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वर्तमान संदर्भ में डॉ. अंबेडकर की प्रासंगिकता

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की आज पुण्यतिथि है। 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में उनका निधन हुआ। उन्होंने हमें सफलता के तीन मंत्र दिए थे – ‘शिक्षित हो,  संगठित हो, संघर्ष करो।’ हाल ही में हमें किसान आंदोलन में संगठन और संघर्ष की शक्ति दिखी।
Ambedkar
किसानों के सिंघु मोर्चे पर लगा एक पोस्टर। फोटो : मुकुल सरल

हमारे देश में कुछ ऐसे महापुरुष और मार्गदर्शक पैदा हुए हैं जो अपने समय से आगे की सोच रखते थे। महानायक भीमराव अंबेडकर भी ऐसे ही दूरदर्शी मनीषियों में से थे। वर्तमान समय में अंबेडकर की प्रासंगिकता और बढ़ गई है। उनके विचार और भी मानीखेज हो गए हैं। उन्होंने सफलता के तीन मंत्र दिए थे – ‘शिक्षित हो,  संगठित हो, संघर्ष करो।’ हाल ही में हमें किसान आंदोलन में संगठन और संघर्ष की शक्ति दिखी। उनके एक साल का संगठित संघर्ष रंग लाया और सरकार को तीनों काले क़ानून वापस लेने पड़े। कहने का मतलब यह है कि आज किसानों को जो सफलता मिली, उसके पीछे की ताकत बाबा साहेब अंबेडकर की विचारधारा और संविधान ही है।

संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाबा साहब ने सही अर्थों में लोकतान्त्रिक मूल्यों की स्थापना संविधान के माध्यम से की। इसलिए हमारा संविधान हमारे लोकतंत्र का रक्षक है। पर आज जैसे हालात पैदा हो रहे हैं ऐसे में अंबेडकर की विचारधारा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। आज हमारी अभिव्यक्ति की आजादी पर ही हमला हो रहा है। हम एक अघोषित इमरजेंसी जैसे  दौर से गुजर रहे हैं। संवैधानिक मूल्यों का हनन हो रहा है। धर्मनिरपेक्ष देश में “हिन्दू राष्ट्र” को बढ़ावा दिया जा रहा है। लोकतांत्रित मूल्यों की बात करने वालों को देशद्रोही करार दे दिया जाता है। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। मॉबलिंचिंग की वारदातों को अंजाम दिया जा रहा है। जातिगत भेदभाव और अत्याचार की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऐसे में बाबा साहेब की मानवतावादी विचारधारा और भी जरूरी हो जाती है।

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय सामाजिक इतिहास में एक बड़े मानवतावादी चिंतक और आन्दोलनकर्मी के रूप में विख्यात हैं। देश भर में वह दलितों के मुक्तिदाता के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने दलित, वंचित एवं महिलाओं के मानवीय अधिकारों के साथ समतामूलक समाज की स्थापना के लिए संघर्ष किया। उनके व्यक्तित्व में एक अर्थशास्त्री, राजनेता, दार्शनिक, शिक्षाविद्, कानूनविद समाहित है। भारतीय संविधान के वह निर्माता हैं। संविधान के द्वारा दलित-वंचित वर्गों के हितों के संरक्षण हेतु उन्होने ऐतिहासिक कार्य किया। उन्होंने भारतीय समाज में शोषण की आधार-भूमि वर्ण-जाति-व्यवस्था को समूल नष्ट करने के लिए कठोर श्रम और संघर्ष किया।

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर लोकतान्त्रिक आन्दोलनकर्मी के रूप में जाने जाते हैं। दलितों की मुक्ति के पर्याय के रूप में देश के कोने-कोने में मौजूद हैं।  उन्होंने भारतीय समाज में दलित, वंचित एवं महिलाओं के लिए एक वैकल्पिक समाज की स्थापना का बीजारोपण किया। उनके व्यक्तित्व में एक अर्थशास्त्री, राजनेता, दार्शनिक, शिक्षाविद् , कानूनविद् है। उनमें संविधान निर्माता के साथ-साथ सक्रिय आन्दोलनकर्मी के भी गुण नजर आते हैं। उन्होंने भारतीय समाज में जड़ें जमाए शोषणकारी जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत किया।

बाबा साहेब का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के मऊ में हुआ था। इसके बाद पिताजी को नौकरी के कारण इन्हें वहां से महाराष्ट्र में जाना पड़ा। बचपन से ही बाबा साहेब ने छूआछूत का क्रूर दंश झेला था। यही कारण था कि वे जाति व्यवस्था के विरोधी हो गए। इसलिए उनका मानना था कि जाति व्यवस्था इंसानियत के लिए कलंक है। यह एक बेहतर समाज निर्माण के लिए बाधक है। यह समतामूलक समाज के निर्माण के मार्ग में सबसे बड़ी बाधक है। यह एक ऐसी चार मंजिली इमारत है जिसमें सीढ़ियां नहीं हैं। जाति व्यवस्था के बारे में उनका मानना था- आप किसी भी दिशा में मुड़ें, जाति का राक्षस रास्ता रोके खड़ा मिलेगा। उसे मारे बिना न तो आर्थिक विकास संभव है, न सामाजिक विकास और न ही मानसिक विकास। वे दलित, स्त्री एवं वंचित समुदाय के लिए शिक्षा को अनिवार्य मानते थे। इसलिए उन्होंने एक बार कहा भी था- ‘शिक्षा शेरनी का दूध है।’

ज्ञान और दलित मुक्ति का स्वप्न: बाबा साहेब अंबेडकर दलित स्त्री एवं वंचित समुदाय में ज्ञान की ज्योति जलाना चाहते थे। वे मानते थे कि शिक्षा से ज्ञान आता है, जागरूकता आती है और उसी से शोषण और छूआछूत से मुक्ति मिल सकती हैं। इसलिए उन्होंने नारा दिया- ‘शिक्षित बनो, संगठित हो, संघर्ष करो।’ बाबा साहेब ने अपने तीन गुरू माने थे-1. गौतम बुद्ध 2. कबीर 3. महात्मा ज्योतिबा फुले। इनको गुरु मानने की कसौटी भी स्पष्ट है- गौतम बुद्ध ने पहली बार दलित, वंचित और स्त्रियों के लिए शिक्षा की शुरूआत की। ब्राह्मणों के शैक्षणिक सस्थान गुरूकुल पद्धति के समानान्तर बौद्ध विहार (शिक्षण संस्थान) की नींव डाली। कबीर ने ज्ञान पर अधिक बल दिया और समाज में फैले अंधविश्वास और पाखंडो के प्रतिकार के द्वारा ब्राह्मणवाद का तीव्र विरोध किया। महात्मा ज्योतिबा फुले ने भी दलितों और महिलाओं की शिक्षा पर बल दिया और महिलाओं के लिए अलग से स्कूल खोले। बुद्ध, कबीर, फुले तीनों ने ही अपने-अपने समय में जाति-व्यवस्था की जड़ों  पर प्रहार किया। जाति-व्यवस्था के गढ़ों-मठों के खिलाफ मुहिम चलाई और ज्ञान का जवाब ज्ञान से ही देने के लिए शैक्षणिक संस्थानों को दलित वंचित महिलाओं तक उपलब्ध कराया। इसलिए बाबा साहेब ने इन्हें अपना अग्रणी माना।

गांव दलितों के शोषण के कारखानेः बाबा साहेब का मानना था कि भारत के गाँव दलितों के शोषण के कारखाने हैं। गांवों में दलितों के साथ सबसे ज्यादा भेदभाव, अन्याय और दमन होता है। इसीलिए उन्होंने दलितों को गांव से बाहर निकल कर शहरों की तरफ जाने की सलाह दी। उन्होंने देखा था कि गांव में दलित ही मरे जानवर उठाते हैं, मल-मूत्र उठाते हैं। उन्हें मन्दिरों में जाने नहीं दिया जाता, सार्वजनिक तालाबों और कुओं से पानी नहीं लेने दिया जाता। स्कूलों में मास्टर पढ़ाई के बजाय दलित बच्चों से सफाई का काम कराते हैं। जबकि शहरों में ऐसा नही होता है। शहरों में कोई भी जबरदस्ती पुश्तैनी (पारंपरिक) काम धंधों से नहीं बंधा होता। वह अन्य कार्य कर सकता है। इसलिए उन्होंने मरे जानवर उठाना, मलमूत्र ढोना इत्यादि पुश्तैनी काम धंधो को छोड़ने की बात की।

डॉ. अंबेडकर के महत्वपूर्ण कार्य: 1923 में उन्होंनें बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य था वंचित समुदाय के लिए शिक्षा और आर्थिक सुधार। इसके लिए उन्होंने वंचित समुदाय से विभिन्न संस्थानों को अपने हाथों में लेने पर जोर दिया।

उन्होंने लोगों को अपने मानवीय अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए समय-समय पर ‘मूकनायक’, ‘जनता’ और ‘बहिष्कृत भारत’ जैसे समाचार पत्रों का सम्पादन-प्रकाशन किया।

1927-28 में उन्होंने सीधे दलितों के लिए आन्दोलन के नेतृत्व की शुरूआत की, जिसे महाड़ आन्दोलन या महाड़ सत्याग्रह के नाम से जाना जाता है। महाड़ में चवदार तालाब पर दलितों को पानी लेने की मनाही थी। सरकार द्वारा एक कानून बनाकर उस तालाब से दलितों के पानी लेने के अधिकार को संरक्षित किया गया था। किन्तु कानून बनाने के बावजूद उच्च जाति के लोग चावदार तालाब से दलितों को पानी नहीं लेने देते थे। बाबा साहब अंबेडकर ने उन्हें यह अधिकार दिलाया। इसी समय में बाबा साहेब ने अन्य सार्वजनिक स्थानों में दलितों के प्रवेश के लिए भी लड़ाई लड़ी।

उन्होंने आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज का रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया भी उन्हीं के विचारों पर आधारित है।

महिलाओं के विकास पर बलः बाबा साहेब ने महिलाओं के विकास पर विशेष जोर दिया। उन्होंने कहा कि यदि किसी समाज की प्रगति देखनी हो तो यह देखो की उस समाज की महिलाओं ने कितनी प्रगति की है। वे समाज के विकास का पैमाना महिलाओं के विकास को मानते थे। उनका मानना था कि यदि एक पुरुष शिक्षित होता है तो सिर्फ एक व्यक्ति शिक्षित होता है किन्तु यदि एक महिला शिक्षित होती है तो पूरा परिवार शिक्षित होता है। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए हिंदू कोड बिल को संसद में पास कराने का प्रयास किया। इस प्रकार हम देखते हैं कि उन्होंने उस समय महिला सशक्तिकरण की आवाज उठाई, जब महिलाओं के अधिकारों की बात करने वाला कोई नहीं था।

इसी प्रकार उन्होंने दलितों के उद्धार की ही नहीं बल्कि दलितों की आजादी, समानता, न्याय और सम्मान के अधिकारों की बात की। यही वजह है कि आज भी दलितों के आत्मसम्मान का संघर्ष सीधे उनसे प्रेरणा पाता है। संक्षेप में कहा जाए तो बाबा साहब अंबेडकर ही हैं जिन्होंने भारत के सबसे ज्यादा दमित और अन्याय सहने वाले दलित एवं स्त्री समुदाय के सम्मान की रक्षा की और उसके लिए आजीवन संघर्ष किया। आन्दोलन किए। इसलिए वे दुनिया में इस सदी के महानायक के रूप में जाने जाते हैं।

आज चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल साम, दाम, दंड, भेद सब अपनाते हैं। और अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए साम्प्रदायिकता और जाति का कार्ड खेलते हैं। ऐसे में अंबेडकर के विचार नितांत आवश्यक हो जाते हैं। क्योंकि अंबेडकर समता, समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व को समाज में स्थापित करना चाहते हैं जो लोकतंत्र और मानवता के आधार स्तम्भ हैं। मानवीय मूल्यों की बुनियाद है। इसलिए अंबेडकर के विचार शाश्वत बने रहेंगे और उनकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी। 

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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