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स्मृति शेष : जयदयाल जी का जाना...

जयदयाल जी विचार से मार्क्सवादी थे लेकिन आपने महाभारत विषय में पीएचडी की और गीता और रामायण का भी गहन अध्ययन किया। आपने भारत की पौराणिक कथाओं का भी वैज्ञानिक विश्लेषण किया।
डॉ. जयदयाल सक्सेना

प्रखर वाम विचारक डॉ. जयदयाल सक्सेना का बीती 11 दिसंबर को निधन हो गया। वे 95 वर्ष के थे। 8 फरवरी, 1925 को उत्तर प्रदेश के जालौन ज़िले में जन्में जयदयाल जी उरई में डीवी डिग्री कालेज में राजनीति-शास्त्र का प्रोफ़ेसर रहे। जयदयाल जी विचार से मार्क्सवादी थे लेकिन आपने महाभारत विषय में पीएचडी की और गीता और रामायण का भी गहन अध्ययन किया। आपने भारत की पौराणिक कथाओं का भी वैज्ञानिक विश्लेषण किया।

जयदयाल जी सीपीएम के सदस्य रहे और भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) के संरक्षक सदस्य रहे। आपने आल्हा पर भी शोध किया और उसे एक बिल्कुल अलग क्रांतिकारी रूप में पेश किया।  आपने प्रेमचंद की कई कहानियों का भी नाट्य रुपांतरण किया। जयदयाल जी के निधन से जालौन के बौद्धिक जगत में शोक है। उरई में एक लंबा समय बिताने वाले मशहूर शायर ओम प्रकाश नदीम ने उनको लेकर एक संस्मरण लिखा है। श्रद्धांजलि स्वरूप ये यादगार, ये संस्मरण आपके लिए-  

शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्

व्यापारी अपना भरण-पोषण भले ही सरकार और ग्राहक के दम पर करते हों लेकिन धर्म का पालन-पोषण व्यापारियों की बदौलत ही होता है। हालाँकि व्यापारी धर्म के लिए दान करने की एवज़ में भी पुण्य की कमाई कर लेते हैं लेकिन प्रवचन करने वालों की उपलब्धियाँ भी कम नहीं होतीं। थोड़ी-बहुत मासूम भक्तों की जेब भी हल्की होती है लेकिन नेपथ्य से बड़े-बड़े लोग व्यवस्था न करें तो राम-कथाओं, रास-लीलाओं के आयोजन कैसे हों, बड़े-बड़े आश्रम कैसे चलें, भक्तों तक ‘कृपा’  कैसे पहुँचे और भव्य मन्दिरों का निर्माण कैसे हो? कोई भी बड़ा धार्मिक जमघट हो, करोड़ों के वारे-न्यारे करने वाले नेताओं और अफसरों से लेकर रोज़ कुआँ खोदकर रोज़ पानी पीने वाले मज़दूर, सब मिल जाएँगे। कुछ कार्यक्रमों में आगे बैठने की सहयोग-राशि सबसे अधिक होती है और अपनी दिहाड़ी का नुक्सान भुगत कर आए हुए मज़दूर सबसे पीछे खड़े रहते हैं लेकिन समानता भी गज़ब की होती है, पढ़े-लिखे और अनपढ़-जाहिल में कोई फ़र्क़ नजर नहीं आता, सब एक ही रस में गोते लगाने लगते हैं। स्वामी जी भक्तों की अपार श्रद्धा से गदगद होकर ‘माया-मोह‘ से दूर रहने का उपदेश देते रहते हैं।

मुझे टीवी के माध्यम से घर बैठे ही कभी-कभी ऐसे आयोजनों का दर्शक बनने का मौका मिल जाता है। कुछ भक्त आप बीती भी सुनाते हैं कि स्वामी जी की कृपा से नौकरी मिल गई, शादी तय हो गई, ये काम बन गया, वो काम बन गया, वगैरह.....वगैरह और स्वामी जी तटस्थ भाव से अपना हाथ आशीर्वाद के लिए उठा देते हैं। किसी चैनल में स्वामी जी कथा सुनाते-सुनाते रोने लगते हैं तो पूरा पण्डाल सिसकियों से भीग जाता है, किसी और चैनल में बाबा जी नाचने लगते हैं तो पण्डाल विशाल डीजे फ्लोर में बदल जाता है। अगर स्वामी जी रास-लीला के किसी खास प्रसंग का अभिनय करने लगते होंगे तो पता नहीं पण्डाल में नजारा क्या होता होगा। आनन्द की ऐसी विभिन्न रस-धाराएँ निरन्तर प्रवाहित हो रही हैं।

यद्यपि कुछ ‘धर्म-विरोधी‘ लोग आश्रमों के अन्दरखाने की पोल खोलने की साज़िश कर रहे हैं लेकिन इससे रस-धारा के प्रवाह में कोई खास फर्क नहीं पड़ता। बकौल स्वामी जी ऐसे अधर्मियों को ईश्वर ज़रूर सज़ा देगा। एक दिन मैं ऐसे ही चैनल बदल-बदल कर विभिन्न रस-धाराओं का प्रवाह देख रहा था कि बेगम की आवाज़ आई -‘ चूहे बहुत हो गए हैं घर में, बड़ा नुक्सान कर रहे हैं, जाने कब चुपचाप चीजों को कुतर देते हैं पता भी नहीं चलता- अब दवाई रखनी ही पड़ेगी। मैं सुनता रहा, धीरे-धीरे लगा जैसे मेरा घर भारत के नक्शे में तब्दील हो रहा है और बड़े-बडे़ भयानक चूहे हमारी विरासत को कुतर रहे हैं। ‘‘ हाँ-हाँ अब दवाई की सख्त जरूरत है” मेरे मुँह से बेसाख्ता निकल गया। टीवी देखते-देखते पता नहीं कब अतीत का निम्नलिखित अध्याय खुला और डॉ. जयदयाल सक्सेना का संस्मरण जगमगाने लगा।

उरई में मण्डी-समिति के ‘धर्म प्रेमी‘ आढ़तियों के ‘सहयोग‘ से हर साल समिति के विशाल मैदान में धार्मिक प्रवचन का आयोजन किया जाता है। कार्यक्रम में एक से बढ़कर एक धर्मात्मा, महात्मा, साधु, साध्वी, वगैरह प्रवचन करने आते हैं। एक बार ऐसे ही कार्यक्रम में जगद्गुरू शंकराचार्य भी पधारे थे। आयोजक शंकराचार्य जी को आदर सहित मंच की तरफ ले जा रहे थे। मंच पर साध्वी पंछी देवी भी मौजूद थीं। पंछी देवी श्रोताओं से अधिक दर्शकों के आकर्षण का केन्द्र थीं। वो चुप बैठी रहतीं तो भी दर्शक, दर्शन-रस से अभिभूत होते रहते थे। मंच की तरफ जाते हुए शंकराचार्य जी की नज़र अचानक पंछी देवी पर पड़ी और वहीं अटक गई, कदम जहाँ के तहाँ रुक गए।

‘मंच पर ये औरत कौन है?’ उन्होंने आयोजकों से इस अंदाज में पूछा मानो पंछी देवी से अपरिचित हों।

‘ये पंछी देवी हैं महाराज! बहुत अच्छा प्रवचन करती हैं। वेद-पुराण सब का बड़ा ज्ञान है इन्हें।’ एक आयोजक उत्साह में कुछ ज्यादा ही तारीफ कर बैठा। शंकराचार्य जी को नाराज़ होने के लिए पंछी देवी की मौजूदगी ही काफी थी, प्रशंसा सुनकर तो उनके तन-बदन में आग लग गई।

‘इसे मंच से नीचे उतारो’ शंकराचार्य जी ने आदेश दिया।

‘मगर स्वामी जी.........’ आयोजक गिड़गिड़ाए।

‘कुछ नहीं, औरतों को प्रवचन करने का कोई अधिकार नहीं है।’

स्वामी जी बिफर गए।

एक पढ़े-लिखे आयोजक ने ब्रह्मास्त्र फेंका-‘लेकिन स्वामी जी, गार्गी, मैत्रेयी आदि महिलाएँ तो शास्त्रार्थ करती थीं।’

‘अगर पंछी देवी को हटाया न गया तो मैं मंच पर नहीं जाऊँगा’, कोई जवाब न सूझने के कारण स्वामी जी ने फैसला सुना दिया।

पंछी देवी का अपमान, आयोजकों की किरकिरी और दर्शकों की निराशा, सबने स्वामी जी के जिद्दी फैसले के आगे घुटने टेक दिए। वेदान्त-दर्शन पर स्वामी जी पूरे अधिकार के साथ बोलते रहे। भारी भरकम दर्शन-शास्त्र श्रोताओं की जम्हाइयों में समाता जला गया। होशियार लोग धीरे-धीरे खिसकते गए और बाकी सोते-जागते भाषण के समापन और प्रसाद-वितरण का इन्तजार करते रहे।

डीवी डिग्री कालेज उरई के प्रिन्सिपल डॉ. बीबी लाल को पता चला कि शंकराचार्य जी उरई में हैं तो कालेज के छात्रों को ब्रह्म और माया के सम्बन्धों की अधिकृत जानकारी उपलब्ध कराने की गरज़ से उन्होंने शंकराचार्य जी को कालेज आमंत्रित करने का फैसला किया और डॉ. जयदयाल सक्सेना को, अपना प्रतिनिधि बनाकर स्वामी जी के पास आमंत्रित करने हेतु भेजने के लिए बुलाया। जयदयाल जी ने पहले बचने की कोशिश की- ‘अरे साहब! किसी और को भेज दीजिए।

‘नहीं-नहीं, तुम्हीं जाओ, तुम्हीं ला सकते हो उनको। प्रिंसिपल साहब जयदयाल जी की क्षमताओं से बखूबी वाकिफ थे।

‘देखिए साहब मैं कम्युनिस्ट हूँ, कोई ऐसी-वैसी बात निकल गई और उन्होंने आने से मना कर दिया तो…’ जयदयाल जी ने आख़िरी कोशिश की।

‘मना करें तो कर दें, लेकिन जाओगे तुम्हीं’ प्रिंसिपल साहब ने मुहर लगा दी।

जयदयाल जी सीधे मण्डी-समिति पहुँचे। विशाल पण्डाल, गहमा-गहमी का माहौल। इस किस्म के कार्यक्रमों से कोसों दूर रहने वाले डॉ. जयदयाल सक्सेना पण्डाल में इधर-उधर नजरें दौड़ा रहे थे कि कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो उन्हें शंकराचार्य जी से मिला दे। अचानक बीजेपी के नेता बाबूराम दादा उनको वहाँ देखकर भौचक्के हो गए।

‘मास्टर साहब। आप! यहाँ?’ दादा ने दुआ-सलाम के बाद चुटकी ली। ज्यादातर लोग अभी भी अध्यापक को, चाहे वो यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर हो, मास्टर साहब ही कहते हैं।

 ‘हाँ! कभी-कभी दारोगा को चोरों के मुहल्ले में जाना पड़ता है। जयदयाल जी ने चुटकी काटी।

दादा झेंप गए- ‘अरे मास्टर साहब! आप भी....खैर इधर कैसे आना हुआ?

‘शंकराचार्य जी से मिलना है’

‘शंकराचार्य जी से आपको क्या मतलब?’ दादा की हैरानी और बढ़ गई।

जयदयाल जी ने प्रिंसिपल साहब की इच्छा बताई और शंकराचार्य जी का ठिकाना पूछा। दादा मन ही मन खुश होकर बोले- ‘सेठ माहेश्वरी के यहाँ ठहरे हैं, अभी चले जाइए वहीं मिल जाएँगे। जयदयाल जी फौरन उरई के सबसे बड़े सेठ माहेश्वरी के घर की तरफ चल दिए।

सेठ जी घर के बाहर ही बैठे थे। दुआ-सलाम के बाद बोले- ‘ कहिए मास्टर साहब?’

‘शंकराचार्य जी से मिलना है।’

‘हाँ-हाँ, बिल्कुल मिलिए, कोई खास बात? सेठ जी ने जिज्ञासावश पूछा। जयदयाल जी ने संक्षेप में अपनी बात कह दी और इस कदर संक्षेप कि उसमें बाबूराम दादा भी गायब हो गए।

‘आप गैलरी में सीधे जाइए फिर दाहिने हाथ की तरफ मुड़ कर सीधे जाइए और फिर दाहिने हाथ को तरफ मुड़िए,,...... सामने जो कमरा दिखाई दे उसमें चले जाइए....... और हाँ, जाते ही स्वामी जी के चरणों में दण्डवत गिर जाइए, जब तक वो उठने को न कहें, पड़े रहिए।’ सेठ जी ने आदतन  मुफ्त सलाह दी।

‘ये सब नौटंकी हमसे न होगी सेठ जी। स्वामी जी कालेज जाने को तैयार हों चाहे न हों।’

‘तो फिर आप जानो आप का काम जाने।’ सेठ जी ने पल्ला झाड़ा

‘ठीक है’ कहकर जयदयाल जी सेठ जी के बताए हुए नक्शे के मुताबिक शंकराचार्य जी के कमरे के दरवाजे पर जा कर खड़े हुए।

‘स्वामी जी नमस्कार’ दो टूक अंदाज में जयदयाल जी बोले। शंकराचार्य जी नमस्कार सुनने के बिल्कुल आदी नहीं थे सो कुछ जवाब नहीं दिया, अलबत्ता जयदयाल जी की तरफ हिकारत से देखते हुए बोले-‘कहिए?’

‘स्वामी जी, मैं डॉ. जयदयाल सक्सेना,  डीवी डिग्री कालेज में राजनीति-शास्त्र का प्रोफेसर हूँ। प्रिंसिपल साहब ने मुझे आपके पास इस आग्रह के साथ भेजा है कि मैं आपसे कालेज के छात्रों को सम्बोधित करने के लिए निवेदन करूँ।’

‘अच्छा तो आप स्वयं नहीं आए, आपको भेजा गया है।’ स्वामी जी ने उस झेंप को मिटाने की कोशिश की जो ‘ नमस्कार’ सुनकर प्रकट हुई थी।

‘आपने बिल्कुल दुरूस्त फर्माया स्वामी जी!’ जयदयाल जी ने झेंप को मिटते मिटते रोक दिया।

‘पूरे उरई के लोग हमारा प्रवचन सुनने के लिए मण्डी-समिति पहुंचते हैं, आपके कालेज के छात्र नहीं जा सकते?‘ स्वामी जी ने अपने वजन का अंदाजा कराया।

जयदयाल जी इस सवाल का जवाब देते इससे पहले ही शंकराचार्य जी के पास बैठे उनके प्रिय शिष्य स्वामी नन्द नन्दना नन्द बोल पड़े- ‘धृष्टता क्षमा करें महाराज! सामान्यतः लोग डाक्टर के पास जाते है लेकिन जब महामारी फैलती है तो डाक्टर को घर-घर जाना पड़ता है।’

‘आपके प्रश्न का इससे अच्छा उत्तर नहीं हो सकता स्वामी जी!’ जयदयाल जी ने मौके का फायदा उठाया।

‘अच्छा ठीक है, कल सवेरे आठ बजे चलेंगे।’ स्वामी जी ने आत्म-समपर्ण कर दिया।

‘नमस्कार स्वामी जी’ कह कर जयदयाल जी वापस हो लिए।

उस वक्त उरई में बहुत कम लोगों के पास चार-पहिया वाहन थे। जयदयाल जी उपाध्याय वकील साहब के पास गए और अगले दिन सुबह आठ बजे शंकराचार्य जी को लाने के लिए कार मुहैया कराने का अनुरोध किया।

‘शंकराचार्य जी को लाना है?’ वकील साहब की जितनी भी बाँछें थीं सब खिल गईं.... ‘लेकिन एक शर्त है, शंकराचार्य जी आगे वाली सीट पर मेरे बगल में बैठेंगे.... तुम पीछे बैठना।’ वकील साहब गदगद हो रहे थे। ‘तुम उन्हें अपनी खोपड़ी पर बैठा लेना, हमें इससे कोई मतलब नहीं है।’ जयदयाल जी ने बेफिक्री से कहा और चले गए।

अगले दिन सवेरे ठीक आठ बजे दोनों महाशय सेठ माहेश्वरी के घर पर लग गए। सेठ जी बाहर ही बैठे थे। इन लोगों को देखते ही निराशा भरे अंदाज में गर्दन हिलाते हुए बोले- ‘स्वामी जी जा नहीं पाएँगे।’

‘क्यों’ दोनों के मुँह से एक साथ निकला।

‘उन्हें निमोनिया हो गया है।’

‘निमोनिया?’ वकील साहब की आवाज ऐसी हो गई जैसे उन्हें भी निमोनिया हो गया हो।

‘ऐसी सर्दी में पाँच बार ठण्डे पानी से नहाते हैं, तो निमोनिया तो होगा ही।’ सेठ जी ने मुँह फुला कर कहा।

‘कोई बात नहीं, अब हम आए हैं तो उनसे मुलाकात तो कर ही लें’ कहते हुए जयदयाल जी अंदर चले गए।

कमरे में एक बड़ी सी अँगीठी लहक रही थी और शंकराचार्य जी तखत पर कम्बल ओढ़े हुए बैठे थे।

 ‘मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है’... स्वामी जी की जबान लड़खड़ा रही थी।

‘हाँ स्वामी जी, पता चला आपको निमोनिया हो गया है।’ जयदयाल जी ने हमदर्दी जताई।

‘ हाँ........आँ.................‘ बुखार की वजह से स्वामी जी ज्यादा बोल नहीं पाए।

‘चलिए कोई बात नहीं, अब तो मजबूरी है.... लेकिन स्वामी जी।‘

‘लेकिन‘ सुनकर स्वामी जी ने सवालिया नजरों से देखा।

‘एक शंका है‘ जयदयाल जी शिष्यवत बोले।

‘शंका‘ सुनते ही स्वामी जी का बुखार जैसे काफूर हो गया। अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। जयदयाल जी को अर्दब में लेने की अपनी खुशी पर बमुश्किल काबू करते हुए शंकराचार्य जी सधे हुए अंदाज और गम्भीर स्वर में बोले- ‘क्या ?‘

एक श्लोक है स्वामी जी, मुझे संस्कृत नहीं आती इसलिए श्लोक याद नहीं है लेकिन उसका अर्थ ये है कि शरीर धर्म के पालन करने का साधन है, इसलिए इसकी रक्षा करनी चाहिए।

‘हाँ-हाँ, शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ शंकराचार्य जी की अवाज़ अचानक तेज़ हो गई थी।
‘क्या ये श्लोक सच है स्वामी जी’

‘शत-प्रतिशत’ स्वामी जी ने निश्चिन्त होकर कहा।

‘एक प्रश्न और महाराज’

‘क्या? ‘ स्वामी जी कुछ बिगड़े।

‘जो व्यक्ति ये जानता है कि शरीर धर्म के पालन करने का साधन है इसलिए उसकी रक्षा करनी चाहिए वो इतनी सर्दी में पांच बार ठण्डे पानी से नहाए और निमोनिया से ग्रसित हो जाए तो उस व्यक्ति को क्या कहा जाएगा।’ गेंद सीधे बाउण्ड्री पार कर गई। शंकराचार्य जी जहाँ बैठे थे वहाँ सिर्फ कम्बल की मौजूदगी का आभास बाक़ी रह गया था।

(लेखक ओम प्रकाश नदीम एक शायर और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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