ग़ैर मुस्लिम शरणार्थियों को पांच राज्यों में नागरिकता
केंद्र सरकार ने पांच राज्यों को यह अधिकार दिया है कि वे अपने यहां रह रहे गैर मुस्लिम शरणार्थियों को धर्म के आधार पर नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (सीएए) के निर्देशों के मुताबिक भारत की नागरिकता देने के लिए उनके आवेदन मंगाए। इस अधिनियम का देश में तब व्यापक विरोध हुआ था, जो आज भी कमोबेश जारी है। सीएए के अभी कानून नहीं बनने और इसे अधिसूचित नहीं किए जाने को देखते हुए केंद्र के इस ताजा कदम पर कई लोगों की त्योरियां चढ़ गई हैं।
केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 28 मई को 2019 के नागरिकता अधिनियम, 1955 के नियमों के अंतर्गत एक राजपत्र अधिसूचना (गैजेट नोटिफिकेशन) जारी किया था। इसमें अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन करने को कहा था, जो गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हरियाणा और पंजाब राज्यों के 13 जिलों में रह रहे हैं।
अधिसूचना में यह कहा गया है, "केंद्र सरकार नागरिकता अधिनियम, 1955 (1955 के 57) की धारा 16 के अंतर्गत दिए गए अधिकारों का उपयोग करती हुई धारा 5 के तहत भारत के नागरिक के रूप में पंजीकरण के लिए उसके द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्तियां, या नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6 के तहत अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों, मुख्यत:-हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, ईसाई-समुदायों से संबंधित किसी भी व्यक्ति को, जो देश के निम्नलिखित राज्यों और जिलों में रह रहे हैं, उसके देशीयकरण का प्रमाण पत्र प्रदान करने के लिए एतद्द्वारा निर्देश देती है...।”
गृह मंत्रालय की तरफ से गृह सचिवों और 13 जिलों के जिलाधिकारियों को यह अधिकार दिया गया है कि वे अपने संबद्ध राज्यों और जिलों में दो वर्ष से अधिक समय से रहने वाले शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने के लिए उनके आवेदन मंगाएं और इसकी प्रक्रिया शुरू करें। ये आवेदन ऑनलाइन जमा किए जाएंगे।
इस अधिसूचना को नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) से संगति बैठाने की सरकार की कोशिश ने लोगों में भ्रम और आक्रोश पैदा कर दिया है। सीएए का मकसद इन तीन पड़ोसी देशों से आए छह धार्मिक समुदायों को नागरिकता प्रदान करना है। हालांकि इस अधिनियम को सीएए के अंतर्गत नहीं लागू किया जा सकता क्योंकि इसको कानून बनाए जाने की अधिसूचना अभी तक जारी नहीं हुई है। संयोगवश, इस कानून को लेकर विगत एक वर्ष में 100 से ज्यादा याचिकाएं दायर की गई हैं। उन ज्यादातर याचिकाओं में सीएए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है, जिनकी सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय में पिछले वर्ष से लंबित है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने गृह मंत्रालय के ताजा आदेश का संबंध सीएए के साथ जोड़ा और इस कदम को “छल” बताया। दूसरी तरफ, आरटीआई कार्यकर्ता साकेत गोखले ने गृह मंत्रालय को एक नोटिस भेज कर जानना चाहा है कि कैसे उसने केवल गैर मुस्लिम शरणार्थियों को ही नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 5 और धारा 6 के तहत नागरिकता प्रदान करने के लिए उनसे आवेदन मांगे हैं, जबकि इन धाराओं में नागरिकता प्रदान करने की बाबत धर्म का कोई उल्लेख ही नहीं किया गया है।
गोखले ने अपने भेजे नोटिस में कहा है, “सीएए के नियम अभी तक अधिसूचित भी नहीं किए गए हैं, इसलिए ये इस मामले में लागू नहीं हो सकते। राजपत्रित अधिसूचना में केवल अल्पसंख्यक समुदायों अर्थात हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों को नागरिकता प्रदान करने के लिए उनसे आवेदन मांगने के बारे में संबंधित अधिकारियों को दिया गया निर्देश, न केवल कानून के लिहाज से गलत है, बल्कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का स्पष्ट उल्लंघन है।”
न्यूज़क्लिक के साथ बातचीत में गोखले ने कहा : "आमतौर पर, किसी को नागरिकता के लिए आवेदन को स्वीकृत करने का अधिकार गृह मंत्रालय में बने विदेशी डिवीजन को है। यह अधिसूचना केवल आवेदन मांगे जाने के लिए नहीं है, बल्कि मुख्य रूप से इन आवेदनों पर निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय अधिकारियों को दे दिया गया है। उदाहरण के लिए, अब एक हिंदू शरणार्थी जो इन जिलों में रह रहा है, वह अपनी नागरिकता के लिए संबद्ध जिलाधिकारी के यहां आवेदन दे सकता है, लेकिन वह उसको सीएए के अंतर्गत नागरिकता नहीं प्रदान करेगा क्योंकि इसके अंतर्गत कानून की अधिसूचना अब तक जारी नहीं की गई है।”
यह पूछने पर कि वे क्यों इस मामले को उठा रहे हैं, गोखले ने कहा : “अगर सरकार सीएए के अंतर्गत नागरिकता नहीं प्रदान करती है, तब उन्हें तीन देशों से आए हुए धार्मिक शरणार्थियों का उल्लेख नहीं करना चाहिए। वे केवल यह कह सकती थी कि अब जिलाधिकारी को शरणार्थियों से आवेदन लेने का अधिकार दिया गया है। विवाद की जड़ यह है कि अधिसूचना में केवल इन खास समुदायों का ही उल्लेख किया गया है, मुसलमान की बात ही नहीं की गई है।"
संदेह पैदा करतीं चालें?
सरकार की नई अधिसूचना की आलोचना करते हुए, ज्वाइंट फोरम एगेंस्ट एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन) ने भी इस बारे में गृह मंत्रालय को एक पत्र लिखा है। ज्वाइंट फोरम पश्चिम बंगाल में विभिन्न जन संगठनों का एक साझा मंच है।
“मंत्रालय केवल उन्हीं शक्तियों को किसी को सौंप सकता है, जिनका प्रयोग मंत्रालय स्वयं कानून के अनुसार कर सकता है। अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में संबंधित अल्पसंख्यक समुदायों, मुख्यतः हिंदू, सिख, बौद्ध,जैन, पारसी, और ईसाई समुदायों के व्यक्तियों को नागरिकता प्रदान करने का अधिकार,गृह मंत्रालय ने अभी तक उपार्जित नहीं किया है, क्योंकि नागरिकता संशोधन अधिनियम,2019 के अंतर्गत कानून की अधिसूचना अभी तक जारी नहीं की गई है,” फोरम ने अपने पत्र में लिखा है।
फोरम के संयोजक प्रेसेनजित बोस ने भी सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के जरिए इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी हुई है। उन्होंने धर्म के आधार पर नागरिकता देने के लिए आवेदन मांगे जाने की निंदा की क्योंकि सीएए की संवैधानिकता अभी भी न्यायालय में विचाराधीन है।
बोस ने न्यूज़क्लिक से कहा कि उनकी याचिका और कई लोगों की तरह ही न केवल सीएए को चुनौती देती है, बल्कि केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा इसके पहले 2016 और 2018 में अफगानिस्तान¸ बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों से नागरिकता-आवेदन मांगे जाने के लिए इस तरह जारी की गई राजपत्रित अधिसूचनाओं को रद्द करने की मांग की है।
ताजा अधिसूचना सीधे तौर पर सीएए से नहीं जुड़ी है और यह उस कानून का भी उल्लेख भी नहीं करती है। आवेदन के इस दायरे को तीन देशों के गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों तक बढ़ाया गया है, जो नागरिकता की मांग करने वाले किसी भी विदेशी नागरिक द्वारा पूरी की जा सकने वाली सभी अर्हताओं को पूरी करते हैं। जैसा कि समाचार एजेंसी पीटीआई का कहना है, इसके तहत, भारत में कम से कम 11 साल तक रहने के बाद कोई विदेशी नागरिक देशीकरण के जरिए भारत की नागरिकता का हकदार हो जाता है। सीएए के तहत इस अवधि को घटाकर 5 साल कर दिया गया है।
नागरिकता अधिनियम, 1955 के मुताबिक, भारत में नागरिकता किसी व्यक्ति के जन्म, उसके कुल, निबंधन और देशीकरण के आधार पर दी जाती है। इस बारे में, संशोधित कानूनों में भी नागरिकता प्रदान करने की शर्त में धर्म का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। यहां तक की 1955 के अधिनियम के बाद में होने वाले संशोधनों में भी धर्म की कोई भूमिका नहीं रही है। केवल 2019 के संशोधन में ही धर्म को एक मुख्य भागीदार बनाया गया क्योंकि इस कानून का मकसद तीन मुस्लिम बहुल देशों-अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के गैर मुस्लिम समुदायों के लोगों को नागरिकता देना था।
प्रख्यात कानूनविद् एवं हैदराबाद की नालसर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के वाइस चांसलर फैजान मुस्तफा ने केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा ताजा जारी अधिसूचना के बारे में न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा: "केंद्रीय गृह मंत्रालय का यह अधिकार इसके पहले 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्धों के बाद वहां से आए शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने के लिए डेलीगेट किया जा चुका है। लेकिन उस समय न अवैध शरणार्थियों को नागरिकता के लिए अयोग्य ठहराने का प्रावधान था और न ही यह कहा गया था कि अगर निश्चित धर्म के लोग भारत में आएं तो वे भारत की नागरिकता की हकदार होंगे। लिहाजा, आलोचना इस हद तक जायज है कि सरकार को आदर्श रूप में सबसे पहले सीएए के अंतर्गत कानून बनाना चाहिए।"
ताजा अधिसूचना में गुजरात में मोरबी, राजकोट, पाटन और वडोदरा; छत्तीसगढ़ के दुर्ग और बलौदाबाजार; राजस्थान में जालौर, उदयपुर, पाली, बाड़मेर और सिरोही; हरियाणा में फरीदाबाद; और पंजाब में जालंधर जिले के जिलाधिकारियों को यह अधिकार दिया गया है। इसके अलावा, केवल पंजाब के जालंधर और हरियाणा के फरीदाबाद जिले को छोड़ कर पंजाब और हरियाणा के गृह सचिव अपने राज्यों में इस अधिकार का उपयोग कर सकते हैं।
कानूनविद फैजान मुस्तफा ने आगे कहा: “जब संसद में सीएए पर बहस चल रही थी और इसके औचित्य पर सवाल उठाए जा रहे थे तो सरकार ने कहा था कि इन तीनों (अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान) मुस्लिम बहुल देश हैं, जहां धार्मिक रूप से ये अल्पसंख्यक समुदाय उनके अत्याचारों का सामना कर रहे थे। स्वयं सीएए में, यह विशेष रूप से अभिव्यक्त ‘धार्मिक उत्पीड़न’ शब्द गायब था। इसलिए एक बार कानून की अधिसूचना जारी हो जाने पर उसमें धार्मिक उत्पीड़न को भी शामिल करना होगा। अभी, हम लोग धार्मिक उत्पीड़न के प्रमाण के बगैर ही सीएए को कुछ जिलों में लागू कर रहे हैं।”
मुस्तफा ने कहा : “यह इसलिए भी है क्योंकि धार्मिक उत्पीड़न का सबूत इकट्ठा करना मुश्किल है और प्रत्येक व्यक्ति-पुरुष या महिला- को सबूत दिखाना होगा कि उसके साथ या उसके परिवार के साथ अत्याचार हुआ है। उदाहरण के लिए आप सीधे यह नहीं कह सकते कि पाकिस्तान में सभी ईसाइयों को सताया जाता है।”
अनेक कानूनविदों और संवैधानिक विशेषज्ञों, जिनमें खुद फैजान मुस्तफा भी शामिल हैं, ने बताया “धार्मिक उत्पीड़न’ के केंद्र के तर्क का एक डेढ़ साल पहले भी प्रतिवाद किया है। इनका कहना है कि सरकार ने पाकिस्तान में शिया और अहमदिया मुसलमानों के उत्पीड़नों; अफगानिस्तान में हजारा, ताजिक्स, और उजबेक; एवं बांग्लादेश में नास्तिकों के साथ हो रहे धार्मिक उत्पीड़नों के तथ्य को ‘सुविधाजनक तरीके’ से नजरअंदाज कर दिया है।”
नागरिकता संशोधन बिल पहली बार 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार द्वारा पेश किया गया था, जिसे बाद में संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिया गया था। इसके बाद 2019 में इसे एक बार फिर पेश किया गया और भारी विरोध के बीच संसद के दोनों सदनों से पारित कर दिया गया। हालांकि, “सीएए 2014 में केंद्र की सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी के चुनावी वादे का हिस्सा था, लेकिन इसके लिए धरातलीय काम 2015 से शुरू किया गया था।”
आधारभूत कार्य
बोस इस तथ्य का उद्घाटन कर रहे थे कि भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने सितंबर 2015 में पासपोर्ट नियमों (भारत में प्रवेश), 1950 और फार्नर्स ऑर्डर, 1948 में संशोधन किया, जिनमें “अफगानिस्तान, बांग्लादेश, और पाकिस्तान के मुख्य रूप से हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई धर्म के लोगों, जिन्होंने वहां होने वाले धार्मिक उत्पीड़न के कारण या धार्मिक उत्पीड़न के भय से 31 दिसंबर 2014 तक या उसके पहले से भारत में शरण ले रखी है”, और जो बिना वैध दस्तावेज आ गए हैं या जिनके पास वैध दस्तावेज तो हैं लेकिन उसकी मियाद पहले ही खत्म हो गई है, उन व्यक्तियों को इससे छूट दी गई है।
इसके पश्चात, 2016 में, अफगानिस्तान ने भी इस छूट के प्रावधान को अपने यहां शामिल किया। नागरिकता प्रदान करने के संबंध में “अकस्मात” और अस्पष्ट संशोधन की आलोचना की गई थी।
बोस बताते हैं कि बाद में इन संशोधनों का उपयोग सीएए, 2019 में किया गया, जिनमें इन तीन देशों के छह धार्मिक समुदायों को ‘अवैध प्रवासियों’ की कोटि में रखे जाने से बचाने के लिए नागरिकता के आवेदन में तेजी लाई जा रही है। नागरिकता अधिनियम, 1955 में दो प्रकार के व्यक्तियों को “अवैध प्रवासियों” के रूप में परिभाषित किया है। पहला, ऐसा कोई भी विदेशी जो वैध पासपोर्ट या यात्रा के अन्य दस्तावेजों के बगैर ही भारत में दाखिल होता है। और दूसरा, जो वैध पासपोर्ट या यात्रा के अन्य वैध दस्तावेजों के साथ भारत में प्रवेश करता है और तय समय-सीमा के बाद भी यहां रह जाता है।
फैजान मुस्तफा कहते हैं, “ 2015 और 2016 का कार्यकारी आदेश (जो पासपोर्ट और विदेशियों के नियम में संशोधन करता है) ने कहा कि इन छह सभी समुदायों से संबद्ध अवैध प्रवासियों की विरुद्ध कार्रवाई रुक जाएगी। अन्यथा कानून के मुताबिक उन लोगों के विरुद्ध निर्वासन और निष्कासन जैसी कानूनी प्रक्रिया शुरू करनी होगी। लेकिन सीएए के कानून बनने तक उनको नागरिकता देना संभव नहीं था क्योंकि हमारा कानून कहता है अवैध प्रवासी हमारे नागरिक नहीं हो सकते।”
उन्होंने कहा,“सीएए को इस आधार पर चुनौतियां दी जा रही है कि कानून कलर ब्लाइंड नहीं है, यानी कि यह धर्म के आधार पर भेदभाव करता है।”
सीएए द्वारा गैर मुस्लिम समूहों के लिए अवैध प्रवासन के प्रावधान को दरकिनार किया जा रहा है, जिसको सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गई कई याचिकाओं के जरिए चुनौतियां दी जा रही हैं। उदाहरण के लिए, बोस ने इस मामले में दायर अपनी याचिका में कहा है,“यह समझ में आने वाली बात है कि सीएए संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जिसमें यह धर्म को एक प्रमुख अथवा एकमात्र मानदंड के रूप में इस्तेमाल करता है। जो कि, सीएए के परिणाम स्वरूप गैर मुस्लिम निवासी जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश और बांग्लादेश से अवैध रूप से आए हैं, वे निबंधन और देशीकरण के जरिए आवेदन करने योग्य हो जाएंगे,” उन्होंने आगे कहा कि “इसी तरह मुस्लिम निवासी, चाहे उन्हें कितना भी सताया गया हो, लगातार इससे वंचित रहेंगे।”
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
Questions Abound on Govt’s New Notification on Citizenship for Non-Muslim Refugees in 5 States
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