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‘प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना’ केवल बीमा कंपनियों को कर रही मालामाल?

"...योजना दिखने में बेहद शानदार लगती है लेकिन इसका ऑपरेशनल पार्ट उतना ही जटिल और किसान विरोधी है।"
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इस बार मौसम किसानों की कठिन परीक्षा ले रहा है। लागातार हो रही बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि से देशभर में कई जगह खड़ी फसल तबाह हो गईं हैं। इसमें गेहूं, सरसों, आलू, प्याज़ और मिर्च जैसी फसलें शामिल हैं। किसानों का भारी नुकसान हुआ है। किसान अब सरकार की ओर आस लगाए हुए हैं, लेकिन अभी कोई राहत मिलती दिख नहीं रही। इसी बर्बादी से किसानों को बचाने और उन्हें राहत देने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना है लेकिन किसान संगठनों का कहना है कि ये योजना किसानों की बजाय बीमा कंपनियों को मालामाल कर रही है।

हरियाणा के रोहतक ज़िले के रीठाला गांव के 38 वर्षीय किसान संजय ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि, "बेमौसम बारिश और तेज़ हवाओ ने उनकी पूरी फसल को बर्बाद कर दिया है। इस बार तो लागत का 25 फ़ीसदी निकाल पाना भी मुश्किल हो जाएगा।”

रोहतक, भिवानी, हिसार और सिरसा या कहें कि पूरे हरियाणा में गेहूं की फसल मौसम की मार झेल रही है। कुछ किसानों ने अपनी सरसों काट ली थी लेकिन खेतों में पड़ी थी, वो भी ओलावृष्टि से बर्बाद हो गई।

रीठाला गांव के किसान कृष्ण कुमार कहते हैं, "पिछले दो साल से हम खेती से कोई फसल नहीं ले पा रहे हैं। पिछले साल सर्दी में पाला गिरने से हमारी धान की फसल ख़राब हुई थी और उससे पहले भी हमारी फसलों से निकली उपज का दाम नहीं मिला था क्योंकि सरकार हमारी फसल खरीदती नहीं है।"

इस पूरे प्रकरण में सबसे अधिक परेशान वो किसान होता है जो ठेके पर दूसरे की ज़मीन पर खेती करता है। ऐसे ही एक किसान रणवीर सिंह से हमारी मुलाक़ात हुई। हमसे बात करते हुए वो रोने लगे और बताया कि वो अभी बैंक से आए हैं। उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से किसान क्रेडिट कार्ड बना रखा है जिसकी लिमिट 1,10,000 है। यानी फसल बुआई के लिए इतने रूपये का लोन वो बैंक से ले सकते हैं। लेकिन वो आरोप लगाते हैं कि वो कई दिनों से बैंकों का चक्कर लगा रहे हैं लेकिन उन्हें कोई लोन नहीं मिल रहा है।

जब हमने पूछा कि अभी तो फसल कटी भी नहीं तो उन्हें कर्ज़ क्यों चाहिए? इसपर सिंह ने बताया कि वो केवल 'आधे किले' के किसान हैं और इसके अलावा वो एक किला ज़मीन पर ठेके पर खेती करते हैं जिसका रेट 40 हज़ार है। वो कहते हैं, "फसल नष्ट हो जाए या न बिके उससे जमींदार को कोई मतलब नहीं, उसे सिर्फ़ अपने पैसे चाहिए। उन्हें देने के लिए मेंरे पास एक रुपया भी नहीं है। पिछले साल भी खेती में भारी नुकसान हुआ था, तब भी किसी तरह कर्ज़ लेकर जमींदार को पैसा दिया और नई फसल की बुआई की लेकिन अब मेंरे पास कुछ नहीं है लेकिन इसे जमींदार कोई फ़र्क नहीं पड़ता। मुझे उन्हें पैसे देने है और नई फसल की तैयारी के लिए पैसे चाहिए।"

इस पूरे मसले पर हमने हरियाणा के किसान नेता और अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष इंद्रजीत से विस्तार से बात की।उन्होंने भी इस बात को माना कि ये फसल बीमा किसान हितैषी नहीं है। ख़ासकर वो किसान जो बंटाई या ठेके पर खेती करते हैं या फिर खेत मज़दूर हैं, उन्हें किसी भी सरकारी मुआवज़े का लाभ नहीं मिलता है। एक तो सरकार फसल नुकसान का उचित मुआवज़ा देती नहीं है लेकिन अगर कुछ देती भी है तो वो केवल जमींदार किसानों को ही इसका फ़ायदा मिलता है जबकि सरकार को चाहिए कि वो ठेके पर किसानी कर रहे किसानों को छूट और राहत दे।

इंद्रजीत ने कहा, "मौसम की मार से उत्तर भारत के किसानों की फसलें चौपट हो गईं हैं लेकिन कितना नुकसान हुआ इसका आकलन करना भी मुश्किल है क्योंकि मौसम की मार अभी भी जारी है। खुली आंखों से जो दिख रहा है वो साफ़ है कि किसानों की फसल पूरी तरह तबाह हो गई। सरकार को जल्द ही सर्वे कराना चाहिए और किसानों के लिए राहत का ऐलान करना चाहिए, नहीं तो तो किसानों का कोई सहारा नहीं रहेगा।"

जब हमने उनसे कहा कि इसी नुकसान से राहत दिलाने के लिए फसल बीमा योजना लाई गई है, इसपर आपका क्या कहना है? इस पर उनका कहना था कि, "इसकी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि किसानों को इसका लाभ मिलना लगभग असंभव है। बीमा कंपनियां महज़ दिखावे के लिए कुछ किसानों को कुछ क्लेम दे देती हैं जबकि बड़ी संख्या में किसान इसकी औपचारिकता पूरी ही नहीं कर पाते हैं।”

कमोबेश यही हाल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का है। इनकी आलू और गेहूं की फसल पूरी तरह तबाह हो गई। राजस्थान में भी किसानों की फसल को भारी नुकसान हुआ है। इन सभी राज्यों के किसानों ने अपने स्तर पर सरकार से तत्काल सर्वे करा कर मुआवज़े की मांग की है।

किसानों ने आरोप लगाया था कि ये योजना किसानों को कम और बीमा कंपनी को अधिक मदद कर रही है। इस बात की पुष्टि सरकार के एक जवाब में भी नज़र आती है, जब संसद में भाजपा के ही राज्यसभा सदस्य और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी द्वारा पिछले साल पूछे गए एक सवाल के जवाब में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने अपना जवाब दिया। उनके द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, बीमा कंपनियों ने 2016-2017 से 2021-2022 तक 40,000 करोड़ रुपये से अधिक का सरप्लस या बचत हुई। आंकडें बताते हैं कि कंपनियों ने 15,9,132 करोड़ रुपये की जमा प्रीमियम के मुकाबले 11,9,314 करोड़ रुपये के क्लेम का भुगतान किया।

इस समस्या को लेकर अलग-अलग समय पर किसान देशभर में आंदोलन करते रहे हैं। इसी तरह का एक आंदोलन महाराष्ट्र में किसान लॉन्ग मार्च के रूप में हुआ था जिसमें हमने किसानों से ये समझने का प्रयास किया कि इस योजना से किसानों को क्या दिक्कत है?

फसल बीमा पर गहन अध्ययन करने वाले युवा किसान नेता और महाराष्ट्र के बीड ज़िले के किसान सभा के सदस्य जगदीश जो किसान के साथ पैदल लॉन्ग मार्च कर रहे थे, उन्होंने न्यूज़क्लिक से विस्तार से बातचीत की और कहा कि, "योजना दिखने में बेहद शानदार लगती है लेकिन इसका ऑपरेशनल पार्ट उतना ही जटिल और किसान विरोधी है।"

आपको बता दें, पहली बार साल 2002 में एनडीए की अटल सरकार राष्ट्रीकृत कृषि फसल बीमा लाया थी जिसका नाम भारतीय कृषि बीमा था। बाद में इसका नाम बदलकर और कुछ संशोधनों के साथ साल 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लाई गई जो पूरी तरह से निजी कंपनी के हाथ में थी। इस योजना के तहत किसान को बीमा की प्रमियम का केवल दो से ढाई फ़ीसदी ही देना पड़ता है जबकि बाक़ी राज्य और केंद्र सरकार देती है। सुनने में यह बहुत किसान हितैषी और कल्याणकारी लगता है और सरकार इसका दावा भी करती है। इस योजना को लागू करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है लेकिन इसकी पूरी निगरानी केंद्रीय कृषि मंत्रालय करता है।

जगदीश कहते है, "इस योजना के किसान हितैषी होने पर ख़ुद बीजेपी की राज्य सरकार ही सवाल खड़ा करती है। भाजपा शासित गुजरात इस योजना को अपने यहां खत्म करके अपनी एक नई योजना ला रहा है जबकि बंगाल जैसे राज्यों ने इस योजना को अपने यहां लागू ही नहीं किया है क्योंकि इनका मानना है ये किसानों के लिए फ़ायदे की योजना नहीं है।"

जगदीश कहते हैं, "इसका उद्देश्य पवित्र है लेकिन इसका व्यवहारिक पक्ष किसान विरोधी है। इस योजना के तहत किसान तीन तरीके से अपना दावा या शिकायत कर सकता है। पहला ऑनलाइन माध्यम से, दूसरा ऑफलाइन और तीसरा टेलीफोन के ज़रिए लेकिन किसान तकनीकी रूप से सक्षम नहीं इसलिए उनके लिए ईमेल या वेबसाइट से शिकायत करना संभव नहीं होता है। दूसरी परेशानी ये कि, ऑफलाइन में लिखित शिकायत करने के लिए ज़िलों में बीमा कंपनियों के ऑफिस नहीं होते हैं और दूसरा ख़राब मौसम में कार्यालयों तक पहुंचना भी मुश्किल हो जाता है।

जगदीश अपने ज़िला का उदाहरण देते हुए कहते हैं, “साल 2020 में बीमा कंपनियों को 798 करोड़ रूपये का प्रीमियम मिला था लेकिन उन्होंने केवल 13 करोड़ का क्लेम किसानों को वापस दिया था। इसका स्टॉलमेंट रेट 1.5 फ़ीसदी था जो कि पुरानी फसल बीमा से भी कम है। दूसरा ये कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के नाम पर करोड़ों रुपये निजी बीमा कंपनियों को दे दिए गए। किसान यदि लोन चाहता है, तो उसे बीमा के बिना कर्ज़ नहीं मिलता। आश्चर्य है कि उसके पास बीमा कंपनी चुनने का विकल्प नहीं है। एसबीआई तक रिलायंस इंश्योरेंस करवाने के लिए दबाव डालती है। इसमें सबसे बड़ा घपला यह है कि बीमा व्यक्तिगत होता है, लेकिन दावा बड़े क्षेत्र के आधार पर मिलता है. जिसमें छोटे-बड़े कई किसानों के खेत होते हैं। इसमें छोटे किसानों का सबकुछ बर्बाद हो जाता है, लेकिन उन्हें बीमा क्लेम बहुत ही कम मिलता है।"

उन्होंने बताया, “साल 2020 में सरकार ने हमारे राज्य (महाराष्ट्र) में कहा कि बाढ़ से किसानों को बेहद नुकसान हुआ है और उनकी भरपाई NDRF के तहत की जाएगी यानी सभी किसानों को उनकी फसल का मुआवज़ा दिया जाएगा लेकिन बीमा कंपनियों ने नहीं दिया। इसलिए कभी-कभी लगता है कि ये योजना निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए ही लागू की गई है। फसल बीमा में निजी कंपनियां हज़ारों करोड़ रूपये कमा रही हैं। अधिकतर कंपनियां आम बीमा क्षेत्र में भी हैं लेकिन वहां एलआईसी जैसी विश्वसनीय संस्था है जिसका मुकाबला करना इनके लिए आसान नहीं है और लगता है कि सरकार ने इन्हें वहां हो रहे नुकसान से बचाने के लिए इस क्षेत्र से सरकारी बीमा कंपनी को दूर रखा और निजी कंपनियों का प्रवेश इस क्षेत्र में करवाया है।”

किसानों की मांग है कि ये पूरी प्रक्रिया पारदर्शी होनी चाहिए। इस प्रक्रिया में किसानों को पता ही नहीं चलता है कि ये कंपनियां नुकसान की गणना कैसे करती हैं।

अभी महाराष्ट्र सरकार ने बड़ा ऐलान किया है कि अब किसानों की फसलों का बीमा केवल एक रूपये में होगा। इस पर जगदीश ने कहा कि, "ये सुनने में बहुत अच्छा लग रहा है लेकिन ये भी बीमा कंपनियों के हित में ही है। अब किसानों को लगेगा कि वो तो कंपनी को कुछ दे ही नहीं रहा है और जब उसे नुकसान की भरपाई नहीं मिलेगी तब वो कुछ नहीं बोलेगा। कंपनी यही तो चाहती है क्योंकि कंपनी को तो सरकार से पूरा प्रीमियम मिलेगा ही। वो कोई किसी नेता का अपना पैसा नहीं है वो भी हम किसानों का ही पैसा है।”

बता दें कि जगदीश पेशे से एक इंजीनियर हैं और आकड़ों को बेहतर ढंग से समझते हैं। वे कोरोना में हुए लॉकडाउन में अपने गांव गए और ज़मीनी हक़ीक़त व किसानों की दशा देखी। जिसके बाद उन्होंने किसानों के साथ काम करना शुरू किया। ख़ासकर उन्होंने फसल बीमा को लेकर एक गहन अध्ययन किया और आज वो अपने ज़िले में किसानों को उनका हक़ दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

वो कहते हैं, "बीमा कंपनियां इतनी शक्तिशाली हो गईं हैं कि वो सरकारों और अदालतों के आदेशों को भी नहीं मानती हैं। उस्मानावाद में फसल से हुए नुकसान के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के हक़ में फैसला दिया और कहा कि बीमा कंपनी किसानों को व्यापारिक लाभ की दृष्टि से नहीं देख सकती हैं। कोर्ट ने 72 घंटे में शिकायत करने की बात को नकारते हुए सभी किसानों को मुआवज़ा देने को कहा और 541 करोड़ का सैटलमेंट हुआ था लेकिन बीमा कंपनी ने केवल 200 करोड़ का सैटलमेंट दिया है।”

फसल बीमा ढंग से लागू नहीं होने की वजह से किसान कैसे कर्ज़ के बोझ तले दब रहा है। इस पर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय से क्रॉप लोन यानी फसल कर्ज़ पर शोध कर रहे शोधार्थी रोहिदास जाधव से हमने बात की। उनसे महाराष्ट्र किसान लॉन्ग मार्च में हमारी मुलाक़ात हुई।

उन्होंने हमसे बातचीत में कहा कि, "पहली बात सबको फसल बीमा मिलता नहीं है। यह केवल कुछ किसानों को ही मिल पाता है इसलिए फसल बर्बादी के बाद नई फसल के लिए बीज, खाद और जुताई या कहें कि घर चलाने के लिए भी कर्ज़ लेना पड़ता है। इसके अलावा उनके पास कोई विकल्प या राहत नहीं है।"

वो आगे कहते हैं, "सरकारी बैंक इन्हें लोन देते नहीं इसलिए इन्हें निजी संस्था और साहूकारों से लोन लेना पड़ता है जिसका ब्याज बेहद अधिक होता है। इसके दवाब में किसानों को आत्महत्या करना पड़ता है।मैं जहां से आता हूं, मराठवाड़ा में किसान सबसे अधिक आत्महत्या करते हैं क्योंकि उन्हें उनकी फसल का दाम नहीं मिलता है। इस तरह की कई समस्याएं हैं जिसकी वजह से किसान लगातार कर्ज़ के कुचक्र में फंसते जा रहे हैं।”

जगदीश ने हमारी बातचीत में माना कि फसल बीमा योजना, न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से भी अधिक ज़रूरी है क्योंकि एमएसपी फसल कटाई के बाद की बात है जबकि फसल बीमा योजना कटाई से पहले की प्रक्रिया है इसलिए देशभर में अब किसान फसल बीमा को किसान हितैषी बनाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

जगदीश कहते हैं, "हम किसान सभा के तौर पर देशभर में किसानों को फसल बीमा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हमने कई जगह बीमा कंपनियों के लूट का पर्दाफ़ाश कर किसानों को मुआवज़ा दिलाया है। हरियाणा, राजस्थान, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों और नेशनल लेवल पर भी हम इसके ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं और आने वाली 5 अप्रैल की संघर्ष रैली में ये मुद्दा प्रमुखता से उठाया जाएगा"

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