मीर की मुश्किलों को बढ़ाया है। बेरोजगारी में इजाफा हुआ है और हालात के मद्देनजर यहां के लोगों का रोजगार के लिए बाहर जाना भी मुहाल है। जब अनुच्छेद निरस्त किया गया था, तब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा था कि अब घाटी में जबरदस्त औद्योगिक विकास होगा क्योंकि यहां कोई भी जमीन ले सकेगा। अभी तक एक भी बड़ी परियोजना सिरे नहीं चढ़ी। बाहर के लोग तो क्या, जम्मू के लोगों ने भी घाटी में निवेश नहीं किया। सरकार और उसका पक्षधर मीडिया झूठ पर झूठ बोल रहे हैं। प्रधानमंत्री पूरे देश में घूमते रहते हैं, यह कहते हुए कि लोगों की तकलीफों से रूबरू होना चाहते हैं। वह कश्मीर क्यों नहीं आते? यहां के लोगों की दिक्कतें तो देश के शेष लोगों से कहीं ज्यादा हैं।'’

''कश्मीरियों को बंधक बना लिया गया है और बाहर के लोग यहां के लोगों पर शासन करते हैं। अंग्रेज हुकूमत से भी ज्यादा बदतर हालात हैं। मानसिक रोगियों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। सरकारी दावों के विपरीत बहुत कम कश्मीरी पंडित वापिस आए। कश्मीरी मुसलमानों से उनका कोई बैर ही नहीं था। सामूहिक पलायन के पीछे गहरी साजिश थी। उनके बच्चे कश्मीर से बाहर अच्छी तरह सेट हो गए हैं। वे खुद भी। अब इस 'कंगाल कश्मीर' में आकर क्या करेंगे? जो आए, उन्हें यहां उजाड़ और विषमता के सिवा कुछ नहीं मिला। सो ज्यादातर लौट गए। सरकार ने इस पहलू को भी मीडिया में जाने से रोका। माना कि फारुख अब्दुल्लाह से लेकर महबूबा मुफ्ती तक की सरकारें भ्रष्ट रहीं लेकिन अवाम की सुनवाई तो होती थी। नौकरशाही काबू में थी। आज नौकरशाही हावी है और राज्यपाल को जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं करवाती।"

सत्यपाल मलिक जम्मू- कश्मीर के राज्यपाल रहे, उनकी बाबत पूछने पर डॉ. लतीफ कहते हैं कि उन्होंने यहां ईमानदारी से काम करना चाहा लेकिन करने नहीं दिया गया।

जम्मू और कश्मीर के लोग पूछते हैं कि वह शासन में रहकर क्यों नहीं बोले? अगर बोलते तो ऐसे लोगों में कश्मीरियों का विश्वास पुख्ता होना था। जम्मू और कश्मीर में बहुत बदलाव आता। 'विकास' के नाम पर वह भी कुछ नहीं पाए। शांति, सेना और अर्धसैनिक बलों की बदौलत थी। मलिक लोगों से खुले में मिलते थे। यहां के लोग उन्हें कुल मिलाकर एक ठीक प्रशासक समझते थे।

श्रीनगर के वरिष्ठ पत्रकार ने नाम नहीं देने की शर्त पर बताया कि बदहाली और पाबंदी के लिहाज से घाटी का मीडिया अब बस नाम मात्र को ही मीडिया है। फर्क इतना है कि बाहर से आए पत्रकार कभी-कभार ठीक रिपोर्टिंग कर लेते हैं। वरना दिल्ली से आए मीडिया को भी खुलकर लिखने और बोलने नहीं दिया जाता। यहां की तो बात ही छोड़िए। कश्मीर का मीडिया दुनिया का सबसे बदतर हालात में से गुजरने वाला मीडिया कहा जा सकता है।

आजादी 4 अगस्त, 2019 को ही पूरी तरह छीन ली गई थी। सरकार जो कहती है, वह अधूरा सच है। मीडिया अगर पूरा सच दिखाए तो तथ्यात्मक होने के बावजूद आपको अविश्वसनीय लगेगा। यहां के हजारों नौजवान और विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ता जम्मू-कश्मीर से बाहर की जेलों में बंद हैं। उनका कोई अता-पता नहीं। यहां भी अलग-अलग जगहों को जेलों में तब्दील करके लोगों को रखा गया है लेकिन उनके घर वालों तक को उनसे मिलने नहीं दिया जाता। वकीलों और मानवाधिकार संगठनों को भी। जो लोग बाहर की जेलों में बंद हैं, उनमें से कईयों के घर वालों ने मान लिया है कि अब वह कभी वापिस नहीं आएंगे और न उनकी मृतक देह। यह जानकारियां रोंगटे खड़े कर देती हैं कि उन्हें कितनी बदहाली में रखा गया है और आज भी बेवजह टॉर्चर किया जाता है।

कश्मीरी होना या चंद रुपयों के बदले पत्थरबाज गिरोहों में शामिल होना उनका इतना बड़ा कसूर नहीं, जितनी सजा चार साल से उन्हें मुतवातर दी जा रही है। इससे अच्छा तो उन्हें मार दिया जाए। यही पत्रकार बताते हैं कि घाटी के एक-एक पत्रकार पर निगाह रखी जाती है। हमने उनसे किसी दूसरे शख्स के नंबर से बात की। इसीलिए वह इतनी बारीक जानकारियां दे पाए। उनके मुताबिक भ्रष्टाचार का आलम यह है कि सरकारी तंत्र का एक-एक पुर्जा करप्शन से लैस है। सुरक्षाबलों की गाड़ियों के पेट्रोल अथवा डीजल को भी बेच दिया जाता है। उनके कोटे की शराब को भी। भ्रष्टाचार की बाबत इससे गिरी हुई बात और क्या होगी?

जम्मू में रहने वाले डॉ. सुरेंद्र सिंह भी इंडियन डॉक्टर्स पीस डेवलपमेंट संस्था से जुड़े हुए हैं। वह जम्मू और कश्मीर की घटनाओं पर बारीक नजर रखते हैं। उनका कहना है,"यहां के लोग शांत जरूर हैं लेकिन खुश नहीं। जम्मू और कश्मीर में 6 से 7 लाख सैन्य कर्मी है। स्थानीय पुलिस अलग से। पहले का कुछ वक्त घाटी के लोगों ने बेहद बदहाली में बिताया। दवाइयों के अभाव और भुखमरी के चलते कई लोग मरे भी। लेकिन यह खबर मीडिया पर पूरी तरह नियंत्रण रखने वाली सरकार ने बाहर नहीं आने दी। धीरे-धीरे हिंसा में कमी आई तो पर्यटक आने शुरू हुए।

अमरनाथ यात्रा शुरू हुई। उस से लोगों को कुछ राहत मिली। पहले यहां मिलिटेंट घुसपैठ के जरिए पाकिस्तान से भी आते थे लेकिन अब कुछ स्थानीय लोग यदा-कदा वारदातें करते हैं। यह उनके भीतर के गुस्से का इजहार भी हो सकता है। राष्ट्रपति राज आखिर कब तक चलेगा? सरकार को सियासतदानों से बातचीत करनी चाहिए। संवादहीनता तमाम दावों के बावजूद नकारात्मक वृतांत और ज्यादा फैला रही है। 'विकास' के नाम पर इतना अधिक कुछ नहीं हो रहा जितना प्रायोजित मीडिया में बताया और दिखाया जा रहा है। जमीनी हालात वैसे ही हैं जैसे अनुच्छेद-370 के निरस्त होने से पहले थे। यहां के युवाओं ने 1990 का घोर आतंकग्रस्तता नहीं देखी। सिर्फ कहानियां सुनीं हैं। वे नशे की दलदल में धंस रहे हैं। ड्रग्स यहां एक बड़ा मसला है। इसका जवाब नहीं मिलता कि युवाओं को यह सब हासिल कहां से हो रहा है? जबकि उनके पास खर्च करने को कुछ नहीं। सन् 2019 से ही स्थानीय अखबार, मसलन 'कश्मीर टाइम्स' प्रकाशित होना बंद हो गया था। इंटरनेट के बगैर अखबार छप भी नहीं सकते। बाहर के ज्यादातर अखबारों पर लोगों का भरोसा नहीं।"

जम्मू के टेक-वन टीवी चैनल के संपादक अजय पुरी पूरे परिदृश्य का दूसरा पक्ष रखते हैं। वह कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में इस वक्त देशी-विदेशी खूब पर्यटक आ रहे हैं। कोई भी टैक्सी वाला 1500 से 2000 रुपए तक रोज कमा लेता है। कश्मीर की डल और झेलम नदियां इस वक्त गुलजार हैं। प्रतिमाह एक लाख से ज्यादा लोग वहां आते हैं और शिकारा चलाने वालों को पांच हजार रुपए मिलते हैं। अजय पुरी का मानना है कि जम्मू और कश्मीर में पहले पंचायती चुनाव करवाए जाएंगे और उसके बाद विधानसभा चुनाव होंगे। उनका मानना है कि अनुच्छेद-370 बहाल नहीं होना चाहिए। राजनीतिक प्रक्रिया जरूर प्रारंभ होनी चाहिए।

श्रीनगर के एक कॉलेज में प्राध्यापक इरशाद का मानना है कि 370 हटा देने से क्या हो गया? पूरी दुनिया में यही संदेश गया कि हिंदुत्व की ओर झुकाव रखने वाली भाजपा कश्मीर घाटी को भी अपनी बपौती मानती है। जो काम अनुच्छेद-370 को निरस्त करके किए जा सकते हैं, वे उसे थोड़े बदलाव के साथ बहाल करके भी किए जा सकते हैं। इससे सकारात्मक माहौल बनेगा। आम कश्मीरी कट्टरपंथी और आतंकवादी नहीं है। कुछ शरारती तत्व हर रियासत और समाज में होते हैं। जम्मू और कश्मीर अपवाद नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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