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पंजाब चुनावः परदे के पीछे के खेल पर चर्चा

पंजाब में जिस तरह से चुनावी लड़ाई फंसी है वह अपने-आप में कई ज़ाहिर और गुप्त समझौतों की आशंका को बलवती कर रही है। पंजाब विधानसभा चुनावों में इतने दांव चले जाएंगे, इसका अंदाजा—कॉरपोरेट मीडिया घरानों सहित राज्य के तापमान की भविष्यवाणी करने वाले राजनीतिक विश्लेषकों को भी नहीं हो पाया था।
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देश के पांच विधानसभाओं का चुनावी समर बड़े पैमाने पर इन राज्यों के मतदाताओं की अवधारणा (perception) पर कब्जा करने, विकल्प को कुछ तुरंत के फायदों (फ्री देने की होड़) को ही राज्य की कल्याणकारी भूमिका में तब्दील करने का एक नये नरेटिव को जन्म देता दिख रहा है। पांच विधानसभाओं में ख़ासतौर से उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड और गोवा में लोकतंत्र की इस परिघटना को समझने की कोशिश होनी चाहिए। इसकी कड़ी निश्चित तौर पर 2014 के आम चुनावों में भाजपा और नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में आसीन होने से जुड़ती है, जहां कुछ जुमलों ने, विकास के झुनझुने की चाश्नी में लिपटे हिंदुत्व ने लोगों की अवधारणा पर कब्जा जमाया। इसके बाद से जितने भी चुनाव हुए—चाहे वे विधान सभाओं के चुनाव हों या फिर 2019 का आम चुनाव—पैटर्न तकरीबन यही रहा है।

बुनियादी मुद्दों-समस्याओं-बड़े परिर्वतन की सत्ता में परिर्वतन के जरिये चाह को चुनाव मैनेजमेंट, बूथ मैनेजमेंट और बाद में विधायकों के मैनेजमेंट में तब्दील कर दिया गया। लोकतंत्र का पूरी तरह से माखौल उड़ाने वाले, चुनावी प्रक्रिया को नष्ट-भ्रष्ट करने वाले तमाम व्यवहारों को नये नॉर्मल के रूप में स्थापित कर दिया गया—चुनाव आयोग का होना-ना होना, सत्ता पक्ष के लिए बेमानी हो चुका है। प्रधानमंत्री प्रचार खत्म होने के बाद खुलकर इंटरव्यू देते हैं, देश भर में उसका प्रसारण होता है, पूरी बेहियाई से सांप्रदायिक भाषण मुख्यमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्री देते हैं, प्रधानमंत्री दंगों को याद रखने की दुहाई करते हैं—लेकिन कहीं कोई चूं-चपड़ तक नहीं होती। यह लोकतंत्र का नया नार्मल है।

इस फ्रेमवर्क में ये पांच विधानसभा चुनाव बेहद अहम हैं। इनसे ही बड़े पैमाने पर 2024 का (आम चुनावों) एजेंडा सेट होना है। उत्तर प्रदेश में पहले दो चरणों के चुनावों में बदलाव की आहट मिली है। बात अगर पंजाब विधानसभा के चुनावों की जाए, तो जिस तरह से यहां चुनावी लड़ाई फंसी है वह अपने-आप में कई जाहिर और गुप्त समझौतों की आशंका को बलवती कर रही है। पंजाब विधानसभा चुनावों में इतने दांव चले जाएंगे, इसका अंदाजा—कॉरपोरेट मीडिया घरानों सहित राज्य के तापमान की भविष्यवाणी करने वाले राजनीतिक विश्लेषकों को भी नहीं हो पाया था।

पंजाब के कुछ हिस्सों में सफर करने के बाद मेरा यह मानना है कि जिस तरह से तकरीबन हर सीट पर कई कोणीय टक्कर है, उसने एक हद तक मतदाताओं को भ्रम की स्थिति में डाला है। हालांकि, बड़े पैमाने पर नौजवान और कामगार तबका आम आदमी पार्टी के पक्ष में बोलता नज़र आता है। आम आदमी पार्टी के पक्ष में जो सबसे तगड़ा नरेटिव है, वह तकरीबन एक ही ढंग हर जगह सुनाई दिया, ‘पिछले 70 सालों से दो पार्टियों के बीच झूल रहे हैं, अब हम बदलाव चाहते हैं’, ‘दिल्ली में इन्होंने इतना किया है, अब पंजाब में भी करेंगे’। लोगों का एक बड़ा हिस्सा, परंपरागत राजनीतिक दलों के तौर-तरीकों से उकता गया है—अक्सर ही यह कहता मिलता है—इनसे कुछ मिलता तो है नहीं। ऐसे में आम आदमी पार्टी अपनी राह बनाती है।

लेकिन पंजाब में मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। भीतर ही भीतर, एक दलित विरोधी बैटिंग भी चल रही है। कांग्रेस के भीतर जो खेमा चन्नी को मुख्यमंत्री बनाए जाने और चुनाव उनके चेहरे के साथ लड़ने के विरोध में था और अभी भी है, वह कई स्तरों पर काम कर रहा है। लेकिन यह मुद्दा कांग्रेस का अंदरूनी मामला नहीं है। अकाली दल से लेकर आम आदमी पार्टी और भाजपा सबने इसे भीतर ही भीतर गैर-दलित समीकरणों को जोड़ने के लिए इस्तेमाल किया है। इन पार्टियों के बहुत से कार्यकर्ता यह कहते हुए मिल गए, अब ये लोग पंजाब पर राज करेंगे, तो पंजाबी प्राइड (सम्मान) का क्या होगा, यह लड़ाका कौम का प्रदेश है...आदि-इत्यादि।

हालांकि इन तमाम पार्टियों के लिए खुलकर इसे बोलना संभव नहीं हैं, क्योंकि पंजाब में करीब 35 फीसदी दलित वोटों की मौजूदगी है। दलित-विरोधी भाव के सबसे तीखे स्वर उन इलाकों में सुनने को मिले, जहां लोगों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का काम है। ऐसे ही एक समूह में मैं टकराई अमृतसर में। महिला और पुरुष—दोनों ही धीरे-धीरे अपने कांग्रेस विरोध की परतों को खोलते हुए, जाति तक पहुंचे। पहले उन्होंने कहा कि कांग्रेस का दलित कार्ड एक ढोंग है और फिर कहा, दरअसल यह पंजाब के गौरव का अपमान भी है। इन लोगों में मोदी भक्ति तो भरपूर थी, उसमें कोई रत्ती भर अंतर नहीं आया था, लेकिन सबने एक स्वर में कहा कि इस बार वे झाडू को ही वोट देंगी। महिलाएं, जो संघ से जुड़े परिवारों से थी, उन्होंने बताया, सरकार खिचड़ी बनेगी—अकाली और आप की, बाकी पीछे से मोदी जी संभाल लेंगे।

यहां मैं इस बात का जिक्र इसलिए कर रही हूं कि जमीन पर जिस तरह के समीकरण, मतदान के होने-होने तक बनाए जा रहे हैं—जिस तरह से राधा स्वामी प्रमुख के साथ मोदी तस्वीर खिंचवातें हें, तमाम तथाकथित सिख संतों-नामचीन लोगों से मिलते हैं, आपराधिक—बलात्कार-हत्या के सजायाफ्ता गुरमीत (राम-रहीम-डेरा सच्चा सौदा) को पंजाब चुनाव से पहले पेरौल पर छोड़ना—सब के सब चुनाव को प्रभावित करने के लिए भाजपा द्वारा चले गये दांव का हिस्सा है। सब कुछ करने के बावजूद—भाजपा अपने दम पर कुछ भी हासिल करने की स्थिति में नहीं, लेकिन वह इन चुनावों में पीछे से खेल रही है। और, उसका खेल बड़ा है।

इस बीच, पंजाब में दलित वोटों की चोट पड़ेगी और इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसी से कांग्रेस वापस रेस में आई है। वरना कैप्टन अमरिंदर ने पार्टी को कहीं का नहीं छोड़ा था। कांग्रेस की पंजाब सरकार चार साल से अधिक समय तक अमेरिंदर सिंह के नेतृत्व में भाजपा की बी-टीम के तौर पर ही काम करती रही। हॉकी (कैप्टन अमरिंदर का चुनाव निशान) खेल रहे अमरिंदर पंजाब से ज्यादा दूसरे जुगाड़ पानी में लगे हैं, जिसके बारे में पंजाब में चर्चा आम है।

जहां तक संयुक्त समाज मोर्चा के बैनर तले कुछ किसान जत्थेबंदियों (यूनियनों) के चुनाव लड़ने से चुनाव में असर पड़ने की बात है, तो चेहरों (चन्नी-मान-सुखबीर) पर केंद्रित हुए पंजाब के प्रचार में किसानी के मुद्दे गायब हो गये हैं। यह मोर्चा इन चुनावों में अपनी न तो वैचारिक और ना ही चुनावी उपस्थिति दर्ज करा पाने की स्थिति में पहुंचा है। इनकी तुलना में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान अपनी राजनीतिक उपस्थिति ज्यादा मजबूती से दर्ज करा पाएं हैं। वैसे किसान आंदोलन से जो ऊर्जा पैदा हुई, जो नौजवान राजनीति में सक्रिय हुए, उन्होंने कम ही समय में चुनावी रणनीति की उठा-पटक का भी स्वाद चखा।

प्रो. जगमोहन सिंह, जो भगत सिंह के भांजे हैं और लुधियाना में अपनी मां बीबी अमर कौर के नाम पर लाइब्रेरी चलाते हैं, उनका मानना है कि पंजाब की राजनीति में किसान आंदोलन बड़ा नीतिगत हस्तक्षेप कर सकता था, जिसमें वह चूक गया। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि दलितों में एक सकारात्मक दावेदारी पैदा हुई है और इसका असर दिखेगा। साथ ही, नई पार्टी के लिए हवा भी बनी है, जो बहुत वोकल है—बड़े पैमाने पर उसकी आवाज सुनी जा रही है। दिक्कत यही है कि पंजाब की मूल समस्याएं एक बार फिर नेपथ्य में  चली गई हैं।    

(भाषा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

सभी फ़ोटो कामरान यूसुफ़

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