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छात्रों-युवाओं का आक्रोश : पिछले तीन दशक के छलावे-भुलावे का उबाल

इस साल के बजट में बेरोजगारी के हल के लिए किसी तरह की ठोस योजना नहीं।
NTPC
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

नौकरी और बेरोजगारी को लेकर छात्रों/युवाओं में उबाल अचानक नहीं है। न ही यह राजनीति से प्रेरित तत्कालिक प्रतिक्रिया। बल्कि यह पिछले तीन दशक से बेरोजगारी को लेकर सरकारों के गैरजिम्मेवार किस्म के छलावे-भुलावे की उपज है। जो पीढ़ियों से पलती-उभरती स्वाभाविक, सामयिक आक्रोश और गुस्सा है। समय रहते अगर इस पर सही कार्य योजना नहीं तय हुई तो आगे स्थिति और विस्फोटक होगी।

हद तो यह है कि जहां पिछली सरकारों ने बेरोजगारी को छलावे-भुलावे में रखा। वहीं मौजूदा सरकार ने खुल्लमखुल्ला सरकारी नौकरियों के दरवाजे बंद करने के दुस्साहस कर डाले। देश के सार्वजनिक उपक्रमों को चहेते उद्योगपतियों को बेचने लगे। बेरोजगारी के सबसे विकराल दौर में चुनाव और वोट की विसात पर भर्तियां और रिज़ल्ट लंबे समय तक अटकाये रखे गए। यही नहीं, बढ़ती हताशा और आक्रोश को धर्म और सांप्रदायिकता की ऊफान से दबाने की कोशिश की गई। इधर वर्ष 2022-23 के बजट को पूरी तरह धर्मोत्सव के रूप पेश किया गया। अमृत काल के 25 साला अमृत विजन में सबकुछ अमृत-अमृत सा महसूस कराया गया।

89-90 का दौर याद करिए। जब मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू की गईं। वीपी सिंह की सरकार ने पिछड़ों के लिये 27% आरक्षण का कोटा तय कर दिया। देश में हाहाकार मच गया। मानो, लगभग 17% सवर्णों के हिस्से की सारी सरकारी नौकरियां लगभग 45% पिछड़ों के कोटे में चली गईं (आंकड़े, एक अनुमान)। यह अलग बात है कि आज भी देश में सरकारी नौकरियों में सामान्य वर्ग की हिस्सेदारी करीब 58% (आंकड़ा, कार्मिक विभाग) सबसे ज्यादा है। खैर, इसी बहाने उस समय से व्यापक स्तर पर बेरोजगारी और सरकारी नौकरियों पर चर्चा शुरू हुई।

1991 में केंद्र की नरसिंहाराव सरकार ने देश में निजीकरण और आर्थिक उदारीकरण का दरवाजा खोल दिया। और उस समय तब तक मौजूदा सत्ताधारी पार्टी बीजेपी ने मंडल के खिलाफ कमंडल उठा लिया था। प्राइवेट सेक्टर में भरपूर नौकरियों की चकाचौंध में विदेशी कंपनियों का आगमन होता है। तमाम छोटे स्वदेशी उद्योग विलुप्त हो जाते हैं। जल-जंगल-जमीन के मुफ्त बंदरबांट में आदिवासियों, दलितों की आजीविका छिन जाती है।

ऐसे दौर में बीजेपी कमंडल के रथ पर सवार रोजी-रोटी के मसले को राम और सांप्रदायिकता के चमकीले बर्क में लपेट देती है। बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी पूरे देश में दो ख़ास परसेप्शन को फैलाने में सफल हो जाती है। पहला- राम के नाम पर हिंदुत्व और दूसरा- सवर्णों की नौकरी की राह में आरक्षण सबसे बड़ा खतरा है।

भले ही नई आर्थिक नीतियों के चलते बेरोजगारी से संबंधित आंकड़े में कमी देखी गई। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से युवाओं के जीवनस्तर में सुधार हुआ, लेकिन यह विकास केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित रहा। गौरतलब है, उदारीकरण के बाद 2012 तक उच्च विकास वाले (सात फीसदी जीडीपी विकास दर) दौर में भी नियमित रोजगार सरकारी आंकड़ों के अनुसार एक फीसदी से भी कम की दर से बढ़ा। जबकि उदारीकरण के पहले इससे आधी औसत उत्पादन दर में रोजगार नये दौर के दूने दर से बढ़ रहा था।

मंडल-कमंडल और उदारीकरण के बाद बीजेपी उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में सरकार बनाने में सफल हो गयी। इधर उत्तर प्रदेश में सपा बसपा सत्ता की सीढ़ी चढ़ कर बड़ी पार्टी के रूप में उभरीं। महंगाई, बेरोजगारी दूर करने के छलावे में ये सभी पार्टियां सत्ता पाते ही जाति, संप्रदाय और धर्म की चुनावी गणित में जुड़ जातीं। प्रदेश में विभिन्न आयोगों में भर्ती और नियुक्ति के वार्षिक कैलेंडर फिसड्डी साबित होने लगे। शिक्षक और पुलिसभर्ती चुनावी घोषणा पत्र बनने लगे। सत्ता के एक कार्यकाल में इक्का-दुक्का भर्तियां निकलती तो धांधली और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती।

उधर निजीकरण के प्रभाव में शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मूलभूत क्षेत्रों में सरकारी नौकरियां सिकुड़ने लगीं। इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षित, प्रशिक्षित बेरोजगार होने के बावजूद राज्यों में संविदा कर्मियों का चलन शुरू हुआ। बीजेपी सत्ता शासित राज्य इस चलन में  सबसे आगे रहे। उत्तर प्रदेश में शिक्षकों की पहली बड़ी भर्ती राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्रीत्व काल में प्रशिक्षण के दौरान विज्ञप्ति में त्रूटि के चलते निरस्त हो गई। इसी बीच केंद्र की सत्ता में बीजेपी आती है।

वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए के प्रथम कार्यकाल में बीजेपी भले ही मंडल-कमंडल को पीछे रखी। निजीकरण की रफ्तार और तेज हुई। पेन्शन स्कीम खतम होना इसी कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। जिसमें नौकरी पाये लोगों को बुजुर्गी में बेरोजगार कर दिया गया। यही नहीं प्रति वर्ष एक करोड़ नौकरी देने का पहला वादा वाजपेयी कार्यकाल में किया गया। एमएस आहलूवालिया की रिपोर्ट के आधार पर इसे 2014 की तरह ही 2004 में वाजपेयी के फिर से सत्ता में आने के लिए तैयार किया गया था। लेकिन बीजेपी सत्ता से बाहर हो गई।

2001 में बीजेपी के शासन में ही उत्तर प्रदेश में लगभग शिक्षक विहीन प्राथमिक स्कूलों में संविदा पर शिक्षामित्रों को लगाया गया। जबकि बड़े पैमाने पर प्रशिक्षित स्नातकों की फौज बेरोजगार पड़ी थी। खस्ताहाल प्राथमिक स्कूलों को पटरी पर लाने में शिक्षामित्रों की बड़ी भूमिका थी। चुनावी नफे-नुकसान के हिसाब से उन्हें भी शिक्षक का दर्जा दिये जाने का भरोसा दिया जाने लगा।

2007 से 2016 तक (बसपा-सपा) बसपा काल की दो बड़ी शिक्षक भर्तियां धांधली और जांच-पड़ताल के बीच दोनों कार्यकाल तक चलीं। इसी बीच शिक्षामित्रों को नियमित करने के बावजूद कोर्ट की निर्णय के पीछे उनकी स्थिति को आज भी अंधेरे में रखा गया है। बड़ी संख्या में बीएड और बीटीसी बेरोजगार होने के बावजूद इन कोर्सों के संचालन के लिए ब्लाक व तहसील स्तर पर निजी क्षेत्र की दुकानें खोल दी गयीं। फिर टेट, सुपर टेट की परीक्षा, पेपर लीक और धांधली का सालोंसाल खेल होता रहा।

भर्ती व नियुक्ति की इस अांख मिचौली में नौकरी का बाट जोहते बेरोजगारों की एक पीढ़ी अधेड़ हो गई। अब उसके ऊपर अगली नई पीढ़ी की जिम्मेदारी थी। जहां वह अपनी दुश्वारियों में लौटकर नई पीढ़ी के सपनों के लिए मेहनत मशक्कत में खपने लगी। लेकिन बढ़ती महंगाई और शिक्षा के बाजारीकरण में इनकी राहें दुरूह होती चली गईं। यही नहीं खाते-पीते और नौकरीपेशा लोगों के लिए भी महंगे निजी स्कूल व आसमान छूते मेडिकल, इंजीनियरिंग शिक्षा के खर्चे भारी पड़ने लगे।

महंगाई और बेरोजगारी की इसी त्राहिमाम में अच्छे दिन के रथ पर सवार मोदी सरकार का आगमन होता है। हर साल दो करोड़ नौकरियां, सबका साथ सबका विकास जैसे अनगिनत वादे। लेकिन असल मक़सद तो अब मंडल-कमंडल की पहले से बनाई जमीन पर खुलकर खेलने का था। हिंदुत्व और धार्मिक तीर्थ स्थलों की दिव्यता-भव्यता में महंगाई-बेरोजगरी के मुद्दे अंधेरे में चले गए। सामान्य वर्ग को ईडब्ल्यूएस आरक्षण का झुनझुना और गरीबों को राशन, नमक, तेल बांटकर मानो वह अपने मक़सद को फ़तह कर लिए।

फिर शुरू होता है निजीकरण के बहाने सबसे खतरनाक दौर का सिलसिला। रेलवे, बैकिंग, एअरलाइंस, एअरपोर्ट, बीएसएनएल, एलआईसी आदि सबको बेच देने और बेचने की कोशिश। गौर तलब है, यही वह क्षेत्र हैं जहां देश के युवाओं (ख़ासकर उत्तर भारत) के लिये सबसे ज़्यादा नौकरी की गुंजाइश बनती रही है। 2014 के बाद रेलवे व बैंकिंग की भर्तियां सीधे-सीधे चुनावी मैनेजमेंट का हिस्सा हो गईं।

2014 के चुनावी घोषणा की रेल भर्ती 2018 के बिहार चुनाव का हिस्सा बनती है। बताते चलें कि रेलवे की इस भर्ती में सिर्फ 90 हज़ार नौकरियों के लिए इंडियन रेलवे को 1.5 करोड़ आवेदन मिले। इसी तरह 2019 में रेल भर्ती की घोषणा को 21 से 22 तक यूपी में विधान सभा चुनाव का हिस्सा बनाया जाता है। एक तरफ सरकारी नौकरियां सिमटती जा रही हैं, दूसरी तरफ युवाओं में इनका महत्व बढ़ता ही जा रहा है। इसका मुख्य कारण है कार्यशैली व स्थायित्व के जोखिम में निजी क्षेत्र की नौकरियों से मोहभंग।

हालांकि सच ये है कि भारत में फिलहाल 3.75% लोग ही सरकारी नौकरी करते हैं। आरक्षण और सवर्ण आरक्षण का खेल यहां आसानी से समझा जा सकता है।  इन नौकरियों में सामान्य वर्ग की भागीदारी 57.79% है, वहीं बड़े पदों की बात करें तो यह आंकड़ा 74.48% तक पहुंच जाता है। सरकारी एजेंसियों का डेटा बताता है कि यूपीएससी, एसएससी, बैंकिंग और सेन्ट्रल पब्लिक सेक्टर में बीते तीन सालों में लगातार नौकरियां कम हो रही हैं। देश में अब भी बस 3.54% लोग ही संगठित निजी क्षेत्र में जॉब करते हैं, जबकि 42% जनसंख्या अभी भी कृषि और उससे जुड़े अन्य क्षेत्रों पर ही निर्भर हैं।

उदारीकरण के बाद यह शायद पहला ऐसा काल खंड है जब संगठित और असंगठित, दोनों क्षेत्रों में एक साथ बड़े पैमाने पर रोजगार खत्म हुए। नोटबंदी और महामारी काल की घरबंदी में महंगाई और बेरोजगारी ने विकराल रूप ले लिया। देखते-देखते जहां 2017-18 में बेरोजगारी की दर 6.1% यानी 45 साल के सबसे ऊंचे स्तर (एनएएसओ, सरकारी एजेंसी) पर थी। वहीं दिसंबर, 2021 तक यह रिकार्ड 7.91% तक पहुंच गई।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के रिपोर्ट की मानें तो दिसंबर 2021 तक देश में बेरोजगारों की संख्या 5.3 करोड़ रही। सीएमआईई के अनुसार लगातार काम तलाश करने के बाद भी बेरोजगार बैठे लोगों का बड़ा आंकड़ा चिंताजनक है। गौरतलब है, बेरोजगार लोगों के इन आंकड़ों में 90 फीसद से ऊपर 29 वर्ष से कम आयु के युवा हैं। सीएमआईई के अनुसार देश में एक सुदृढ़ अर्थव्यवस्था के लिए करीब 60 फीसद आबादी को रोजगार मुहैया कराना होगा।

विरले ही ऐसा होता है जब किसी देश में बेरोजगारी की दर आर्थिक विकास दर के इतने करीब पहुंच जाए। मोदी सरकार के तहत देश की औसत विकास दर 7.6% रही और बेकारी की दर 6.1% (यूपीए शासनकाल में बेरोजगारी दर 2 फीसदी थी और विकास दर 6.1 फीसद)। आंकड़े ताकीद करते हैं कि भारत में बेरोजगारी की दर 15 से 20 फीसद तक हो सकती है क्योंकि औसतन 40 फीसद कामगार मामूली पगार यानी औसतन 10-11 हजार रुपसे प्रति माह वाले हैं।

जाहिर है, अब यह पढ़ाई-पढ़ाई का धंधा बहुत महंगा पड़ेगा! यह सच है कि पहले वही पढ़ रहे थे जिनकी हैसियत थी, पहुंच थी। और नौकरी पा ही जाते थे। लेकिन पढ़ाई का मसला और समझ आम हुआ। सभी को पढ़ाई से उम्मीद जगी। सभी में नौकरी से जीवन स्तर उठने की आस बंधी। पहली पीढी की एक बड़ी आबादी बेरोजगारी को नियति और जुए की हार-जीत मान, मन मसोस कर खामोश रही। लेकिन अपने समय की उम्मीद और आस में हारे लोग हारे नहीं। अगली पीढ़ी के लिए मेहनत-मजदूरी, खेती-व्यवसाय से पसीने की कमाई का बड़ा हिस्सा पढ़ाई पर खर्चने लगे।

अब नई पीढ़ी के युवाओं की सहूलियतें और जरूरतें उतनी निम्नतम नहीं रहीं कि वह मन मसोस कर रहें। जब पढ़ाई-लिखाई को धंधा कर दिया गया। नौकरियां खतम की जा रही हैं। पढ़ाई और नौकरी को फिर से हैसियत पर ला दिया गया। ऐसे में आज के छात्र/युवा पेट काट कर नहीं जी सकते। वह पेट पर लात नहीं सह सकते। सवाल तो उठाएंगे ही, सड़क पर उतरेंगे ही.. !

अमृत काल के बजट में भी महंगाई और बेरोजगारी का विष:

अमृत काल के उत्सव में वर्ष 2022-23 का बजट भी 25 साल के विजन के साथ प्रस्तुत कर दिया गया। लेकिन महंगाई, बेरोजगारी और महामारी से त्रस्त 80 फीसद जनता की जमीनी हालत से नजर फेर लिया गया है। 22 में किसानों की आय दोगुना करने की नजदीकी विजन पर यह बजट चुप है। मनरेगा व खाद सब्सिडी के बजट में कटौती कर किसानों-मजदूरों को और जहालत में ढकेला गया है।

वित्तमंत्री ने बगैर कोई ठोस योजना बताये 60 लाख लोगों को रोजगार देने की बात की है। लेकिन संसद में सवाल पूछने पर सरकार (टेक्सटाइल मिनिस्टर) कहती है कि वह रोजगार डेटा नहीं फिक्स करती। बजट में कॉरपोरेट टैक्स में और कमी का प्रस्ताव है। कुल मिलाकर बजट के इस अमृत काल का अमृत धनकुबेरों का है, महंगाई, बेरोजगारी और महामारी का विष जनता के हवाले।

(यह लेखक के व्यक्तिगत विचार है)

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