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क्या लिंचिंग को भारत में ‘वध’ नाम दिया जा सकता है ?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शब्दावली के प्रति सनक किसी तरह के भोलेपन को नहीं दर्शाती है।  
Mohan bhagwat

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत का स्थापना दिवस (दशहरा) पर दिया भाषण अब एक ऐसा कार्यक्रम बन चुका है जिसे दिलचस्पी के साथ देखा जाता है। दशहरा पर दिए जाने वाला भाषण की संगठन में लंबी परंपरा रही है, इससे संघ के सहयोगी संगठन अपनी दिशा तय करते हैं।

यह साल भी कोई अलग नहीं था। संघ की गणवेश में संगठन के प्रमुख नेताओं ने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी कार्यक्रम में पहुंचे।उन्होंने भी संघ की काली टोपी और गणवेश पहन रखी थी।

हालांकि भागवत के भाषण में कुछ भी रणनीतिक नहीं दिखा। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि वे आरएसएस और इसके सहयोगी संगठनों को कोई नई दिशा नहीं दिखा पाए, यहां तक कि कई राज्यों और केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के बचाव में भी वे कमजोर दिखे। द वॉयर ने अपने विश्लेषण में सवाल उठाया है कि ‘क्या संघ परिवार के खिलाफ पांसा पलट चुका है?

भागवत ने कहा कि “आर्थिक मंदी की चर्चा’’ करने की जरूरत नहीं है, इससे “यह और ज्यादा बढ़ेगी’’। ऐसा कहकर उन्होंने अर्थशास्त्र और भारत में जारी आर्थिक मंदी पर अपनी कमजोर समझ दिखाई है। उन्होंने यह भी कहा मंदी का मतलब होता है कि विकास दर शून्य से नीचे चली जाना (आमतौर पर अर्थशास्त्री बताते हैं कि अगर छ: या ज्यादा महीनों तक नकारात्मक विकास दर हो तो इसे मंदी माना जाएगा)। भागवत ने बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार के अर्थव्यवस्था कुप्रबंधन पर कोई चर्चा नहीं की। न ही उन्होंने पिछले पांच साल से देश में जारी मॉब लिंचिंग पर सरकार के उठाए कदमों पर बात की।

21 वीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजनीति और समाज में बहुसंख्यक ताकतों का प्रभावी होना इन घटनाओं से जुड़ा हुआ है। लिंचिंग का सबसे पहला मामला नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के 15 दिन बाद ही सामने आ गया था।

4 जून 2014 को पुणे में एक इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मैनेजर मोहसिन मोहम्मद शेख की दक्षिणपंथी संगठन हिंदू राष्ट्र सेना से जुड़े लोगों ने लिंचिंग कर दी थी। इस हत्या से शेख, उसके परिवार और समाज पर भयानक बुरे प्रभाव पड़े। आज तक बिना कानूनी कार्यवाही के निर्दोष लोगों को भीड़ द्वारा मारने की घटनाएं रुक नहीं पाई हैं।

लक्ष्य बनाकर होने वाली हिंसा की एक विशेषता है, इसमें सिर्फ एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को मारता है या उसकी हत्या नहीं करता, जैसे भीड़ की लक्षित हिंसा। यह भीड़ भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, ट्रांसजेडर्स, महिलाओं और दूसरे कमजोर वर्गों को निशाना बना रही है।

जिसे भी ‘दूसरा’ मान लिया जाता है, उससे अब सब जायज है। लॉस एंजिल्स स्थित कैलीफोर्नियो यूनिवर्सिटी के जाने-माने समाज विज्ञानी संजय सुब्रमण्यम के मुताबिक, मॉब लिचिंग करने वाली भीड़ को पता है कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों का उन्हें समर्थन है। यही बात उन्हें इस घृणित काम को करने के लिए डर को हटाकर विश्वास देती है।  

आलोचना करने वालों को छोड़िए, नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थकों और प्रशंसकों को भी लगता है कि लिंचिंग एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर नरेंद्र मोदी सरकार की मीडिया में बदनामी हुई है। 2016 में एक वक्त तो खुद मोदी को इसकी निंदा करनी पड़ी थी (हालांकि तबसे इस मुद्दे पर छलकपट कर रहे हैं)। यह निंदा भी तब की गई थी, जब गुजरात के ऊना और देश के दूसरे हिस्सों में दलितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ गोरक्षकों ने खूब हिंसा की थी, जिसका बड़े पैमाने पर देशभर में विरोध हुआ था।  

इन भयावह लिंचिंग में कोई कमी नहीं आई है, इसलिए संघ प्रमुख से आशा थी कि वो (कम से कम औपचारिक तौर पर ही) इन हत्याओं को अस्वीकार्य बताते। इसके बाद जरूर वे हिंदू धर्म की सहिष्णुता का गाना गाकर हत्याओं को न रोक पाने पर सरकार की आलोचना कर सकते थे। लेकिन इसका बिलकुल उल्टा हुआ।

उन्होंने लिंचिंग को पश्चिमी देशों का विचार बताकर मुद्दे को पलटने की कोशिश की। उन्होंने हत्या करने वाली भीड़ का मूल बाइबिल में खोज निकाला, जो भारत के अल्पसंख्यक ईसाईयों की पवित्र किताब है। उनके मुताबिक, लिंचिंग का इस्तेमाल ‘देश और पूरे हिंदू समाज’ को बदनाम करने के लिए किया जा रहा है। इसे बिना कानूनी सहमति के, भीड़ का एक व्यक्ति के खिलाफ कारनामा मानने के बजाए, उन्होंने लिंचिंग को दो समुदायों की लड़ाई बताने की कोशिश की।

जैसी अपेक्षा थी कि विपक्ष ने भागवत के शब्दों पर कड़ी प्रतिक्रिया के साथ चिंता जताई, लेकिन लिंचिंग जैसे घृणित अपराध के लिए नहीं। भागवत ने एक कैबिनेट मंत्री द्वारा लिंचिंग के एक आरोपी के महिमांडन पर भी आंखें बंद कर लीं। बीजेपी के कई नेताओं ने लिंचिंग के आरोपियों को मालाएं पहनाई हैं। ऐसे ही एक आरोपी के शव को तिरंगे में लपेटा गया था, जिसके कार्यक्रम में एक मंत्री ने भी शिरकत की थी।

जो भी भगवा धारा को बखूबी जानता है, उसे पता है कि भागवत ने शब्दों की गलती नहीं की। इन लोगों की शब्दों के साथ खेलना पुरानी चाल है। इससे इनकी नफरत औऱ भेद के विचार पर आधारित कारनामों को अच्छे शब्दों में पिरोने की चालाकी का पता चलता है। गाय के नाम पर हिंसा करने वालों को गोरक्षक, जिन्होंने बाबरी गिराई उन्हें कारसेवक और गुजरात दंगों को ‘क्रिया पर प्रतिक्रिया’ के नाम पर सही ठहराया जाता है।

विएतनाम युद्ध से निकले शब्द ‘कॉलेटरल डेमेज’ पर गौर करें, जिसे 1991 में ईराक पर अमेरिकी कार्रवाई के दौरान पहचान मिली। यह मुहावरा दूसरे निशानों पर हमला करते वक्त हुई नागरिकों की हत्या के लिए निकाला गया। इस तरह मीठे शब्दों से हत्या पर नैतिक गुस्से या विरोध को शांत कर लिया जाता है। इस तह संघ के हिंदू सुप्रीमेसिस्ट, दूसरे धर्मों के कट्टरपंथियों की तरह शब्दों का सोच समझकर इस्तेमाल करते हैं और मानवता के खिलाफ अपराधों को साफ करते हैं। महात्मा गांधी की हत्या पर विचार कीजिए, जिनका हिंदू धर्म, हिंदुत्व के बिलकुल विपरीत था।

महाराष्ट्र में यह घृणित विचारधारा दशकों से पलती रही है और जहां से इसके प्रमुख विचारक आते हैं, वहां सावरकर और उनके कट्टरपंथियों (कपूर मिशन) के समूह ने एक साजिश रची। यह लोग गांधी की नृशंस हत्या को ‘गांधी वध’ का नाम देते हैं।संस्कृत भाषा और साहित्य का जानकार कहेगा कि वध मतलब हत्या होता है, लेकिन जो किसी अच्छे कारण के चलते की गई हो।

इसलिए तो कृष्ण का कंस को मारना ‘कंस वध’ या रामायण में शूद्र विद्वान शंबूक को मारना ‘शंबूक वध’ कहा गया। यह मौका है जब रामायण की ओर देखा जाए, जिसमें वध को कई बार इस्तेमाल किया गया है।शंबूक की हत्या वाल्मिकी रामायण के उत्तराकांड या अंतिम अध्याय के 73 से 76 वें सर्ग के बीच वर्णित है।

73. जब राम एक राजा के तौर पर शासन कर रहे थे, तब एक ब्राह्मण उनके पास रोते हुए आया।  ब्राह्मण के हाथों में उसका मरा हुआ बेटा था। ब्राह्मण ने कहा कि राम ने जरूर कोई पाप किया होगा, नहीं तो उसका बेटा नहीं मारा जाता।

74. नारद मुनि राम को बताते हैं कि एक शूद्र तपस्या कर रहा है, यही बच्चे की मृत्यु का कारण है।

75. राम अपने उड़ने वाले रथ पर बैठकर अवलोकन पर निकलते हैं और देखते हैं कि एक तपस्वी तपस्या कर रहा है। वो उसके बारे में पूछते हैं।

76. “....वो बोल ही रहा था कि राम ने अपनी ताकतवर तलवार म्यान से निकाली और उसका सिर काट दिया। जैसे ही शूद्र को मौत के घाट उतारा गया, सभी देवता और अग्नि के समर्थक जोर-जोर से चिल्लाने लगे, ‘बहुत अच्छे!बहुते अच्छे!’। उन्होंने राम के ऊपर पुष्पवर्षा चालू कर दी और चारों तरफ वायु ने एक अच्छी खुशबू फैला दी’’ (583-84)

हरिप्रसाद शास्त्री द्वारा वाल्मिकी की रामायण से अंग्रेजी में अनुदित: शांति सदन, 1970)

हिंदू सुप्रीमिस्ट के लिए गांधी सबसे बड़ी बाधा थे, जिन्हें 1945 में एक हिंदुत्व साप्ताहिक के कार्टून में ‘राक्षस बताया गया था, जिसका विनाश जरूरी है’। इस कार्टून में गांधी को दस सिरों वाले रावण के तौर पर पेश किया गया था, जिस पर हिंदू राष्ट्र के समर्थक निशाना लगा रहे थे। इसलिए यह आश्चर्य करने वाला नहीं है कि महाराष्ट्र में समाज के ऊपर गहरा प्रभाव रखने वाले, जिनमें उस वक्त ज्यादातर ब्राह्मण थे, वे गांधी की साजिशन हत्या को आसानी से ‘वध’ बताकर सही ठहरा सकें।

शायद भागवत को शब्दों का यही खेल ध्यान रखना चाहिए था। लिंचिग को क्या किसी शब्द से बदला जा सकता है, उनके मुताबिक, पुरातन काल से चला आ रहा देशी शब्द ‘वध’ सही होता।  

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