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चौथे लॉकडाउन पर फ़ैसला करने में डर रहे हैं मोदी?

जब पहले लॉकडाउन की घोषणा हुई तो भाव था ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। लेकिन अब राय- मशविरा किया जा रहा है। दरअसल राष्ट्रीय स्तर के लॉकडाउन के अच्छे या बुरे परिणाम की ज़िम्मेदारी ख़ुद केंद्र सरकार को लेनी होगी। इसी ज़िम्मेदारी को प्रांतों के सिर पर थोपने की कोशिश कर रही है मोदी सरकार।
narendra modi
Image courtesy: Twitter

लॉकडाउन पर सियासत न हो- इस चिंता के साथ चर्चा हो रही है चौथे लॉकडाउन पर। यह चिंता खुद इस बात का सबूत है कि चौथे लॉकडाउन पर राजनीति हो रही है। चौथे ही क्यों, हर लॉकडाउन पर सियासत होती आयी है जिस पर मुकम्मल चर्चा जरूरी है। मगर, आज का सबसे बडा सवाल यही है कि यह राजनीति क्या है? कौन राजनीति करना चाहता है और कौन इससे बचना चाहता है या कि हर कोई राजनीति ही करना चाहता है?

जब पहले लॉकडाउन की घोषणा हुई तो भाव था ‘अहम् ब्रह्मास्मि’। किसी से राय-मशविरा नहीं करना और खुद के लिए ग्लोबल लीडर का डंका पिटवाना ही लक्ष्य था। सबूत यह है कि 15 मार्च को हुए सार्क देशों के सम्मेलन में मिल-जुलकर कोरोना से संघर्ष की बात हुई थी। मगर, हिन्दुस्तान में यही साझा संघर्ष का संकल्प गायब दिखा।

संकल्प के बिना प्रार्थना कहां सफल होती है- यह विभिन्न धर्मों से परे आध्यात्मिक मान्यता है। जाहिर है पहले लॉकडाउन के चौथे दिन ही मज़दूर बगावत को उतर आए। जान जोखिम में डालकर भी पैदल चलने का जो सिलसिला तब शुरू हुआ, अब भी देश के अलग-अलग हिस्सो में जारी है। गरीब मज़दूरों के तेवर ने सत्ता को डरा दिया। सत्ता जब डर जाती है तो राजनीति और प्रपंच ही उसका बचाव हो जाता है।

मरकज़ का सर्कस और दूसरा लॉकडाउन

याद कीजिए वो मरकज़ का सर्कस, जिसके सारे पात्र और परिस्थितियां आज की राजनीति में पीछे छूटते दिख रही हैं। मगर, उस सर्कस ने मज़दूरों के संघर्ष को और मुश्किल बना दिया। कोरोना का संक्रमण जहां देश के अभिजात्य वर्ग को सता रहा था, वहीं कोरोना के कारण लॉकडाउन से पैदा हुआ संकट मज़दूरों को भूख और मौत की चपेट में धकेल रहा था। दूसरे लॉकडाउन की सियासत का आधार मरकज़ और तबलीग़ी जमात बनी। जमात न होता, तो ऐसा होता। जमात न होता तो वैसा होता। यह कहते हुए एक और लॉकडाउन 14 अप्रैल के बाद 3 मई तक के लिए थोप दिया गया। इस बार इतना जरूर हुआ कि मुख्यमंत्रियों से बातचीत की गयी। ‘जमात समर्थक’ कहलाने के डर ने विपक्ष की जुबान पर ही मानो ताला लगा दिया। दूसरे लॉकडाउन में ‘सर्वसम्मति’ के पीछे यह बड़ी वजह थी।

प्रांतीय स्तर पर पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल में कोरोना के गंभीर खतरे को देखते हुए लॉकडाउन को आगे बढ़ाने की वजह समझी जा सकती है,भले ही वे गैर बीजेपी शासित प्रदेश हों। मगर, इसे ही आधार बना कर राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे लॉकडाउन को 17 मई तक के लिए एक बार फिर थोप दिया गया। यह कौन सा आधार था?

तीसरे लॉकडाउन की घोषणा होने तक यह बात साफ हो चुकी थी कि देश के टॉप 10 कोरोना पीड़ित राज्यों में 90 फीसदी कोरोना के मरीज हैं। देश में करीब 40 शहर हैं जो मुख्य रूप से कोरोना की चपेट में हैं। ऐसे में राष्ट्रीय लॉकडाउन की आवश्यकता न होकर हॉटस्पॉट वाली थ्योरी पर अमल की ज्यादा आवश्यकता थी। मगर, इस देश में संपन्न वर्ग की सोच लॉकडाउन को बढ़ाने की है। उनकी प्राथमिकता वे खुद हैं। इस स्वार्थी सोच ने गरीबों को भूख से मरने की हालत में ला खड़ा किया है।

लॉकडाउन पर बदलने लगा है शासकीय नजरिया

लौटते हैं चौथे लॉकडाउन की सियासत पर। आज संपन्न वर्ग की शुभचिंतक मोदी सरकार लॉकडाउन बढ़ाने की नहीं, लॉकडाउन हटाने की चिंता में जुटी है। अचानक यह यू टर्न कैसे आया है, इसे समझिए। मज़दूरों को 12 घंटे काम करने का कानून बनाया जा रहा है। उनके सारे अधिकार छीने जा रहे हैं। अब काम करने वाला वर्ग कोरोना से भी मरेगा और काम के बोझ से भी। मगर, उसके मुंह से आवाज़ नहीं निकल पाएगी। इसके लिए वक्त ही नहीं होगा। 12 घंटे काम के और 3 से 5 घंटे घर से कारखाने तक आने-जाने के बाद उसके पास वक्त ही कहां होगा!

राजनीति यह है कि किसी भी तरह से हवाई अड्डों को खोल दिया जाए। हवाई यात्राओं में ही सुविधाभोगी संपन्न वर्ग की ज़िन्दगी बसती है। यह यात्राएं उन्हें देश के अलग-अलग हिस्सों के पांच सितारा होटलों से जोड़कर रखती हैं। इसके बगैर नेता, उद्योगपति, कारोबारी, दलाल बेचैन हैं। उनके लिए लॉकडाउन का मतलब हवाई अड्डे का बंद होना और लॉकडाउन खुलने का मतलब हवाई अड्डों का खुलना है। यह कहने की जरूरत नहीं है कि देश के ज्यादातर कोरोना संक्रमित शहर हवाई अड्डों से जुड़े हैं। इस देश में हवाई जहाज के जरिए ही कोरोना आया। पहले विदेशी और विदेश में रहने वाले एनआरआई कोरोना लेकर आए। फिर घरेलू विमानों के जरिए यह बड़े से छोटे शहरों में फैलता गया।

पूर्वोत्तर में क्यों हो लॉकडाउन?

पूर्वोत्तर कोरोना से तकरीबन मुक्त है। बिहार, झारखण्ड, ओडिशा, छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्यों में कोरोना के पहुंचने में वक्त लगा है तो इसकी वजह यहां हवाई जहाज वाले बाबुओं का आना-जाना कम रहना है। देश को ऊपर से नीचे अगर पूरब और पश्चिम हिस्सों में बांट कर देखें तो पश्चिम की अमीरी और पूरब की गरीबी कोरोना के संक्रमण में भी साफ देखा जा सकता है। गरीबों तक कोरोना नहीं पहुंचा है इसलिए यह देश बचा हुआ है। जैसे-जैसे यह गरीबों तक पहुंचेगा, वैसे-वैसे कोरना का रूप वीभत्स नजर आएगा। वैसे रिसर्च यह भी कहता है कि मेहनतकश अवाम जिसे विटामिन डी की कमी नहीं होती क्योंकि वह सूर्य की रोशनी में दिनरात मेहनत करता है, उस पर कोरोना का असर अपेक्षाकृत कम रहता है। मेहनतकश अगर बचे हैं या बचेंगे तो उनका मेहनकश होना ही इसके पीछे मूल वजह है।

देश नहीं प्रदेश की बात कर रहे हैं सीएम

प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों के वीडियो कॉन्फ्रेन्सिंग में नीतीश कुमार ने लॉकडाउन बढ़ाने के पक्ष में अपनी राय रखी है तो इसके पीछे उस राजनीति का खौफ है जिसके कारण बड़ी तादाद में प्रवासी मज़दूर बिहार लौटे हैं या लौटने वाले हैं। उनका रखरखाव उन्हें चिंतित करता है। वे ‘जो जहां हैं, वहीं रहें’ के पक्ष में हैं। उन्हें लगता है कि प्रवासी मज़दूर कोरोना लेकर आएंगे तो वे संभाल नहीं पाएंगे। इसी तरह केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन जब हवाई अड्डों और ट्रेनों को नहीं खोलने की बात करते हैं तो उनकी चिंता यही है कि जिस शिद्दत से उन्होंने कोरोना मरीजों की संख्या को 500 के आसपास अपने राज्य में रोक रखा है, कहीं उस पर पानी न फिर जाए।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पीएम की मौजूदगी में खुले तौर पर कहा कि पश्चिम बंगाल के साथ राजनीति नहीं की जाए। यह राजनीति राज्य पर केंद्र की मनमर्जी थोपने से जुड़ी है। गृहमंत्रालय अब तक कई बार कड़ी चिट्ठियां पश्चिम बंगाल को लिख चुका है। उद्धव ठाकरे और अशोक गहलौत निश्चित रूप से कोरोना के खिलाफ बड़ी लड़ाई लड़ रहे हैं। वे लॉकडाउन को बढ़ाने के हक में हैं।

देशव्यापी लॉकडाउन पर फ़ैसला लेने में डर रही है सरकार

देश का विपक्ष और तमाम विपक्षी दल चाहते हैं कि लॉकडाउन के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए गरीबों में खाद्यान्न वितरण, उनकी जेब में रकम और उनके लिए रोजगार खत्म न होने की गारंटी दी जाए। इसके लिए देश के एमएसएमई सेक्टर के लिए विपक्ष कोरोना पैकेज की मांग कर रहा है। आधार यह है कि ऐसे एमएसएमई सेक्टर को कैसे बर्बाद होने छोड़ दिया जा सकता है जो देश की जीडीपी में 30 फीसदी और निर्यात में 48 फीसदी का योगदान देता है। देश में 15 करोड़ रोजगार देने वाला यह सेक्टर लॉकडाउन की सबसे ज्यादा मार झेल रहा है तो उसे सरकार की ओर से मदद क्यों नहीं दी जाए?

महत्वपूर्ण बात यह है कि सभी प्रांत अपने-अपने प्रदेश में लॉकडाउन जारी रख सकते हैं। जो प्रदेश अपने यहां छूट देना चाहे, वो दे सकते हैं। मगर, राष्ट्रीय स्तर पर उस लॉकडाउन को पूर्वोत्तर के प्रदेश क्यों सहें? वे 10 टॉप टेन राज्य जहां 90 फीसदी कोरोना मरीज हैं, उनके अलावा बाकी राज्य इस लॉकडाउन का आर्थिक दुष्परिणाम क्यों बर्दाश्त करें? चौथे लॉकडाउन के बाद आर्थिक दबाव की स्थिति का ठीकरा कहीं केंद्र सरकार पर न फूटे, इसलिए राज्यों के मुख्यमंत्रियों की हामी ली जा रही है।

पीएम के साथ वीडियो कॉन्फ्रेन्सिंग में मुख्यमंत्रियों की हामी देशव्यापी लॉकडाउन के लिए नहीं है। क्या कोरोना के प्रभाव से बचे हुए राज्य राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन बढ़ाने के लिए बोलने की हिम्मत दिखाएंगे? कहने का अर्थ यह है कि राज्य अपनी परिस्थितियों के हिसाब से फैसला ले, मगर राष्ट्रीय स्तर के लॉकडाउन के अच्छे या बुरे परिणाम की जिम्मेदारी खुद केंद्र सरकार को लेनी होगी। इसी जिम्मेदारी को प्रांतों के सिर पर थोपने की कोशिश कर रही है मोदी सरकार। क्या चौथे लॉकडाउन पर फैसला लेने में डर रहे हैं नरेंद्र मोदी?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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