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कोरोना-संकट: राजा-रानी की भूमिकाएं निभाने वाले तमाशा कलाकार रास्ते पर

मुंबई में बॉलीवुड ग्लैमर से कोसों दूर महाराष्ट्र के ग्रामीणों का मनोरंजन करने वाले तमाशा कलाकारों की स्थिति कोरोना महामारी और पाबंदियों के कारण बदतर हो चुकी है। ऐसे में उन्होंने इस मुसीबत से उबरने के लिए सरकार से मदद की गुहार लगाई है।
कोरोना-संकट: राजा-रानी की भूमिकाएं निभाने वाले तमाशा कलाकार रास्ते पर
तमाशा कलाकारों ने कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर आने से पहले राज्य सरकार से सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति मांगी थी, लेकिन इन दिनों हालात फिर मुश्किलों से भरे हैं। फाइल फोटो, साभार: राज्य ढोलक मंच तमाशा महोत्सव, मुंबई

पुणे/सांगली (महाराष्ट्र): कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण महाराष्ट्र की लोककला तमाशा की मंडलियों और उनमें कार्य करने वाले पारंपरिक कलाकारों की माली हालत बिगड़ती जा रही है। महाराष्ट्र में हर साल गुड़ी पर्वा (अप्रैल मध्य) से बौद्ध पूर्णिमा (26 मई) तक गांव-गांव यात्राएं और जात्रा यानी मेलों का आयोजन होता है। इस दौरान जगह-जगह तमाशा आयोजित किए जाते हैं। लेकिन, कोरोना संक्रमण को नियंत्रित करने के लिए अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी लगाई गई रोक के कारण यह लगातार दूसरा साल है जब पूरे राज्य में तमाशा के आयोजन पूरी तरह से बंद हैं। बता दें कि पूरे राज्य में लगभग 85 छोटे-बड़े तमाशा मंडल हैं जिनमें हजारों की संख्या में लोक कलाकार काम करते हैं।

इस बारे में अखिल भारतीय लोक कलाकार मराठी तमाशा परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष संभाजी राजे जाधव बातचीत में इस लोककला शैली की दुर्दशा के बारे में विस्तार से बताते हैं। उनके मुताबिक पिछले साल भी ऐन मौके पर तमाशा के सभी शो रद्द कर दिए गए थे, जिसके कारण कई तमाशा मंडल प्रबंधकों की कमाई रुक गई थी और उन्होंने साहूकारों से कर्ज ले लिया था। लेकिन, इस वर्ष फिर सीजन के दौरान ही महाराष्ट्र में कोरोना संक्रमण में तेजी से प्रसार होने के कारण तमाशा की प्रस्तुतियों पर रोक लगी हुई है।

कई तमाशा कलाकार बताते हैं कि इस लोककला के अलावा उन्हें आजीविका से जुड़े दूसरे कार्य नहीं आते हैं। फाइल फोटो साभार: राज्य ढोलक मंच तमाशा महोत्सव, मुंबई

संभाजी राजे जाधव बताते हैं, "हम पर कर्ज का ब्याज लगातार बढ़ रहा है। हमें लगा था कि जब स्थितियां सामान्य होंगी तो तमाशा फिर से आयोजित होंगे और हम साहूकारों का कर्ज उतार देंगे। वहीं, तमाशा कलाकारों की हालत तो कहीं अधिक खराब हो चुकी है। कई कलाकार गांव-गांव में मजदूरी कर रहे हैं तो कई साग-सब्जियां बेच रहे हैं, पर अभी सरकार की सख्ती से आम जन के लिए कोई भी कामकाज करना आसान नहीं रह गया है।"

एक समय था जब गांव-गांव में पूरी रात तमाशा की प्रस्तुतियां चलती थीं, लेकिन फिर शासन स्तर पर रात में समय-सीमा और अन्य शर्तों के कारण तमाशा का आकर्षण भी कम होता चला गया। इसके अलावा मनोरंजन के आधुनिक माध्यमों के प्रति आकर्षण बढ़ने के कारण भी इसकी लोकप्रियता में गिरावट आती गई। इन सबके बावजूद तमाशा मंडल और उसमें कार्य करने वाले कलाकारों के प्रयासों से यह लोककला शैली ग्रामीण अंचल में अस्तित्व बनाए हुए थीं। लेकिन, पिछले साल कोरोना संक्रमण की पहली लहर आई तो कई तमाशा मंडलों ने साहूकारों से इसलिए कर्ज लिया कि वे अपने कलाकारों को कुछ पैसा दे सकें जिससे कलाकारों की टीम न टूटे। लेकिन, अब कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर कहीं अधिक खतरनाक है और इसकी वजह से सामान्य स्थितियां बनने को लेकर जताई जा रही अनिश्चितता ने कई तमाशा कलाकारों की चिंता बढ़ा दी है।

संभाजी राजे जाधव के मुताबिक राज्य सरकार को चाहिए कि वह महामारी की इस विकट स्थिति को ध्यान में रखते हुए तमाशा लोक कलाकारों के लिए राहत मुआवजा की घोषणा करें। ऐसा इसलिए कि कई तमाशा कलाकार कोरोना संक्रमण के कारण मर चुके हैं तो उनके परिजनों को कुछ वित्तीय मदद मिल जाएगी, जबकि कई कलाकारों ने हताशा की हालत में आत्महत्याएं की हैं। इसी तरह, कई कलाकार छोटे-मौटे काम करके किसी तरह से गुजारा कर तो रहे हैं, लेकिन उनके लिए रोज कमाना और रोज खा पाना मुश्किल हो रहा है।

संभाजी राजे जाधव कहते हैं, "मराठी सिनेमा और नाटक के लिए यदि सरकार अनुदान दे सकती हैं तो तमाशा मंडलों को प्रोत्साहित करने के लिए भी अनुदान दे सकती है, मगर तमाशा लोक कलाकारों की हालत इतनी बुरी होने के बाद भी वे उपेक्षा के शिकार हो रहे हैं, जबकि लगातार दूसरे साल भी तमाशा न होने से तमाशा कलाकारों को सरकार से वित्तीय मदद मिलनी ही चाहिए, तभी वे फिर से खड़े हो सकेंगे।"

सांगली जिले के मिरज शहर में रहने वाले 66 साल के एक बड़े तमाशा कलाकार दमोदर कांबले बातचीत में बताते हैं कि कोरोना संक्रमण के दौरान उनसे अनुभव बहुत कड़वे रहे। इस बारे में दमोदर कांबले बताते हैं कि आखिरी बार साल 2019 में उन्होंने सांगली और इस क्षेत्र के आसपास कवलपुर, सवलाज, बस्तवडे, सावर्डे, चिंचणी, कवडेमहाकाल, बोरगाव, नागज, घाटनांद्रे, इरली, तिसंगी और पाचगाव में आयोजित कई तमाशा आयोजनों में भाग लिया था। वे अपना डर साझा करते हुए कहते हैं कि इस साल का सीजन भी ऐसे ही हाथ पर हाथ रखे गुजर गया और तमाशा के कार्यक्रम नहीं हुए तो उनके लिए भी घर चलाना मुश्किल हो जाएगा। वहीं, उनकी उम्र को देखते हुए उनके कई साथी कलाकार उन्हें कोरोना से बचने की नसीहत देते हुए भी नहीं थक रहे हैं। इस तरह, उन्हें रोजीरोटी की चिंता भी है और साथ ही उन पर कोरोना से बीमार नहीं होने का दबाव भी है।

तमाशा की नर्तकियों को भी उम्मीद है कि जल्दी स्थितियां सामान्य होंगी तो वे अपने हुनर का प्रदर्शन करेंगी। फाइल फोटो, साभार: संजोग भोसले

देखा जाए तो पश्चिम महाराष्ट्र के सांगली जिले में हर वर्ष लोक नाट्य तमाशा मंडल का कार्यालय गुड़ी पर्वा (मार्च-अप्रैल) त्योहार में खुलता है। इसके साथ ही सांगली, सतारा, कोल्हापुर और सोलापुर से लेकर पड़ोसी राज्य कर्नाटक के बेलगाम, वीजापुर और बागलकोट जिलों में जात्रा यानी मेले और यात्राएं शुरू हो जाती हैं। इस दौरान सभी तमाशा कार्यक्रमों की रुपरेखा सांगली जिले के वीटा शहर में तय की जाती है। इसके लिए सभी तमाशा मंडलों के प्रतिनिधि वीटा आते हैं। वीटा स्थित तमाशा मंडल के प्रबंधक के परामर्श से इस दौरान सुपारी ली जाती है। यानी तमाशा आयोजन के लिए आयोजकों से एक निश्चित राशि ठहराई जाती है। इसके तहत जात्रा में रात को होने वाले मुख्य आयोजन के अलावा अगले दिन कुश्ती का आयोजन भी शामिल होता है।

इसके बाद नर्तकियों के मुकाबले से लेकर अन्य गतिविधियों के लिए आयोजक और तमाशा मंडलियों के बीच समझौते किए जाते हैं। समझौता तय होने पर तमाशा मंडल आयोजक से निश्चित राशि लेना स्वीकार करता है। इस तरह, वह आयोजक से 25 हजार से लेकर 60 हजार रुपये तक की सुपारी उठाता है। लेकिन, अफसोस कि पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी कोरोना संक्रमण के कारण सामाजिक दूरी बनाए रखने के लिए बरती जा रही सख्ती को देखते हुए फिर से इस तरह के समझौते हुए ही नहीं।

इसी तरह, एक तमाशा मंडल में काम करने वाली महिला कलाकार छाया नगजकर (35 वर्ष) बताती हैं कि पारंपरिक तमाशा में गण, गवलण, बतावणी और वागनाट्य प्रमुख होते हैं और आयोजक इस तरह के तमाशों की मांग तमाशा मंडलों से करता है। बीते कुछ वर्षों से यह देखने को भी मिला है कि दर्शक तमाशा में नए फिल्मी गानों की मांग भी करता है। इस दौरान कलाकार शरीर पर नऊवारी (मराठी शैली की विशेष साड़ी) और पैरों में पांच-पांच किलो के घुंघुरु पहनकर मंच पर अपनी हुनर का जादू बिखेरता है।

छाया नगजकर अपनी प्रतिक्रिया देती हुई कहती हैं, "तमाशा में लोगों की मांग के हिसाब से हमें लगातार अभ्यास करना पड़ता है। घर पर पड़े वाद्य-यंत्रों में जंग न लग जाए, इसलिए कलाकार उन्हें खाली समय में बजाते भी हैं और भूखे रहकर कई बार तमाशे का अभ्यास करते रहते हैं, मगर कोरोना का समय कुछ लंबा ही खिंच गया है, इसलिए कलाकारों का धैर्य जवाब देने लगा है।"

तमाशा लोककला शैली के जानकार भास्कर सदाकले मानते हैं कि कोरोना-काल में हालत यह हो चुकी है कि तमाशा के मंच पर सुंदर कपड़े पहनने वाला राजा हकीकत में भिखारी बन चुका है। उनके मुताबिक, "यही हालत नर्तकियों की भी हो चुकी है। जबकि, जरूरत है कि एक लोक कलाकार को सम्मानजनक तरीके से जीने के अवसर तलाशने की। वास्तव में तमाशा मराठी की एक अद्भुत लोक नाट्य विधा है जिसे कोरोना के समय भी जिंदा रहना चाहिए, फिर भी दुखद कि ऐसी कला को जीवित रखने वाले जमीनी कलाकारों को मौजूदा संकट से बाहर निकालने के लिए कहीं कोई कुछ खास कोशिश नहीं हो रही है।"

(पुणे स्थित शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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