Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

कर्नाटक : भाजपा झेल रही असंतोष की लहर, मोदी से ही उम्मीद

भ्रष्ट सरकार होने का आरोप और मौजूदा आर्थिक संकट जाति और क्षेत्रीय विभाजन की राजनीति पर भारी पड़ सकता है।
Assembly of Karnataka
कर्नाटक विधानसभा की तस्वीर। छवि: विकिमीडिया कॉमन्स

विभिन्न जातियों और समुदायों द्वारा इस या उस पार्टी के प्रति सामूहिक रूप से मतदान करने के रूप में चुनावी लड़ाइयों का विश्लेषण करना अब प्रथागत सा हो गया है। मुख्यधारा के    मीडिया का कर्नाटक में होने वाली 224 सदस्यीय विधानसभा सीटों के चुनावों पर भी दृष्टिकोण कुछ ऐसा ही है और यह ऐसे विश्लेषणों पर मंथन करने वाले विशेषज्ञों से भरा हुआ है जिसे वे एक 'अंतर्दृष्टि' के रूप में पेश करते हैं। चुनाव का पूरा फोकस मुख्य रूप से वोक्कालिगा और लिंगायत समुदाय पर है, ये वो दो जातियां हैं जो संख्याबल के रूप में बड़ी हैं। कुछ नेताओं के छोड़ने से क्या सत्तारूढ़ भाजपा का लिंगायत गढ़ खतरे में आ गया है? क्या भारतीय जनता पार्टी, जनता दल-सेक्युलर या जेडी-एस के वोक्कालिगा गढ़ में सफलतापूर्वक सेंध लगा पाएगी? उम्मीदवारों की सूची क्या दर्शाती है? ये और ऐसे कई सवाल चारों ओर उछाले जा रहे हैं। इसके अलावा, कर्नाटक में अपेक्षाकृत स्पष्ट क्षेत्रीय भेदभाव नज़र आता है – जो ऐतिहासिक प्रशासनिक विभाजनों और जाति, भाषाई और धार्मिक पहचानों से पैदा हुआ है। 

ये सभी कारक जरूर कुछ भूमिका जरूर निभाते हैं। लेकिन क्या यह उतना ही है जितना बताया जा रहा है? कुछ जातियां इस तरह से वोट क्यों देंगी और उस तरह से नहीं? वैसे भी, क्या ये सब जातियां अखंड रूप से मतदान करती हैं या उनमें भी दरार होती है? जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र के अलावा, क्या अन्य कारक हैं जो मतदान के विकल्पों को प्रभावित करते हैं? देखते हैं ये क्या हैं?

इन पेचीदा मुद्दों में जाने से पहले, आइए पहले 2013 और 2018 के पिछले दो विधानसभा चुनावों में मिले वोट शेयर पर नजर डालते हैं। (नीचे चार्ट देखें)

2018 में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में, कांग्रेस को 38 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि भाजपा 36.2 प्रतिशत मत लेकर थोड़ा पीछे रह गई थी। जेडी-एस को 18.3 प्रतिशत वोट मिले थे। यह मत विभाजन सीटों में इस प्रकार परिलक्षित हुआ था: कांग्रेस-78 सीटें; भाजपा-104; और, जेडी-एस को 37 सीटें मिली थी। चूंकि किसी भी पार्टी के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था, इसलिए कांग्रेस और जेडी-एस ने गठबंधन बनाकर सरकार बनाई थी।

हालांकि, घटनाओं के एक कुख्यात मोड़ के कारण कांग्रेस और जेडी-एस से कई विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद गठबंधन टूट गया था। इसके कारण बी.एस. बोम्मई के नेतृत्व वाली वर्तमान भाजपा सरकार को शपथ दिलाई गई थी। 

वर्ष 2013 का विधानसभा चुनाव दिलचस्प रहा था, क्योंकि जैसा कि ऊपर दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, बी.एस. येदियुरप्पा, भाजपा के कद्दावर नेता ने पार्टी छोड़ दी थी और कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) नामक एक अलग पार्टी बना ली थी। इसने राज्य में भाजपा के वोटों में सेंघ लगाई, और उन्हें केवल 19.9 प्रतिशत मतों पर समेट दिया था, जिससे कांग्रेस को 36.6 प्रतिशत वोट शेयर मिला था। येदियुरप्पा को 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी में फिर से शामिल होने के लिए राजी किया गया और यथास्थिति बहाल हो गई थी।

इन घटनाओं ने कई मिथकों को जन्म दिया जो तब से कर्नाटक के चुनावी अंकगणित के सार्वजनिक विमर्श पर हावी हैं। उनमें से एक लिंगायत वोटों का महत्व था, जो 2013 के विभाजन को छोड़कर अब कई वर्षों से भाजपा के साथ हैं, जब येदियुरप्पा ने बीजेपी को नुकसान पहुंचाते हुए खुद की बढ़त बना ली थी।

जो अन्य बात थी वह यह कि वोक्कालिगा वोट का स्थिर रहना था, जो मुख्य रूप से राज्य के दक्षिणी या पुराने मैसूर क्षेत्र में केंद्रित हैं, जो कि बड़े पैमाने पर जेडी-एस के साथ बने हुए नज़र आते हैं। इसलिए विश्लेषकों का मौजूदा जुनून भी कुछ ऐसा है जो बीजेपी की आसन्न जीत दिखाने के इच्छुक हैं और जोर-शोर से तर्क दे रहे हैं कि वोक्कालिगा गढ़ को शायद  बीजेपी इस बात तोड़ देगी। 

2018 के विधानसभा चुनावों की अन्य उल्लेखनीय विशेषताएं ये थीं कि बीजेपी ने तटीय निर्वाचन क्षेत्रों में 52 प्रतिशत से अधिक वोट और वहां की 19 में से 16 सीटों पर जीत हासिल की थी। इसी तरह का लाभ, मध्य और मलनाड क्षेत्र में दिखाई दिया था, जिसमें भाजपा ने 43 प्रतिशत वोट और 28 में से 23 सीटें जीती थीं। इन इलाकों में भाजपा के बेहतर प्रदर्शन के पीछे आक्रामक हिंदुत्व के उदय को माना गया है, जिसका इन मिश्रित आबादी वाले इलाकों में बड़ा प्रभाव है।

लेकिन याद रखें: कुछ इलाकों में इतने प्रभाव के बावजूद तथा लिंगायतों के पाले में लौटने, ओवरटाइम काम करने और तथाकथित 'मोदी मैजिक' के बावजूद पिछले विधानसभा चुनाव  में, फिर भी बीजेपी हार गई थी।

बेलगाम भ्रष्टाचार

कर्नाटक में बीजेपी की अगुआई वाली सरकार लोगों के जनादेश से नहीं, बल्कि दलबदल से पैदा हुई थी। इसकी बुनियाद अलोकतांत्रिक प्रथाओं से धँसी हुई थी। दलबदल/हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप लगे थे। दुर्भावना का यह बादल उसके शासन के पिछले चार वर्षों में घना हुआ है।

अगस्त 2022 में, 13,000 निजी स्कूलों का प्रतिनिधित्व करने वाली एसोसोएशन्स ने प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिखा जिसमें आरोप लगाया गया था कि बोम्मई सरकार ने राज्य में रिश्वतखोरी को संस्थागत बना दिया है, और कहा कि सरकारी विभाग सभी प्रकार के कामों के एवज़ में रिश्वत की मांग करते हैं। दरअसल, उन्होंने संबंधित मंत्री पर सीधे तौर पर इसमें शामिल होने का आरोप लगाया था।

जनवरी में, कर्नाटक राज्य ठेकेदार एसोसिएशन ने आरोप लगाया था कि 25,000 करोड़ रुपये से अधिक के बिल संबंधित राज्य सरकार के विभागों से मंजूरी का इंतजार कर रहे हैं और 40 प्रतिशत की दर से रिश्वत की मांग की जा रही थी। उन्होंने कथित तौर पर एक ऑडियो टेप भी जारी किया जिसमें एसोसिएशन के उपाध्यक्ष से पैसे की मांग करते हुए भाजपा विधायक जीएच थिप्पारेड्डी की रिकॉर्डिंग थी।

इससे पहले, अप्रैल 2022 में, 40 प्रतिशत रिश्वत की मांग के कारण एक ठेकेदार ने आत्महत्या कर ली थी, जिसके बाद मंत्री के.एस.ईश्वरप्पा को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा था। उक्त ठेकेदार संतोष पाटिल, स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था। ईश्वरप्पा को चुनावों में टिकट नहीं दिया गया था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्यक्तिगत रूप से उन्हें फोन करके उनके काम और पार्टी में योगदान की प्रशंसा की।

मार्च में, लोकायुक्त पुलिस ने भाजपा विधायक मदल विरुपक्षप्पा के बेटे प्रशांत मदल को सरकारी कर्नाटक साबुन और डिटर्जेंट लिमिटेड (केएसडीएल) को कच्चे माल की आपूर्ति करने वाली एक कंपनी से रिश्वत मांगने के आरोप में गिरफ्तार किया था। प्रशांत को 40 लाख रुपये रिश्वत लेते पकड़ा गया था। बाद में पुलिस ने विधायक और उनके बेटे के पास से करीब 8.1 करोड़ रुपये नकद जब्त किए थे। वीरुपक्षप्पा को केएसडीएल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

इन घटनाओं ने राज्य में व्यापक भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को उजागर किया, जिसके लिए बोम्मई सरकार को सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यह भाजपा की हताशा का एक पैमाना है, कि इतनी खराब प्रतिष्ठा के बावजूद, पार्टी बोम्मई के नेतृत्व पर टिकी हुई है, उल्टे गृहमंत्री अमित शाह ने "सुशासन" के लिए उनकी प्रशंसा की है।

महंगाई और बेरोज़गारी

हाल ही में कन्नड़ मीडिया आउटलेट ईडिना द्वारा किए गए एक पूर्व-चुनाव सर्वेक्षण में, भ्रष्टाचार के अलावा, मतदाताओं ने दो अन्य प्रमुख मुद्दे उठाए हैं जो मतदान के विकल्पों को प्रभावित करेंगे, वे थे बेरोजगारी और बढ़ती महंगाई। जबकि सर्वेक्षण में हिस्सा ले वाले 68 प्रतिशत लोगों ने भ्रष्टाचार, 47 प्रतिशत ने महंगाई और 34 प्रतिशत ने कहा कि मतदान किस तरफ जाएगा वह बेरोजगारी का मुद्दा तय करेगा। 

सर्वेक्षण में 183 निर्वाचन क्षेत्रों में फैले 40,000 मतदाताओं को शामिल किया गया था और 28 और सीटों के परिणाम आने हैं। 

सर्वेक्षण में पाया गया कि गरीब तबकों के भीतर महंगाई एक बड़ा मुद्दा बन गया है, लगभग 51 प्रतिशत उत्तरदाताओं ने इसे एक प्रमुख कारक बताया है।

विशेष रूप से जरूरी खाद्य पदार्थों और खाना पकाने के ईंधन में महंगाई/मुद्रास्फीति, देश भर के अलावा कर्नाटक में भी बहुत अधिक है। इसने परिवार के बजट को नष्ट कर दिया है, विशेष रूप से तब जब पिछले दो-तीन वर्षों में लोगों की आय/मजदूरी नहीं बढ़ी है। नाकाफी सार्वजनिक वितरण प्रणाली और इसके अपर्याप्त कवरेज तथा मुफ्त 5 किलो खाद्यान्न योजना को वापस लेने से, परिवार के बजट को गंभीर स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। पिछले साल खाना पकाने के तेल की कीमतों में भारी उछाल देखा गया था, खासकर उज्ज्वला सब्सिडी वापस लेने के बाद एलपीजी सिलेंडर की कीमत भी आसमान छू गई थी।

जबकि कर्नाटक में बेरोज़गारी की संख्या देशव्यापी औसत से कम नज़र आती है, वास्तव में, यह प्रच्छन्न बेरोजगारी या कम वेतन वाले रोजगार के कारण है। यह तब होता है, जब अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियों के अभाव में, लोगों को सिर्फ अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए बहुत कम वेतन वाली, असुरक्षित, अस्थायी नौकरियों को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है।

श्रम ब्यूरो के नवीनतम उपलब्ध मजदूरी के आंकड़ों के अनुसार, कर्नाटक में कृषि मजदूरी पड़ोसी तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश की तुलना में कम है। यह तथ्य अकेले कर्नाटक तक ही सीमित नहीं है - यह पूरे देश की हक़ीक़त है। यही कारण है कि हाल के दिनों में हुए राज्य विधानसभाओं के चुनावों में बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है।

आईटी उद्योग में छाए संकट ने बेंगलुरु के महानगरीय केंद्र में बड़े पैमाने पर नौकरियों को भी प्रभावित किया है। इस क्षेत्र में वैश्विक संकट के परिणामस्वरूप आईटी से संबंधित हजारों नौकरियां चली गई हैं।

किसानों की दुर्दशा

कर्नाटक में किसान फसल के बदले में कम आय और कई उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने से सामान्य दबाव का सामना कर रहे हैं। इन हालात ने हजारों लोगों को मोदी सरकार द्वारा 2020 में लाए गए तीन काले कानूनों के खिलाफ साल भर के संघर्ष में भाग लेने पर मजबूर किया था, जिन्हें सरकार को अंततः वापस लेना पड़ा। 

हालांकि, कर्नाटक के किसानों ने एपीएमसी (कृषि उपज बाजार समिति) प्रणाली और सरकारी खरीद में लगातार गिरावट देखी है, जिससे संकट बढ़ गया है और साथ ही उनकी कर्जदारी बढ़ी है। हालांकि पिछली सरकारों ने कर्जमाफी की घोषणा की थी, लेकिन यह नाकाफी रही। कर्नाटक में सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता भी एक अनसुलझा मुद्दा है।

बोम्मई सरकार ने बड़े पैमाने पर गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए कृषि भूमि के अधिग्रहण को प्रोत्साहित किया है, जिससे किसानों में असुरक्षा बढ़ गई है।

बढ़ता असंतोष 

ये सभी मुद्दे और कारण राज्य में जाति और क्षेत्रीय विभाजन पर हावी हैं। बीजेपी शायद सांप्रदायिक विभाजन पर भरोसा कर रही है, जिसे बोम्मई सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में हिजाब, लव जिहाद, यूनिफॉर्म सिविल कोड और ऐसे अन्य विभाजनकारी मुद्दों को उठाकर जोर-शोर से हवा दी है। लेकिन स्पष्ट रूप से, ये मतदाताओं की पसंद तय नहीं करने वाले हैं। राज्य में सत्ता बरकरार रखने के लिए भाजपा को कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ रहा है।

अंग्रेजी मे प्रकाशित इस मूल रिपोर्ट को पढने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Karnataka: BJP Faces Wave of Discontent, Hoping Modi Will Rescue

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest