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ख़बरों के आगे-पीछे: भाजपा से छिटक रहा आदिवासी समुदाय?

भाजपा से आदिवासी समुदाय की दूरी समेत, स्टालिन के राजनीतिक संकेत, तेलंगाना को लेकर कांग्रेस की उम्मीदें, मोदी से पहले राहुल का अमेरिका दौरा और ट्रांसफर को लेकर दिल्ली सरकार की हड़बड़ी पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
Khabron Ke Aage Peeche

कर्नाटक विधानसभा चुनाव से एक बार फिर संकेत मिला है कि देश का आदिवासी समुदाय भारतीय जनता पार्टी से दूर हो रहा है। कर्नाटक में भाजपा एक भी आदिवासी सीट नहीं जीत पाई है। इससे पहले झारखंड विधानसभा चुनाव और उससे पहले छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव से भी ऐसा ही संकेत मिला था। देश के दो सबसे बड़े आदिवासी आबादी वाले राज्यों - छत्तीसगढ़ और झारखंड में भाजपा चुनाव हारी। उसमें भी सबसे खास बात यह रही कि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों पर भाजपा ज़्यादा बुरी तरह से हारी। झारखंड में तो वह आदिवासियों के लिए आरक्षित 28 सीटों में से सिर्फ दो ही सीटों पर चुनाव जीत पाई, जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 19 और कांग्रेस ने छह सीट जीती। एक सीट झारखंड विकास मोर्चा के टिकट पर बाबूलाल मरांडी जीते थे, जो बाद में भाजपा में चले गए, उनको मिला कर राज्य में भाजपा के सिर्फ तीन आदिवासी विधायक हैं। इसी तरह छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 सीटों में से भाजपा सिर्फ दो सीटें जीत पाई थीं, जबकि 27 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। यही कहानी कर्नाटक मे दोहराई गई है। कर्नाटक राज्य में आदिवासियों के लिए 15 सीटें आरक्षित हैं, जिनमें से भाजपा एक भी सीट नहीं जीत पाई है। कांग्रेस ने यहां 14 सीटें जीती हैं और एक सीट जनता दल (एस) के खाते में गई है। इससे पहले 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को सात आदिवासी सीटों पर जीत मिली थी। इतना ही नही अनुसूचित जाति यानी एससी समुदाय के लिए आरक्षित सीटों पर भी भाजपा को बड़ा झटका लगा है। राज्य में 36 सीटें एससी समुदाय के लिए आरक्षित हैं, जिनमें से भाजपा को सिर्फ 12 सीटें मिली हैं। पिछली बार वह 26 सीटों पर जीती थी। इस बार कांग्रेस 21 सीटें हासिल करने में कामयाब रही। ध्यान रहे चुनाव से पहले भाजपा ने एससी और एसटी के आरक्षण में कुछ बदलाव किया था इसके बावजूद उसे कोई फायदा नहीं हुआ।

स्टालिन ने बड़ा राजनीतिक संकेत दिया

कर्नाटक के चुनाव नतीजों पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन का बयान राजनीतिक रूप से बहुत महत्व रखता है। उनके बयान से दक्षिण भारत की आगे की राजनीति का अंदाज़ा होता है। उन्होंने कांग्रेस को जीत की बधाई देते हुए यह भी कहा कि द्रविड़ आंदोलन की धरती से भाजपा की विदाई हो गई। उन्होंने अपने बधाई संदेश में भाजपा की हार के कई कारण भी गिनाए, जिनमें एक कारण यह भी बताया कि भाजपा दक्षिण भारत में हिंदी थोपने की कोशिश कर रही थी। गौरतलब है कि कुछ समय पहले कर्नाटक में मेट्रो स्टेशनों के नाम हिंदी में लिखे जाने का विरोध हुआ था। चुनाव प्रचार में भी दिखा कि भाजपा के ज़्यादातर स्टार प्रचारक हिंदी बोलने वाले थे। बहरहाल, स्टालिन का यह कहना कि द्रविड़ियन भूमि से भाजपा की विदाई हो गई, आगे की राजनीति का संकेत देने वाला है। द्रविड़ियन  भूमि का मतलब विंध्य पर्वत के उस पार का इलाका, जिसे कई लोग अनार्य भूमि भी कहते हैं। कर्नाटक में भाजपा के हारने के बाद सोशल मीडिया मे भी इस तरह की बातें सुनने को मिली। अगर स्टालिन या दक्षिण भारत के नेता यह नैरेटिव बनाते हैं तो इस साल होने वाले तेलंगाना विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को नुकसान होगा। दक्षिण में पैर जमाने की उसकी कोशिशों को झटका लगेगा। लोकसभा चुनाव में भी उसको नुकसान हो सकता है। लेकिन उत्तर और दक्षिण के इस टकराव का फायदा भाजपा को उत्तर भारत में ज़रूर मिल सकता है।

तेलंगाना को लेकर कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ीं

कर्नाटक में चुनाव जीतने के बाद तेलंगाना को लेकर भी कांग्रेस की उम्मीदें 'हरी' हो गई हैं। बताया जा रहा है कि डीके शिवकुमार कांग्रेस को तेलंगाना में चुनाव लड़वाएंगे। तेलंगाना के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रेवंत रेड्डी को शिवकुमार का करीबी माना जाता है। प्रदेश के तमाम बड़े नेताओं के विरोध के बावजूद शिवकुमार ने ही रेवंत रेड्डी को प्रदेश अध्यक्ष बनवाया था। इसलिए बताया जा रहा है कि रेड्डी को शिवकुमार मदद करेंगे और मजबूती से कांग्रेस को चुनाव लड़वाएंगे। कांग्रेस को भारत राष्ट्र समिति बीआरएस के नेता और राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव से हिसाब भी चुकता करना है। चंद्रशेखर राव ने कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल (एस) के लिए प्रचार किया था। उनका मकसद था कि किसी तरह से कांग्रेस नहीं जीत पाए, क्योंकि उन्हें पता था कि कांग्रेस जीतेगी तो तेलंगाना में भी इसका असर होगा। अब यह भी साफ हो गया है कि तेलंगाना में कांग्रेस तालमेल नहीं करेगी। प्रियंका गांधी वाड्रा ने राज्य में कांग्रेस का प्रचार अभियान शुरू कर दिया है। वहां कांग्रेस अलग तेलंगाना राज्य बनाने का श्रेय लेते हुए चुनाव प्रचार करेगी और इससे उसे फायदा पहुंचा सकता है। हालांकि कांग्रेस का बहुत ज़ोर लगा कर लड़ना भाजपा के लिए फायदेमंद भी हो सकता है, क्योंकि कांग्रेस, बीआरएस और ओवैसी की पार्टी का वोट आधार लगभग एक है। ऐसे में तीनों के ताकत लगा कर लड़ने से त्रिशंकु विधानसभा बन सकती है। कांग्रेस को यह स्थिति भी रास आएगी, क्योंकि उसके बाद सरकार बनाने के लिए बीआरएस उसपर निर्भर हो जाएगी।

देवगौड़ा की पार्टी के भविष्य पर सवाल

क्या कर्नाटक की एकमात्र मजबूत क्षेत्रीय पार्टी खत्म हो जाएगी और राज्य में दो दलीय व्यवस्था बहाल हो जाएगी? यह सवाल कर्नाटक विधानसभा में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेक्यूलर (जेडीएस) की हुई दुर्गति को देख कर खड़ा होता है। इस चुनाव में सबसे ज़्यादा नुकसान जेडीएस को हुआ है। उसके वोट में पांच फीसदी की कमी आई है और सीटें पहले से लगभग आधी रह गईं। पिछली बार पार्टी ने 37 सीटें जीती थीं और इस बार उसे सिर्फ 19 सीटें मिली हैं। इसीलिए सवाल है कि अब जेडीएस का क्या होगा? गौरतलब है कि पूरे दक्षिण भारत में कर्नाटक इकलौता राज्य है, जहां भाजपा और कांग्रेस यानी दोनों राष्ट्रीय पार्टियां मजबूत हैं। इसके अलावा किसी अन्य दक्षिण राज्य में दोनों पार्टियों का सीधा मुकाबला नहीं होता है। केरल में कांग्रेस है, जहां उसका मुकाबला वामपंथी मोर्चा से रहता है और बाकी राज्यों में प्रादेशिक पार्टियों के बीच ही मुकाबला होता है। चूंकि देवगौड़ा की पार्टी को लेकर कर्नाटक मे एक खास मतदाता समूह में क्षेत्रीयता की प्रबल भावना रहती है। इसलिए यह तो नहीं कहा जा सकता कि वह खत्म हो जाएगी लेकिन सवाल है कि इस विधानसभा में पार्टी का क्या होगा और अगले लोकसभा चुनाव में उसकी भूमिका क्या रहेगी? क्या कांग्रेस बड़ा दिल दिखाते हुए लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र जेडीएस के साथ गठबंधन करने की कोशिश करेगी?

लोकसभा में पंजाब से आप की वापसी

पंजाब में विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी लोकसभा का उपचुनाव हार गई थी। वह भी मुख्यमंत्री भगवंत मान की संगरूर लोकसभा सीट पर, जो उनके इस्तीफ़े से खाली हुई थी। लेकिन उसी पंजाब में आप ने ज़ोरदार वापसी की है। राज्य की जालंधर लोकसभा सीट का चुनाव आम आदमी पार्टी जीत गई है। यह मामूली बात नहीं है कि कांग्रेस अपनी जीती हुई सीट पर हार गई है। जालंधर लोकसभा सीट पर पिछले चुनाव में कांग्रेस जीती थी और उसके सांसद संतोष चौधरी का भारत जोड़ो यात्रा के दौरान निधन हो गया था। उस सीट पर हुए उपचुनाव में पार्टी ने उनकी पत्नी को उम्मीदवार उतारा था, जो हार गईं। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के एक पूर्व विधायक सुशील कुमार रिंकू को टिकट दिया था, जो चुनाव जीत गए। यह कांग्रेस के लिए झटका है। लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या घट कर 50 हो गई है। पहले उसके 52 सांसद थे। राहुल गांधी की सदस्यता समाप्त हो गई है और अब कांग्रेस जालंधर सीट भी हार गई है। दूसरी ओर 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक सीट जीतने वाली आम आदमी पार्टी संगरूर उपचुनाव हार कर जीरों पर आ गई थी। अब उसका भी खाता खुल गया है। जालंधर लोकसभा सीट पर उपचुनाव का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि भाजपा और अकाली दल को मिला कर 33 फीसदी से ज़्यादा वोट आया है, जो जीतने वाले आप उम्मीदवार को मिले कुल वोट से सिर्फ एक फीसद कम है वहीं कांग्रेस 27 फीसदी पर थम गई।

दिल्ली सरकार इतनी हड़बड़ी में क्यों?

अधिकारियों पर दिल्ली सरकार के नियंत्रण के मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की स्याही सूखने भी नहीं पाई थी कि दिल्ली सरकार ने सेवा सचिव आशीष मोरे को हटा दिया। दिल्ली सरकार के इस फैसले को उप राज्यपाल की मंज़ूरी नहीं मिली और मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया। लेकिन इस बीच दिल्ली सरकार ने उसी विभाग के विशेष सचिव वाईवीवीजे राजशेखर को हटा दिया। राजशेखर दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार पर लगे तमाम बड़े आरोपों की जांच कर रहे थे। मुख्यमंत्री का बंगला तैयार करने में 45 करोड़ रुपए खर्च किए जाने के मामले की जांच भी उनके पास ही थी। इसीलिए सवाल है कि उनके तबादले की ऐसी हड़बड़ी क्या थी? सरकार ने राजशेखर पर आरोप लगाया है कि वे 'वसूली का रैकेट’ चला रहे थे। यह बहुत गंभीर अपराध है। ऐसे अपराध में सिर्फ तबादला कोई सज़ा नहीं होती है। सरकार को इस आरोप की गंभीरता से जांच करानी चाहिए। आम आदमी पार्टी विपक्ष में नहीं है, जो उसके नेता सिर्फ आरोप लगाएंगे। सरकार का काम आरोप लगाना नहीं होता है। दिल्ली में यह नियम पहले से था कि सिविल सर्विसेज बोर्ड की बैठक मे अधिकारियों को बदलने का फैसला होगा। लेकिन उस बोर्ड की बैठक बाद में हो रही है और अधिकारी पहले बदल दिए गए। शराब घोटाले, आलीशान बंगला बनाने पर खर्च, विज्ञापन में गड़बड़ी आदि की जांच कर रहे अधिकारी को हटा कर सरकार ने गलत नज़ीर पेश की है।

मोदी से पहले राहुल जाएंगे अमेरिका

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जून के तीसरे हफ्ते में अमेरिका जाएंगे, जहां राष्ट्रपति जो बाइडेन के साथ उनकी  द्विपक्षीय वार्ता होगी। लेकिन उनसे पहले कांग्रेस नेता राहुल गांधी 31 मई को 10 दिन की अमेरिका यात्रा पर जा रहे हैं। वे वहां वाशिंगटन से लेकर कैलिफोर्निया और न्यूयार्क तीन बड़े शहरों में जाएंगे। अपनी लंदन यात्रा के दौरान राहुल ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में भाषण दिया था, जिसे लेकर उनके ख़िलाफ़ लोकसभा में विशेषाधिकार का नोटिस दिया गया था। अमेरिका में वे प्रतिष्ठित स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में भाषण देंगे। उनकी अमेरिका यात्रा का सबसे दिलचस्प कार्यक्रम यह है कि वे न्यूयॉर्क के मेडिसन स्क्वायर गार्डेन यानी एमएसजी में पांच हज़ार प्रवासी भारतीयों की एक सभा को संबोधित करेंगे। प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी जब पहली बार अमेरिका गए थे तो उन्होंने मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में ही प्रवासी भारतीयों को संबोधित किया था। उस कार्यक्रम की बहुत चर्चा हुई थी। गौरतलब है कि अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों में प्रवासी भारतीय आमतौर पर नरेंद्र मोदी और भाजपा के समर्थक हैं। भाजपा और संघ का उनके बीच अच्छा असर है। लेकिन अगर कांग्रेस के नेता इस भरोसे में हैं कि उनकी ओवरसीज इकाई के नेता और खास कर सैम पित्रोदा पांच हज़ार प्रवासी भारतीयों को जुटा लेंगे, जो राहुल के भाषण के बीच 'मोदी-मोदी’ के नारे नहीं लगाएं तो यह बड़ी बात होगी। अगर पांच हज़ार प्रवासी भारतीय अमेरिका में राहुल को सुनने जुटते हैं और उनकी सोच बदलनी शुरू होती है तो भारत की घरेलू राजनीति पर भी इसका असर दिखेगा।

गडकरी ने संन्यास की अटकलों को विराम दिया

भाजपा के पूर्व अध्यक्ष और केंद्रीय सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने राजनीति से संन्यास की तमाम अटकलों पर विराम लगा दिया है। पिछले कुछ समय से उनके अलग-अलग भाषणों  के आधार पर अंदाज़ा लगाया जा रहा था कि वे सक्रिय राजनीति से संन्यास ले सकते हैं। भाजपा संसदीय बोर्ड से हटाए जाने के बाद इस तरह की अटकलों को और बल मिला था। लेकिन अब उन्होंने साफ कर दिया है कि वे अगला लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा है कि वे अगला लोकसभा चुनाव नागपुर सीट से ही लड़ेंगे और पहले से ज़्यादा वोटों के अंतर से जीतेंगे। चुनाव से एक साल पहले उनकी यह घोषणा भाजपा की आंतरिक राजनीति को लेकर भी कई संकेत देने वाली है। गडकरी ने यह भी कहा है कि चुनाव में वोट काम के आधार पर मांगा जाना चाहिए। उन्होंने अगला चुनाव लड़ने का ऐलान करते हुए कहा कि इस बार वे वोट मांगने के लिए पोस्टर और होर्डिंग्स आदि नहीं लगवाएंगे, जिनको वोट देना है वे देंगे और जिनको नहीं देना है वे नहीं देंगे। हैरान करने वाली बात है कि गडकरी भाजपा जैसी पार्टी के नेता हैं, जिसमें प्रचार सर्वोपरी होता है। चुनावों में जिस पैमाने पर प्रचार होता है उसकी कोई बराबरी नहीं कर सकता। इसलिए लगता है कि प्रचार को लेकर दिया गया उनका बयान भी पार्टी की अंदरुनी राजनीति पर एक कटाक्ष है। अगर बिना प्रचार किए गडकरी ज़्यादा वोट से जीतते हैं तो उनका कद और बढ़ेगा।

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