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NRC का राजनीतिक अर्थशास्त्र

नया नागरिकता कानून लागू हुआ और उसके अंतर्गत पूरे देश में नागरिकता पंजीकरण किया गया तो नागरिकता से वंचित होने के भय से भारत में भी शोषण के दो रूप भविष्य में नज़र आ सकते हैं...क्या हैं ये दो रूप? क्या है NRC का राजनीतिक अर्थशास्त्र? पढ़िए मुकेश असीम का यह विशेष आलेख
Protest against NRC CAA
Image courtesy: Moneycontrol

पूरे देश में नागरिकता पंजीकरण (NRC) के साथ ही नागरिकता कानून  में हालिया परिवर्तन ने भारतीय सामाजिक जीवन में एक गंभीर संकट की स्थिति पैदा कर दी है क्योंकि यह धर्म के आधार पर नागरिकों में भेदभाव के सिद्धांत को स्थापित करता है। यह सिद्धांत एक बार स्वीकृत हो जाये तो नाजी जर्मनी में यहूदियों और जिप्सीयों, जायनवादी इजरायल में फिलिस्तीनीयों, बौद्ध अंधतावादी श्रीलंका व म्यांमार में तमिलों व रोहिंग्या या सऊदी अरब में गैर इस्लामी धर्मावलंबियों को निचले दर्जे के नागरिक मानने की तरह भारत में मुस्लिमों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना देगा। अतः इसमें कतई शक नहीं कि यह भारतीय राष्ट्र के सेकुलर संगठन की बुनियाद पर गंभीर हमला है। यही वजह है कि इसके इस राजनीतिक पक्ष पर देश में गंभीर चर्चा जारी है। मगर इसके राजनीतिक अर्थशास्त्र के पहलू को भी समझने की आवश्यकता है।असम में कई साल तक चले नागरिकता पंजीकरण के परिणाम पहले ही हमारे सामने हैं।

असम में 1951 में भी नागरिकता पंजी बनी थी। उसके बाद 1979 से असम छात्र आंदोलन में यह मुद्दा सर्वोपरि था तथा 1985 के असम समझौते में नागरिकता पंजीकरण की बात तय हुई थी। इसलिए असम के आम लोगों को इस बारे में पहले से जानकारी थी और उन्होंने कुछ हद तक अपने नागरिक होने के प्रमाण सुरक्षित रखने का प्रयास भी किया था। उसके बावजूद भी नतीजा यह निकला कि भूतपूर्व राष्ट्रपति से लेकर सेना/पुलिस में जीवन भर नौकरी करने वाले कई व्यक्ति/परिवार भी अपनी नागरिकता प्रमाणित करने में असफल रहे और नागरिकता पंजी की अंतिम सूची से 19 लाख व्यक्ति बाहर कर दिये गये जिससे खुद इस प्रक्रिया की सख्त समर्थक बीजेपी सरकार भी भौंचक्की रह गई क्योंकि उनकी उम्मीद के विरुद्ध इनमें दो तिहाई से अधिक गैर मुस्लिम थे। इस पूरी प्रक्रिया पर सार्वजनिक जानकारी के मुताबिक सरकार ने 1300 करोड़ रुपये खर्च किये जिसमें इसमें लगे कर्मचारियों का वेतन शामिल नहीं है।

किंतु इससे भी महत्वपूर्ण है कुछ संस्थाओं द्वारा लगाया गया यह अनुमान कि असम की जनता ने खुद की नागरिकता स्थापित करने के लिए लगभग 8000 करोड़ रुपये खर्च किये अर्थात प्रति व्यक्ति औसत 2 हजार रुपये या 5 सदस्यीय परिवार के लिये औसत 10 हजार रुपये। इसमें भी हम यह मान सकते हैं कि दस्तावेज़ जुटाने, आदि में दिक्कत और रिश्वत चुकाने की जरूरत गरीब लोगों को ही अधिक पड़ी होगी तब यह समझा जा सकता है कि बहुत से गरीब मेहनतकश जनता के लिये नागरिकता पंजीकरण बहुत बड़ी आर्थिक समस्या बनकर आया है जिसमें उनकी पूरी बचत खप गई या उन्हें अपनी संपत्ति तक बेचनी पड़ी होगी।

देश की गरीब मेहनतकश जनता में से अधिकांश के पास दस्तावेजों का सख्त अभाव है या उनमें बहुत सारी गलतियाँ हैं। अगर ऐसा ही नागरिक पंजीकरण पूरे देश में लागू किया गया तो अपनी नागरिकता प्रमाणित कर पाना उनके लिये भारी संकट का सबब होगा। भारतीय प्रशासनिक व्यवस्था में भ्रष्टाचार और रिश्वतख़ोरी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अगर असम के 3.40 करोड़ लोगों को 8000 करोड़ रुपये इस काम में खर्च करने पड़े तो पूरे देश में ऐसा ही होने पर यह खर्च 3 लाख करोड़ तक जा सकता है। इसके अतिरिक्त सरकारी खर्च भी एक लाख करोड़ रुपये तक जा सकता है। वह भी करों के जरिये जनता से ही वसूल होगा। समझा जा सकता है कि नागरिक पंजीकरण पर यह खर्च देश की आम जनता से बहुत बड़ी और विकराल लूट सिद्ध होगा।

इसका एक और पक्ष है कि नागरिकता छिनने का डर भारत के पहले ही श्रम क़ानूनों की सुरक्षा से वंचित गरीब असंगठित श्रमिकों को कम मजदूरी पर बिना संगठित हुए, बिना अपना कोई अधिकार माँगे काम करने पर मजबूर करने का भी बड़ा जरिया बनने की आशंका है। जब भी कोई वाजिब मजदूरी माँगे, यूनियन बनाने का प्रयास करे या कुछ और अधिकार माँगे, मालिक उनमें जो मुखर हों, उन्हें पुलिस से साँठगाँठ कर अवैध आप्रवासी घोषित करा सकते हैं। सस्ते मजदूरों को शोषण के फंदे में फँसाये रखने के लिए अमेरिका यूरोप में यह तरीका पहले ही आजमाया जाता रहा है।

जब तक मजदूर ऐसी कोई माँग न करें तब तक पूँजीपति, प्रशासन, मीडिया सब जानते-बूझते चुप रहते हैं। पर न्याय माँगते ही श्रमिकों के शोषण के सवाल को अवैध आप्रवास के अंधभावनात्मक मुद्दे में तब्दील कर दिया जाता है। सऊदी व अन्य खाडी देश तो इसी कारण 50-60 साल से दो तीन पीढ़ियों से वहीं काम कर रहे दूसरे धर्म वाले श्रमिकों को तो छोड़िये मुसलमानों को भी अपनी नागरिकता नहीं देते क्योंकि यह उन्हें शोषण के खिलाफ संगठित होने, संघर्ष करने से रोकने का बड़ा तरीका है। श्रमिकों के साथ ही जो अन्य लोग वहाँ छोटा-मोटा कारोबार करना चाहते हैं उन्हें भी अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा किसी सऊदी नागरिक को लगान के तौर पर चुकाना पड़ता है। अतः नागरिकता से वंचित रखना श्रमिकों व छोटे कारोबारियों के गहन शोषण का एक बड़ा औज़ार है।

अमेरिका में अवैध आप्रवासी घोषित करने की धमकी के साथ एक अन्य तरीका भी प्रयोग में है। वहाँ गरीब मेहनतकश विशेष तौर पर अफ्रीकी व हिस्पैनिक मूल वालों को छोटे से छोटे अपराधों में लंबे वक्त के लिए जेल भेजा जा रहा है या जमानत की शर्त इतनी कठिन रखी जाती है कि वे उन्हें पूरा न कर सकें और वे जेल में ही रहें। आबादी के अनुपात में अमेरिका में कैदियों की तादाद दुनिया में संभवतः सर्वाधिक है। उसमें भी ये दो समुदाय ही आबादी के अनुपात में अधिक हैं। ऊपर से बहुत सी जेल निजी क्षेत्र को सौंप दी गईं हैं। निजी क्षेत्र को जेल चलाने पर दो तरह से मुनाफा होता है - एक, सरकार से प्रति कैदी मिलने वाला पैसा; दूसरे, इन कैदियों से नाममात्र की मजदूरी पर कराया गया बेहद कठिन श्रम, जिसमें सुरक्षा के भी कोई उपाय नहीं होते क्योंकि कैदियों की जान बहुत सस्ती होती है।

भारत में भी जैसे आर्थिक संकट गहरा रहा है, श्रम सुधारों के नाम पहले से कमजोर श्रम अधिकारों को और भी कमजोर किया जा रहा है। भारत में पहले ही अधिकांश मजदूर बहुत असुरक्षित स्थितियों में लंबे घंटे काम करने के लिये मजबूर होते हैं व साल में 48 हजार श्रमिक कार्य स्थल पर हुई दुर्घटनाओं में अपनी जान गँवा देते हैं। ऐसी स्थिति में मजदूरों के शोषण को और भी तीक्ष्ण करने के लिए नागरिकता कानून एक भयानक औज़ार बन जायेगा। पूँजीवादी कॉर्पोरेट मीडिया में इसके पक्ष में प्रचार की यह भी एक बड़ी वजह है। इसीलिये भारत सरकार बांग्लादेश को बार बार आश्वासन भी दे रही है कि किसी को देश से निकाला नहीं जायेगा, यह तो पूर्णतया आंतरिक मामला है।

उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूरों के खिलाफ विभिन्न राज्यों में समय समय पर जो नफ़रत फैलाई जाती है, हमले किये जाते हैं, उसे भी इस संदर्भ में देखना चाहिए। कुछ श्रमिकों व छोटे काम धंधे वालों को पीटने, मारने, सामान तोड़ने, जलाने का मुख्य मकसद भी इन मजदूरों को भयभीत रखना होता है। जैसे ही यह भय बढ़कर वास्तविक पलायन में बदलता है, तब तक नफरत फैलाता मीडिया तुरंत जनवादी बनकर राष्ट्रीय एकता, पलायन रोकने की बातें करने लगता है क्योंकि मजदूर वास्तव में ही पलायन कर चले जायें तो सस्ते श्रमिक कैसे मिलेंगे। तब तो उल्टा नुकसान ही हो जायेगा।

स्पष्ट है कि अगर नया नागरिकता कानून लागू हुआ और उसके अंतर्गत पूरे देश में नागरिकता पंजीकरण किया गया तो नागरिकता से वंचित होने के भय से भारत में भी शोषण के दोनों उपरोक्त रूप भविष्य में नजर आ सकते हैं अर्थात श्रमिकों को अवैध करार कराने की धमकी के जरिये किया जाने वाला दोहन और डिटेंशन केंद्रों में बिना किसी श्रम कानून की सुरक्षा वाला भयंकर खास तौर पर स्वास्थ्य के लिए सबसे खतरनाक किस्म का श्रम।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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