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लड़ाई अंधेरे से, लेकिन उजाला से वास्ता नहीं: रामराज वाली सरकार की किसानों के प्रति उदासीनता

इस रामराज में अंधियारे और उजाले के मायने बहुत साफ हैं। उजाला मतलब हुक्मरानों और रईसों के हिस्से की चीज। अंधेरा मतलब महंगे तेल, राशन-सब्जी और ईंधन के लिए बिलबिलाते आम किसान-मजदूर के हिस्से की चीज।   
Ramraj government's indifference towards farmers

विकास के वादे पर सालों से सत्ता पर काबिज सरकार अगर नोन-तेल, दाल-चीनी मुफ्त बांटकर दोबारा सत्ता में वापस लौटने की मनसूबे पाल रखी है, तो क्या कहिएगा? कहने को तो रामराज भी आ चुका है। जिसकी माया-महिमा को प्रदर्शित करने के लिए प्रदेश सरकार ने लाखों दीये जलाकर दीपोत्सव भी मना डाले। चंद मिनट में ही विश्व रिकार्ड बनाते हुए अंधियारे को हरा दिया गया।

गौरतलब है, इस रामराज में अंधियारे और उजाले के मायने बहुत साफ हैं। उजाला मतलब हुक्मरानों और रईसों के हिस्से की चीज। अंधेरा मतलब महंगे तेल, राशन सब्जी और ईंधन के लिए बिलबिलाते आम किसान-मजदूर के हिस्से की चीज। कमाल यह है कि अंधियारें की ये चीजें किसान-मजदूर के मेहनत मशक्कत से जुड़ी हैं और उन्हीं की पैदा की हुई हैं। अब उनकी पहुंच में इन्हीं चीजों को बेशकीमती बना दिया गया।

चूंकि इस रामराज को आगे बढ़ाने के लिए इस पर बहुसंख्यक किसान-मजदूरों की मुहर भी जरूरी है। सो भव्य दीपोत्सव के आलोक में उजले पक्ष के हित के लिए अंधियारे को मुफ्त रौशनी की सौगात दी गई। मतलब पेट की ख़ातिर मुफ्त दाल चीनी नमक और राशन के लिए लालायित लोग उजाले के लिए सिर्फ अंधेरे से लड़ते रहें। जिससे वह रोटी के इतर विकास के अन्य मायने को न समझ सकें और विकास के असल उजाला से महरूम रहें।

देश में खेती-किसानी के सहारे भूख के अंधियारे से लड़ रहे किसान-मजदूरों के लिए नियति का यही खेल सरकारें बरसों से खेल रही हैं। ताकि तमाम लोकलुभावन वादों और नारों के बीच खेती किसानी दम तोड़ती रहे और अंतत: यह उनके चहेते व्यापारिक घरानों की मंडी बन जाए। कृषि कानून के तीन कृषि बिल रामराज वाली सरकार के इसी उतावलेपन की बानगी है।

अक्तूबर-नवंबर का महीना खेती-किसानी के लिहाज से खासा व्यस्तता वाला होता है। एक तरफ धान की कटाई तो दूसरी तरफ रबी फसल की बुआई की तैयारी। किसानों पर रहम बरसाने वाली तमाम योजनाओं की बेरहमी इस समय जमीन पर जा कर झांकी जा सकती है। प्रदेश खासकर पूर्वांचल के जिलों में तमाम फसलों, सब्जियों को उगाने और बेचने में कैसी मशक्कत और बेबसी झेलनी पड़ती है।

पिछले बरस जहां इन जिलों में धान में हल्दिया रोग और कटाई के ऐन वक्त पर बारिश ने तबाही बरसाई। वहीं इस बार लगातार बारिश की वजह से दिवाली बाद भी फसल की कटाई मुमकिन नहीं। जमीन गीली और फसलों के गिर जाने के  वजह से कंबाइन मशीनों का खेतों में घुसना मुश्किल हो रहा है। जहां-तहां लोग हाथ से कटाई का सहारा ले रहे हैं। महराजगंज जिले के बृजमनगंज क्षेत्र की राजमती बताती हैं- 'एक एकड़ धान के कटाई-दंवाई में पांच हजार से ऊपर लागल, करेजा निकर गईल बाबू!'

राजमती ने डेढ़ एकड़ में धान की खेती की थी। एक एकड़ खुद की और आधा एकड़ बटाई पर। वह कहती हैं, "ई महंगाई में अब खेती भी कठिन हो गइल, कंबाइन से कटल होत त सब दू हजार में निपट गइल होत। एकड़ भर के कटाई में पांच मजदूर चार दिन लगलं। दू सौ के हिसाब से चार हजार उनही के देवे के पड़ल,15 सौ घंटा दंवाई लागल।"

वह कहती हैं, "गल्ला भी 14 सौ कुंतल के हिसाब बेंचे के पड़ल, मजदूरी कहां से दियात? गेंहू के लिये खाद-बीया खरीदे के बा! अबहिन सेठ से पइसा भी नाहीं मिलल, मालिक (पति) बाहर से कुछ भेजले रहलं वही से गरज सरकल, मजदूरी रोकल मुनासिब नाहीं न रहल।"

पड़ोस के ही गांव के जयकरन यादव बताते है कि उनके गांव के अधिकतर खेतों में कंबाइन चलना मुश्किल है। वह कहते हैं, "ई महंगाई अऊर कटाई के सांसत में अबकी बार धान क लागत आ पैदा एक बराबर हो जाई।"

यहां बताते चलें कि इस क्षेत्र में पिछले साल कंबाइन मशीन से कटाई की दर 16 से 18 सौ रुपये प्रति एकड़ थी। इस बार यह दर सूखे खेत में 22 से 25 सौ और गीले खेत में चार हजार तक है। वहीं पिछले साल रोटावेटर की जुताई 12 सौ प्रति एकड़ थी तो इस बरस यह जुताई 14 से 16 सौ तक हो गई।

और यह सब डीजल-पेट्रोल की महंगाई में किसानों की आय दोगुना करने के सार्थक प्रयासों में हैं। शुक्र है, इस बार पर्याप्त से अधिक बारिस हुई नहीं तो इस बार फसल की लागत में इन प्रयासों से और चार चांद लग जाता।

प्रदेश में खासकर पूर्वांचल में धान-गेंहू की एमएसपी और सरकारी क्रय केंद्रों का खेल समझिए! खरीद-बिक्री की सरकारी रेट और सहूलियतों को भले ही आंकड़ों, विज्ञापनों व सूचनाओं के जरिए जन-जन तक जनरल नॉलेज की तरह पहुंचा दिया जाता है। यहां जमीनी परीक्षा में यह ज्ञान आउट ऑफ सिलेबस हो जाता है।

महराजगंज जिले में गांव के एक किसान अध्यापक बताते हैं कि सरकारी क्रय कोटे में खरीदारी का बड़ा हिस्सा प्राइवेट राइस मिलों के माध्यम से ही होता है। धान खरीद में नमी व वजन के मानक और लोगों की तात्कालिक जरूरतों में यह संभव ही नहीं कि वह सरकारी क्रय केंद्रों तक पहुंच बना सकें। गिने-चुने और पहुंच वाले बड़ी जोत के लोग ही वहां अपना गल्ला खपा पाते हैं।

प्राइवेट राइस मिल आढ़तियों द्वारा सस्ता गल्ला खरीद पर आसानी से नमी व वजन के मानक की पूर्ति पा लेते हैं। ऐसे ही एक आढ़तिया ने बताया कि मिल 16 प्रतिशत से अधिक की नमी पर तौल में कटौती रखते हैं। एमएसपी के झोल में असल फायदा तो आढ़तियों की जेब में जाता है।

इस बार धान की एमएसपी 1940 रुपये सामान्य कैटेगरी (मोटा धान) और 1960 रुपये ग्रेड ए कैटेगरी (महीन धान) है। मोटे महीन के मात्र बीस रुपये के फर्क में यह आढ़तियों के लिए 300 से 500 रुपये का बड़ा फायदा बन जाता है। मसलन इस बार खुदरा व निजी खरीदारी- मोटा धान 900 से 1200 रुपये और महीन धान 1400 से 1500 रुपये है।

इस खेल में अंततः बढ़ावा निजी बाजार को ही मिलता है। धान-बीज की तमाम प्राइवेट कंपनियां रंग-बिरंगी प्रचार गाड़ियां लेकर गांव तक पहुंच जाती हैं। जहां चाय-समोसे का स्टॉल लगाकर ज्यादा पैदावार की लालच में महंगे हाइब्रिड सीड (मोटा धान) बेंच आती हैं।

दिमाग में एमएसपी के बीस रुपये का वह मामूली फर्क कटाई के समय जरूरत और मजबूरी में गड्मड्ड हो जाता है। और आम किसान आढ़तियों के सामने 900 से 1200 रु. में अपना झोला झार आता है।

जिले के ग्रामीण क्षेत्र में अपनी छोटी सी दुकान चला रहे रफीक भाई एकड़ भर धान की खेती किए हैं। वह बताते हैं कि अगर बाहरी आमदनी नहीं है, तो खेती की लागत जुटा पाना सबके बस की बात नहीं। वह कहते हैं, "येही छोटहन दुकानदारी से कौनो तरह से येहर-वोहर कइके खेती के खर्ची निकल जाला। येतना भर्ती लगवले के बाद अगर नफा-नुकसान जोड़ल जा त कुछू फायेदा नाहीं"

रफीक भाई खेती की लागत और ऊपज विस्तार से बताते हैं, "शुरुआती दो जुताई (1400+1400) 2800 रुपये। 15 किलो बीज 50/- की दर से 750 रुपये। 700 रुपये बीज की तैयारी। 3000 रुपये धान की रोपनी। 2000 रुपये की खाद। 2000 रुपये खर-पतवार नाशक और दोबारा खाद। 1000 रुपये निराई। 2800 रुपये (2500+300) कटाई ढुलाई। कुल मिलाकर 15050 रुपये एकड़ भर की लागत।"

इस बार लगातार बारिश की वजह से यहां सिंचाई की लागत नहीं जोड़ी गई है। लेकिन बारिश की वजह से सिर्फ कटाई-दवाई में 5000 रुपये से अधिक की लागत लगी है। इस तरह कुल लागत में 2000 और जोड़ा जाये तो यह 17050 रुपये होता है। वह बताते हैं कि नमी के मानक हिसाब से उनके खेत में कुल 18 कुंतल धान की पैदावार हुई।

18 कुंतल धान की 1960 रुपये एमएसपी रेट पर कीमत हुई 35280 रुपये। लेकिन यह एक भ्रम है। छोटे, सीमांत या लघु किसान जोकि बहुसंख्यक है की तात्कालिक और जरूरत की रेट है 1400 रुपये। यानी 18 कुंतल की असल कीमत 25 हजार दो सौ रुपये। रफीक भाई कहते हैं, "छोटहन किसान के लिये सरकारी क्रय केंद्र के बात झुट्ठई ह, ऊ कहां उहां तक पहुंच पइहें।"

अब यही तो कमाल है कि छह महीने की मेहनत मशक्कत में सात हजार की प्रॉफिट पर साल में छह हजार रुपये किसानों के खाते में डालकर उनकी आमदनी दोगुनी की जा रही है। महंगाई जो भी हो, यह तो सच्चाई है न, रफीक भाई!

जिले के ही किसान शिवचरन कहते हैं, "हम्मन के सरकारी खरीद से का लेवे-देवे के बा, जौन रहल साढ़े चउदह (1450 रुपये) के भावे झारि दिहल गइल। गोहूं बोअनी क टाइम आ गइल, सरकारी कांटा का कहीं अता-पता बा? सरकार के मंशा
ठीक रहत तो कुआर (सितंबर-अक्तूबर) से तऊल (तौल) कइल जात।"

शिवचरन ने कुल ढाई एकड़ धान की खेती की थी। पूरी कटाई मजदूरों से हुई। डेढ़ एकड़ की पैदावार तत्काल ही बिक गई। पूरे परिवार की जीविका खेती है। घर खर्ची के लिए बीच-बीच में कमाई करने बाहर भी जाना पड़ता है। 75 हजार बैंक का कर्ज भी है।

राजमती हों, रफीक हों या शिवचरन एमएसपी के झोल में सभी का झोला खाली है। अधिकतर छोटे किसान इसी श्रेणी के हैं और यही बहुसंख्यक हैं। मेरे अपने गांव (ढाई हजार की आबादी करीब साढ़े पांच सौ घर) में पिछले बरस मुश्किल से तीन-चार घर एमएसपी रेट पर गल्ला (धान) बेंच पाए। आस-पास के 10-15 गांव का भी यही हाल रहा।

अगर मान लिया जाए, पूर्वांचल में इन बहुसंख्यक लघु और सीमांत किसानों का एक मोटा-मोटी आंकड़ा आठ से दस फीसदी अधिकतम है। इसी तरह बड़ी जोत का आंकड़ा एक प्रतिशत से भी बहुत कम बैठता है। मतलब जोत किसानों में 80 फीसदी से अधिक छोटे किसान हैं।

तब सवाल यही उठता है कि एमएसपी रेट पर सरकारी खरीद किसकी होती है? किसानों के हितैशी बनने और उनके दिन बहुराने के नारे-वादे के पीछे असल खेल क्या है? फिर तो यह क्यों न माना जाये कि किसानों के मेहनत-पसीने से आढ़तियों-बिचौलियों के मार्फत बड़ी राइस मिलों और व्यापारिक घराने के लिये जमीन हरी-भरी की जा रही है़।

बात सिर्फ एमएसपी के झोल से ही पूरी नहीं हो जाती। किसानों के पूरी उत्पादन प्रक्रिया में लूट-खसोट और धन उगाही  के लिये निजी बाजार का एक बड़ा कॉकस खड़ा कर दिया गया है। खाद-बीज, खरपतवार और कीटनाशकों की कालाबाजारी व डुप्लीकेसी में पूरी लाईपूंजी लुटा देना मानो किसानों की नियति का हिस्सा हो गया है।

पूर्वांचल के कई कस्बों के नेपाल बॉर्डर क्षेत्रों में ऐन मौके पर डीएपी और यूरिया की किल्लत आम है। गेहूं की बुआई अभी शुरू ही होने वाली है कि कई जिलों में 1250 की डीएपी 1350 से 1500 रुपये में बिकनी शुरू हो गई है।

महराजगंज जिले के बृजमनगंज क्षेत्र में  सब्जी की खेती करने वाले किसान मुनीर बताते हैं कि पिछले साल इसी सीजन में उनके गांव में करीब दो दर्जन किसानों को 50 हजार रुपये कीमत के खराब बीज मिलने की वजह से लोग प्याज की खेती नहीं कर सके। बताते चलें कि प्याज का बेहन तैयार होने में महीने भर से ऊपर का समय लगता है। महीना भर इंतजार के बाद बेहन अगर नहीं आया, तो दोबारा उसे तैयार करने का समय ही नहीं बचता।

इसी क्षेत्र के एक दूसरे किसान सोमन बताते हैं, "हरी मिर्च, बैगन, टमाटर में कीटनाशक और धान-गेहूं में खरपतवार की दवा खरीदने में कई ब्रांड की खासी महंगी दवाओं में पैसे फूंकने के बाद ही असल कारगर दवा मिल पाती है।" वह आगे कहते हैं कि कई बार दवाओं के असर के इंतजार में ही सब्जी और फसल चौपट हो जाती है।

बावजूद इसके आम किसान 'गेहूं गिरे अभागा के, धान गिरे सुभागा के' या फिर 'रबी रब के भरोसे' जैसी कहावतों के सहारे अपनी नियति से संतुष्ट हो जाता है। और सरकारें अपनी महंगाई की चाबुक से उन्हीं की पैदा की हुई चीजों पर मुनाफा वसूल कर फ्री का झोला, राशन और अपनी बखान का पंफलेट, ब्रोशर बांटकर मगन है। 

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