Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

‘नागरी प्रचारिणी सभा’ संकट में: क्या यूं ही गुम हो जाएगा दुर्लभ हिंदी पांडुलिपियों का सबसे बड़ा संग्रह!

“सरकार का दायित्व है कि वह हिंदी भाषा, लिपि और साहित्य के प्रचार के लिए प्रतिबद्ध सबसे प्रतिष्ठित संस्था को बचाने के लिए आगे आए और ताले में बंद पड़ी हज़ारों दुर्लभ पांडुलियों को बचाने के लिए सार्थक क़दम उठाए।”
hindi
एक साथ जुड़े हैं बदहाल नगरी प्रचारिणी सभा का दफ्तर व गेस्ट हाउस

हिंदी भाषा, लिपि और साहित्य के प्रचार के लिए भारत की सबसे पुरानी और प्रतिष्ठित संस्था 'नागरी प्रचारिणी सभा' कानूनी दांव-पेंच में फंस गई है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर हुए निष्पक्ष चुनाव के बाद भी संस्था के दफ्तर, लाइब्रेरी, प्रकाशन विभाग और गेस्ट हाउस पर ताले जड़े हैं। संयोग से, 'नागरी प्रचारिणी सभा' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में स्थित है, और दुर्लभ हिंदी पांडुलिपियों व ऐतिहासिक दस्तावेजों का सबसे बड़ा संग्रह है। विवाद के चलते हिंदी भाषा का यह प्रमुख केंद्र अपनी विरासत का एक समृद्ध अध्याय खो रहा है और हिंदी समुदाय भी वह सब कुछ खो रहा है जो कभी उसका सबसे बड़ा 'थिंक-टैंक' हुआ करता था।

20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में नागरी प्रचारिणी सभा देश के अग्रणी संस्थानों में से एक थी। इसके पतन का हिंदी क्षेत्र पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। इसका समृद्ध पुस्तकालय और प्रकाशन विभाग पिछले दो दशक से बदहाल है और देश में हिंदी के उत्थान के लिए बनी सबसे बड़ी संस्था विलुप्त होने का सामना कर रही है। आज़ादी के बाद यह पहला मौका है जब शोधार्थियों के लिए नागरी प्रचारिणी सभा की लाइब्रेरी पूरी तरह से बंद है।

ऐतिहासिक इमारतें बदहाल

नागरी प्रचारणी सभा की ऐतिहासिक इमारतें पूरी तरह बदहाल हो गई हैं। देख-रेख और मरम्मत के अभाव में जर्जर इमारतों पर बरगद व पीपल के कई पेड़ उग गए हैं। कुछ विशाल पेड़ इमारतों को चीरते जा रहे हैं। गेस्ट हाउस के कमरों की दशा तो और भी ज़्यादा खराब है। दरवाजों और खिड़कियों को दीमक चाट रहे हैं। इमारत में कई स्थानों पर चिड़ियों ने अपना घोंसला बना लिया है। आर्य भाषा पुस्तकालय का हाल तो भगवान भरोसे है। करीब सवा सौ साल पुराने इस पुस्तकालय में सैकड़ों ग्रंथ हैं और ढाई लाख पन्नों की दुर्लभ पांडुलिपियां भी हैं। संस्था के पास खुद के प्रकाशित ग्रंथ ही नहीं, बनारस से छपने वाले अखबारों का सौ-सौ साल पुराना कोषागार भी है।

नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना जिस समय हुई थी उस समय हिंदी का न तो कोई प्रामाणिक व्याकरण था और न ही कोई इतिहास। मूर्धन्य विद्वान श्याम सुंदर दास, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, लज्जा शंकर झा आदि के सहयोग से हिंदी का व्याकरण तैयार कराया गया। महात्मा गांधी के अनुरोध पर यहीं हिंदी में निष्काम संकेत लिपि प्रणाली (शॉर्ट हैंड) का आविष्कार किया गया। शॉर्ट हैंड के विद्यार्थी लाल बहादुर शास्त्री, टीएन सिंह और अलगू राम शास्त्री ने कटक कांग्रेस की रिपोर्टिंग संकेत लिपि प्रणाली से की थी। उत्तर भारत का महत्वपूर्ण कला संग्रहालय 'भारत कला भवन', नागरी प्रचारिणी सभा का ही है। संग्रहालय के संरक्षण, संवर्धन और विकास के लिए इसे बीएचयू स्थानांतरित किया गया था। नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी के साहित्यकारों और विद्वानों को प्रोत्साहित करने के लिए पदक व पुरस्कार की व्यवस्था भी शुरू की थी। हिंदी को बोधगम्य बनाने के लिए संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द ग्रहण करने की नीति बनाई गई जो भारतीय संविधान में भी ग्राह्य हुआ।

बारह खंडों में हिंदी विश्व कोष और सोलह खंडों में हिंदी साहित्य का वृहद इतिहास प्रकाशित करने करने वाली नागरी प्रचारणी सभा ने पांच हज़ार ग्रंथों का प्रकाशन किया। हिंदी के उत्थान के लिए स्थापित इस संस्था की गौरवशाली परंपरा अब स्वार्थी तत्वों की भेंट चढ़ गई है। कुछ लोगों ने इसे अपनी निजी जागीर बना ली है और सभी भवनों पर अपना ताला डाल रखा है। उनकी कोशिश है कि मामला कानूनी दांव-पेंच में उलझा रहे, ताकि दिल्ली और हरिद्वार के भवनों पर उनका अवैध कब्ज़ा बरकरार रहे।

बदहाल नगरी प्रचारिणी सभा के दफ्तरों पर जड़ दिए गए हैं ताले

गौरवशाली अतीत

हिंदी के उत्थान के लिए आज़ादी से पहले भारत में 130 साल पहले 1893 में नौवीं के छात्र रहे बाबू श्यामसुंदर दास, पंडित रामनारायण मिश्र और शिवकुमार सिंह ने नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की थी, जिसके पहले अध्यक्ष आधुनिक हिंदी भाषा के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्ण दास को बनाया गया था। उनके बाद इस संस्था से एक से बढ़कर एक हिंदी के विद्वान और ज्ञानी जुड़े। आज़ादी के आंदोलन के दौरान नागरी प्रचारिणी सभा ने राष्ट्रीय चेतना की अलख जगाने और देश को एक सूत्र में पिरोने में अहम भूमिका अदा की थी। स्वतंत्रता अभियान से जुड़े नायकों में रमेशचंद्र दत्त, बाल गंगाधर तिलक, आशुतोष मुख़र्जी, तेजबहादुर सप्रू, गोविंद वल्लभ पंत, सीवाई चिंतामणि, सर सुंदरलाल, महात्मा गांधी व मोतीलाल नेहरु जैसी हस्तियों ने अहम योगदान दिया।

नागरी प्रचारणी सभा की स्थापना के सात साल बाद सरकारी दफ्तरों और न्यायालयों में देवनागरी हिंदी लिपि के प्रयोग के लिए आंदोलन चलाया गया। इसे हिंदी का पहला सत्याग्रह कहा गया और नागरी प्रचारणी सभा के कार्यकर्ता गिरफ्तार भी किए गए। सभा ने आधुनिक हिंदी के लिए एक मानक व्याकरण विकसित करने, दुर्लभ पांडुलिपियों को इकट्ठा करने, हिंदी के पहले शब्दकोशों को प्रकाशित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज हम जिस आधुनिक हिंदी का उपयोग करते हैं, वह कई उत्कृष्ट लेखकों, आलोचकों और इतिहासकारों की देन है, जिन्होंने इसे स्वतंत्रता आंदोलन का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक संकेतक बना दिया था।

संस्था पर एक परिवार के कब्ज़े का आरोप

कई प्रबुद्ध लोग आरोप लगा रहे हैं कि नागरी प्रचारिणी सभा जैसी गौरवशाली संस्था के लिए दुर्भाग्य यह रहा कि देश को आज़ादी मिलने के दो दशक बाद से ही हिंदी पढ़ने-पढ़ाने वालों से कटकर यह एक परिवार की व्यक्तिगत जागीर बनती चली गई। साल 1969 में डीएवी इंटर कॉलेज के पूर्व प्रधानाचार्य एवं कांग्रेस के पूर्व सांसद सुधाकर पांडेय इसके 'प्रधानमंत्री' बने और तब से लेकर साल 2003 तक वह इस पद पर आसीन रहे। मृत्यु के बाद ही संस्था से उनका नाता टूटा। इंदिरा गांधी के करीबी माने जाने वाले सुधाकर पांडेय ने साल 1971 में कांग्रेस के टिकट पर चंदौली से लोकसभा चुनाव जीता और वह 1977 तक सांसद रहे। साल 1980 में कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई तो उन्हें राज्यसभा भेजा गया।

नागरी प्रचारिणी सभा के निर्वाचित प्रधानमंत्री सुधाकर पांडेय का 18 अप्रैल 2003 को निधन हो गया था। तत्पश्चात उनके पुत्र डॉ. पद्माकर पांडेय बाकी कार्यकाल के लिए संस्था के प्रधानमंत्री मनोनीत किए गए। 09 जनवरी 2004 के चुनाव में आगामी तीन साल के लिए प्रबंध समिति का गठन किया गया, जिसका कार्यकाल जनवरी 2007 में समाप्त होना था। नियमावली के अनुसार उसी साल प्रबंध समिति का चुनाव कराया जाना चाहिए था। आरोप है कि डॉ. पद्माकर पांडेय ने निर्धारित समयावधि में चुनाव नहीं कराया। आरोपों के मुताबिक अवैधानिक तरीके से उन्होंने प्रधानमंत्री की पारिवारिक गद्दी को हथिया लिया।

अदालती लड़ाई में उलझा मामला

साल 2021 तक डॉ. पद्माकर पांडेय संस्था के 'प्रधानमंत्री' पद पर आसीन रहे। इसके बाद संस्था के अभिलेखों में उनके छोटे भाई डॉ. कुसुमाकर पांडेय प्रधानमंत्री बन गए। नागरी प्रचारिणी सभा की नियमावली के मुताबिक, प्रधानमंत्री का काशी का होना अनिवार्य शर्त है। सुधाकर पांडेय वाराणसी से संस्था का संचालन करते थे, लेकिन पद्माकर दिल्ली बैठकर इसे संचालित करने लगे। वह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में शिक्षक थे। साल 2004 में वह सभा के प्रधानमंत्री बने। आरोप है कि साल 2007 में नागरी प्रचारिणी सभा का चुनाव होने वाला था, लेकिन पद्माकर स्वयंभू प्रधानमंत्री बन गए। इसके चलते संस्था के कर्ताधर्ता दो हिस्सों में बंट गए। कार्यकारी परिषद के सदस्य शोभनाथ यादव के नेतृत्व में सभा की एक समानांतर प्रबंधन समिति गठित हो गई। यादव गुट ने संस्था पर दावा करना शुरू कर दिया और परिसर के कई हिस्सों पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।

साल 2015 में दोनों गुटों ने वाराणसी के सहायक रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज में अर्जी डाली और दावा किया कि उन्होंने क्रमशः 2 फरवरी 2015 और 8 मार्च 2015 को चुनाव कराए हैं। दोनों ने खुद को 'विजेता' उम्मीदवार बताया और सोसायटी अधिनियम के तहत नई समिति को पंजीकृत कराने की मांग की। सोसाइटी के सहायक रजिस्ट्रार, मनोज कुमार सिंह ने दिसंबर 2015 में अपने आदेश में डॉ. पद्माकर पांडेय और शोभनाथ यादव, दोनों के दावों पर सवाल खड़ा कर दिया। रजिस्ट्रार ने चुनाव प्रक्रिया की अनियमितताओं को रेखांकित करते हुए इस मामले को वाराणसी के सब डिविज़नल मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया। नागरी प्रचारिणी सभा के उप-नियमों के अनुसार, हर तीन साल में संस्था का चुनाव होना ज़रूरी है।

सोसाइटी के सहायक रजिस्ट्रार, मनोज कुमार सिंह के फैसले के ख़िलाफ़ डॉ. पद्माकर पांडेय इलाहाबाद हाईकोर्ट चले गए, लेकिन कोर्ट ने सहायक रजिस्ट्रार के फैसले को बरकरार रखा। पांडेय फिर अपील के लिए गए, लेकिन कोर्ट ने उसे भी खारिज कर दिया। इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक खंडपीठ ने 17 मई 2016 के आदेश में कहा, "इस बात पर गंभीर विवाद रहा है कि प्रबंधन समिति का सही दावेदार कौन है?" हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि निर्धारित प्राधिकारी (उप मंडल मजिस्ट्रेट) विवाद को हल करें और यह सुनिश्चित करें कि नागरी प्रचारिणी सभा का चुनाव संस्था के उपनियमों के अनुसार हो। इस बीच बनारस के लेखक एवं प्रसिद्ध रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल ने इस मामले में पक्षकार बनने के लिए अर्जी डाली, जिसे स्वीकार कर लिया गया। व्योमेश ने संस्था की नियमावली का हवाला देते हुए शोभनाथ यादव और डॉ. पद्माकर पांडेय द्वारा खुद को प्रधानमंत्री घोषित किए जाने को विधि-विरुद्ध बताया और नए सिरे से चुनाव कराने की मांग की।

बनारस सदर के उप-जिलाधिकारी (एसडीएम) नंद किशोर तलाल ने शोभनाथ यादव और डॉ. पद्माकर पांडेय की ओर से प्रस्तुत दो समानांतर प्रबंध समितियों की सूची में विरोधाभास पाया और कालातीत होने के बाद इन्हें स्वीकार योग्य नहीं माना। इनकी आपत्तियों के बलहीन मानते हुए साल 2004-2007 की सदस्यता सूची के आधार पर नए सिरे से चुनाव कराने का आदेश दिया। एसडीएम के आदेश के अनुपालन में बनारस के फर्म्स सोसाइटी एवं चिट्स के सहायक निबंधक ने 22 अप्रैल 2022 को सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट की उचित धाराओं के अंतर्गत चुनाव कराने के लिए अपर नगर मजिस्ट्रेट (चतुर्थ) अंशिका दीक्षित को चुनाव अधिकारी नामित किया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट की याचिका संख्या-11607, 2022 के आदेश के अनुपालन में चुनाव अधिकारी ने 09 जून 2022 को बनारस के राइफल क्लब में चुनाव कराया और मतदान के बाद समस्त चुनाव सामग्री सील करके कोषागार के डबल लॉक में सुरक्षित रखवा दिया। बाद में 24 मार्च 2023 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्देश दिया कि चुनाव के परिणाम 06 अप्रैल 2023 को घोषित किया जाए। मतगणना की रिटर्निंग ऑफिसर एसडीएम (पिंडरा-वाराणसी) अंशिका दीक्षित ने निर्वाचित पदाधिकारियों की सूची जारी की, जिसमें बनारस के जाने-माने लेखक एवं रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल प्रधानमंत्री चुने गए। इनके अलावा अनुराधा बनर्जी-सभापति, सत्य नारायण पांडेय व शिवदत्त द्विवेदी-उपसभापति, सोमदत्त द्विवेदी-साहित्यिक मंत्री, अनुराग उपाध्याय-अर्थ मंत्री, राधेश्याम दूबे-प्रकाशन मंत्री, आलोक शुक्ला-प्रचार मंत्री वहीं इसके अलावा अविनाश तिवारी, आनंद शंकर पांडेय, जितेंद्र मोहन तिवारी, जेपी शर्मा, तन्मय तिवारी, धीरेंद्र मोहन तिवारी, नरेंद्र नीरव, प्रशांत तिवारी, बीना सिंह, रजनीश उपाध्याय और विनय शंकर तिवारी को प्रबंध समिति का निर्वाचित सदस्य घोषित किया गया। फिलहाल नागरी प्रचारणी सभा के अधिकृत बैंक खाते के संचालन का दायित्व व्योमेश शुक्ल को मिल गया है।

नागरी प्रचारिची सभा की ऐतिहासिक लाइब्रेरी

नव निर्वाचित प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल "न्यूज़क्लिक" के लिए कहते हैं, "निर्वाचित प्रबंध समिति को रोजमर्रा के कामकाज के संचालन में दो रिटायर्ड कर्मचारी सभाजीत शुक्ल और ब्रजेश चंद पांडेय बाधा पहुंचा रहे हैं। इन्होंने संस्था के आर्य भाषा पुस्तकालय के अलावा अर्थ विभाग, विक्रय विभाग, प्रकाशन विभाग व गेस्ट हाउस में जबरिया ताला डाल रखा है। वो संस्था के नियमित कर्मचारियों को डरा-धमका रहे हैं। सभाजीत व ब्रजेश पिछली प्रबंध समिति में नियुक्त थे और आर्थिक कदाचार कर रहे थे। चुनाव के बाद वो बौखला गए हैं और संस्था के मूलभूत ढांचे को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। संस्था की लाइब्रेरी और दफ्तर में तालाबंदी के चलते सभी महत्वपूर्ण कामकाज प्रभावित हो रहा है। इससे नागरी प्रचारिणी की छवि धूमिल हो रही है। शोधार्थी, छात्र और अध्येता लाइब्रेरी तक आ रहे हैं और तालाबंदी देखकर लौट जा रहे हैं। किरायेदार भी भयभीत हैं। संस्था के कमरों में काबिज़ लोग गुंडों की तरह हिंदी भाषा, और साहित्य के मंदिर में टहल रहे हैं। परिसर में बैठक आपराधिक षड्यंत्र और कूटरचना कर रहे हैं। इन लोगों ने किरायेदारों से जबरिया दो-दो महीने का एडवांस किराया वसूल लिया है।"

बदहाल नगरी प्रचारिणी सभा के गेस्ट हाउस में विभूतियों की तस्वीरें

व्योमेश यह भी कहते हैं, "नागरी प्रचारिणी सभा के खाते में सिर्फ तीन सौ रुपये ही बचे हैं। संस्था के ऊपर हाउस टैक्स, वाटर टैक्स और बिजली विभाग का लाखों रुपये बकाया है। नवनिर्वाचित पदाधिकारियों के कामकाज पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कोई पाबंदी नहीं लगाई है। इसके बावजूद जिला प्रशासन नई कमेटी के पदाधिकारियों को चार्ज दिलाने में हीला-हवाली कर रहा है। चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद कार्यभार ग्रहण हाईकोर्ट के आदेश में ही अंतर्निहित है। मनमानी का आलम यह है कि नागरी प्राचरिणी सभा की कमेटी में कई सदस्य डॉ. पद्माकर पांडेय और सभाजीत यादव के परिवारी सदस्य व उनके रिश्तेदार हैं, जिनका साहित्य और हिंदी से दूर-दूर तक का सरोकार नहीं है।" आरोपों के बाबत रिटायर्ड कर्मचारी सभाजीत शुक्ल और ब्रजेश चंद पांडेय से बातचीत की गई तो उन्होंने नव निर्वाचित प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ला के आरोपों को खारिज करते हुए कहा, "नागरी प्रचारिणी सभा का विवाद अभी खत्म नहीं हुआ है। 17 मई 2023 को हाईकोर्ट में जस्टिस अजय भनोत की अदालत में इस मामले की सुनवाई होनी है। कोर्ट का फैसला आने के बाद ही नई कमेटी काम शुरू कर सकती है।"

"खुर्द-बुर्द की जा रही है संपत्ति"

नागरी प्रचारिणी सभा पर दशकों से काबिज़ डॉ. पद्माकर पांडेय गुट पर आरोप लगाते हुए नव निर्वाचित प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल कहते हैं कि "संस्था की संपत्ति खुर्द-बुर्द की जा रही है। मनमानी का आलम यह है कि साल 2016 में स्वयंभू प्रधानमंत्री डॉ. पद्माकर पांडेय ने इसकी इमारत के एक बड़े हिस्से को दवा कंपनी, नॉर्डिक फॉर्मूलेशन प्राइवेट लिमिटेड को 21,015 रुपये मासिक किराया पर दस साल के पट्टे पर दे दिया। साथ ही यह भी सहूलियत दे दी कि लीज को और दस साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। नई कमेटी के अस्तित्व में आने के बावजूद संस्था की इमारतों के कई हिस्सों पर दोनों गुटों का नियंत्रण है।"

नागरी प्रचारिणी सभा के गेस्ट हाउस के 18 कमरों में से 16 पर कुसुमाकर पांडेय का कब्ज़ा है और दो अन्य कमरों पर सोभनाथ यादव गुट ने ताला जड़ रखा है। विक्रय विभाग, प्रकाशन विभाग और आर्यभाषा पुस्तकालय पांडेय गुट के कब्ज़े में है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि सब कुछ बंद है। सभी कमरों पर ताले जड़े हुए हैं। यह पहला मौका है जब संस्था के इतिहास में पहली बार लंबी अवधि के लिए आर्य भाषा पुस्तकालय बंद चल रहा है। दुर्लभ पांडुलिपियां सड़ रही हैं, जिसे सभा ने पिछले कई वर्षों में बड़ी मुश्किल से उन्हें प्रकाशित कराया है। नागरी प्रचारिणी सभा पर हमेशा रत्नाकर पांडेय परिवार का कब्ज़ा रहा है। संस्था के नई दिल्ली स्थित दफ्तर को पहले 'नागरी प्रचारिणी सभा' कहा जाता था। सुधाकर की मौत के बाद उसका नाम 'पंडित सुधाकर पांडेय नागरी भवन' के रूप में तब्दील कर दिया गया। नई दिल्ली में जेएनयू के कुलपति आवास के सामने स्थित नागरी प्रचारिणी के भवन में कुसुमाकर पांडेय रहते हैं और हरिद्वार के भवन पर केयरटेकर प्रभाकर मिश्र का कब्ज़ा है। नागरी प्रचारिणी सभा की अर्ध शताब्दि के अवसर पर स्वामी सत्यदेव परिव्राजक ने हरिद्वार में अपनी सारी संपत्ति दान कर दी थी। इस संपत्ति पर अब भूमाफिया की नज़रें गड़ी हुई हैं। नागरी प्रचारिणी सभा हिंदी की पहली संस्था है जिसने दिल्ली में सबसे पहले हिंदी भवन का निर्माण कराया। पांच मंजिला भवन फिलहाल संस्था के कब्ज़े में नहीं है। इसे वापस लेने के लिए मुहिम शुरू कर दी गई है। नव निर्वाचित प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ला के आरोपों के बाबत डॉ. कुसुमाकर पांडेय का पक्ष जानने के लिए उनसे संपर्क किया गया, लेकिन उन्होंने बात नहीं की। वह बार-बार फोन डिस्कनेक्ट करते रहे।

हस्तक्षेप की मांग

साल 1990 के दशक में भारत सरकार ने जब कलाक्षेत्र फाउंडेशन का अधिग्रहण किया, तो नागरी प्रचारिणी सभा के लिए एक समान कानून बनाने की योजना बनाई गई। केंद्र सरकार के पास किसी भी संस्थान को अपने अधिकार में लेने और उसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित करने का अधिकार है। उस समय कांग्रेस के कद्दावर नेता अर्जुन सिंह जब केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री थे। कई प्रसिद्ध भारतीय और अंतरराष्ट्रीय शिक्षाविदों और लेखकों ने उन्हें एक खुला पत्र लिखा और नागरी प्रचारिणी सभा की बदहाली की ओर ध्यान खींचा था। पत्र पर दस्तखत करने वालों में कृष्णा सोबती, वसुधा डालमिया, रूपर्ट स्नेल, सुधीर चंद्रा, फ्रांसेस्का ओरसिनी और मारिओला ऑफ्रेदी आदि प्रमुख लोग शामिल थे।

पत्र में कहा गया था, "नागरी प्रचारिणी सभा की कई सालों से सामान्य बैठक नहीं हुई। कई मृतक सदस्य कई सालों तक सूची में बने रहे। सभा का अंतरराष्ट्रीय गेस्ट हाउस जिसका उद्घाटन उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने किया था, उसे वैवाहिक कार्यक्रमों के लिए किराये पर दिया जाता है। संस्था की संपत्ति पर एक परिवार का कब्ज़ा है।" उन्होंने केंद्र सरकार से "तुरंत हस्तक्षेप करने, एक जांच आयोग गठित करने और सभा के पूरे ढांचे को नया रूप देने" का आग्रह किया था, लेकिन सियासी दांव-पेंच के चलते इंदिरा सरकार ने इस मामले में हस्तक्षेप करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई और नागरी प्रचारिणी सभा बुरे दौर में चली गई।"

नागरी प्रचारणी सभा को बचाने के लिए सतत सन्नद्ध बनारस की रंगकर्मी सुश्री स्वाति विश्वकर्मा कहती हैं, "संस्था के ज़्यादातर पुराने कर्मचारी रिटायर हो चुके हैं। सभा कायदे से चलाने के लिए सौ से अधिक कर्मचारियों की ज़रूरत है। मौजूदा समय में सिर्फ 12 लोगों का स्टाफ है, जिनके वेतन पर कुल 35 से 40 हज़ार रुपये ही खर्च होते हैं। जिन कर्मचारियों ने हिंदी की सेवा में अपनी पूरी जिंदगी खपा दी, उन्हें पगार के रूप में सिर्फ ढाई से तीन हज़ार रुपये ही मिलते हैं। कर्मचारियों का वेतन इतना कम है कि वो अपने परिवार का ठीक से भरण-पोषण तक नहीं कर सकते हैं। संस्था का खाता सीज होने के बाद कई कर्मचारियों ने यहां आना ही बंद कर दिया है। प्रकाशन विभाग को छोड़ दिया जाए तो यहां कोई विशेषज्ञ नहीं हैं। आर्थिक रूप से परेशान करीब आधा दर्जन कर्मचारियों को नव निर्वाचित प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल ने अपने पास से एक महीने का वेतन दिया है।"

स्वाति यह भी कहती हैं, "नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी के उत्थान के लिए जो योगदान दिया है उसे न तो नौकरशाही समझ पा रही है और न ही सत्तारूढ़ दल के नेता। अचरज की बात यह है मीडिया को छोड़कर किसी को इसके महत्व का ही भान नहीं है। इस मामले में देश के प्रबुद्धजन और राज्य सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए और नागरी प्रचारिणी सभा को बचाना चाहिए।"

गुमनाम हो गई प्रचारिणी

बनारस में कई सालों से पुस्तक मेले का आयोजन करने वाले मिथिलेश कुशवाहा कहते हैं, "नागरी प्रचारिणी में आर्यभाषा पुस्तकालय, भाषा और साहित्य का एक अनूठा संग्रहालय है। हस्तलेखों, अनुपलब्ध और दुर्लभ ग्रंथों का ऐसा संकलन कहीं और मिलना मुश्किल है। लगभग पच्चीस सालों तक साझा प्रयास के बाद हिंदी शब्दसागर नामक हिंदी का पहला और सबसे बड़ा, समावेशी व प्रमाणिक शब्दकोष तैयार हुआ था। प्रधानमंत्री शब्द की उत्पत्ति भी नागरी प्रचारिणी सभा ने की। करीब सौ साल पहले स्नातकोत्तर कक्षाओं के लिए हिंदी का पहला पाठ्यक्रम इसी संस्था ने बनाया था।"

आगे वे कहते हैं, "नागरी प्रचारिणी सभा के सभी अभिलेखागार और साहित्यिक संसाधन अब तक ऑनलाइन हो जाने चाहिए थे, लेकिन डिजिटल युग में भी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। कितनी हैरानी का बात है कि इतिहास समेट कर बैठी इस संस्था के पास अपनी खुद की बेवसाइट तक नहीं है। युवा पीढ़ी के कम ही लोग इस संस्था के बारे में जानते हैं, क्योंकि नागरी प्रचारिणी सभा गुमनामी की ओर बढ़ रही है।"

नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री व्योमेश शुक्ल कहते हैं, "नागरी प्रचारिणी सभा के पुनरुद्धार व सर्वांगीण विकास के लिए हम कृत संकल्पित हैं। दुनिया में हिंदी के सबसे बड़े पुस्तकालय ‘आर्यभाषा पुस्तकालय’ का जीर्णोद्धार सबसे पहले कराना है। साहित्यकारों-शोधार्थियों और हिंदी छात्रों के लिए संस्था के दरवाज़े खोलने के लिए शीघ्र ही अभियान शुरू किया जाएगा। पांडुलिपियों का डिजिटाइजेशन, हेरिटेज इमारत का संरक्षण और आधुनिकीकरण किया जाएगा। साहित्य उत्सव के आयोजन होंगे। ऑडिटोरियम और कॉन्फ्रेंस हॉल का निर्माण, गेस्ट हाउस एवं कैफेटेरिया का निर्माण कराया जाएगा। पुस्तक मेले और पांडुलिपियों के मेले के साथ ही प्रकाशन प्रकल्प को पुन: शुरू कराया जाएगा। संस्था में संरक्षित दुर्लभ पांडुलिपियां, शब्दकोश, ग्रंथ, 50 हज़ार से ज़्यादा हस्तलेख, हिंदी के अनुपलब्ध ग्रंथों का विशाल संग्रह संरक्षित हो सकेगा। सभा को सेंटर ऑफ एक्सीलेंस की तरह विकसित करने की योजना है।"

नागरी प्रचारिणी सभा के मकड़जाल में फंसने से बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार बेहद आहत हैं। वह कहते हैं, "पत्रकारिता और हिंदी की खड़ी बोली को आकार देने वाली संस्था की समस्याएं बेहद जटिल हैं। भयावहता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि यहां दुर्लभ पांडुलिपियां, पत्र-पत्रिकाएं सड़ रही हैं। संस्था की संपत्तियों को खुर्द-बुर्द किया जा रहा है। नागरी प्रचारिणी सभा कुछ लोगों के निजी हित साधने का ज़रिया भर है। इस संस्था को बचाने का एक मात्र उपाय यह है कि सरकार इसका अधिग्रहण करे और अपने संसाधनों के ज़रिए इसके स्वर्णिम इतिहास को सहेजने व संवारने के लिए व्यापक मुहिम चलाए। नागरी प्रचारिणी सभा का भवन स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है। यह भवन बाहर से दिखाई ही नहीं देता है। संस्था की इमारत सौ साल से अधिक पुरानी हो चुकी है, जिसे हेरिटेज भवन घोषित किया जाना चाहिए।"

"संस्था का जो हाल बनारस में है, उससे भी बुरी स्थिति दिल्ली और हरिद्वार के भवनों की है। इसके महत्व को सिर्फ हिंदी साहित्य के नज़रिए से समझने की ज़रूरत नहीं, बल्कि आज़ादी के अमृतकाल में इसे स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़कर देखने की ज़रूरत भी है। आज़ादी के आंदोलन के दौरान परिसर में सेनानियों की अनेक बैठकें हुईं और ऐतिहासिक आंदोलन की बुनियाद भी यहीं रखी गई। ऐसे में सरकार और समाज दोनों का दायित्व बनाता है कि इसे काशी का साहित्यिक हेरिटेज घोषित करते हुए नए सिरे से संवारने की पुरजोर कोशिश की जाए। शासन के सहयोग के बगैर पांडुलिपियों का संरक्षण और संवर्धन संभव नहीं है। चंद स्वार्थी लोगों ने इस संस्था को जर्जर और दयनीय स्थिति में पहुंचा दिया है, जिसे बचाने के लिए भगीरथ प्रयास की ज़रूरत है।"

काशी विश्वनाथ मंदिर का हवाला देते हुए प्रदीप कुमार कहते हैं, "बनारस में विश्वनाथ कॉरिडोर बनाने के लिए सरकार साम-दाम-दंड भेद की नीति अपना सकती है तो साहित्य के मंदिर के प्रति उदासीन क्यों है? सरकार का दायित्व बनता है कि वह हिंदी भाषा, लिपि और साहित्य के प्रचार के लिए सबसे प्रतिष्ठित संस्था को बचाने के लिए आगे आए और ताले में बंद सड़ रहीं हज़ारों दुर्लभ पांडुलियों को बचाने के लिए सार्थक क़दम उठाए। नागरी प्रचारिणी सभा को निजी जागीर बनाए जाने ही नतीजा है कि यह संस्था वेंटिलेटर पर पहुंच गई है, जिसके बचने की कोई खास उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। जिस मकड़जाल में संस्था फंस गई है वहां से उसे बाहर निकालने का उपाय सोसाइटी एक्ट से होने वाले चुनाव और नए पदाधिकारियों के ज़रिए नहीं हो सकता है। बेहतर यह होगा कि हिंदी के उत्थान के लिए इस संस्था को सरकार के हवाले कर दिया जाए।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest