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मोदी सरकार एक ख़तरनाक ढर्रे पर है

इस महामारी के दौर में राज्यों की वित्तीय ज़रूरतों के प्रति बीजेपी सरकार का रवैया और व्यवहार एक ऐसी सोच का लक्षण है, जो आधुनिक भारत की नींव को हिला रहा है।
मोदी सरकार

राज्यों द्वारा जारी लगातार मांग के बावजूद केंद्र ने अब तक उनका वैधानिक बकाया नहीं चुकाया है। इसके तहत जीएसटी लागू किए जाने से राज्यों को हुए नुकसान की भरपाई शामिल थी। अगस्त के बाद से इसका भुगतान नहीं किया गया।

इस बीच कोरोना महामारी में राज्यों की ज़िम्मेदारियां बढ़ गई हैं, लॉकडॉउन के चलते उनके संसाधन पूरी तरह खत्म हो चुके हैं। जीएसटी को छोड़ दिया जाए, तो उनके पास राजस्व का मुख्य स्त्रोत् पेट्रो-उत्पादों, शराब और स्टॉम्प ड्यूटी से मिलने वाला पैसा ही है। चूंकि लॉकडॉउन के चलते पेट्रो-उत्पादों की बिक्री पूरी तरह खत्म  है, इसलिए उन्हें शायद ही इससे कोई पैसा मिले। लॉकडॉउन में शराब की दुकानें भी बंद हैं, यहां से भी उन्हें कोई आय नहीं है। ऊपर से लॉकडॉउन में किसी संपत्ति की ख़रीद-फरोख़्त भी नहीं की जा रही है, इसके चलते कोई स्टॉम्प ड्यूटी भी नहीं लग पा रही है।

ठीक इसी वक़्त राज्य सरकारों को ना सिर्फ अपने नियमित खर्चे पूरे करने हैं, बल्कि कोरोना वायरस से जंग में भी पैसे खर्च करने हैं। जैसे- अस्पतालों को सुविधाएं देने, टेस्टिंग और बड़ी संख्या में लोगों को क्वारंटाइन करने के लिए पैसा खर्च होगा। फौरी तौर पर राज्यों की ‘उधारी सीमा’ बढ़ाकर इस आपात स्थिति से निपटा जा सकता है। लेकिन इसमें भी केंद्र की अनुमति की जरूरत होती है। केंद्र इस अनुमति को देने से इंकार कर चुका है। इनसे राज्यों के लिए बहुत मुसीबतें खड़ी हो गई हैं।

राज्यों की उधारी लेने की सीमा में अगर बढ़ोत्तरी हो भी जाती है, तो भी समस्या का समाधान नहीं होगा।  जब राज्य बाज़ार में लोन लेने जाएंगे, तो उन्हें बहुत ऊंची दर पर लोन मिलेगा। इससे वे कर्ज के जाल में उलझ जाएंगे, ख़ासकर ऐसे दौर में जब तय हो चुका है कि कोरोना खत्म होने के बाद अर्थव्यवस्था की विकास दर काफ़ी धीमी रहेगी। (कर्ज-जाल की संभावना तब बनती है, जब कर्ज की दर, आय की दर से ज़्यादा हो जाती है।)

सिर्फ़ राज्य सरकारों की कर्ज़ लेने की सीमा बढ़ाने से ही काम नहीं होगा, बल्कि उन्हें कम ब्याज़ दर पर कर्ज देना होगा। मतलब उन्हें बाज़ार के बाहर से कर्ज देना होगा। (एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में इटली की सरकार यही कर रही है। वो यूरोपियन यूनियन से यूरोपीय-बंधुत्व और संबंधों के आधार पर ऐसा ही कर्ज मांग रही है)। इसका एक सीधा समाधान यह हो सकता है कि राज्य सरकारों को आरबीआई से एक पूर्व निश्चित दर पर कर्ज मिले, जैसे रेपो रेट, जिसके तहत आरबीआई बैंकों को कर्ज देता है।

लेकिन इसके लिए भी केंद्र की अनुमति की जरूरत होगी। राज्य सरकारों को आरबीआई ''तरलता की समस्या (लिक्विडिटी प्रॉब्लम)'' से निजात पाने के लिए कुछ अस्थायी अग्रिम भुगतान करता है, लेकिन यह कर्ज नहीं होता। यह बहुत कम वक़्त के लिए होते हैं और लगातार नहीं लिया जा सकता। अगर इन्हें लगातार लिया जा सकता, तो यह कर्ज बन जाते। दरअसल राज्य सरकारों को आरबीआई से उधार लेने की अनुमति ही नहीं है।

मौजूदा स्थिति में अभूतपूर्व तरीके से इस कानून को बदलने की जरूरत है। केंद्र ऐसा कर सकता है। लेकिन जिस केंद्र राज्यों को उनके हिस्से का जीएसटी मुआवज़ा नहीं दिया, न ही उनकी उधारी सीमा को बढ़ाने पर पलकें झपकी, उससे आरबीआई द्वारा राज्यों को कर देने की अनुमति की उम्मीद नहीं की जा सकती।

कहा जा सकता है कि अगर राज्य सरकारों पर मौजूदा स्थिति में भार है, तो वित्तीय तनाव तो केंद्र सरकार पर भी काफ़ी है। ऐसी स्थिति में केंद्र, राज्यों की मदद कैसे कर सकता है? इसका जवाब ‘वैश्विक वित्तीय पूंजी’ की तुष्टि के लिए बड़े स्तर पर रूढ़ीवादी बना दिए गए हमारे वित्तीय प्रबंधन में है। इस प्रबंधन के तहत केंद्र सरकार के पास राज्यों से बहुत ज़्यादा स्वतंत्रता मौजूद है।

केंद्र अपनी राजकोषीय घाटे की सीमा का उल्लंघन जब चाहे तब कर सकता है। नवउदारवादी व्यवस्था में इसके लिए सिर्फ वैश्विक वित्त की ही बाधा होती है। यह वैश्विक वित्त, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा निर्देशित होता है। केंद्र सरकार आरबीआई को अपने राजस्व घाटे के पूंजीकरण का आदेश दे सकती है। केंद्र सरकार बिना किसी की अनुमति के संसाधनों की किलेबंदी भी कर सकती है, चाहे वह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से संबंधित हो या रेलवे, यूनिवर्सिटी अथवा पूरे प्राइवेट सेक्टर से। PMCARES जैसी योजनाओं से भी ऐसा किया जा सकता है, जिनके लक्ष्य के बारे में अब तक साफ नहीं हो पाया है।

इसके उलट राज्य सरकारों को कर्ज सीमा का पालन करना होता है, उनके पास कर्ज लेने के लिए RBI तक पहुंच नहीं है। अगर वो PMCARES की तरह कुछ कोशिश करते हैं, तो उन्हें केंद्र लताड़ सकता है। इस असमानता को देखते हुए केंद्र को ही आपात स्थिति में राज्य की मदद करनी चाहिए। जबकि भारतीय जनता पार्टी की सरकार ऐसा करने से इंकार कर रही है।

स्वतंत्रता के बाद से अब तक यह भारत की सबसे ज़्यादा केंद्रीकृत सरकार है। यह सही बात है कि आपातकाल में इंदिरा गांधी ने खुद के हाथों में असीमित ताकत ले ली थी और राज्यों को रौंद दिया था। लेकिन वह ''आपातकाल'' की बात थी, ना कि ''सामान्य'' दौर में ऐसा हुआ था। ऊपर से उस वक़्त राज्यों की करारोपण की शक्ति बरकरार थी। लेकिन अब जीएसटी के चलते राज्य आत्मसमर्पण कर चुके हैं। इस ढांचे में राज्य सरकार के बजाए जीएसटी काउंसिल किसी चीज पर कर की दर तय करती है। राज्यों को जीएसटी में शामिल कर अब केंद्र सरकार उनका बकाया भी नहीं दे रही है। जबकि इसी मुआवज़े के आधार पर राज्य जीएसटी के राजी हुए थे।

इंदिरा गांधी के वक़्त एक बहुत ताकतवर आंदोलन खड़ा हुआ था, जिसका नेतृत्व पश्चिम बंगाल की वाम सरकार कर रही थी, यह आंदोलन केंद्रीयकरण का विरोध कर रहा था।

लेकिन बीजेपी का केंद्रीकृत रवैया अब साम-दाम-दंड-भेद से मुख्यमंत्रियों के ऐसे आंदोलन को खड़ा ही नहीं होने देता। यहां तक कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटा दिया गया और राज्य में चुनी गई विधानसभा की जगह केंद्र से नियुक्त गवर्नर पहुंचा दिया गया। राज्य का विभाजन भी किया गया। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख नाम के केंद्र शासित प्रदेश बना दिए गए। इन्हें कुछ विपक्षी मुख्यमंत्रियों ने भी समर्थन दिया।

चूंकि महामारी के वक़्त में राहत पहुंचाने का काम राज्य सरकारों को करना है, तो उन्हें संसाधनविहीन करना मुश्किल में फंसे लोगों की मदद रोकना है। संघवाद को समेटा जा रहा है। लेकिन यह एक दूसरी प्रवृत्ति के चलते ज्यादा घातक है।

भारत में संघवाद सिर्फ प्रशासनिक प्रबंध नहीं है। यह इस एक भारतीय में दो तरह की राष्ट्रीय चेतनाएं चलती रहने की अभिव्यक्ति है। एक समूची भारतीय चेतना, दूसरी कोई क्षेत्रीय-भाषायी चेतना जैसे-बंगाली, गुजराती, तमिल या मराठी।

इन दोनों चेतनाओं की बीच संतुलन बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। भारत का संघवाद इसी संतुलन पर कायम होना चाहिए। बहुत ज़्यादा केंद्रीयकरण से, जैसा इंदिरा गांधी के वक़्त में हुआ या आज कुछ हद तक सफलता के साथ किया जा रहा है, इससे न केवल राज्य कमजोर होते हैं, बल्कि पूरे ढांचे की नींव हिलती है। यह भारत की अखंडता को भंगुर बनाता है।


दूसरे शब्दों में कहें तो यह केंद्रीयकरण और संघवाद का मुद्दा कोई वैसा खेल नहीं है कि राज्यों को कमजोर कर दो तो केंद्र मजबूत हो जाएगा। दरअसल ऐसा करने के क्रम में पूरी व्यवस्था को कमजोर और असुरक्षित कर दिया जाता है। इस बात को 1980 के दशक में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु दोहराते हुए कभी नहीं थकते थे। उस वक़्त उन्होंने इंदिरा गांधी के केंद्रीयकरण की कोशिशों के खिलाफ़ मोर्चा खोल रखा था।

बीजेपी की सोचने की क्षमता की साधारणता को देखते हुए लगता है कि पार्टी इसे समझ ही नहीं सकती है। बल्कि बीजेपी इससे उल्टा विश्वास रखती है। उसका मानना है कि भारत को एक और मजबूत, ताक़तवर केंद्र के सहारे ही रखा जा सकता है। लेकिन यह एक तानाशाही भरी सोच है, जो आधुनिक भारत के बनने की प्रक्रिया को नहीं समझती। न ही वो इसके लोकतांत्रिक, पंथनिरपेक्ष, समावेशी और समतावादी समाज को बनाने के लक्ष्य के बारे में समझती है। बीजेपी जैसे विचार लागू करने के लिए भय़ावह स्तर की ताकत आजमानी पड़ती है, इससे विभाजन की प्रवृत्ति बढ़ती है, जिससे भारत की बुनियाद कमजोर होगी।

इस महामारी के दौर में राज्यों की तरफ केंद्र की सोच इसी विचार को दिखाती है। यह एक ख़तरनाक कार्यप्रणाली है।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Modi Government is on a Dangerous Course

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