बीते दशक इस बात के गवाह हैं कि बिजली का निजीकरण ‘सुधार’ नहीं है
1990 के दशक के बाद से, भारत ने बिजली क्षेत्र में जो बाजार-उन्मुख सुधार किए है उसमें राज्य बिजली बोर्डों के पुनर्गठन, स्वतंत्र नियामकों की स्थापना और बिजली क्षेत्र का आंशिक रूप से निजीकरण शामिल है।
पिछले तीन दशकों में केंद्र सरकार की बिजली सुधार योजना के तहत बिजली क्षेत्र के वित्तपोषण, राष्ट्रीय टैरिफ नीति और समान राष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा (Renewable Energy) नीति विकसित करने की अक्षमता को उजागर किया है। वर्तमान सुधार और कुछ नहीं, बल्कि सरकार द्वारा राज्य की वितरण कंपनियों की लागत पर निजी बिजली उत्पादन करने वाली कंपनियों के हितों की रक्षा करते हुए पिछले दशकों के नीतिगत घालमेल को कवर करने करने का एक हताश प्रयास है।
प्रस्तावित सुधार, बिजली वितरण का पूरी तरह से निजीकरण करना चाहते हैं और बिजली क्षेत्र की परिसंपत्तियों को बड़े औद्योगिक घरानों को औने-पौने पर सौंपना चाहती है। अंतर्राष्ट्रीय आकाओं को खुश करने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से महत्वाकांक्षी नवीकरणीय बिजली के लक्ष्यों का पूरा बोझ, राज्य पर थोपना चाहती है।
बिजली क्षेत्र के पुनर्गठन के लिए विश्व बैंक से सहायता प्राप्त करने वाला ओडिशा पहला राज्य था। राज्य बिजली बोर्ड को तीन हिस्सों, बिजली उत्पादन, ट्रांसमिशन और वितरण में विभाजित किया गया था। पहले बिजली वितरण को चार क्षेत्रीय यूटिलिटी में विभाजित किया गया और बाद में उनका निजीकरण कर दिया गया था।
इसके बाद आठ अन्य राज्य भी इसी रास्ते पर चल पड़े। इनमें से प्रत्येक राज्य ने बिजली क्षेत्र में सुधार अधिनियम पारित करने के बाद, राज्य बिजली बोर्डों (एसईबी) को उत्पादन, ट्रांसमिशन और वितरण की अलग-अलग संस्थाओं में बाँट दिया ता। एकमात्र अंतर ओडिशा और दिल्ली के मामले में था जो एक कदम आगे बढ़ गए थे और उन्होने वितरण क्षेत्र का पूरी तरह से निजीकरण कर दिया था।
ओडिशा में निजीकरण का प्रयोग बुरी तरह विफल रहा है। निजी फर्म, एईएस ने ओडिशा को खुद के द्वारा संचालित किए जा रहे क्षेत्र को गंभीर हिमस्खलन आने के बाद छोड़ दिया था।
ओडिशा में नियामक आयोग ने पहले ही ओडिशा में रिलायंस के स्वामित्व वाली डिस्कॉम (वितरण कंपनियों) के वितरण लाइसेंस को रद्द कर दिया है। निजीकरण की विफलता के बावजूद, अब 2020 में ओडिशा ने डिस्कॉम का फिर से निजीकरण कर दिया गया है।
बिजली अधिनियम 2003 के पारित होने के बाद सभी मौजूद बिजली कानून निरस्त हो गए थे। 2003 के अधिनियम में उल्लेख किया गया है कि सभी एसईबी को उत्पादन, ट्रांसमिशन और वितरण की अलग-अलग संस्थाओं में अप्रबंधित किया जाएगा। उत्पादन को बढ़ाने के लिए, लाइसेंसिंग को पूरी तरह से खत्म कर दिया जाएगा, सिवाय इसके कि पनबिजली परियोजनाओं के लिए तकनीकी-आर्थिक मंजूरी लेनी पड़ती है। इससे एक ही भौगोलिक क्षेत्र में दो या उससे अधिक वितरण लाइसेंसधारियों के लाइसेन्स लेने का रास्ता खुल गया था।
बिजली अधिनियम 2003 का मुख्य उद्देश्य बिजली क्षेत्र में घाटे को कम करना, क्षेत्र के वित्तीय स्वास्थ्य में सुधार करना और सरकार पर से सब्सिडी बोझ को कम करना था। लेकिन, नीतियों के दोषपूर्ण ढंग से लागू करने से बिजली क्षेत्र का वित्तीय स्वास्थ्य और भी खराब हो गया और सरकार को अब वितरण कंपनियों को भी सब्सिडी देनी पड़ रही है। निरंतर गलत ऊर्जा नीतियों के चलते बैंकिंग क्षेत्र बिजली क्षेत्र के एनपीए के बोझ तले दब गया है।
जब 2003 में निजी उत्पादन की अनुमति दी गई थी, और सौर और पवन ऊर्जा के रूप में हरित बिजली को पेश किया गया था, तो इसका फायदा उठाने के लिए राज्य सरकारों के बीच भगदड़ मच गई थी। नतीजतन, बिजली खरीद समझौते या पीपीए पर आँख मूँद कर हस्ताक्षर कर दिए गए थे। राज्य बिजली बोर्डों ने एकतरफा बिजली खरीद समझौतों पर हस्ताक्षर कर दिए जो डीम्ड उत्पादन क्लोज़ प्रदान करते थे।
निजी क्षेत्र की अनियंत्रित और अनियोजित क्षमता के कारण बिजली के उत्पादन से देश के कई राज्यों में अब बिजली उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता पैदा ही गई है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य में थर्मल पावर क्षमता के बड़े प्रतिशत को हर साल छह महीने से अधिक के लिए बंद कर दिया जाता है। राज्य के डिस्कॉम और निजी उत्पादक के बीच वर्तमान पीपीए पर हस्ताक्षर किए जाने हैं, इसलिए इसमें संशोधन करने की जरुरत है।
भारत में सौर ऊर्जा तीव्र गति से बढ़ रही है और सरकार का दावा है कि अक्षय ऊर्जा (Renewable Energy) प्रतिबद्धताओं को पूरा करने वाला भारत दुनिया का एकमात्र देश होगा। कुछ बिजली खरीद समझौतों में सौर ऊर्जा में टैरिफ लगभग 15 रुपये प्रति यूनिट है, जबकि वर्तमान प्रवृत्ति लगभग 2 रुपये प्रति यूनिट है। हालांकि, केंद्र सरकार पुराने महंगे पीपीए के पुनर्निधारण की अनुमति नहीं दे रही है। आंध्र प्रदेश की सरकारों ने पीपीए की समीक्षा करने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप बहुत कम शुल्क लगे, लेकिन केंद्र सरकार ने अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में पीपीए को फिर से जारी करने के कदम को रोकने के लिए हस्तक्षेप करते हुए दावा किया कि इस तरह के कदम निवेशकों के विश्वास और देश के अक्षय ऊर्जा लक्ष्यों को प्रभावित करेंगे।
बिजली (संशोधन) विधेयक, 2014 को लोकसभा में पेश किया गया था जिसके जारीए बिजली अधिनियम, 2003 में संशोधन किए जाने थे। इसमें प्रमुख जोर केरियज़ में कंटेन्ट अलगाव का है जिससे कि आसान पहुंच, प्रतिस्पर्धा को सक्षम बनाय जा सके और नवीकरणीय ऊर्जा को अधिक गति प्रदान की जा सके। हालाँकि, विधेयक को ऊर्जा पर स्थायी समिति को भेज दिया गया था और समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। कर्मचारियों और इंजीनियरों ने संशोधनों के खिलाफ बड़ा विरोध किया। लोकसभा के कार्यकाल के दौरान विधेयक पारित नहीं हुआ नतीजतन विधेयक पारित कराने का वक़्त गुज़र गया।
पिछले साल अप्रैल में, केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय ने बिजली संशोधन विधेयक 2020 का एक मसौदा जारी किया। मसौदे में बिजली अनुबंध प्रवर्तन प्राधिकरण (ईसीईए) के निर्माण की बात कही गई थी, और जो एक राष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा नीति का प्रस्ताव भी करता है और समयबद्ध बिजली के शेड्यूल के लिए आवश्यक भुगतान की सुरक्षा को अनिवार्य करता है साथ ही सीमा पार बिजली व्यापार की सुविधा प्रदान करता है। मसौदा उप-लाइसेंसिंग और फ्रेंचाइजी के माध्यम से डिस्कॉम के निजीकरण के प्रयास का रास्ता भी खोलता है।
ग्यारह राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश ने बिजली संशोधन विधेयक 2020 के कई प्रावधानों का विरोध किया है। राज्यों ने बिजली (संशोधन) विधेयक, 2020 को संविधान की भावना के विपरीत और राज्यों की शक्ति के विकेंद्रीकरण के प्रति विरोधाभासी बताया, बावजूद इसके कि यह विषय समवर्ती सूची में आता है।
16 मई को, वित्तमंत्री ने केंद्र शासित प्रदेशों में बिजली विभागों के निजीकरण की घोषणा की थी। बिजली मंत्रालय ने वितरण लाइसेंस का निजीकरण करने के लिए डिस्कॉम को 20 सितंबर को एक मसौदा मानक बोली दस्तावेज (एसबीडी) भेजा था। यह उन राज्यों को दिशानिर्देश देता है जो राज्य बिजली वितरण यूटिलिटी को निजी खिलाड़ियों के हाथों में सौंपना चाहते हैं। एसबीडी का इरादा बिजली क्षेत्र में सुधार करना नहीं है, बल्कि देश भर में बिजली क्षेत्र के निजीकरण को बढ़ावा देना है।
चूंकि बिजली (संशोधन) विधेयक 2020 का सब तरफ से कड़ा विरोध हुआ है, इसलिए उसमें पुराने तरीके के संशोधन किए जा रहे है और बिजली (संशोधन) विधेयक 2021 के रूप में पेश किया जा रहा है। अब सरकार ने बिजली (संशोधन) विधेयक 2021 को संसद के चल रहे बजट सत्र में पेश करने की योजना बनाई है।
सरकार ने 2003 की बिजली वितरण का निजीकरण करने का प्रस्ताव दिया है। इससे कई निजी खिलाडी वितरण क्षेत्र में कूद पड़ेंगे और उन्हे बिना सार्वजनिक जवाबदेही के फ्रेंचाइजी बनाने की पूरी आजादी मिलेगी।
राज्य डिस्कॉम की हजारों करोड़ रुपये की संपत्ति को बिना किसी मूल्यांकन के सीधे निजी क्षेत्र के हाथों में सौंप दिया जाएगा। इसे उपभोक्ता की पसंद और प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के नाम पर किया जा रहा है। ऐसे तदर्थ उपायों से बेहतरी के बजाय नुकसान अधिक होगा।
कई शहरों में कई फ्रेंचाइजी का काम करने का अनुभव सरकार की आंख खोलने वाला होना चाहिए था। वे मौजूदा वितरण नेटवर्क के उन्नयन और आधुनिकीकरण में विफल रहे है। कई फ्रैंचाइजी कंपनियों द्वारा धोखाधड़ी करने के बावजूद नियामकों ने उन्हे छोड़ने पर मजबूर किया और राज्य डिस्कॉम पर कुछ सौ करोड़ रुपये का बोझ डाल दिया था।
मुंबई में निजीकरण पर पुणे के एक एनजीओ प्रयास ने एक व्यापक अध्ययन किया जिससे पता चलता है कि यह प्रयोग कैसे विफल हो गया, जो कई कानूनी और वाणिज्यिक विवादों के साथ-साथ अत्यधिक उच्च उपभोक्ता शुल्क वसूलने से विफल हुआ। मुंबई इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि निजकरण कैसे विफल रहा है। दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव के साथ चंडीगढ़ का निजी खिलाड़ियों के द्वारा उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने के लिए चुनाव करना एक अन्य उदाहरण हैं।
कुल मिलाकर सरकार बिजली क्षेत्र का निजीकरण कर रही है और बिजली का निजीकरण कोई सुधार नहीं है।
लेखक ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फ़ेडरेशन के प्रवक्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
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