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नौ साल का सफ़र और निन्यान्बे का फेर

इस देश में फ़कीर यानी आम आदमी की कमाई लुट गई है। और सुल्तान? सुल्तान तो खुद फ़कीर होने का दावा कर रहा है। तो ऐसे में अवाम किसके भरोसे रहे?
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जिस अहद में लुट जाए फ़कीरों की कमाई,

उस अहद के सुल्तान से कुछ भूल हुई है ।।

-सागर सिद्दीकी

मोदी सरकार अपने नौ वर्ष पूरे करने जा रही है। उनके शासन का इन नौ वर्षों का लेखा जोखा करना उतना जरुरी नहीं है जितना यह समझना कि इन वर्षों में भारतीय सभ्यता क्या खोने के कगार पर पहुंच गई है। नौ साल और निन्यान्बे के फेर में पड़ी सरकार जो आज है, वह शायद कल भी और परसों भी रहे। परंतु जो हम खो रहे हैं, वह तो परसों के बाद आने वाली सरकारें भी शायद वापस न दिला पाएं। भाजपा सरकार के नौ साल पूरे होते न होते एक नया तोहफा सात साल के अंतराल में दूसरी नोटबंदी के रूप में मिल गया है। दो हजार का नोट अब तीस सितंबर के बाद चलन से बाहर हो जाएगा। इसकी घोषणा होने के साथ ही प्रधानमंत्री जापान रवाना हो गए हैं। उनके लौटकर आने के बाद एक बेहद भावुक व गीले भाषण की हम सबको प्रतीक्षा रहेगी। परसाई जी की एक छोटी सी कहानी। शीर्षक है ‘‘जनता की गोली‘‘ पर गौर करिए, ‘‘राष्ट्र की संसद में किसी ने आलोचना की कि पिछले महीने पुलिस ने 25 स्थानों पर जनता पर गोली चलाई जिसमें 50-60 आदमी मारे गए। मंत्री ने उत्तर दिया, ‘‘हमारे यहां जनता के धन से ही गोलियां बनती हैं। उत्तरदायी सरकार के नाते हमारा कर्तव्य हो जाता है कि जनता के धन का उपयोग जनता के लिए ही हो। जनता की गोलियां जनता के ही काम आनी चाहिए। इसीलिए हम गोलियों का दूसरों पर अपव्यय न करके, जनता की चीज जनता को ही लौटा देते हैं।‘‘ इस पर सत्ता पक्ष से तालियों की गड़गड़ाहट हुई।‘‘ परंतु अब प्रतीक बदल गए है। गोलियों की जगह नीतियों से काम चलाया जाता है और गोलियों से जनहानि की संख्या जो परसाई जी ने दी थी, उसके आगे शून्य बढ़ते जाते हैं। हत्याएं अब आत्महत्याओं का मुखौटा पहनकर भी आ जाती है। असामयिक अकाल और अस्वाभाविक मौतें अब सहज और सामान्य मृत्यु में तब्दील हो चुकीं हैं। नोटबंदी, जीएसटी या कोरोना में तालाबंदी के दौरान जनता ने जो कुछ सहा, वह विकास खाते में क्रेडिट हो गया। और विकास ? वो अभी रास्ते में है और उसका रास्ता तो मखमली कालीनों पर से ही गुजरता है। गड्ढे और उखड़ी सड़कों पर वह नहीं जाता। इस पर जाने से उसकी सांस उखड़ती है। वैसे विकास भी पिछले नौ वर्षों में थोड़ा संक्रमित हुआ है, इसलिए उसे चिकित्सकीय हिदायत दी गई है कि वह बहुत सीमित और साफ सुथरे वर्ग के बीच में ही अपना उठना बैठना करे। बाहर जो जनता है उसमें से तो 85 करोड़ शासन द्वारा दिए गए 5 किलो गेहूं पर गुजारा कर रहे हैं। तो ये सारे लोग क्या इस संक्रमित विकास को और बीमार नहीं बना देंगे? वैसे ये बड़े लोग इतने बीमार हो गए हैं कि उन्हें जो पानी की बोतल ‘‘प्रिस्क्राइब‘‘ की गई है वह 750 (सात सौ पचास) रूपये में एक आती है। और डाक्टर ने इनसे दिन में कम से कम पांच लीटर पानी पीने को कहा है। जबकि 85 करोड़ जो पानी पी रहे हैं, वह तो कमोवेश अपारदर्शी है और विकास को नुकसान भी पहुंचा रहा है।

इस देश में फकीर यानी आम आदमी की कमाई लुट गई है। और सुल्तान? सुल्तान तो खुद फकीर होने का दावा कर रहा है। तो ऐसे में अवाम किसके भरोसे रहे? परसाई जी लिखते हैं, ‘‘राजनीतिज्ञों के लिए हम नारे और वोट हैं, बाकी के लिए हम गरीबी, भूख, बीमारी और बेकारी। मुख्यमंत्रियों के लिए हम सिरदर्द हैं और उनकी पुलिस के लिए हम गोली दागने के निशाने हैं।‘‘ गौर करिए पिछले नौ बरसों में अनगिनत घर तोड़ दिए गए। देश के किसी भी राजमार्ग, फिर वह राष्ट्रीय हो या राज्य, पर चलने से आपको लगने लगेगा कि आप किसी युद्ध क्षेत्र में आ गए हैं। हजारों किलोमीटर सड़क के किनारे आपको टूटे मकानों की कतार नजर आएगी। ये सड़कें नामक विकास नाम के युद्ध का शिकार हैं। यही हालत शहरों की भी है। चुन-चुनकर पुरानी बस्तियों को ध्वस्त कर दिया गया है। इस हवस के बदले आम आदमी के हाथ अक्सर कुछ भी नहीं आता। मध्यप्रदेश की इन्दौर स्मार्ट सिटी में जिनके मकानों के हिस्सों को तोड़ा गया, उनको मुआवजा तो मिला ही नहीं, उल्टे अपने टूटे मकान को नए सिरे से बनाने के लिए नक्‍शा पारित कराने के लिए अब शुल्क के रूप में लाखों रूपये देने पड़ रहे हैं। पहले उनका घर तोड़कर सड़क बना दी और अब वे जब घर के सामने सड़क जो बिना मुआवजे के उनसे ले ली गई है, पर अपनी कार खड़ी करना चाहते हैं तो उन्हें हजारों रूपये पार्किंग शुल्क भी देना होगा। संपत्ति कर भी बाकी शहर से कई गुना ज्यादा। यह सब पढ़कर आपको कुछ याद आ रहा है। शायद याद नहीं आएगा। वजह यह है कि अंग्रेजों के खिलाफ पहला स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर के नेतृत्व में लड़ा गया था और अब आप भारत में मुगल शासन के बारे में पढ़ ही नहीं पाएंगे। परंतु तब हुआ यह था कि ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन ब्रिटेन की महारानी को हस्तांतरित हुआ था और स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को हुए नुकसान की भरपाई भी गुलाम हिन्दुस्तान से ही करवाई गई थी। तब भारत से 40000 पौंड से ज्यादा दंड वसूला गया। हमें गुलाम बनाया गया और उसमें हुआ खर्च भी हमसे ही वसूला गया। भारत में आज वैसा ही कुछ हो रहा है। जिनके घर टूट रहे हैं, जमीने छिन रहीं है, रोजगार छिन रहे हैं, उनमें से बहुत थोड़े से लोगों को कुछ मुआवजा मिल पा रहा है। परंतु भरपाई भी उनसे ही कराई जा रही है। पिछले नौ वर्षों में स्थिति बद से बद्तर ही हुई है।

फ़िराक गोरखपुरी लिखते हैं,

जब जब भी इसे सोचा, दिल थाम लिया मैंने,

इंसान के हाथों से इंसान पे जो गुजरी।।

दिल्ली में महिला पहलवानों द्वारा यौन शोषण के खिलाफ चल रहा धरना अब दूसरे महीने में पहुंच रहा है। जंतर मंतर से पांच किलोमीटर की दूरी न तो प्रधानमंत्री पार कर पा रहे हैं, न खेलमंत्री और सबसे ज्यादा दूरी तो महिला बाल विकास मंत्री को खटक रही है। बेटी बचाओ और महिला सशक्तिीकरण पर फिल्म बनवा रहे भारत शासन की यह नौ वर्षों की महानतम उपलब्धियों में से एक है। यह उपलब्धि सरकार और सरकार समर्थकों की बेपनाह ताकत व ढीठपन का भी अंदाजा दिला देती है। पाक्सो में मुकदमा दर्ज होने के बावजूद आरोपी की गिरफ्तारी नहीं हो रही और वह आरोपी सांसद पदक की कीमत पंद्रह रूपये बता रहे हैं। गौरतलब है कि क्या सरकार इस पंद्रह रूपये का पदक लाने वालों के लिए करोड़ों रूपये के पुरस्कार देती है? पर इसमें देश की मानहानि नहीं होती?

पिछले नौ वर्षों की एक बड़ी असफलता भारतीय विदेश नीति का कमोवेश प्रभावहीन होते जाना है। भारतीय विदेश नीति फिलवक्त बजाए संयम और विवेक के अनावश्‍यक आक्रामकता से ओतप्रोत नजर आ रही है। पूर्व कानून मंत्री किरण रिजिजू जिस तरह सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों के विरुद्ध आक्रामक थे। उसी तरह विदेश मंत्री जयशंकर अमेरिका, आस्ट्रेलिया और जापान के अलावा पूरे विश्‍व के प्रति आक्रामक दिखाई दे रहे हैं। उनके गुस्से का नवीनतम शिकार यूरोपीय संघ है। पिछले महीनों में भारत में हुए जी-20 के विभिन्न सम्मेलनों के अंत में घोषणापत्र ही जारी नहीं हो पाए। अरुणांचल और श्रीनगर में इसके सम्मेलनों में चीन तो शामिल नहीं हुआ, अब तुर्किए और सऊदी अरब भी श्रीनगर नहीं पहुंच रहे हैं। जितने प्रतिनिधियों के आने की उम्मीद थी, उसमें से मात्र साठ प्रतिशत ही आ रहे हैं। इसी वर्ष गोवा में हुए शंघाई सहयोग संगठन (एस.सी.ओ.) की विदेश मंत्रियों की बैठक में जिस तरह भारत-पाकिस्तान संवाद हुए वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत इस वर्ष जी-20 और एस.सी.ओ. दोनों का अध्यक्ष है, ऐसे में एक मेजबान के नाते जिस परिपक्वता की उम्मीद होती है, भारत संभवतः उस पर खरा नहीं उतर पा रहा है। यह सब भारत की आंतरिक राजनीति के भले ही अनुकूल लग रहा हो लेकिन वैश्विक कूटनीति के लिहाज से यह बेहतर और अनुकूल नहीं है। यह अजीब बात है कि हम बात तो विश्‍व शांति की करें और हमारा व्यवहार लगातार आक्रामक से अधिक आक्रामक होता जाए। भारत ने इस वर्ष विश्‍व अगुवाई के लिए मिले मौकों को एक हद तक गंवा दिया है। सबसे विचित्र बात यह है कि वैश्विक अगुवाई के इस दौर में (गौर करिए यह नेतृत्व हमें किसी विशिष्‍ट कौशल से प्राप्त नहीं हुआ बल्कि यह तो क्रमवार प्रतिवर्ष किसी एक देश को मिलता रहता है।) बेहतर तो यही होता है कि हम रूस-युक्रेन युद्ध को समाप्त कर पाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाते। परंतु हमारी कूटनीतिक सफलता सिर्फ इतनी रही कि हमने रुस से कच्चा तेल आयात कर उसे परिष्कृत कर दूसरे राष्ट्रों को बेचकर अच्छा (वह भी निजी कंपनियों ने) लाभ कमाया है। क्या इसे सफल कूटनीति कहा जा सकता है?

भारत में आज पिछली आधी शताब्दी में सबसे ज्यादा बेकारी है। नागरिकों की आय घट रही है। आर्थिक असमानता निर्दयतापूर्ण ढंग से बढ़ती जा रही है। गरीबी बढ़ रही है। शिक्षा व स्वास्थ्य का खर्च उठा पाने में भारत की अधिकांश आबादी असमर्थ होती जा रही है। महिलाओं और बच्चों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं। इस सबसे भयानक है भारत में बढ़ता सांप्रदायिक विद्वेष। कुछ खास त्यौहारों में सांप्रदायिक दंगे जैसे सालाना गतिविधि बनते जा रहे हैं। अल्पसंख्यक होना तो जैसे अब भारत में अभिशाप हो गया है, खासकर मुसलमानों और ईसाईयों के लिए। क्या आजाद भारत की परिकल्पना में इस सबकी कहीं गुंजाइश थीं? जाहिर है बिल्कुल भी नहीं थी।

पिछले नौ वर्षों में बहुत नियोजित व आक्रामक ढंग से नागरिक संगठनों (सिविल सोसाइटी आर्गेनाइजेशन) पर हमला किया गया है। विदेशी मुद्रा अधिनियम (एफ सी आर ए) को लेकर कठोर आर्थिक नियमों की बात हो या नागरिक स्वतंत्रता के मसलों पर संघर्ष करने वाली संस्थाओं और व्यक्तियों की बात, के खिलाफ अब घोषित मुहिम चल रही है। सामाजिक शोध के लिए अब किसी तरह की आर्थिक गुंजाइश नहीं बची है। इतना ही नहीं अब तो कृषि क्षेत्रों में नए प्रयोगों के लिए भी निजी संस्थानों और व्यक्तियों को अब शायद ही कहीं से आर्थिक मदद मिल पा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि समाज में नवाचार की गति धीमी पड़ती जा रही है। सरकार ही अब गैर सरकारी संगठनों/संस्थाओं की मुखिया बनती नजर आ रही है। ऐसे तमाम थिंक टैंक जो सरकारी नीतियों में व्याप्त विसंगतियों को पिछले छः दशकों से लगातार उजागर करते रहे हैं, आज देश की बड़ी जांच एजेंसियों के निशाने पर आ गए हैं। इस सबके बीच मीडिया की समाज से रवानगी हो गई है और उसने एक प्रोपेगंडा समूह के रूप में स्थान ले लिया है। कथित मुख्य धारा के मीडिया, जो राष्ट्रीय मीडिया कहलाता है में एक या दो समाचारपत्रों को छोड़ दें तो बाकी सभी सरकार के प्रचार माध्यमों में बदल गए हैं। सत्ता में बैठे लोगों की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है कि उन्होंने भारत में स्वतंत्र मीडिया नामक विचार को कमोवेश भस्‍मीभूत कर दिया है। इस रंगीन मीडिया के मनोहारी मुखौटे के पीछे एक भयानक अंधेरा फैल गया है।

निर्मल वर्मा के शब्दों में कहें तो, ‘‘हम जिसे तर्क-बोध का युग ¼Age of reason½ मानते आए थे, वह आत्म छलना ¼Age of self-deception½ का सबसे भीषण युग रहा है।‘‘ इस वाक्य पर हम आज यदि गंभीरता से विचार करें तो हमें वर्तमान विरोधाभासी परिस्थितियों का भान पूरी तरह से हो जाता है। हमसे कहा जाता है कि महंगाई लगातार कम हो रही है। इसके पीछे तमाम सूचकांकों की दुहाई भी दी जाती है, लेकिन जब हम बाजार में सौदा खरीदने जाते हैं तो अनाज, तेल, मसाले, दाल, साबुन, चाय, किताबें, पेट्रोल, फर्नीचर, दुकान, मकान सब पहले से अधिक महंगे ही मिलते हैं। दूसरी ओर मानवाधिकारों की रक्षा के लिए तमाम संस्थानों की सक्रियता के बावजूद इनका हनन बढ़ता जा रहा है। अमेरिका जैसे देशों में मनुष्य की औसत आयु अब घट रही है। वहीं भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया है, चीन को पीछे छोड़कर! क्या अब भी जनसंख्या हमारे लिए वरदान है?

नौ साल के शासन में भाजपा सरकार का शायद ही कोई फैसला समाज के लिए व्यापक फायदेमंद सिद्ध हुआ है। दुख इस बात का है कि समाज हित के लिए कोई प्रयत्न पूरी शिद्दत से किया गया हो, यह भी दिखाई नहीं दे रहा है। सवाल निंदा या आलोचना का नहीं बल्कि विश्‍लेषण का है। गांधी कहते हैं, ‘‘मेरे-हमारे सपनों के स्वराज्य में जाति (रेस) या धर्म, के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके लिए सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, किन्तु लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्‍य आते हैं।‘‘ आप अपने आसपास नजर दौड़ाइये और खोजिए कि क्या पिछले नौ वर्षों में ऐसा कुछ होता नजर आया है? अगर आया हो तो सबको जरुर बताइये।

फिलहाल तो यही गर्मागरम समाचार है कि नये संसद भवन का उद्घाटन विनायक दामोदर सावरकर के जन्मदिन पर होगा और इसका उद्घाटन न तो राष्ट्रपति करेंगी न उपराष्ट्रपति और न ही लोकसभा के अध्यक्ष। समझ ही गए होंगे कि पिछले नौ वर्षों में उद्घाटन का अधिकार भी पूरी तरह से आत्‍मकेंद्रित हो गया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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