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संसद का मानसून सत्रः बिखरा हुआ विपक्ष कैसे घेर पाएगा सरकार को?

विपक्ष ने दावा किया है कि वह कोरोना महामारी से हुई तबाही, आसमान छूती महंगाई, बेरोज़गारी, विवादित कृषि कानून, अंधाधुंध निजीकरण व रफ़ाल घोटाला जैसे के मुद्दे को जोरशोर से उठाएगा।
संसद
Image courtesy : NDTV

संसद के मानसून सत्र की शुरूआत ऐसे समय में हो रही है, जब देश में महंगाई और बेरोजगारी से त्राहिमाम मचा हुआ है। किसान, युवा व कर्मचारी सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं। हमेशा की तरह इस बार भी सरकार ने कहा है कि वह हर मुद्दे पर चर्चा को तैयार है जबकि विपक्ष ने दावा किया है कि वह कोरोना महामारी से हुई तबाही, आसमान छूती महंगाई, बेरोजगारी, विवादित कृषि कानून, अंधाधुंध निजीकरण व रफ़ाल घोटाला जैसे के मुद्दे को जोरशोर से उठाएगा।

सत्र शुरू होने से ठीक पहले इज़रायली कंपनी एनएसओ के साफ्टवेयर से जासूसी के मामले का खुलासा हुआ है, लिहाजा इस पर भी हंगामा होना तय है।

19 जुलाई से 13 अगस्त तक चलने वाले इस सत्र में कुल 19 बैठकें होनी हैं, जिसमें सरकार को करीब 29 विधेयक पारित कराने हैं। इनमें आधा दर्जन अध्यादेश भी शामिल हैं, जिन्हें कानूनी रूप दिया जाना है।

ध्यान रहे कि पिछले बजट सत्र में भी विपक्ष के पास भरपूर मौका था, लेकिन आपसी एकजुटता की कमी के चलते वह न तो कोरोना प्रबंधन व बेरोजगारी पर सरकार को घेर पाया और न ही कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर सका। वर्तमान में भी गैर एनडीए पार्टियों के बीच व्य़ापक समन्वय होना तो दूर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस जबरदस्त वैचारिक संकट और अंतर्कलह से जूझ रही है। दो दिनों पहले खुद राहुल ने अपने वक्तव्य में कहा है कि उनकी पार्टी में जो डरपोक लोग हैं, वे आरएसएस में चले जाएं। इसकी एक बानगी पिछले सत्र में भी दिखाई पड़ी थी, जिसमें एक तरफ लोकसभा में राहुल गांधी कृषि कानूनों को लेकर सरकार पर तीखे प्रहार कर रहे थे तो दूसरी तरफ राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद प्रधानमंत्री मोदी का मार्मिक भाषण सुन कर 'इमोशनल' हो रहे थे। इसी माह जब प्रियंका गांधी यूपी में किसान पंचायतें कर रहीं थीं तो कांग्रेस के ‘ जी 23’ के नेता अपने शीर्ष नेतृत्व पर सार्वजनिक रूप के उंगली उठा रहे थे। इन सब के बावजूद इस बार फिर पार्टी की कोशश है कि वह सरकार को विवादित कृषि कानूनों को वापस लेने और रफ़ाल घोटाले की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) का गठन करने को मजबूर कर दे।

उपरोक्त मुद्दों से निपटने के लिए सरकार के पास अपने जवाब भी हैं और हथकंडे भी। फिलहाल विपक्ष जासूसी व फोन टेपिंग के मामले में उलझता नजर रहा है, जबकि यह कोई नई बात नहीं है। सभी को पता है कि इस तरह की चीजें पहले भी होती रही हैं। यही कारण है कि तमाम नेताओं व अऩ्य महत्वपूर्ण लोगों ने फोन पर खुल कर बात करना ही बंद कर दिया है। दूसरे जनसंख्या नीति या इस तरह के कुछ अन्य मसालेदार मुद्दे उछाल कर जनता के मूल सवालों से ध्यान भटकाने की कोशिशें हो सकती है।

विपक्ष के कई नेता भी इस बात को समझ रहे हैं। उनका कहना है कि समूचे विपक्ष को किसानों, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दों पर ही ताकत लगानी होगी। सरकार से यह पूछना होगा कि कोरोना की दूसरी लहर के दौरान अस्पताल, ऑक्सीजन और जरूरी दवाओं के चलते हुई, मौतों को जिम्मेदार कौन है? ढाई-तीन सौ रुपये का इंजेक्शन 30 से 40 हजार रुपये में क्यों ब्लैक हुआ? जुलाई आ गया, लेकिन वैक्सीन की कमी अब भी बनी हुई है? दो तीन माह पहले देश ने जो भयावह तस्वीर देखी है, उसका आभास पिछले संसद सत्र के समय से ही होने लगा था। कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल समेत  कुछ सांसदों ने तो इसे सदन में उठाया भी था, लेकिन उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। बाद में गोदी मीडिया के जरिए यह बताया गया कि दूसरी लहर की तीव्रता का अंदाजा किसी को नहीं था। साथ ही सारा ठीकरा आम जनता सिर फोड़ा गया कि लोग खुद ही कोरोना नियमों का पालन नहीं करते हैं। अब तीसरी लहर की खबरें तेजी से आ रही हैं, लेकिन उसकी रोकथाम के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं? किसी को पता नहीं है। यह उस समय हो रहा है जब तमाम लोगों को रोटी के लाले पड़ रहे हैं। यदि तीसरी लहर आ गई तो वे इलाज कहां से कराएंगे?

वर्तमान में आम जनता के समक्ष सबसे बड़ा सवाल आजीविका का है। करोड़ो लोगों के हाथों से रोजगार छिन गया है। सीएमआईई के आंकड़ों को लें तो पता चलता है कि कोरोना काल के दौरान देश में 97 फीसदी लोगों की आमदनी घटी है। यानी भारी संख्या में लोग गरीब हुए हैं, जबकि 3 फीसदी लोग पहले की अपेक्षा और अमीर गए हैं। ऐसा महज कोरोना के कारण नहीं हुआ है। य़ह सिलसिला तो महामारी आने के काफी पहले ही शुरू हो गया था। प्रचंड बेरोजगारी और महंगाई को लेकर छात्र व युवा सड़कों पर संघर्ष कर रहे हैं। यह बात अलग है कि गोदी मीडिया में उनके आंदोलनों की खबरें दबाई जा रही हैं। इसी तरह किसानों के आंदोलन को भी तरह-तरह से बदनाम किया जा रहा है और उसे कमजोर करने की कोशिश हो रही है। इसमें कोई दो राय नहीं कि तमाम विपक्षी नेताओं ने अलग-अलग बयान दे कर उन्हें अपना समर्थन दिया है, लेकिन वे एकजुट हो कर सामूहिक रूप से उनके साथ खड़े नहीं हुए। अब यह देखना होगा कि सड़कों पर न सही, लेकिन संसद में विपक्षी पार्टियां किसानों के मुद्दे पर एकजुट होती हैं या नहीं?  

एलआईसी, बैंक व अन्य क्षेत्र के कर्मचारियों के सवालों पर भी विपक्षी पार्टियां मुखर नहीं हैं। पिछले सत्र में 16 मार्च को राज्यसभा में मल्लिकार्जुन खड़गे ने इनके निजीकरण का मुद्दा जरूर उठाया था, लेकिन उसके बाद से इस पर कोई चर्चा नहीं हुई।

इसबीच रफ़ाल विमान घोटाले का मुद्दा एक बाऱ फिर गर्म हुआ है, क्योंकि फ्रांस में इसकी जांच शुरू हो गई है। रफ़ाल के सवाल को अब तक राहुल गांधी, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी व कुछ अन्य वामपंथी नेता ही उठाते रहे हैं, जबकि अन्य विपक्षी पार्टियां इस पर खामोश रही हैं।

मोदी-1 सरकार के समय कम से कम इतना था कि विपक्षी पार्टियां तमाम आपसी मतभेदों के बावजूद जनता और देश के ज्वलंत मुद्दों पर एकजुट हो जाती थीं, जिसका कुछ असर दिखाई पड़ता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। वैसे इन दिनों एक बार फिर कुछ नेताओं द्वारा विपक्ष के बीच एक समन्वय बनाने की कोशिशें की जा रही हैं, लेकिन इसमें कितनी कामयाबी मिलेगी? अभी कह पाना मुश्किल है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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