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राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना को क्यों खत्म कर रही है मोदी सरकार?

भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने बिना कोई कारण बताए पिछले माह अचानक सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सूचित कर दिया कि एनसीएलपी (NCLP) को 31 मार्च 2022 के बाद से नहीं चलाया जाएगा और इसे केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संचालित समग्र शिक्षा अभियान में समाहित कर दिया जाएगा।
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Image courtesy : Feminism in India

बच्चों का बचपन सबसे अच्छा व्यतीत होता है खेल और प्राथमिक शिक्षा में। लेकिन कई बच्चे ऐसे भी हैं जो अपने बचपन से वंचित हैं। वे अपनी शिक्षा और खेल के समय से वंचित हैं, क्योंकि गरीबी के कारण, उन्हें अपने परिवार को चलाने के लिए के लिए कम मजदूरी पर काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता है। गरीब बच्चों को काम के बजाय स्कूल भेजने के लिए कई सरकारें नीतियां और परियोजनाएं लेकर आईं। इनमें से एक थी राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना 

भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने बिना कोई कारण बताए पिछले माह अचानक सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सूचित कर दिया कि एनसीएलपी (NCLP) को 31 मार्च 2022 के बाद से नहीं चलाया जाएगा और इसे केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा संचालित समग्र शिक्षा अभियान में समाहित कर दिया जाएगा।

क्या है राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना?

बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम (CLPRA) 1986 में पारित किया गया था। इसने 9 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को खतरनाक व्यवसायों में काम करने पर रोक लगाई। इसने बच्चों को गृह-आधारित उद्योगों या कृषि जैसे अन्य व्यवसायों में काम करने को नियमित भी किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे शिक्षा जारी रखें। एक मायने में, यह देश के सभी बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य बनाने वाले सर्व शिक्षा अभियान (SSA) कानून का अग्रदूत कहा जा सकता है। CLPRA को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, और पहले से काम कर रहे बच्चों के पुनर्वास के लिए तथा उन्हें शिक्षित करने के लिए, 1988 में, केंद्र ने राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना की शुरुआत की।

देश में बाल श्रम के 12 हॉटस्पॉट, जैसे शिवकाशी, जहां बड़ी संख्या में बच्चे काम कर रहे थे, की पहचान की गई और केंद्रीय श्रम मंत्रालय द्वारा वित्त पोषित इन जिलों में एनसीएलपी शुरू किया गया।

एनसीएलपी के तहत, पहले 9 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को खतरनाक काम से बचाया गया और उनकी उम्र के अनुरूप कक्षाओं में उन्हें स्कूलों में भर्ती कराया गया। जहां वे स्कूली शिक्षा का सामना करने में असक्षम रहे, उनकी मदद के लिये 2001 से विशेष टैनिंग सेंटर (STC) स्थापित किए गए। अवैध बाल श्रम से मुक्त किए गए प्रत्येक बच्चे को शुरू में 100 रुपये प्रति माह का एक सांकेतिक मुआवजा दिया गया था। बाद में श्रम मंत्रालय ने इस राशि को बढ़ाकर 400 रुपये कर दिया।

तमिलनाडु जैसी कुछ राज्य सरकारों ने ऐसे पुनर्वासित बच्चों को हर महीने 400 रुपये तक दिए। राज्य में यह स्कीम 18 जिलों में चल रही थी। इन जिलों में 213 स्पेशल ट्रेनिंग सेन्टरों में 3000 से अधिक बच्चे शिक्षित-प्रशिक्षित किये जाते थे। श्री आर विद्यासागर, जो यूनिसेफ़ में बाल सुरक्षा विशेषज्ञ रहे हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि ‘‘इस प्रॉजेक्ट को समाप्त करने के बाद बाल श्रम की प्रथा को खत्म करना असंभव हो जाएगा।

केंद्र नें कहा है कि राज्य समग्र शिक्षा अभियान (SSA) के माध्यम से बाल श्रमिकों को बचाना और उन्हें मुख्यधारा में लाना जारी रख सकते हैं। क्योंकि केंद्र सरकार द्वारा दिया जा रहा अनुदान बन्द हो जाएगा, नतीजा होगा बच्चों का स्टाइपेंड और प्रतिबद्ध अध्यापकों का वेतन बन्द होना। ये अध्यापक घर-घर जाकर अभिभावकों को समझाते थे कि तात्कालिक आर्थिक जरूरतों के चलते बच्चों का भविष्य बर्बाद नहीं किया जा सकता। पिछले कुछ वर्षों में तमिल नाडु में ही बाल श्रमिकों की संख्या तीन गुना बढ़ गई है। क्या एनसीएलपी के बंद होने के बाद एसएसए के माध्यम से ये बच्चे श्रम छोड़कर पढ़ाई करने की ओर प्रेरित होंगे? खासकर ऐसी स्थिति में जब कोवड महामारी के चलते अधिक से अधिक गरीब परिवारों के बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर हुए हैं और शहरों में प्रवासी मजदूर बन गए, एनसीएलपी के विस्तार की जरूरत थी।’’

राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के फायदे

राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना के तहत जिन बच्चों को बाल श्रम से मुक्त कराकर विशेष प्रशिक्षण केंद्रों में दाखिला दिया जाता है वहां वे 2 साल का ब्रिज कोर्स करते थे या वोकेश्नल ट्रेनिंग में जुड़ जाते हैं, स्टाईपेंड और स्वास्थ्य सेवा सहित मध्यन्न भोजन भी पाते हैं और बाद में किसी विद्यालय में औपचारिक शिक्षा प्राप्त कर किसी भी पेशे में जा सकते हैं- यानी मुख्य धारा में आ जाते हैं। एनसीएलपी के अध्यापक उनके केंद्र छोड़ने के बाद भी संपर्क रखते और मेनटरशिप करते रहते। श्री विद्यासागर कहते हैं, ‘‘तमिलनाडु में हमने जो सर्वे किया उससे पता चला कि बहुत से बच्चे एनसीएलपी की वजह से आज अच्छी नौकरियों में हैं- वे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील और अध्यापक और प्रधानाचार्य तक बने हैं। इसलिए राज्य की ओर से मंत्रालय के फैसले का जबरदस्त विरोध हो रहा है।’’ इसी तरह लुधियाना के एनसीएलपी स्टाफ ने भी दिल्ली आकर प्रदर्शन करने का फैसला किया था। उनका कहना था कि वे दर-दर भटक रहे हैं और बीसों साल की उनकी मेहनत पर पानी फेर दिया गया है। उनकी मानें तो बाल श्रम से मुक्त होने वाले बच्चों को विशेष किस्म की देखरेख चाहिये, पर समग्र शिक्षा अभियान के बहुत सारे अन्य काम हैं। वे इतना ध्यान नहीं दे सकते। सरकार के आधिकारिक पत्र में उनकी नौकरियों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया है तो वे बेरोज़गार होने के कगार पर हैं।

देश में भरे पड़े हैं बाल श्रमिक

देश भर में 1 करोड़ से अधिक बाल श्रमिक काम करते हैं। इसलिए 312 जिलों में एनसीएलपी लागू था। तेलंगाना में 30 जिले, राजस्थान में 27, ओडिशा में 24 और बिहार में 23 जिले एनसीएलपी के तहत आते थे। उत्तर प्रदेश में स्कीम के तहत 52 जिले आते थे। फिरोज़ाबाद के चूड़ी उद्योग से लेकर मिर्जापुर-बदायूँ के कालीन उद्योग, अलीगढ़ के ताला उद्योग, लखनउ में चिकनकारी और ज़रदोज़ी कढ़ाई, बीड़ी बनाने का काम, बनारस में सिल्क साड़ियों का काम, बुलंदशहर में शहरी विकास से जुड़े तमाम काम में हज़ारों बच्चे लगे रहते हैं। सबसे अधिक बाल श्रमिक उत्तर प्रदेश में ही हैं- देश भर का 20 प्रतिशत हिस्सा। 

सरकारी आंकड़ों में 4 हज़ार से अधिक बाल श्रमिक प्रदेश में कार्यरत हैं, जबकि असली संख्या कहीं अधिक होगी। इनमें से अधिकतर ने घर भेजने के लिए लोन लिए हैं, जो कई सालों में भी चुकाए नहीं जा पाते। यानी बच्चे बंधुआ मजदूर बन जाते हैं और काम न करने पर यातना झेलते हैं। इनमें से कुछ तो 5 साल की उम्र के हैं। पर ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार सरकार स्वीकार ही नहीं करती कि देश में बाल मजदूरी है।

एनसीएलपी बिना ट्रान्सिशन हो जाएगा कठिन

एनसीएलपी का मक्सद रहा है सघन बाल श्रम वाले इलाके चिन्हित करना, बच्चों को मुक्त कराना, उन्हें प्रोत्साहन देना और उन्हें मुख्य धारा में ले आने की एक ऐसी प्रक्रिया अख़्तियार करना जो इन्क्लूसिव होने के साथ-साथ विशेष प्रशिक्षण पर आधारित हो। 15-18 वर्ष के किशारों व किशोरियों को भी जोखिम भरे काम से बाहर निकालने और प्रशिक्षित करने का उत्तरदायित्व प्रशिक्षण केंद्रों पर रहा है।

आखिर सरकार के इस प्रॉजेक्ट को समाप्त करने के पीछे क्या मक्सद है? जो बच्चे बाल श्रम से बाहर आएंगे उनको विद्यालय तक कैसे लाया जाएगा? एक 12 वर्ष का बच्चा, जो ककहरा नहीं जानता और सालों के उत्पीड़न से निकला है, किस कक्षा में भर्ती होगा? वह अलग परिवेश से आकर दूसरे बच्चों के साथ कैसे घुल-मिल सकेगा और अपनी मनोवैज्ञानिक दशा को कैसे सुधार सकेगा? क्या समग्र शिक्षा अभियान ऐसे विशिष्ट परिस्थिति में सालों तक फंसे बच्चों को सीधे पाठशाला की शिक्षा से जोड़ सकेगा? नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी  फाउंडेशन के पदाधिकारी श्री ओम प्रकाश पाल से पता चला कि अधिकतर बच्चे बंधुआ मज़दूर के रूप में काम करते है और यातना झेलते हैं। ‘‘उन्हें मुक्त कराकर बंधुआ मज़दूर कानून के तहत केस दर्ज कराना आसान नहीं होता। कई बार मालिकों और पुलिस के साथ झड़पें भी होती है, पर बंधुआ मज़दूर कानून के समस्त पहलू मौजूद होते हैं। हम दिल्ली में कई केस इस कानून के तहत दर्ज करवाकर 2-3 लाख तक का अच्छा मुआवज़ा दिलवा पाए हैं। पर अन्य राज्यों में ऐसा नहीं हो पाया है’’ श्री पाल ने बताया। 

एनसीएलपी खत्म होने पर उनका कहना था कि सरकार ने वायदा तो किया है कि प्रशिक्षण जारी रहेगा और बच्चों की शिक्षा जारी रहेगी। पर यह देखना बाकी है कि यह समग्र शिक्षा अभियान के तहत कैसे लागू किया जाता है।’’

बाल श्रम कानून लागू करने में रही लापरवाही

आश्चर्य है कि पंजीकृत वयस्क बेरोज़गारों की संख्या जबकि 5 करोड़ 30 लाख तक पहुंच चुकी है, 5 वर्ष से लेकर 14 वर्ष आयु के बच्चों को श्रमिक बनना पड़ रहा है। बाल श्रम कानून के बावजूद आज देश में इनकी संख्या 1 करोड़ से अधिक हैं और वे इस उम्र की बाल जनसंख्या का लगभग 4 प्रतिशत हैं। ये 5 क्षेत्रों में सबसे अधिक पाए जाते हैं- कारखानों में, ईंट भट्ठों में, गार्मेंट उद्योग में, असंगठित क्षेत्र में, जैसे गृह-आधारित रोजगार, ढाबों और होटलों में या टेम्पो व बसों के खलासी या हेल्पर के रूप में, कृषि क्षेत्र में और आतिशबाजियां बनाने के काम में। इसके अलावा बड़े शहरों में घरेलू कामगारों के रूप में या कुड़ा बीनने में भी बच्चे लगे रहते हैं। इन बच्चों के मानवाधिकारों का लगातार हनन होता है, परंतु क्योंकि इन्हें मुख्य कार्यस्थल पर काम नहीं कराया जाता बल्कि अलग-अलग जगहों पर विकेंद्रित तरीके से छिपाकर काम करवाया जाता है, कई बार एनजीओज़ या लेबर इंस्पेक्टर की नज़र में नहीं आते। 

दूसरे, इन्हें संगठित नहीं किया जा पाता, न ही ये भाग पाते हैं। ये बंधुआ बनकर रह जाते हैं। इनमें अदिवासी, दलित, मुस्लिम और गरीब प्रवासी बच्चे ही अधिक पाए जाते हैं। केवल स्वयंसेवी संगठन या मानवाधिकार संगठन इन्हें बचा पाते थे और इस प्रक्रिया में एनसीएलपी से मदद मिलती थी। कानून बनने के बावजूद ये लाखों की संख्या में आज भी श्रम कर रहे हैं तो इसके पीछे दो प्रमुख कारण सामने आते हैं। 

एक- बढ़ती गरीबी के कारण घर के खर्च उठाने की मजबूरी; दूसरा- मालिकों द्वारा सस्ते, फुर्तीले निरक्षर श्रमिकों को वरीयता देना, जिस वजह से उन्हें बिना कौशल काम मिलना आसान होता है। साथ ही इन्हें मार-परटकर भी काम कराया जा सकता है। अब यदि इसमें सरकार की लापरवाही को जोड़ दिया जाए तो भयावह दृष्य सामने आता है- अगली पीढ़ी के भविष्य का विनाश।

क्या सरकार बाल श्रम की भयावह सच्चाई को छिपाना चाहती है?

24 जून 2019 के श्रम व रोज़गार मंत्रालय की पीआईबी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार एनसीएलपी के माध्यम से 1 वर्ष में ही 66,169 बाल श्रमिकों का पुनर्वास हुआ था और वे मुख्य धारा में प्रवेश कर चुके थे। इसके पहले 3 सालों में 1,44,783 बच्चों के पुनर्वास की बात भी विज्ञप्ति में कही गई। फिर अचानक सरकार की बच्चों के प्रति ऐसी लापरवाही क्यों? क्या इसलिए कि सरकार अपनी छवि संवारना चाहती है और विश्व को बताना चहती है कि भारत सतत विकस लक्ष्यों (SDG) को हासिल करने के बहुत नज़दीक है? बच्चे वोटर तो होते नहीं तो उनकी परवाह विपक्षी राजनीतिक दल भी क्यों करें? ट्रेड यूनियन और महिला संगठन भी इनके मुद्दों को अपने आन्दोलन के दायरे में नहीं समझते। तो क्या बाल श्रम पर काम करने वाले कुछ स्वयं सेवी संगठनों और राज्यों पर सारी जिम्मेदारी छोड़ दी जाएगी और श्रम व बाल विकास मंत्रालय इन बच्चों की जिम्मेदारी से हाथ धो लेगा?

वैसे भी कई-कई सालों तक जब अध्यापकों के वेतन और बच्चों के स्टाइपेंड रुके रहने लगे तो लगा था कि सरकार इस परियोजना को चलाने में कोई दिलचस्पी नहीं रखती। भारत के अलावा विश्व भर में भी 11 बाल श्रम हॉट स्पॉट है, जिनमें पाकिस्तान, बांग्लादेश और नाइजीरिया, जिनका स्कोर 10 में शून्य था, शामिल हैं। चीन का स्कोर भी काफी बुरा रहा है- 0.02

दावों और कार्यवाहियो में भारी विरोधाभास

कागज़ पर बहुत कुछ दिखाई देता है, मसलन 2016 में बाल श्रम निषेध और नियमन कानून को संशोधित किया गया और 9-14 वर्ष के बच्चों की जगह 5-14 वर्ष के बच्चों को शामिल किया गया। फिर केवल खतरनाक काम ही नहीं, बच्चों को किसी भी प्रकार के काम के चलते शिक्षा से वंचित करना कानूनन जुर्म माना गया। साथ में 15-18 वर्ष आयु के बच्चों को खतरनाक काम करवाने पर भी रोक लग गई। यदि कोइ मालिक इसका उलंघन करे तो उसे 6 माह से लेकर 2 साल और 20 से 50 हज़ार रु तक का जुर्माना लगेगा। दोबारा ऐसा करने पर 3 साल का कारावास है। 

पर श्री विद्यासागर बताते हैं कि 15-18 वर्ष के बच्चे इस संशोधन के बावजूद पूरी तरह असुरखित हैं क्योंकि कई काम जो वे करते हैं ‘जोखिम-भरे श्रम’ की श्रेणी में नहीं आते पर शोषण का कारण बनते हैं। उदाहरण के लिए तमिलनाडु में सारे स्पिनिंग मिल, गार्मेंट उद्योग और पावर लूम्स में ऐसे किशोर काम करते हैं। यह समझ के परे है कि जब 21 मार्च के श्रम मंत्रालय की विज्ञप्ति के अनुसार एनसीएलपी को 59 नए बाल श्रम सघन इलाकों तक विस्तारित किया गया और देश में 1225 विशेष प्रशिक्षण केंद कार्यरत थे तो प्रॉजेक्ट को खत्म करने की ज़रूरत क्या थी? 34 सालों में यदि प्रॉजेक्ट से 13.63 लाख बच्चों को लाभ मिला, जैसा कि दावा किया जाता है, तो उसे बंद करने की बात कहां से आई? क्या सरकार कोई विकल्प लाएगी?

यदि नही तो सबसे बड़ा खतरा होगा गरीबी के चलते लाखों बच्चों का भविष्य अंधकार में डूब जाएगा, यही नहीं, बच्चियों की भी खरीद-फ़रोख़्त बढ़ेगी। 7500 रु प्रतिमाह वेतन पाने वाले स्थायी अध्यापक सड़क पर आ जाएंगे और कई स्वयंसेवी संस्थाओं को इस बाबत फंड मिलना बंद हो जाएगा। आखिर ऐसा क्यों है कि बाल कल्याण का हिस्सा बजट 2020-21 में 3.16 प्रतिशत से घटकर 2021-22 में 2.46 प्रतिशत हुआ और 2022-23 में 2.35 प्रतिशत हो गया है। फिर, शिक्षा मंत्रालय के अनुदान के तहत 2022-23 के लिए राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना (एनसीएलपी) के लिए विशेष रूप से कोई आवंटन नहीं किया गया है, हालांकि यह घोषित किया गया था कि एनसीएलपी को समग्र शिक्षा अभियान के तहत शामिल किया जाएगा। हालांकि समग्र शिक्षा अभियान के लिए आवंटन जो 2021-22 में 29999.99 रुपये था, 2022-23 में बढ़ाकर 37,383.35 करोड़ रुपये कर दिया गया है, लेकिन एनसीएलपी के लिए अलग से कोई आवंटन नहीं है। सरकार के इरादे स्पष्ट हैं!

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