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बात-बेबात: संसद खाली करो कि तानाशाही आती है!

मोदी की भाजपा को विपक्ष मुक्त संसद पर ही संतोष नहीं है, उसे संसद मुक्त भारत चाहिए।
india alliance
फ़ोटो : PTI

भारत की संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्य सभा से सांसदों का  धड़ाधड़  निलंबन कर दिया गया। कुल 146 सांसदों को बाहर करके शीत्र सत्र एक दिन पहले समाप्त कर दिया गया।

क्यों निलंबित हुए सांसद? इसलिए कि वे जिस मकसद के लिये चुने गए हैं वह काम कर रहे थे। वे सवाल पूछ रहे थे। संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष का काम ही नहीं दायित्व भी होता है कि वह सरकार से सवाल पूछे। सवाल पूछना सिर्फ सवाल पूछना नहीं होता - सवाल पूछना दरअसल किए और अनकिये, घटनाओं और हादसों की  जिम्मेदारियों को तय करना होता है । गलत को गलत कहना और ऐसा करते हुए भविष्य में इस तरह के दोहराव को रोकना होता है। सवाल पूछे जाते हैं ताकि सरकारों से इस बात का जवाब लिया जाए कि ऐसे सवाल उठने की नौबत क्यों आयी ।  उनसे सार्वजनिक रूप से  यह वचन लिया जाए कि उनके द्वारा भविष्य में इस तरह के सवालों की स्थिति उत्पन्न नहीं होने दी जाएगी।  

संसदीय लोकतंत्र का मतलब ही यह है ; संसदीय लोकतंत्र किसी एक दल के सत्तासीन होने भर का जरिया नहीं है - यह राज में बैठे दल, समूह को पारदर्शी तथा  उत्तरदायी बनाने का माध्यम है। यही वजह है कि इसकी सुन्दरता ताकतवर सरकार में नहीं मजबूत विपक्ष में निहित होती  है। इसमें  विपक्ष के नेता को भी विधिवत सम्मान का दर्जा और कैबिनेट मंत्री के समकक्ष पद दिया जाता है । दुनिया के अनेक देशों में तो महत्वपूर्ण मामलों में किसी भी निर्णय पर पहुँचने से पहले सरकार का मुखिया विपक्ष के नेता से मंत्रणा करता है।  

संसदीय लोकतंत्र को मानने वाले कई देशों में तो शैडो कैबिनेट - छाया मंत्रिमंडल - भी होता है, जिसके अलग अलग विभागों के प्रभारी सरकार के संबंधित विभागों पर निगरानी रखते हैं। वे सब मिलकर इस बात को पक्का करते हैं कि संसद की और इस तरह जनता की सर्वोच्चता बरकरार रहे ।  कोई भी, भले कितने भी अपार बहुमत वाली सरकार ही क्यों न हो, संसद को दरकिनार करने की कोशिश न करे । इस तरह सत्ता पक्ष से कहीं अधिक विपक्ष की जिम्मेदारी होती है कि वह संसदीय लोकतंत्र और जनता के हितों की हिफाजत करे । सरकार को जवाब देने के लिए बाध्य करे।

जिन्हें निलंबित किया गया है वे सांसद यही तो कर रहे थे। वे 20 हजार करोड़ रुपयों से ज्यादा जनता का पैसा पानी की तरह बहा कर पहले पहली बारिश में ही पानी पानी कर दी गयी संसद की सुरक्षा को अभेद्य बताने की बतोलेबाजी को तार तार कर देने वाली बुधवार 13 दिसंबर की घटना पर सरकार से जवाब मांग रही थे।  निलंबित सांसद चाहते थे कि संसद सहित देश की आंतरिक सुरक्षा के जिम्मेदार गृहमंत्री संसद में आकर इसके बारे में बताएं। वे चाहते थे कि इस संवेदनशील विषय पर संसद के दोनों सदनों में चर्चा की जाए।  उनकी मांग थी कि जिस भाजपा सांसद के दिए हुए अनुमति पत्र - संसद में प्रवेश के पास - पर संसद में घुसने की कार्यवाही हुई उसके खिलाफ कार्यवाही की जाये।

देश के गृहमंत्री से बयान देने और संसद में चर्चा कराने की मांग करना अपराध नहीं हैं! यह सांसदों का दायित्व है, वे इसीलिये चुने जाते हैं।  मगर 13 दिसंबर के बाद न गृहमंत्री संसद में आये न प्रधानमंत्री ने ही अपनी शक्ल दिखाई । बल्कि जैसे संसदीय लोकतंत्र को धता बताने और उसके विशेषाधिकार की धज्जियां उड़ाने  के लिए वे इस मसले पर बाहर बयानबाजी करते रहे और इस तरह संसद सत्र के दौरान महत्वपूर्ण सवालों पर संसद के बाहर बोलने की मान्य परंपरा को भी जीभ चिढ़ाते रहे। बजाय अपनी विफलता या कमजोरी को स्वीकारने के विपक्ष पर ही "राजनीति करने" की तोहमत जड़ते रहे। 

लोकसभा अध्यक्ष  तो और भी आगे बढ़ गए और बोले कि "भारत की संसद की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की नहीं है उनकी है - इसलिए जो हुआ उसके लिए गृहमंत्री या सरकार नहीं वे जिम्मेदार हैं ।" हालांकि इस जिम्मेदारी को लेने के बाद भी वे अपनी आसंदी से तनिक भर नहीं हिले, सरकार जिन जिन सांसदों का नाम बताती रही उन उन को निलंबन - सो भी पूरे सत्र के निलंबन का फरमान पकड़ाते गए ।

इसकी वजह, जैसा कि बताया जा रहा है. सांसदों द्वारा अपनी इन तीन मांगों को लेकर संसद के गर्भगृह - जिसे न जाने क्यों अंग्रेजी में वेल कहा जाता है - में जाकर नारे लगाना या इन मांगों का लिखा पोस्टर - प्लेकार्ड दिखाना नहीं है । इसकी तीन बड़ी और एक छोटी वजहें हैं । छोटी वजह यह कि जिस घटना के लिए सांसद सवाल पूछ रहे थे उसके लिए संसद प्रवेश का पास देने वाले खुद भाजपा के सांसद थे । कथित रूप से अपनी मेल आईडी का पासवर्ड देने के लिए एक विपक्षी सांसद की सांसदी खत्म कर देने वाली संसद को बाकायदा पास देने वाले सत्ता पार्टी के सांसद के खिलाफ कुछ न कुछ तो करना ही पड़ता। इसलिए चर्चा न होने देना चुना गया  ।  मगर यह छोटी वजह है,  पहली बड़ी वजह यह थी कि अगर बुधवार की घटना पर चर्चा होती, दो युवाओं के दर्शकदीर्घा से कूदकर संसद के भीतर सांसदों के बीच तक पहुँच जाने की बात होती तो यह भी बताना पड़ता कि आखिर वे किन मांगों को लेकर संसद में उतरने के लिए विवश हुए थे ?  फिर देश के युवाओं के भविष्य को घनघोर अनिश्चितता के गर्त में धकेल देने वाली बेरोजगारी के बारे में भी चर्चा होती । ऐसा होता तो हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देने की ढपोरशंखी घोषणाओं पर भी बात होती । अडानी मार्का कारपोरेटी राज की बखिया भी उधड़ती । यह भी मानना पड़ता कि ये दो चार  युवा किसी हिंसक या आतंकी हमले के इरादे से नहीं - दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी वाले देश के युवक युवतियों की पीड़ा के इजहार के लिए आये थे । यह भी बताना पड़ता कि ऐसा इस देश में पहली बार नहीं हुआ है, इसी संसद और देश की अनेक विधानसभाओं की दर्शकदीर्घा से जनता ने अपनी मांगों के लिए नारे लगाए हैं, पर्चे उछाले हैं । इस सबसे बचने का सबसे आसान किन्तु लोकतंत्र के प्रति जघन्य , सांसदों के धड़ाधड़ निलम्बन का तरीका चुना गया ।  

संसद को विपक्ष से खाली कराने के बाद इरादा उन खतरनाक कानूनों को बिना बहस, बिना विरोध के पारित करवाने का भी था, जिनके जरिये एक सम्प्रभु, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य को खुल्लमखुल्ला एक घुटन भरे पुलिस राज में बदल दिया जाने वाला है ।  गिरफ्तारी से जुड़े अनेक नए प्रावधान, न्याय प्रक्रिया से जुड़े अनेक नए विधान नागरिक स्वतन्त्रता के ऊपर दरोगा को बिठाने का इंतजाम कर देंगे।  खाली संसद तानाशाही लाने का मुफीद रास्ता है ।  

मगर असली इरादा इतना भर नहीं है, वह इससे आगे का है और कुछ ज्यादा ही सांघातिक है। मोदी की भाजपा को विपक्ष मुक्त संसद पर ही संतोष नहीं है, उसे संसद मुक्त भारत चाहिए। सत्ता में आने के बाद से भारत की सभी संवैधानिक संस्थाओं की मान मर्यादा धूल में मिलाने के साथ संसद की गरिमा भी इरादतन गिराई जाती रही है। उसके अनेक अधिकार इस या उस बहाने छीने जा चुके हैं, उसे अप्रासंगिक बनाया जाता रहा है, उसका मखौल उड़ाया जाता रहा है । अब उसका वजूद ही संकट में डाला जा रहा है । तीन राज्यों के अपने ही विधायक दलों के नेता चुनने के वक़्त जो खेला हुआ वह इसी तरह का एक नमूना था - उनके निशाने पर समूचा संसदीय ढांचा है । यह उनका लक्ष्य भी है, यही उनका उद्देश्य भी है । भाजपा जिस आरएसएस की राजनीतिक भुजा है उसके सरसंघचालक रहे, जिन्हें संघ और मोदी अपना गुरु जी मानते हैं वे एमएस गोलवलकर साफ़ साफ़ शब्दों में इसे कह भी चुके हैं  ।

उनकी पुस्तक  ‘‘विचार नवनीत’’ (बंच ऑफ़ थाट्स) में एक अध्याय है जिसका शीर्षक ‘‘एकात्मक शासन की अनिवार्यता’’ है ।  इस अध्याय में "एकात्मक शासन" तुरन्त लागू करने के उपाय सुझाते हुए गोलवलकर लिखते हैं कि ‘‘इस लक्ष्य की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी कदम यह होगा कि हम अपने देश के विधान से संघीय ढांचे की सम्पूर्ण चर्चा को सदैव के लिए समाप्त कर दें । एक राज्य के, अर्थात् भारत के, अन्तर्गत अनेक स्वायत्त अथवा अर्द्धस्वायत्त राज्यों के अस्तित्व को मिटा दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधानमण्डल, एक कार्यपालिका घोषित करें। उसमें खण्डात्मक, क्षेत्रीय, साम्प्रदायिक, भाषाई अथवा अन्य प्रकार के गर्व के चिह्न भी नहीं होने चाहिए ।  इन भावनाओं को हमारे एकत्व के सामंजस्य का ध्वंस करने का मौका नहीं मिलना चाहिए। संविधान का पुनः परीक्षण एवं पुनर्लेखन हो, जिससे कि अंग्रेजों द्वारा किया गया तथा वर्तमान नेताओं द्वारा मूढ़तावश ग्रहण किया हुआ कुटिल प्रचार कि हम अनेक अलग-अलग मानववंशों अथवा राष्ट्रीयताओं के गुट हैं, जो संयोगवश भौगोलिक एकता एवं एक समान सर्वप्रधान विदेशी शासन के कारण साथ-साथ रह रहे हैं, इस एकात्मक शासन की स्थापना द्वारा प्रभावी ढंग से अप्रमाणित हो जाए।’’ गोलवलकर ने सन् 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद की प्रथम बैठक को भेजे गए अपने संदेश में भारत में राज्यों को समाप्त करने का आह्वान करते हुए कहा था, ‘‘आज की संघात्मक (फेडरल) राज्य पद्धति, पृथकता की भावनाओं का निर्माण तथा पोषण करने वाली, एक राष्ट्र भाव के सत्य को एक प्रकार से अमान्य करने वाली एवं विच्छेद करने वाली है। इसको जड़ से ही हटाकर तदानुसार संविधान शुद्ध कर एकात्मक शासन प्रस्थापित हो।’’

संघ सिर्फ संघीय गणराज्य के विरूद्ध ही नहीं रहा वह एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर चलने वाली संसदीय प्रणाली के भी खिलाफ  रहा । यही   गोलवलकर थे जिन्होंने लोकतंत्र को धिक्कारते हुए इसे मुंड गणना करार दिया था और इसे समाप्त कर इसके स्थान पर "कुछ विशिष्ट और योग्य लोगों" द्वारा शासन चलाने की महान - असल में मनु मान्य - प्रणाली की बहाली पर जोर दिया था। भारत की संसद के इन दिनों के नजारों को इसी लिखे के साथ पढ़ा, इसी कहे के साथ देखा जाना चाहिए । यह सिर्फ सांसदों का निलंबन नहीं है, यदि इसे उलटा नहीं गया तो यह भारत के संसदीय लोकतंत्र की समाधि पर लिखा विस्मृति लेख भी बन सकता है । यह तानाशाही की पदचाप भर नहीं है, यह लोकतंत्र की प्रतिनिधि संस्था संसद की ओर बढ़ते बुलडोजर की गड़गड़ाहट है ।  इसके खिलाफ लड़ाई, लोकतंत्र की एक एक इंच बचाने के लिए लड़ाई जरूरी है । इसे  संसद से सड़क तक लड़ा जाना अनिवार्य भी है, अपरिहार्य भी है  । 

हुक्मरान भले  चुनाव में अकूत पैसे और साम्प्रदायिकता के हलाहल, कें चु आ के बल, तिकडमों के दलदल और ईवीएम के छल का इस्तेमाल कर हासिल अपनी फौरी चुनावी जीतों को भारतीय लोकतंत्र की कपालक्रिया करने का जनादेश समझ रहे हों, उस पर इतराते हुए 2024 में लोकसभा की सभी सीटें जीतने का एलान कर रहे हों,  मगर इतिहास गवाह है कि जनता इतनी अविवेकी नहीं है।  दुनिया के इतिहास में ही नहीं खुद भारत के इतिहास में भी  1975 - 77 की इमरजेंसी का उदाहरण है ;  अन्धेरा उस समय भी बहुत था, जनतंत्र के रोशन बुर्जों को बुझाने की कोशिशें तब भी कम नहीं हुयी थीं,  मगर जुगनुओं ने मैदान नहीं छोड़ा था। अंतत: उजाला आया ही। निस्संदेह आज का यह अंधेरा उससे कहीं ज्यादा कुरूप और गहरा, मगर है तो सिर्फ अन्धेरा ही न - रात भर का मेहमान ही तो है, सवेरा हमेशा के लिए रोकने की कुव्वत इसमें तो क्या किसी में नहीं है ।  जनता के विवेक से ज्यादा चमकदार कुछ भी नहीं होता, जरूरत उसे जगाये रखने और मुस्तैद बनाए रहने की  है।   

(लेखक लोकजतन के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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