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वादा तो न्यूनतम सरकार का ही था : वो भी न निभाया जा सका

यह इस सरकार का सबसे बड़े अपराध के तौर पर इतिहास में दर्ज़ होने जा रहा है कि एक समृद्ध लोकतन्त्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया इतनी एकांगी और व्यक्तिनिष्ठ होकर रह गयी।
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आज जिस तरह से देश को एक जन हितैषी, जिम्मेदार और संवेदनशील सरकार की ज़रूरत है वो सिरे से नदारद है। जन मानस गढ़ने में निरंतर मुस्तैदी से लगी मीडिया ने अपनी शब्दावली में ‘सरकार’ शब्द को ही गायब कर दिया है और इसके स्थान पर अब बात ‘सिस्टम’ की होने लगी है। हालांकि सिस्टम में एक व्यापकता भी है जिसमें सरकार, न्यायपालिका, कार्य-पालिका, मीडिया, प्रशासन, उद्योग और नागरिक सब समाहित हैं। मीडिया यहाँ चालाकी से ‘सरकार’ की असफलता को ‘सिस्टम’ की असफलता बताने की भ्रामक कोशिश कर रहा है।

हमें याद रखना चाहिए कि 2014 के आम चुनावों में जब नरेंद्र मोदी राजनीति के सर्वोच्च शिखर की तरफ बढ़ रहे थे तब उस चुनाव अभियान का एक नारा ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्ननेंस’ यानी ‘न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’ लोगों को बहुत आकर्षक लगा था और इसे खासा पसंद किया गया था। इस नारे के पीछे हालांकि नव-उदारवाद के अंतिम उद्देश्य को पा लेने की ध्वनि थी जिसमें राज्य की भूमिका को ‘नगण्य’ किया जाना एकमात्र ध्येय था लेकिन देश की जनता को इस नारे के जरिये यह बतलाया गया कि सरकार जैसे बहुत सादगी के साथ, कम से कम संख्या में मंत्रियों के जरिये ही देश में अधिकतम शासन देगी।

उस समय किसी ने यह नहीं सोचा था कि इन्हीं शिखर पुरुष के रहते हुए देश एक ऐसी विभीषिका का सामना करेगा जहां अभूतपूर्व ढंग से पिछली सरकारों की तुलना में ‘अधिकतम सरकार और अधिकतम शासन’ की ज़रूरत होगी। बहरहाल।

नरेंद्र मोदी और भाजपा ने सबसे ज़्यादा तौहीन ‘शब्दों’ की ही की है। कहे हुए अल्फ़ाज़ को वो और उनकी मशीनरी महज़ चुनाव जीतने की एक ‘राजनीतिक रेसिपी’ से ज़्यादा कुछ नहीं समझते और इसे महज़ चुनाव जीतने के लिए एक ज़रूरी संसाधन के तौर पर देखते हैं। इसलिए जब वो ‘न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’ का चुनावी जुमला फेंक रहे थे तो उसी समय एक ‘मजबूत प्रधानमंत्री’ और ‘मजबूत सरकार’ की मूर्ति भी गढ़ रहे थे। अब इन दोनों बातों में कोई तारतम्यता या सीधा संबंध नहीं है बल्कि दोनों परपस्पर विरोधाभासी हैं। या तो सरकार अपनी दखल को न्यूनतम करेगी या वो मजबूत होगी हालांकि दोनों ही स्थितियों में यह नहीं कहा गया गया कि इससे जनहित पर क्या असर पड़ेगा?

आज जब सरकार चौतरफा नाकामयाबी के नित नए रिकार्ड बना रही है तब इन बातों को याद करना इसलिए ज़रूरी हो जाता है क्योंकि देश की जनता ने, आखिर तो इन शब्दों पर यकीन किया था। देश की जनता ने परस्पर विपरीत दो बातों को एक साथ स्वीकार किया था। इसका मतलब था कि जनता ने केवल अपने नेता पर भरोसा किया था उसके कहे शब्दों पर नहीं।

हमें यह भी याद करना चाहिए कि जनता ने भारी उम्मीदों से एक मजबूत लेकिन अपनी भूमिका में न्यूनतम सरकार को विशाल जनादेश दिया था। इसमें एक अनिवार्य शर्त यह जोड़ी जा सकती है कि मोदी और भाजपा के समर्थकों को यह पता था कि ये जो बोल रहे हैं वह महज़ दिखावे के लिए बोल रहे हैं। इनके असल मंसूबों  और विशिष्ट कामों में इनकी महारत को लेकर उन्हें कोई संशय नहीं था।

2014 में पूर्ण बहुमत से चुनाव जीतने के बाद भाजपा नीत सरकार ने एक नज़ीर पेश की और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने महज़ 45 मंत्रियों के साथ 26 मई 2014 को शपथ ली। यह संख्या पूर्ववर्ती कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दौरान 77 मंत्रियों की संख्या के मुक़ाबले वाकई कम थी और इस कदम से मोदी के उस नारे को बल मिलता दिखलाई दिया कि इतने कम मंत्रियों के साथ एक केंद्रीय सरकार चलाई जा सकती है।

इस कदम से उस विरोधाभासी विचार के प्रति भी लोगों का ध्यान गया कि अगर प्रधानमंत्री मजबूत होगा तो कम मंत्रियों के बावजूद एक अच्छी सरकार का गठन किया जा सकता है। एक मजबूत प्रधानमंत्री अपने बल पर कम संसाधनों से भी बेहतर सरकार दे सकते हैं।

अपने दूसरे कार्यकाल में 61 मंत्रियों के दल के साथ यह सरकार काम कर रही है जो अभी भी संप्रग सरकार की तुलना में 16 कम है। यानी सरकार का आकार अभी भी कम रखा गया है। ये दीगर बात है कि इन 61 मंत्रियों में कितनों की कोई अपनी स्वतंत्र पहचान व हैसियत है?

इस लिहाज से सरकार का आकार कम रखे जाने के दिखावे के बावजूद सत्ता की महज़ दो लोगों के पास सिमटी हुई है और दिलचस्प है कि इसे लेकर सरकार, मंत्रियों और सांसदों के बीच एक आम सहमति और खुला समर्थन है।

महामारी जैसी विभीषिका में देश का हर सेक्टर चरमराता है। ज़रूर स्वास्थ्य, वित्त और गृह मंत्रालय की जिम्मेदारियाँ बहुत बढ़ जाती हैं लेकिन श्रम कल्याण, कृषि कल्याण या ग्रामीण विकास, पंचायती राज, या महिला बाल विकास या लघु उद्योगों, शिक्षा, भारी उद्योगों के मंत्रालयों को या शिक्षा, खेल व युवा जैसे मंत्रालयों के दायित्व भी और ज़्यादा बढ़ जाते हैं। आखिर कोई महामारी देश के नागरिकों के जीवन के हर पहलू को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है। एकजुटता और सहकार की पहली ज़रूरत खुद इस सरकार के मंत्रिमण्डल को है जिसका नितांत अभाव इस महामारी के दौरान दिखलाई दिया है।

पिछले साल भी जब अचानक लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन के बाद अप्रवासी मजदूरों का बहुत बड़े पैमाने पर पलायन हुआ था जिसे इतिहास में देश विभाजन के दौरान उपजी परिस्थितियों के समान बतलाया गया था, तब भी देश के श्रम मंत्री लंबे समय तक दिखलाई नहीं दिये थे। उस समय भी रेल मंत्री या सड़क परिवहन मंत्रालय ने उस नागरिक विपदा के लिए कोई ठोस इंतजामात नहीं किए थे।

बच्चों और महिलाओं के कष्टों पर महिला बाल विकास मंत्रालय की तरफ से कोई पहलकदमी नहीं हुई थी। वित्त मंत्रालय ज़रूर दिखलाई पड़ा था लेकिन उसके तमाम कदमों का फायदा अंतत: उन पीड़ितों तक नहीं पहुँच पाया था।

परस्पर सामंजस्य की भारी कमी से कितनी भी मजबूत सरकार का दावा हो, वह अभिशप्त है कि उसका बनाया तिलस्म टूटेगा। इन सात सालों में अपने अपने समय और क्षेत्रों के निर्वाचित नेताओं के नेतृत्व की धार इस कदर कुंद हो चुकी है कि अगर सात सालों के इस वजूदहीन माहौल को खुद प्रधानमंत्री बदलना भी चाहें तो उनके मंत्रियों में नेतृत्व लेने की क्षमता नहीं बची है।

यह इस सरकार का सबसे बड़े अपराध के तौर पर इतिहास में दर्ज़ होने जा रहा है कि एक समृद्ध लोकतन्त्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया इतनी एकांगी और व्यक्तिनिष्ठ होकर रह गयी।

आज हम देख रहे हैं कि देश में अधिकतम सरकार तो छोड़िए, एक अदद न्यूनतम सरकार भी नहीं दिखलाई दे रही है जिसका वादा था। आज एक संवेदनशील, सक्षम और सक्रिय सरकार की बेतहाशा ज़रूरत है जो अपनी जिम्मेदारियाँ समझे। जो अपने नागरिकों के जीवन को इतना तो महत्व देते दिखलाई दे कि यह लगे कि इन्हीं नागरिकों ने उन्हें अपना विधाता चुना था। लेकिन सरकार पूरी अहमन्यता और बेहद असंवेदनशील दर्प में डूबी हुई है और इस वक़्त जब पूरी दुनिया में इस सरकार की थू-थू हो रही है उसे महज़ अपनी छवि बचाने की चिंता हो रही है। ऐसी छवि जो अर्जित नहीं की गयी बल्कि पैसों के बल पर गढ़ी गयी। दिन रात की मीडिया ने एक ऐसे व्यक्ति को नायकत्व देने की कोशिश की है जिसकी लोकतन्त्र में रत्ती भर आस्था नहीं है।

यह छद्म टूटना ही था और इन बीते सात सालों में कई मर्तबा टूटा भी। एक सरकार के तौर पर मौजूदा सरकार के नाम कई विराट असफलताएँ हैं। कई अपराध हैं जो इसने नागरिकों के साथ किए हैं। कई बेहद असंवेदनशील फैसले हैं और कई साजिशें हैं जो बहुमत के आवरण और मीडिया की चिलमन में छिपा ली गईं हैं।

बात चाहे रोजगार सृजन की हो, बेनामी धन लाने की हो या मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया हो, स्टार्ट अप इंडिया हो या कोई और फैन्सी नामों वाली योजनाएँ, अपने शुरू होने से पहले ही या या दिशा भटक गईं या बड़बोलेपन की भेंट चढ़ गईं। तब भी मोदी और इस सरकार की लोकप्रियता बरकरार रह सकी क्योंकि बहुमत की सरकार के बल पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्षों से लंबित पड़ा एजेंडा पूरा किया जा रहा था। यह समर्थक दरअसल संघ की जमा पूंजी थे जिन्हें हिन्दू राष्ट्र और राष्ट्रवाद की मंडी में रेहन पर रखा जा रहा था। ये जमा पूंजी इन्हीं दिनों के लिए थी जैसे, जिसे इसी तरह खर्च होना था।

अब जब देश वास्तवविक संकट के सामने खड़ा है और यह जमा पूंजी भी जान सांसत में लेकर दर बदर भटक रही है और सरकार के नकारेपन की शिकार हो रही है तब जाकर पहली दफा सरकार रक्षात्मक मुद्रा में नज़र आ रही है। हालांकि इनकी रक्षात्मकता भी दूसरों पर आरोप लगाने और आक्रामक ढंग से उन्हें ही गलत ठहराए जाने की कला में सिद्धहस्त होने में प्रकट हो रही है। हर शाम टेलीविज़न पर जो आक्रामक और लगभग विदूषकीय अभिनय भाजपा के प्रवक्ता करते हैं उससे संभव है कि भाजपा ‘एक दिन ठीक से बीत जाने का संतोष’ हासिल करती भी हो लेकिन इनका हद दर्जे का गैर-जिम्मेदाराना रवैया देश के लोगों को पसंद नहीं आ रहा है।

देश कभी इस कदर नेतृत्व विहीन नहीं हुआ था जैसा इस समय है। देश में एक व्यवस्था हमेशा मौजूद रही है और आज़ादी के बाद से ही बनती आयीं संस्थाएं उस व्यवस्था के मूल में रहीं। इन संस्थाओं को उनके विवेक और काबिलियत के आधार पर काम करने की स्वायत्तता व स्वतन्त्रता रही। यही वजह है कि ये संस्थाएं अपनी विशेषज्ञता के साथ काम नेपथ्य से काम करती रहीं लेकिन लोगों को उनका लाभ मिलता रहा। आज जब कोरोना के इस अंतहीन संकट में देश फँसता हुआ नज़र आ रहा है तब धीरे धीरे कई जिम्मेदार संस्थाएं, नैतिक आधार पर आगे आकर यह बटला रही हैं कि उनकी सुनी नहीं गयी। या उनकी चेतावनियों को अनसुना कर दिया गया।

यह बेहद अफसोसजनक है कि एक व्यक्ति के अहम के आगे तमाम संस्थाओं की स्वायत्ता से समझौता किया गया। सरकारें बदलती हैं। संस्थाएं नहीं। वो अपने अपने क्षेत्रों में काम करती हैं। सरकारें उन्हें उनके काम में मदद करती हैं। इस सरकार ने देश की ऐसी तमाम संस्थाओं पर कुठराघात किया और उनपर अपनी प्रभुता का इस्तेमाल किया अंतत: इन सात सालों में उन्हें इतना कमजोर कर दिया गया कि वो सरकार को सही लेकिन सरकार के मन के खिलाफ अपनी राय भी ज़ाहिर करने लायक नहीं रहीं।

ऐसे में जहां वादा न्यूनतम सरकार का था वो न्यूनतम संस्थाओं के रूप में फलीभूत हुआ और संस्थाओं ने भी निर्भय आचरण न करके इस विभीषिका को और विराट बना दिया।

हालांकि बहुत देर हो चुकी है लेकिन सरकार को समझना चाहिए कि अभी भी बहुत कुछ किया जा सकता है। शर्तें बस दो हैं- पहली दरबारी बना दिये गए मंत्रियों को अपने भयमंडल से मुक्त किया जाये और संस्थाओं की इज़्ज़त करते हुए उन्हें निर्बाध स्वतन्त्रता व स्वायत्तता दी जाए। जब अच्छे काम सामने आने लगें तब हर उस काम पर देश के अभूतपूर्व प्रधानमंत्री की फोटो चस्पा की जा सकती है।

(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

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