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महात्मा गांधी, 'गांधीवाद' और पंजाब

ग़ैर-गांधीवादी विचारक पंजाब में गांधी से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय थे। 1928 तक भगत सिंह और उनके साथियों ने अपने साहसिक कार्यों से हिंदुस्तानी अवाम के एक बड़े हिस्से के ईथोस (मानसिक मौसम) को जीतना शुरू कर दिया था।
Gandhi ji

महात्मा गांधी की पचहत्तरवीं पुण्यतिथि पर यह सवाल आज भी मौजू है कि पंजाब से उनके रिश्ते कैसे थे और पंजाब में उनके विचारों की धारा का दरिया किस मानिंद बहता था? पंजाब में गांधीवाद का प्रभाव कितना सशक्त था, इस पर सदा ही बहस अथवा चर्चा होती रही है। इस प्रसंग में भी कि गांधी के भारत आगमन से पहले ही लाला लाजपत राय और सरदार अजीत सिंह की अगुवाई में 1907 में किसान आंदोलन शुरू हो चुका था और उसने रफ़्ता-रफ़्ता व्यापकता पकड़ ली थी। गांधीजी उस वक्त दक्षिण अफ़्रीक़ा में थे और ख़ुद औपनिवेशिक सरकार के ख़िलाफ़ जन-आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे। लाला लाजपत राय और सरदार अजीत सिंह की अगुवाई में जारी पंजाब के किसान आंदोलन की ख़बरें अंतरराष्ट्रीय अख़बारों के जरिए हिंदुस्तान से बाहर जातीं थीं। गांधी इस सबसे अनभिज्ञ अथवा अनजान नहीं थे।

पंजाब में किसानों और अंग्रेज़ हुकूमत के बीच हिंसक टकराव रोज़मर्रा की बात थी। अंग्रेज़ हुक्मरान दमन और उपेक्षा से अहिंसक किसान आंदोलन को दबाना चाहते थे। उक्त किसान आंदोलन पर गांधीजी ने अपने अख़बार 'इंडियन ओपिनियन' में विस्तार से लिखते हुए कहा कि, "यह भारत के लिए एक महत्वपूर्ण समय है। हमें इंतज़ार करके समग्रता से सब कुछ देखना चाहिए।" अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ किसानों ने भी हथियार उठाए थे और गांधी चाहते थे कि अहिंसक तौर-तरीक़ों से आंदोलन जारी रखा जाए। दमन सहना पंजाब और पंजाबियों के स्वभाव में नहीं और इंसाफ़ के लिए अहिंसक आंदोलन गांधीवाद का मूल संदेश था। इसी मुद्दे पर उनके पंजाब के कतिपय स्वतंत्रता सेनानियों से मतभेद थे लेकिन वे कभी ज़ाहिर नहीं हो पाए। शहीद उधम सिंह और शहीद भगत सिंह भी अपने आप में बड़े चिंतक थे और जो रास्ता उन्होंने अख़्तियार किया था; तात्कालिक तौर पर गांधीजी उस पर ख़ामोश रहे थे। यहां तक की 'गांधी इतिहास' बार-बार पलटने पर भी उसमें इस बाबत ज़्यादा कुछ नहीं मिलता और जो मिलता है वह बहुत स्पष्ट नहीं है। धुंधलका आज तलक क़ायम है। महात्मा गांधी के दौर में ही जलियांवाला बाग़ हत्याकांड हुआ, गुरुद्वारों पर क़ाबिज़ 'महंतों' के ख़िलाफ़ सिखों ने ज़बरदस्त जंग लड़ी जो कमोबेश अहिंसक थी। (हिंसा महंतों ने की और बहुत सारे आंदोलनकारियों को मार दिया गया)। लंबे संघर्ष के बाद अंग्रेज़ हुकूमत के दौर में भारत की पहली संवैधानिक संस्था शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी, जिसे एसजीपीसी भी कहा जाता है, वजूद में आई। महात्मा गांधी ने बाद में इसके लिए सिखों का समर्थन और प्रशंसा की। स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब की बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। यहां 'नरमपंथ' और 'गरमपंथ' की धाराएं समानांतर चलीं।

जगज़ाहिर है कि महात्मा गांधी नरमपंथी जुझारू नेतृत्वकारी थे इसीलिए वह पंजाब को लेकर अतिरिक्त सचेत रहते थे और कहीं न कहीं घबराहट में भी। समकालीन पंजाब को देखिए तो पता चलेगा कि यहां गांधीवाद से ज़्यादा प्रभाव शहीद ऊधम सिंह, करतार सिंह सराभा और शहीद भगत सिंह का है जिनके प्रेरणा स्रोत लाला लाजपत राय सरीखे महान स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं।

ऐसे ढेरों प्रमाण है कि महात्मा गांधी ने पंजाब, पंजाबियत और सिख धर्म का सूक्ष्म अध्ययन किया था। 1905 में जोहान्सबर्ग में हिंदू धर्म पर अपने व्याख्यान में गांधी जी ने साफ़ कहा था कि सिख एक अलग धर्म है। यहां ग़ौर कीजिए कि बहुत बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने सिखों को अलग धर्म कभी नहीं माना और हिंदू धर्म का ही एक 'पंथ' माना। संघ विचारधारा बुनियादी तौर पर अब भी यही मानती है। संघ की शाखाओं में सिखों के लिए जो 'केशधारी बंधु' शब्द शुरू से ही इस्तेमाल किया जाता है, उसके असली मायने क्या हैं? सिख अल्पसंख्यक हैं लेकिन उनकी बहुसंख्या ख़ुद को अलहदा धर्म से वाबस्ता मानती है। गांधी भी ऐसा मानते थे लेकिन संघ नहीं। यह इसलिए भी प्रासंगिक है कि 'हिंदू राष्ट्र' की परिकल्पना में मुसलमानों की कोई जगह नहीं। सिखों की है तो इसलिए कि उन्होंने मुग़ल शासकों के साथ (जो कट्टर मुसलमान थे) बाक़ायदा लंबी जंग लड़ी। गुरु तेग़ बहादुर और गुरु गोविंद सिंह तथा उनके परिवार की ऐतिहासिक क़ुर्बानी का ज़िक्र जब आरएसएस करता है तो कहता है कि उन्होंने हिंदुओं की रक्षा के लिए अपनी जान दी और हिंदू धर्म का मुकम्मल सफाया मुस्लिम शासक (यानी मुग़ल) करना चाहते थे! जबकि गांधीजी का मानना था कि नानक के अनुयायी 'सिख' हर क़िस्म की नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ तथा प्रकृति में बहादुर हैं।जोहानेसबर्ग में यह सब गांधीजी ने खुलकर कहा था।

1919 में अंग्रेज़ हुक्मरानों ने बाक़ायदा एक साज़िश के तहत जब पंजाब के अमृतसर में जलियांवाला नरसंहार किया तो पहले-पहल गांधीजी और उनके समर्थक कमोबेश औपचारिक आलोचना करके ख़ामोश हो गए थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का सार्वजनिक रवैया भी यही था। 1 मई 1919 में कलकत्ता में आयोजित 'नरमपंथी सम्मेलन' हुआ जिसमें तेज़ बहादुर सप्रू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी व चिमनलाल सीतलवाड़ सहित अन्य कई बड़े नेताओं ने हिस्सेदारी की थी। वहां जलियांवाला बाग़ में हुए नरसंहार की आलोचना करने से इंकार कर दिया गया और कहा गया कि यह केवल पंजाब में हुई 'गड़बड़' है और स्थानीय प्रशासन इसके लिए ज़िम्मेदार है। बाद में इस ग़लती को सुधारा गया। लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल (लाल-बाल-पाल की तिकड़ी जो पंजाब में भी ख़ासी लोकप्रिय थी) की अगुवाई में कांग्रेस के भीतर गरमपंथियों ने स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष के लिए हिंसक तरीक़ों पर ज़ोर दिया था। स्वाभाविक है कि गांधीजी इससे असहज हो गए थे। इंडियन ओपिनियन में उन्होंने असहमति प्रकट करते हुए लिखा कि, 'जिन तरीक़ों से ब्रिटिश शासन को ख़त्म करने की बात की जा रही है, वे तरीक़े ग़लत हैं।' 1907 में लाला लाजपत राय और अजीत सिंह को इन आरोपों में गिरफ़्तार करके अंडमान भेज दिया गया कि वे सैनिक विद्रोह को उकसा रहे हैं। उनकी रिहाई को गांधी ने 'महान जीत' बताया था। कतिपय इतिहासकार मानते हैं कि पंजाब से गांधीजी का रिश्ता कोई बहुत ज़्यादा सहज नहीं था।

अप्रैल 1919 में पंजाब के लोगों ने गांधी के सत्याग्रह के आह्वान का इस्तेमाल करते हुए अंग्रे़ज़ों के ख़िलाफ़ व्यापक जनांदोलन शुरू किया और अपने मूल प्रभाव में यह कहीं न कहीं हिंसायुक्त था। 'महात्मा गांधी की जय' और 'हिंदू-सिख-मुसलमान एकता ज़िंदाबाद' के जयकारे लगाते हुए बड़ी तादाद में आंदोलनकारियों ने सरकारी संस्थानों पर हल्ला बोला। रेलगाड़ियों तक को पटरियों से उतार दिया गया। पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ में इतिहास के प्रोफेसर रहे एम राजीवलोचन के अनुसार, "सत्याग्रह के बैनर तले हुईं हिंसक घटनाओं के बारे में गांधीजी ने जो भी महसूस किया हो लेकिन जलियांवाला बाग़ उनके दिमाग में ज़रूर कहीं न कहीं ठहरा हुआ था। इसमें बड़ी तादाद में बेगुनाह और अमनपसंद लोगों को क्रूरता से मार डाला गया था।"

अब यहां इतिहास का वह पन्ना भी खोलिए, जब दिल्ली के प्रमुख आर्य समाज जी स्वामी श्रद्धानंद ने पंजाब की घटनाओं की बाबत गांधी जी से विमर्श किया। गांधीजी का दो-टूक कथन था कि, 'सत्याग्रहियों के निष्क्रिय प्रतिरोध और अहिंसा के सिद्धांतों के उल्लंघन से उनका कोई लेना देना नहीं है।' जबकि ठीक उसी दौर में गुजरात में भी सत्याग्रहियों हिंसक रुख अख़्तियार किया। अकेले अहमदाबाद में पुलिस के बल प्रयोग में 250 से अधिक लोग ज़ख़्मी हुए और इनमें से 50 की मौत हो गई। अहमदाबाद हिंसा पर भी गांधीजी खामोश रहे और उन्होंने इसके असली 'गुनहगारों' की बाबत कुछ नहीं कहा। इसके बजाय, उन्होंने सत्याग्रहियों की प्रतिशोधी (जवाबी) हिंसा में मारे गए यूरोपियन लोगों के परिवारों को मुआवज़ें के रूप में सरकार को 'मौद्रिक राशि' की पेशकश तक की। यह तथ्य इतिहास में उपेक्षित-सा है कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने पंजाब और गुजरात की घटनाओं की बाबत महात्मा गांधी को एक चिट्ठी लिखकर कहा था कि, 'सच्चाई के लिए शहादत कभी कट्टरता में नहीं बदल सकती। इसे समझना होगा।"

ज़िक्रेख़ास है कि 1919 को ही गांधी जी ने पंजाब के संबंध में सरकार के सामने अपना पहला विरोध ज़ाहिर किया। यह पंजाब में मार्शल लॉ का उल्लंघन करने के लिए लोगों को कोड़े मारे जाने की बाबत था, जिसका क़ानूनन आदेश जनरल डायर ने एक हफ़्ते पहले दिया था। बेशक कई गांधीवादी तब मानते थे कि ऐसा संदेश नहीं जाना चाहिए कि पंजाब के विद्रोह को एक 'अशांति' के बतौर लिया जाए। इतिहास में दर्ज है कि गांधी के घनिष्ठ दोस्त ब्रिटिश पादरी चार्ल्स एंड्रयूज ने 1919 में पंजाब यात्रा की योजना बनाई तो गांधी ने फ़ौरन उन्हें वहां जाने से रोक दिया।

पहले-पहल पंजाब की गुरुद्वारा सुधार लहर पर गांधीजी लगभग खामोश थे लेकिन बाद के समूचे प्रकरण ने उन्हें हैरान कर दिया। महंतों के ख़िलाफ़ सिखों ने आख़िरकार अहिंसक लड़ाई का फ़ैसला किया और इसमें बेशुमार सिख प्रदर्शनकारी महंतों के हाथों बेरहमी से मार डाले गए। 3 मार्च 1921 को ननकाना साहिब गुरुद्वारे में अपने भाषण में गांधीजी ने कहा, "यह लगभग अविश्वसनीय लगता है। अकाली पार्टी के हाथों एक भी आदमी नहीं मरा।" अपने गुजराती अख़बार 'नवजीवन' में गांधी ने लिखा कि कैसे सैकड़ों सिखों का जत्था एकजुट हुआ ताकि गुरुद्वारों को अय्याश महंतों से मुक्त करवाया जा सके। गांधी अब इस सोच पर थे कि पंजाबी किसान और सिख अपने दम पर उस सत्याग्रह का अभ्यास कर रहे थे जिसका गांधी भारत में अन्य सभी लोगों के बीच प्रचार कर रहे थे।

असलियत है कि ग़ैर-गांधीवादी विचारक पंजाब में गांधी से कहीं ज़्यादा लोकप्रिय थे। 1928 तक भगत सिंह और उनके साथियों ने अपने साहसिक कार्यों से हिंदुस्तानी अवाम के एक बड़े हिस्से के ईथोस (मानसिक मौसम) को जीतना शुरू कर दिया था। गिरफ़्तारी के बाद जब तक वे जेल में रहे, उनकी लोकप्रियता और वैचारिक जनप्रियता में निरंतर और ज़बरदस्त इज़ाफ़ा होता गया। भगत सिंह के दौर में गांधीवाद इतिहास के नए दौर में प्रवेश करता है।

5 मार्च 1931 को वायसराय इरविन के साथ मुलाकात में गांधी ने भगत सिंह की फांसी को रद्द करने का आग्रह किया। 'महात्मा गांधी कलेक्टेड वर्क्स' के अनुसार गांधी ने इरविन से कहा कि कम से कम लाहौर में कांग्रेस की बैठक तक तो भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को स्थगित कर दिया जाना चाहिए। फांसी हुई तो लोग उत्तेजित होकर दंगा करने पर उतर आएंगे। भगत सिंह और उनके साथियों की फांसी को वक़्ती तौर पर टाल दिया गया और बाद में फांसी देकर शवों का गुपचुप तरीक़े से अंतिम संस्कार कर दिया गया। गांधीवादियों ने शुरू से लेकर आज तक शहीद भगत सिंह और उनके साथियों के महत्ती बलिदान को वह महत्व नहीं दिया, जिसके वे हक़दार थे। शायद यही वजह है कि पंजाब में गांधीजी से ज़्यादा भगत सिंह लोकप्रिय हैं। उनके लिखित विचार भी। शहीद भगत सिंह पंजाब के 'महानायक' हैं! लंबे अरसे तक पंजाब में भगत सिंह की फांसी में गांधी की भूमिका पर सवाल उठाए जाते रहे हैं लेकिन इतना तय है कि महात्मा गांधी हरगिज़़ नहीं चाहते थे कि भगत सिंह को फांसी दी जाए। हालांकि ख़ुद भगत सिंह ने फांसी मांगी थी।

1937 में पंजाब में चुनावी राजनीति का आग़ाज़ हुआ तो गांधीजी यहां उतने प्रासंगिक नहीं थे, जितने शेष भारत में। बाद में कट्टर अकालियों ने स्वतंत्रता संग्राम की अगुवाई कर रहे महात्मा गांधी से अलहदा राह अख़्तियार कर ली। मास्टर तारा सिंह इनमें से प्रमुख थे। सिखों के लिए अलग देश 'ख़ालिस्तान' अथवा सिख लैंड की अवधारणा के जन्मदाता वही थे।

महात्मा गांधी महादेश के किसी भी क़िस्म के बंटवारे के सख्त खिलाफ थे। कभी प्रबल गांधीवादी रहे मास्टर तारा सिंह ने भारत छोड़ो आंदोलन से भी ख़ुद को अलग कर लिया था। बाद में मास्टर तारा सिंह ने दोबारा गांधीवाद तो नहीं अपनाया लेकिन विभाजन के प्रति गांधी के सिद्धांत को मान लिया। मास्टर तारा सिंह ही सिखों के अभिभावक और प्रवक्ता नहीं थे। अन्य कई दिग्गज सिख नेता गांधीवादी थे और जीवन पर्यंत उनकी आस्था गांधी के प्रति कम नहीं हुई। प्रताप सिंह कैरों जैसे लोग जो आगे जाकर पूर्वी पंजाब के मुख्यमंत्री बने, हर लिहाज से पक्के गांधीवादी थे और इंदिरा गांधी के दौर में सूबे के मुख्यमंत्री रहे दरबार सिंह भी। ऐसे और भी कई सिख सियासतदान हुए, जिनकी अपनी जीवनशैली, वेशभूषा, कार्यशैली और सत्य तथा नैतिकता के प्रति अडिग प्रतिबद्धता वस्तुतः 'गांधीवादी' रही। इन पंक्तियों का लेखक जानबूझकर इस फ़ेहरिस्त में भारत के राष्ट्रपति रहे ज्ञानी जैल सिंह का नाम छोड़ रहा है।

( लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं )

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