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वीर कुंवर सिंह के विजयोत्सव को विभाजनकारी एजेंडा का मंच बनाना शहीदों का अपमान

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम जनता की एकता की बुनियाद पर लड़ी गयी आज़ादी के लड़ाई से विकसित भारतीय राष्ट्रवाद को पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद (जो सहजता से मुस्लिम विरोध में translate कर दिया जाता है) से replace कर देना और परिभाषित कर देना हमेशा से संघ-भाजपा की शातिर रणनीति का हिस्सा रहा है।
veer kunwar singh

23 अप्रैल को जगदीशपुर, बिहार में हमारे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक वीर कुंवर सिंह के विजयोत्सव को भी विभाजनकारी एजेंडा को आगे बढ़ाने का मंच बना दिया गया। गोदी मीडिया ने बताया अमित शाह की सभा में 77900 राष्ट्रीय ध्वज एक साथ फहराकर भारत ने पाकिस्तान का 57000 राष्ट्रीय झंडे का रेकॉर्ड तोड़ दिया और यह गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रेकॉर्ड्स में दर्ज हो गया।

इस तरह अंग्रेजों पर कुंवर सिंह की जीत का जश्न पाकिस्तान विरोधी उन्माद में बदल दिया गया !

दरअसल, 23 अप्रैल 1858 को (बिहार में 1857 के विद्रोह का नेतृत्व संभालने के लगभग एक साल बाद) कुंवर सिंह ने जगदीशपुर की लड़ाई में ब्रिटिश अधिकारी ले ग्रैंड को हराया। 26 अप्रैल, 1858 को, अपनी अंतिम जीत के तीन दिन बाद, कुंवर सिंह की जगदीशपुर में मृत्यु हो गई।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध हिन्दू-मुस्लिम जनता की एकता की बुनियाद पर लड़ी गयी आज़ादी के लड़ाई से विकसित भारतीय राष्ट्रवाद को पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद ( जो सहजता से मुस्लिम विरोध में translate कर दिया जाता है ) से replace कर देना और परिभाषित कर देना हमेशा से संघ-भाजपा की शातिर रणनीति का हिस्सा रहा है। यहां हम ठीक उसी का प्रयोग देख रहे हैं। दुस्साहस यह देखिए कि यह 1857 के  उस महान राष्ट्रीय संग्राम के शहीद वीर कुँवर सिंह के बहाने किया जा रहा है, जिसमें अनगिनत मुसलमानों-हिंदुओं ने एक साथ लड़ते हुए आज़ादी के लिए आहुति दी थी।

अमित शाह ने बड़ी चालाकी से कुंवर सिंह की इस बात के लिए तारीफ की कि हिन्दू समुदाय की विभिन्न जातियों के लोगों को उन्होंने अपने साथ जोड़ा था, लेकिन वे उसमें उनके मुस्लिम सहयोगियों का जिक्र करना भूल गए। वे लोगों को नहीं बताते कि कुंवर सिंह के कई सेनापति मुसलमान थे। वे नहीं बताते कि उन्होंने मैंगर सिंह को गहमर और रंजीत यादव को चौंगाई डिवीजन का प्रधान बनाया था, तो इब्राहिम खान को बिहिया डिवीजन का प्रधान बनाया था। 1857 के गम्भीर अध्येता अमरेश मिश्र के माध्यम से उनका एक पत्र भी सामने आया है जो उन्होंने अपने सहयोगी जहानाबाद के काज़ी जुल्फिकार अली को लिखा था।

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अमित शाह भूलकर भी 1857 की लड़ाई के अनगिनत मुस्लिम नायकों में से किसी का नाम नहीं लेते। वे आजमगढ़ और अयोध्या तक कुंवर सिंह के अभियान का जिक्र करते हैं लेकिन उसी अयोध्या- फैज़ाबाद और अवध की लड़ाई के वीर नायक मौलवी अहमदुल्लाशाह उर्फ "डंका शाह " की चर्चा नहीं करते, न वीरांगना हज़रतमहल, 1857 के रणनीतिकार कैप्टन अज़ीमुल्लाह खां या बहादुर शाह जफर का जिक्र करते हैं जिन्हें नेता मानकर वह पूरा संग्राम लड़ा गया था।

अमित शाह ने कहा कि इतिहास ने उनके साथ न्याय नहीं किया। उन्हें जो सम्मान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिला। इसी संदर्भ में उन्होंने आरा में उनका स्मारक बनाने की घोषणा की। अव्वलन तो ऐसे राष्ट्र-नायकों के सम्मान का सबसे अच्छा और जरूरी तरीका यह है कि उनके विचारों और जीवन-मूल्यों का सम्मान किया जाय। लोगों ने सही सवाल उठाया है कि आज़ादी की लड़ाई में अप्रतिम योगदान के लिए उनका समारोह और सम्मान तो राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए, केवल जगदीशपुर, आरा में ही क्यों ? अमित शाह इनकी स्मृति में  दिल्ली में केंद्रीय स्तर पर क्यों नहीं कुछ करते ? 

वैसे कुंवर सिंह की कीर्ति किसी अमित शाह-मोदी के सम्मान दिलाने की मोहताज नहीं। अपनी मृत्यु के 164 साल बाद भी वे देशभक्त जनता के दिलों में आज़ादी की लड़ाई में अपने अद्भुत शौर्य और बलिदान के लिए अमर हैं। किसी सरकारी प्रचार और विज्ञापन के बिना समूची भोजपुरी पट्टी में, जो उनकी रणभूमि थी, वह जनगीतों और कथाओं के माध्यम से लोकस्मृति में हमेशा जीवित रहे हैं और भविष्य में भी रहेंगे। भोजपुरी इलाके में फागुन माह में आज भी यह फाग गाया जाता है-

‘‘बाबू कुंअर सिंह तोहरे राज बिनु अब न रंगाइब केसरिया। 

इतते अइले घेर फिरंगी, उतते कुंवर दुहुं भाई। 

गोला बारूद के चले पिचकारी बिचवा में होते लड़ाई। 

बाबू कुंअर सिंह तोहरे राज बिनु अब ना रंगाइब चुनरिया।।”

जहां तक उनके विचारों और जीवन-मूल्यों की बात है, उस समय संघ-भाजपा के पुरखे और आज वे स्वयं, उनकी विचारधारा के तो  विपरीत खड़े हैं-चाहे वह साम्राज्यवाद विरोध की बात हो और चाहे उसके लिए हिन्दू मुस्लिम एकता को धुरी बनाने की बात हो। आज वे और भी बेशर्मी और नंगई के साथ उस सोच को आगे बढ़ा रहे हैं जो हर दृष्टि से 1857 के वीर नायकों के सोच के बिल्कुल उलट है।

इनकी चरम अवसरवादी राजनीति का ही नमूना है कि वे कुंवर सिंह का विजयोत्सव भी मना लेते हैं और 1857 में कुंवर सिंह का विरोध कर अंग्रेजों का साथ देने वाले, आज़ादी की लड़ाई से गद्दारी करने वाले डुमरांव के राजा के यहां भी नतमस्तक हो लेते हैं। सच्चाई यह है कि ये डुमरांव राज की दलाल परम्परा के ही वारिस हैं, लेकिन देशभक्त जनता का भावनात्मक दोहन करने के लिए जनता की आंख में धूल झोंकते हुए कुंवर सिंह की विरासत भी हड़पना चाहते हैं।

दरअसल, वीर कुंवर सिंह को जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की बुनियाद पर खड़े राष्ट्रीय जनविद्रोह और उत्पीड़ित किसानों के छापामार युद्ध के नायक थे, उन्हें एक समय  जाति विशेष के नायक के रूप में reduce कर देने की साजिश हुई, इस कोशिश में जातियों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने वाले अनेक राजनेता शामिल थे।  यहां तक कि  समाज के उत्पीड़ित तबकों के जागरण के खिलाफ उनके नाम पर सामंती गोलबंदी करने और उन्हें तमाम प्रतिक्रियावादी ताकतों का प्रतीक बना देने की साजिश हुई। अब उसी के साथ उन्हें एक हिन्दू नायक बनाकर अपने पक्ष में जातिवादी, सामुदायिक गोलबंदी करने और राष्ट्रवाद की उनकी विरासत को हड़पने तथा  उसे साम्प्रदायिक रंग देने की साजिश की जा रही है।

अमित शाह ने शातिर ढंग से कुंवर सिंह के बहाने सावरकर को भी महिमामंडित कर दिया। उन्होंने कहा कि इतिहासकारों ने 1857 को विफल विद्रोह कह कर बदनाम किया, लेकिन वीर सावरकर ने पहली बार इसे आजादी का स्वतंत्रता संग्राम कह कर सम्मानित करने का काम किया। सच्चाई यह है कि यह उत्पीड़ितों के नेता कार्ल मार्क्स थे जिन्होंने 1857 का संग्राम जब चल रहा था, सावरकर के जन्म से भी पहले, तभी इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया था। युवा सावरकर ने बाद में वही बात दुहरायी थी। परंतु, जब अंग्रेजों से माफी मांग कर और उनके वजीफे पर वे जेल से बाहर आये तथा दो राष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किये, तब तक जाहिर है सावरकर के लिए स्वतंत्रता संग्राम का अर्थ बदल चुका था, अब उनके लिए इसका अर्थ था अंग्रेजों से नहीं मुसलमानों से मुक्ति, 1857 के शहीदों का आज़ाद भारत नहीं, फासीवादी हिन्दू राष्ट्र! इसी बदले सावरकर को संघ-भाजपा अपना नायक मानते हैं।

सच तो यह है कि 1857 की जो तीन मूल बातें थीं —साम्राज्यवाद विरोध, हिन्दू-मुस्लिम एकता और किसानों की मुक्ति— सावरकर के हिंदुत्व की विचारधारा ठीक उसी के निषेध पर खड़ी हुई। संघ-भाजपा का कारपोरेट-फासीवाद आज इसी बुनियाद पर देश में कहर बरपा कर रहा है और उसने हमारी राष्ट्रीय एकता और संवैधानिक लोकतन्त्र के लिये गम्भीर संकट खड़ा कर दिया है।

हद तो तब हो गयी जब अमित शाह ने "मौलिक" इतिहास-बोध का परिचय देते हुए कुंवर सिंह से मोदी की तुलना कर डाली,  "कुंवर सिंह ने पिछड़े वर्ग और अनुसूचित जाति के उद्धार का काम किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी आज उसी कड़ी को आगे बढ़ा रहे हैं। कोरोना काल में अगर प्रधानमंत्री 130 करोड़ की जनसंख्या का मुफ्त टीकाकरण नहीं कराते तो न जाने कितने लोग मारे जाते। पैसे वाले तो टीका ले लेते, लेकिन गरीब मारे जाते ! "

जो दिन वीर कुंवर सिंह की गौरव गाथा का उत्सव था, उसे मोदी की उनसे हास्यास्पद और अपमानजनक तुलना और गुणगान का अवसर बना दिया गया।

जो दिन हमारी कौमी एकता के celebration का सबसे बड़ा अवसर बनना चाहिए था, उसे भी संकीर्ण राजनीति का मंच बना दिया गया। जाहिर है यह वीर कुंवर सिंह और 1857 के शहीदों का तथा आज़ादी के लड़ाई के महान मूल्यों का अपमान है, जिसे कोई भी देशभक्त स्वीकार नहीं करेगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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