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उत्तर प्रदेश में रागदरबारीः इटावा, उन्नाव और लखीमपुर मॉडल

आज इटावा के मॉडल में पुलिस अधिकारी पर सत्तारूढ़ दल के नेता द्वारा हमला होता है, उन्नाव के मॉडल में पत्रकार को आईएएस स्तर का अधिकारी पीटता है और लखीमपुर में महिला का चीरहरण होता है।
उत्तर प्रदेश में रागदरबारीः इटावा, उन्नाव और लखीमपुर मॉडल

बीसवीं सदी के साठ के दशक में लिखे गए श्रीलाल शुक्ल के क्लासिक `रागदरबारी’ में लोकतंत्र का उपहास उड़ाने वाले पंचायत चुनाव के तीन मॉडल बताए गए हैं। एक है रामनगर वाला चुनाव, दूसरा है महिपालपुर वाला चुनाव और तीसरा है नेवादा वाला चुनाव। आज इक्कीसवीं सदी में उत्तर प्रदेश में तीन नए मॉडल उभरे हैं। एक है इटावा वाला चुनाव, दूसरा है उन्नाव वाला चुनाव और तीसरा है लखीमपुर वाला चुनाव।

इक्कीसवीं सदी के यह मॉडल बीसवीं सदी के मॉडल के ही विस्तार हैं। आज इटावा के मॉडल में पुलिस अधिकारी पर सत्तारूढ़ दल के नेता द्वारा हमला होता है, उन्नाव के मॉडल में पत्रकार को आईएएस स्तर का अधिकारी पीटता है और लखीमपुर में महिला का चीरहरण होता है।

उत्तर प्रदेश में हाल में हुए पंचायतों और स्थानीय निकाय के चुनावों में हिंसा, जबरदस्ती और सत्ता के दुरुपयोग की जो लीला रची गई उस पर प्रदेश में तीन तरह की प्रतिक्रियाएं हैं।

एक तबका मानता है कि इस तरह की गड़बड़ी लंबे समय से होती चली आ रही है। जिस भी पार्टी की सत्ता होती है वह गड़बड़ियां करती है और जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख और अन्य पदों पर कब्जा कर लेती है। इसलिए इसमें कुछ भी नया और अनोखा नहीं है। दूसरा तबका यह मानता है कि पंचायतों और स्थानीय निकायों के चुनावों और विधानसभा चुनावों के बीच कोई रिश्ता नहीं है। यह सिलसिला 1995 से 2015 तक चला आ रहा है कि जो पंचायतों के चुनाव जबरदस्ती जीत लेता है वह विधानसभा चुनाव हार जाता है। तीसरा तबका वह है जो मानता है कि उत्तर प्रदेश के 2021 के पंचायत के यह चुनाव 2022 के चुनाव की बानगी हैं। आगे भी ऐसा ही होगा और किसी पार्टी की हिम्मत नहीं है कि वह मौजूदा सत्तारूढ़ दल और उसके नेताओं से भिड़कर सरकार बना ले।

एक ओर इस तरह के चुनाव पर प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री को बधाई दे रहे हैं तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री इसे शांतिपूर्ण बताते हुए लड्डू बांट रहे हैं। विडंबना यह है कि चुनाव परिणामों की घोषणा राज्य चुनाव आयोग की बजाय स्वयं मुख्यमंत्री कर रहे हैं। हालांकि समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए इस धांधली का विरोध किया है। उनका कहना था, `` उन्होंने तिकड़म से चुनाव में धांधली की। भाजपा ने जिस तरह की बेशर्मी की है अतीत में किसी भी सरकार ने ऐसी बेशर्मी नहीं की है। जितनी गुंडागर्दी हुई है उसकी कल्पना नहीं की जा सकती।’’

उन्होंने लखीमपुर खीरी में सपा की महिला उम्मीदवार के साथ हुई बदसलूकी का जिक्र करते हुए कहा,  `` महिलाओं ने जिस तरह का अपमान झेला है वह कल्पनातीत है। जो लोग सपना दिखा रहे थे कि वे समाज को एक अच्छे रास्ते पर ले जाएंगे उन्होंने हमारी बहनों से दुर्व्यवहार किया। ...वे लोकतंत्र को चूरा चूरा करने के बाद लड्डू खा रहे हैं। ऐसे लोग योगी नहीं हो सकते। अगर वे होते तो जनता को कष्ट न देते।’’ अखिलेश की इस टिप्पणी का भाजपा के कैबिनेट मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह यही जवाब देते हैं कि अखिलेश हार झेल नहीं पा रहे हैं इसलिए इस तरह के उलजलूल और झूठे आरोप लगा रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार और चुनाव विश्लेषक राजेंद्र द्विवेदी कहते हैं कि अखिलेश का यह प्रतिरोध बहुत कमजोर और हल्का है। जनता का जो भी तबका इस अन्याय के विरुद्ध है वह चाहता था कि समाजवादी पार्टी इस धांधली का कड़ा प्रतिरोध करे। वे कहते हैं कि चुनावी गणित और समर्थकों की संख्या के लिहाज से सपा को एक मजबूत विपक्ष के रूप दिखना चाहिए था लेकिन वह दिख नहीं रही है। 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को एक करोड़ 89 लाख वोट मिले थे जो 2012 की तुलना में 32 लाख कम थे। 2012 में सपा को 224 सीटें मिली थीं तो 2017 में 47 सीटें। अगर सपा डर कर बैठी रहेगी तो जरूरी नहीं कि जनता उसे विकल्प के रूप में अवसर ही दे।

दूसरी ओर बहुजन समाज पार्टी ने जिला पंचायत अध्यक्षों के चुनाव से अपने को हटा लिया था इसलिए उसके रवैए पर सपा और कांग्रेस दोनों ने संदेह जताया है। कांग्रेस मौखिक विरोध कर रही है लेकिन उसका न तो सपा जैसा जनाधार है और न ही बसपा जैसा इसलिए उसका कोई ज्यादा अर्थ नहीं है। यही वजह है कि कई विश्लेषक यह भी आशंका जता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश एक दल के निर्विरोध शासन की ओर जा रहा है।

लेकिन उत्तर प्रदेश में धांधली और दमन के विरोध में राजनीतिक दलों के कमजोर प्रतिरोध से भी ज्यादा चिंता का विषय है मध्यवर्ग की खामोशी। इसमें कोई दो राय नहीं आजादी के सत्तर सालों में भारतीय लोकतंत्र के पतन से वह निराश है। लोकतंत्र के मूल्यों को स्थापित करने और उसका स्तर उठाने की प्रतिज्ञा करके जो भी पार्टी सत्ता में आई उसने निराश ही किया। अगर श्रीलाल शुक्ल ने साठ के दशक में `रागदरबारी’ लिखकर उस समय के पतनशील लोकतंत्र की तस्वीर पेश की थी तो काशीनाथ सिंह 2004 में `काशी का अस्सी’ लिखकर उदारीकरण के साथ आए जातिवादी और सांप्रदायिक पतन को प्रस्तुत किया था। यह उपन्यास समाजवाद और मार्क्सवाद के आदर्शों के बेअसर होते प्रभावों और सांप्रदायिकता के बढ़ते प्रभावों को खुलकर व्यक्त करता है और साथ ही व्यक्त करता है बढ़ते भौतिकवाद को जो किसी से भी किसी तरह का समझौता करवा सकता है।  

लेकिन इस सदी के आरंभ में यह विश्वास था कि उत्तर प्रदेश में अगर समाजवादी पार्टी गड़बड़ी करेगी तो जनता बसपा को जिता देगी और बसपा गड़बड़ी करेगी तो सपा को जिता देगी। इस बीच जनता भाजपा को भी अवसर देती रहती थी। आज मध्यवर्ग के भीतर घर कर चुके बहुसंख्यकवाद के चलते वह भाजपा की हर बुराई को सहने और माफ करने को तैयार है। वह इन्हें एक तरह से पिछली बुराइयों का बदला लेने की कार्रवाई बता रहा है। उत्तर प्रदेश में विकल्प प्रस्तुत करने के लिए आज दो ही मुद्दे कारगर हो सकते हैं। एक है महंगाई और दूसरा है बेरोजगारी। किसान आंदोलन और युवाओं के असंतोष इसे ताकत दे सकते हैं।

आज भी कुछ विश्लेषक उत्तर प्रदेश को एक ओर पश्चिम बंगाल के रास्ते पर जाता देखते हैं तो कुछ लोग बिहार के रास्ते पर। एक रास्ता राष्ट्रीय विपक्ष को मजबूती और उत्तर प्रदेश को नई दिशा देने वाला है और दूसरा रास्ता पूरी ताकत से टकराने के बावजूद विफल रहने का है।

निश्चित तौर पर 22 करोड़ की आबादी का यह प्रदेश देश की राजनीति को नई दिशा दे सकता है लेकिन वह तभी हो सकता है जब उत्तर प्रदेश की अंतरात्मा जागे। वह तभी जागेगी जब प्रदेश के राजनीतिक दल और नागरिक संगठन उसे जगाने का काम करेंगे।  

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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