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नवउदारवाद, किसान आंदोलन और स्वामी सहजानन्द सरस्वती

स्वामी सहजानन्द सरस्वती के चलाये संघर्षों का ही परिणाम था कि देश में ज़मींदारी उन्मूलन किया गया। किसानों की सहूलियतों के लिए कई क़ानून भी पास किये गए। आज स्वामी सहजानन्द सरस्वती की पुण्यतिथि 26 जून के मौके पर अनीश अंकुर का विशेष आलेख
नवउदारवाद, किसान आंदोलन और स्वामी सहजानन्द सरस्वती

आज 26 जून है। देश भर के किसान आपने-अपने प्रदेशों की  राजधानी में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि  राज्यपाल के सम्मुख केंद्र सरकार द्वारा लाये गए  तीनों कृषि कानूनों की वापसी की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं। आज स्वामी सहजानन्द सरस्वती की 71 वीं पुण्यतिथि भी है।

2021 भारत मे नवउदारवादी नीतियों के लागू किये जाने का तीसवाँ साल है। जब 1991 में वर्ल्ड बैंक, आई.एम.एफ के इशारे में देश की अर्थव्यवस्था को खोला जा रहा था  तब देश के उच्च मध्यवर्ग के बड़ा हिस्से ने  इसका पलक पाँवड़े बिछाकर  स्वागत किया था। लाइसेंसी-परमिट  से मुक्ति तथा  फ्री ट्रेड के नाम ' इम्पोर्ट रेस्ट्रिक्शन्स '  को समाप्त किया जा रहा था। कृषि से सब्सिडी वापस की जा रही थी। इन सबका किसानों के जीवन पर निरन्तर दुष्प्रभाव बढ़ता जा रहा था। खेती मंहगी होती जा रही थी। लोग गांव  छोड़ने को मजबूर हो रहे थे। 

जो नया भारत बन  रहा था उसमें सिर्फ 'अर्बन इंडिया' की बात हो रही थी। कैसे मध्यवर्ग  सम्पन्न हो रहा है, उसके लड़के-लड़कियां उच्च शिक्षा एवं  नौकरियों के लिए इंग्लैंड-अमेरिका जाकर बस रहे हैं, इन सबकी सरकार,  अखबारों तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया  द्वारा बेहद सुनहरी व चमकीली तस्वीर पेश की जा रही थी।

नवउदारवाद का विकास मॉडल और किसान

इस दौर की फिल्मों  पर नजर डालें तो नायक-नायिका हरे भरे विशाल मैदानों में अठखेलियाँ करते,  विदेशों की सैर कर रहे हैं। फिल्मों में विदेशी लोकेशन्स की भरमार होने लगी। सब कुछ बेहद खुशनुमा, नियोन लाइटों से जगमगाता नजर आता था। ग्रामीण भारत का खुरदुरा यथार्थ न सिर्फ फिल्मों से बल्कि साहित्य, नाटक से भी गायब होता जा रहा था। कविता में 'मज़दूर' या ' किसान' शब्द का आना विचारधारा की जकड़न के रूप में देखा जाने लगा था। रंगमंच में पैराणिक व मिथकीय पात्रों का बोलबाला होने लगा । गाँवों के  जमीन बेच शहर में मकान या फ्लैट खरीदने का चलन बढ़ने लगा था। ऐसे लोग  'शाइनिंग इंडिया'  के हिस्सा थे।

वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण के चमकते भारत  के विपरीत एक तड़पता भारत भी था । जिसकी खबरें अखबारों से गायब होने लगीं थी। चमकते भारत के केंद्रों से बंगलोर, हैदराबाद से कुछ किमी की दूरी पर किसान आत्महत्या करने लगे तो लोगों को पता चला कि एक   अंधेरी दुनिया भी  है जो इस जगमगाती रौशनी से ओझल थी। 1991 के बाद से अबतक तीन लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली है।  पूरी दुनिया में 2008 में आई मंदी के बाद  ढांचागत सुधार  की नीतियों पर सवाल उठने लगे। इस मंदी से उबरने का अभी तक लोगों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है।

नवउदारवादी नीतियों  के कारण  छाई मंदी परिणामस्वरूप किसानों का जो विशाल आंदोलन आज उठ खड़ा हुआ है उसने इन  नवउदारवादी नीतियों  पर बुनियादी  प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं।

लगभग ऐसे ही मुकाम पर भारत बीसवीं सदी के तीसरे दशक में था जब  स्वामी सहजानन्द भारतीय राजनीति के  पटल पर आते हैं। 1928-29 के दौरान छाई विश्व्यापी मंदी ने किसानों का जीवन दूभर बना डाला था। ठीक इसी वर्ष 1929 में बिहार प्रदेश किसान सभा की स्थापना होती है। तब तक भारत में किसानों का कोई सुव्यवस्थित  संगठन न था।

अंग्रेज़ों का विकास मॉडल और किसान

इस मंदी के पूर्व भारत में अंग्रेज़ो की  साम्राज्यपरस्त नीतियों को ठीक वैसे ही देखा जाता था जैसे  नब्बे के दशक में नवउदारवादी दौर को देखा जाता था।

अंग्रेज़ो के शासन  को भारत में हितकारी माना जाता था। अंग्रेज़ो ने  भारत को आगे ले जाने वाले विकास के कई कार्य किये। जैसे रेलवे लाइन बिछाई गई, सड़कें बनाई गई, नदियों और पुलों का निर्माण किया गया, मोटर-कारें लाई गई, शहरों में बिजली लाई,  विदेशी वस्त्र , इंडियन  पीनल  कोड, आधुनिक शिक्षा पद्धति, इन सबको तब तक अंग्रेज़ो द्वारा मुहैया कराए गए वरदान के रूप में देखा जाता था।

लेकिन  जबसे  ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन यानी  हिन्दुतान में  1757 से शुरू हुआ है भारत में किसानों की तकलीफें  भी शुरू हो गई। 1770 के अकाल में बंगाल की एक तिहाई आबादी  कालकवलित हो गए। 1793 में लार्ड कार्नवालिस ने  जो  'परमानेंट सेटलमेंट' ( स्थायी बंदोबस्ती) को शुरू किया उसने अब तक किसानों की दुर्दशा की वह वर्णनातीत है।   वैसे मुगलों के काल मे भी भारतीय कृषि  का कोई सुनहरा दौर न था लेकिन स्थायी बंदोबस्ती ने किसानों का जीवन नरक बना दिया था।

सिर्फ 1850 से 1899 के  दरम्यान 24 अकाल पड़े यानी प्रत्येक दो वर्ष में एक अकाल। इन अकालों में लाखों लोग मर गए। 1876-79 के  दौरान  पड़े अकाल के शिकार एक करोड़ तीन लाख किसान हो गये , 1896-99 के दौरान 1 करोड़ 90 लोग काल के गाल में समा गए। अकालों का यह सिलसिला 1943 के चला। 1943 के अकाल ने तो  भारत की आत्मा को झकझोर कर रख दिया था।

इस दौरान अंग्रेज़ो ने भारत को दोनों हाथों से लूटा। चर्चित अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के एक अनुमान के अनुसार 1765 से 1938 के दौरान भारत से अंग्रेज़ लगभग 45 ट्रिलियन डॉलर भारत से बाहर ले गए। 45 ट्रिलियन भारत के जीडीपी ( 2.5 ट्रिलियन) के दशकों के लगभग योगफल के बराबर है।

स्थायी बंदोबस्ती और किसान

बीसवीं सदी और खासकर विश्व्यापी महामन्दी ने अंग्रेजी शासन के किसान विरोधी क्रूर  चेहरे को पूरी तरह उजागर कर दिया। भारत मे ग्रामीण जीवन पर  अंग्रेजी शासन  के मुख्य आधारस्तम्भ जमींदार  थे। मुगलों के समय जो लगान वसूलने वाले कमीशन एजेंट थे उन्हें ही अब जमीन स्थायी रूप से बंदोबस्त कर दी गई। उन्हें बस अंग्रेज़ो को एक तय रकम देनी होती थी। किसानों से ये जमींदार कितना वसूलें इस पर कोई रोक न थी। जमींदारों को काफी  अधिकार दे दिए गए थे। लगान की वसूली के लिए जमींदार का गुमाश्ता किसानों के घर के महिलाओं के (  जनाना) हिस्से तक भी,  तलाशी में जा सकता था। इन वजहों से  किसान जमींदारों के नाम से ही कांपते थे। उनके अंदर जमींदारों का ऐसा खौफ था कि वे उनके समक्ष आवाज उठाने की बात कल्पना में भी नहीं सोच पाते थे।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती के सबसे बड़ी चुनौती यही थी। किसानों पर से जमींदारों का खौफ , उनका जो वैचारिक वर्चस्व है,  उसे  समाप्त करना।

जमींदारों का आतंक राज्य व किसान

सहजानन्द यदि ग्राम्शी के अर्थ में कहें तो किसानों पर अंग्रेज़ी शासन व जमींदारों के मनोवैज्ञानिक दबदबे को  खत्म करना चाहते थे। किसानों में जमींदारों के भय का वर्णन करते हुए 'किसान क्या करें?' नामक पुस्तक में कहते हैं "  मुझे हजारों ऐसे मौके मिले हैं जब किसानों का; जिनमें हलवाहे-चरवाहे आदि भी शामिल हैं, बड़ा सा दल काँपता हुआ मिला है और बेहोशी की-सी हालत में मारपीट और लूटपाट की दर्दनाक दास्तान उन्होंने मुझे सुनाई हैं। जमींदार के एक या दो, मुश्चण्ड नौकर लाठी लेकर गाँव में घुसे कि किसानों में, खासकर तथाकथित 'रैयान' और 'छोटी कौमों' में हड़कम्प मच गया, और या तो दरवाजा बन्द करके घर में जा घुसे या अगर दरवाजे में किवाड़ नहीं है, और कितने घरों में यह होता ही है, तो जान लेकर भाग निकले। फिर तो उन लठैतों की बन आई और जो चाहा किया। किसी की लोटा-थाली उठा ली, किसी का बकरी-बकरा ले लिया, किसी के छप्पर से कद्दू-कोहड़ा तोड़ लिया, यहाँ तक कि कभी-कभी कोई जवान स्त्री भी मिल गई तो उसकी इज्जत भी उतार ली और बेखटके चलते बने! यदि किसी ने रोक-टोक की तो उसकी मरम्मत भी बखूबी कर दी।"

स्वामी सहजानन्द  जमींदारों के आतंक राज्य का वर्णन करते हैं " उनकी यह दशा मेरी आँखों के सामने नाचती है। क्योंकि इस ढंग से उन्होंने उस भय का समय-समय पर वर्णन किया है कि वह भूलता नहीं। डर से चेहरा उड़ा हुआ और कोई सुध-बुध नहीं, ऐसे किसानों ने आके बड़ी बेचैनी और घबराहट में, जैसे किसी बाघ ने उनका पीछा किया हो। मुझसे हाथ जोड़ कर प्रायः कहा है कि 'सरकार, लुट गए, मिट गए, हाय, हाय, मालिक के अमलों ने नाश कर दिया। भाग के जान बचाई, किसी प्रकार। वह बड़ा जबरदस्त है, बड़ा जबरदस्त है' आदि। मैंने जब पूछा कि आखिर बात भी तो कहो कि क्या है, तो फिर वही अन्तवाला वाक्य दुहरा दिया कि 'बड़ा जबरदस्त है'। मैंने पूछा के बाघ है? सिंह है? भालू है? हाथी है? कुत्ता है? अजगर है? आखिर वह क्या है कि यह बेचैनी? मगर फिर भी वही रट, कि ' बड़ा जबरदस्त है', 'बड़ा जबरदस्त है'। इसे ही आतंक राज्य कहते हैं और जिस अमन और कानून के राज का इतना ढिंढोरा पीटा जा  रहा है उसी के आंखों के नीचे यह आतंक राज्य।"

इन सबों की जड़ स्वामी जी लार्ड कार्नवालिस  द्वारा लागू की गई प्रथा में मानते थे। " आतंक राज्य ! असल में सन् 1793 ई. की 22वीं मार्च को लार्ड कार्नवालिश ने जब जमींदारी को जन्म दिया तो उसके बाद ही यह आतंक राज्य कानून के ही रूप में शुरू हुआ। सन् 1805 ई. जो खासतौर से 5वाँ फतवा या रेगुलेशन सरकार ने जारी किया और जिसे हाईकोर्ट के न्यायाधीश श्री फिल्ड महोदय ने 'खूँखार पंजुम' (Notorius Panjum) नाम दिया है, उसी ने तो जमींदारों को यह अधिकार दे दिया था कि उनके मामूली अमले भी लगान बाकी रहने पर बिना अदालत गए ही या कोई सरकारी हुक्मनामा हासिल किए ही किसानों के जनाने घरों तक वे भीतर घुस सकते हैं। उस सिलसिले में वे आसानी से आतंक पैदा कर सकते थे। सिर्फ गल्ला और सामान का पता लगाने के बहाने! किसी पड़ोसी के द्वार पर अन्न या पशु हो और यदि कोई कह दे कि यह उसी किसान की चीजें हैं जिसका लगान बाकी है, तो वे चीजें बेखटके जब्त कर लेने का भी उन अमलों को अधिकार दिया गया था। फिर तो वे खूब ही खुल के खेलते रहे। वही होली आज तक जारी है।"

स्वामी जी  और किसानों के ऊपर छाए इस  डर के माहौल को किसान सभा के माध्यम से  खत्म किया। वे कहते हैं " हाँ, अब किसान सभा ने उसे बहुत कुछ खत्म किया है। आज तो कानून बदला है सही अब वैसा करने का हक भी किसी को नहीं है, यहाँ तक कि हाकिम भी अपने मन से वैसा नहीं कर सकता।"

'किसान क्या करें ?' के अध्यायों पर नजर डालें तो पता चलता है कि किसानों के बीच किस किस्म का प्रचार चला रहे थे। ' खाना-पीना सीखें', 'आदमी की जिंदगी सीखें', 'हिसाब करें और हिसाब मांगें', 'डरना छोड़ दें', 'लड़ना  सीखें और लड़ें', 'भाग्य और भगवान पर न भूलें', 'वर्ग चेतना प्राप्त करें' , 'नेताओं पर कड़ी नजर रखें' , 'किसान सभा अपनाएं', 'अक्ल का  अजीर्ण मिटायें' आदि। इन अध्यायों में  स्वामी सहजानन्द से उदाहरणों के साथ बेहद बोधगम्य भाषा में किसानों के मन के भीतर प्रवेश करते हैं और उन्हें संघर्ष व संगठन के लिए प्रेरित करते हैं।

स्वामी सहजानंद को  हिंदुस्तान में अंग्रेज़ों तथा जमींदारों के दो प्रमुख हथियारों से मुकाबला करना था। ये दो हथियार थे जाति व धर्म।  स्वामी सहजानन्द कहते हैं "जाति और धर्म की दुहाई देना मालदारों और मध्यमवर्ग का काम है, उनकी पहचान है। वे लोग जाति-पाँति और धर्म को खामख्वाह आर्थिक और राजनीतिक मामलों में घसीटते हैं। यहाँ तो रोटी और जमीन का सवाल है।" सबसे पहल उन्होंने जातिवादी राजनीति को अपनी आलोचना का निशाना बनाया " आज तो जातीय संस्थाएँ एकमात्र कुछ इने-गिने, प्रतिष्ठित,  चलते पुर्जे तथा धनिकों के राजनीतिक स्वार्थ साधन की सामग्री बन गई है और खूबी यह है कि खुल्लम-खुल्ला वहाँ समाज सुधार की बातें की जाती हैं, लेकिन चुपके-चुपके राजनीतिक स्वार्थ साधन का षड्यन्त्र किया जाता है। "

स्वामी सहजानन्द जातीय सभाओं को किसान-मज़दूर के हितों के खिलाफ बताते हैं " असल में आज जातीय सभाओं का बहुत जोर है। कायस्थ सभा, राजपूत सभा, कुर्मी (कूर्मक्षत्रिय) सभा, ग्वाला (यादव) सभा, मैथिल सभा, भूमिहार ब्राह्मण सभा आदि के रूप में ये सभाएँ पहले से तो थीं ही। खूबी तो यह है कि हमारे बड़े से बड़े राष्ट्रवादी भी उनका विरोध नहीं करते, किन्तु उन्हें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पनपने देकर उनके शिकार अनजान से ही सही, कभी-कभी बन जाते हैं। इस तरह ये सभाएँ अपना जहर फैलाकर राष्ट्रीयता का गला अबाध रूप से घोट रही हैं। खूबी तो यह है कि उनके इस मारक (कातिल) नश्तर का किसी को पता ही नहीं लगता और वे अपना काम कर जाती हैं। इनके करते गरीबों की किसानों और मजदूरों की ही बहुत बड़ी और असली हानि हो रही है।"

 जाति के अंदर के वर्गीय  अंतर्विरोध पर उंगली रखते हुए स्वामी सहजानन्द कहते हैं "  क्या जमींदार अपने रैयतों पर केवल इसलिए कि वे उसी की जाति के हैं और उन्हीं के वोटों से उसे चुनावों में जीतना है जोर-जुल्म और नादिरशाही करने से बाज आ जाता है? बाज आ जाएगा? और समाजों की बात छोड़ कर केवल भूमिहार ब्राह्मण समाज की ही बात लेने पर कम से कम बिहार प्रान्त में तो मैं कह सकता हूँ कि आज कई लाख भूमिहार ब्राह्मण किसान उँगलियों पर ही गिन लिये जानेवाले कुछ ही भूमिहार ब्राह्मण जमींदारों के द्वारा बेरहमी के साथ बुरी तरह अत्याचार की चक्की में पीसे जा रहे हैं। खूबी तो यह है कि उन्हीं गरीबों के बल पर ये महानुभाव लोग कौंसिलों और बोर्डों के मंचों तथा कुर्सियों पर विराज चुके और विराजते ही नहीं, आगे भी विराजने की हिम्मत बाँधे हुए हैं।"

ठीक इसी प्रकार वे धर्म  पर और अधिक ताकत के साथ प्रहार करते हैं। " माना की धर्माचार्यों ने, ऋषि-मुनियों ने और पैगम्बरों ने स्वर्ग तक सीढ़ियाँ लगा दीं, नरकों के रास्ते बन्द कर दिए, उनके मुँह पर ढक्कन लगा दिए और भगवान को भी पकड़ लिया। हमें इसमें विवाद नहीं करना है। न तो हम इसकी जरूरत समझते हैं और न हमारे पास इतना अवकाश ही है कि यह व्यर्थ की माथापच्ची करें।" फिर आगे कहते हैं " धर्म और दर्शन तो हरेक आत्मा की भूख है तो हमें इतना कहना है कि जिस प्रकार बीमारी की दशा में भूख मारी जाती है और उसका पता नहीं रहता ठीक उसी प्रकार अन्न-वस्त्र के अभाव की दशा में आत्मा की वह भूख भी मारी जाती है, लापता रहती है। पूर्ण स्वस्थता की दशा में जिस प्रकार खुल के भूख लगती है ठीक उसी प्रकार पेट भरने और तन ढँकने के बाद ही चैन की दशा में धर्म और दर्शन की भूख लगती है। ऐसी दशा में धर्म के प्रेमियों का भी यही कर्तव्य हो जाता है कि पहले आत्मा का स्वास्थ्य प्राप्त करने की ही कोशिश करें। अर्थात् जब तक जनता की रोटी और कपड़े का प्रश्न हल नहीं हो जाता तब तक इसी बात का आन्दोलन करें जिससे जनता की आत्मा में धर्म की भूख जगे ।"

अंग्रेज़ों व जमींदारों के दो प्रमुख अस्त्र जाति व धर्म को अपनी कटु आलोचना का आधार बनाकर किसान संगठनों का विस्तार किया।

स्वामी सहजानन्द सरस्वती  के चलाये संघर्षों का ही परिणाम था कि देश में जमींदारी उन्मूलन किया गया। किसानों की सहूलियतों के लिए कई कानून भी पास किये गए। मसलन 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम  का बनना, साठ व सत्तर के दशक में बाजार समितियों ( ए.पी.एम.सी) का गठन, बीज,खाद, खेती के उपकरणों पर सब्सिडी के जरिये किसानों के हित मे जो कदम उठाए गए।

लेकिन आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार खेती किसानी को बचाने वाली तमाम उपायों को समाप्त कर देना चाहती है। तीनों कृषि कानून इसी मकसद से लाये गए हैं जिसे वापस लेने की मांग को लेकर  देश भर के किसान सड़कों उतरे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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