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विवादों को गहरा रहा है पुरस्‍कार न लौटाने का ‘संकल्प’

पुरस्कार लौटाना विरोध का ही एक रूप है। इस नाते समिति को सरकार को उन वास्तविक मुद्दों पर गौर की पुरज़ोर सिफ़ारिश करनी चाहिए जिसके विरोध में पुरस्कार लौटाए गए।
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राष्ट्रीय अकादमियों द्वारा दिए जा रहे पुरस्कारों के लिए प्राप्तकर्ता द्वारा यह संकल्प लेना कि वह इसे लौटाएगा नहीं, यह सिफारिश करने वाली संसद की परिवहन, पर्यटन और संस्कृति संबंधी संसदीय स्थायी समिति फिलहाल विवादों में घिरती जा रही है। धीरे धीरे साहित्य और कला क्षेत्र में इसे लेकर काफी विवाद गहराता जा रहा है। अगर यह सिफारिश सरकार मान लेती है तो इस बहाने अन्य क्षेत्रों के पुरस्कारों को भी सीमा में बांधा जा सकता है।

संसदीय समिति की सिफारिशें सभा पटल पर रखे जाने के बाद सरकार के पास विचार के लिए भेजी जाती हैं और कितनी सिफारिशें स्वीकार की गयीं, इसकी सूचना समिति को दी जाती है। बाद में इन सिफारिशों पर भी समिति छानबीन करती है और एटीआर में खुलासा होता है कि समिति की जिन सिफारिशों को सरकार नहीं मानती समिति उस पर भी अपनी टिप्पणियां देती हैं। तो इस नाते इस विवादास्पद सिफारिश को सरकार स्वीकार करेगी या नहीं यह भविष्य के गर्भ में है। फिर भी काफी लोगों को शंका है कि यह सिफारिश ही इस नाते करायी गयी है ताकि इसे स्वीकार किया जा सके।

संसद की विभाग संबंधी समितियों में यह काफी महत्वपूर्ण समिति है, जिसके दायरे में संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन, सड़क परिवहन, जहाजरानी और नागर विमानन जैसे अहम मंत्रालय आते हैं। 2013 के बाद दूसरा मौका है जबकि समिति ने संस्कृति मंत्रालय के तहत आने वाले स्वायत्त स्वरूप की राष्ट्रीय अकादमियों और अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं की पड़ताल करते हुए 24 जुलाई को संसद में अपनी रिपोर्ट सौंपी।

31 सदस्यीय यह संसदीय समिति राज्य सभा के तहत आती है, जिसके अध्यक्ष आंध्र प्रदेश के वाईएसआर कांग्रेस के सांसद वी.विजयसाईं रेड्डी हैं। समिति की अध्यक्षता पहले सीपीएम और फिर तृणमूल कांग्रेस के पास थी। लेकिन हाल के सालों में कई प्रमुख समितियां या तो सत्ता पक्ष के तहत आ गयी हैं, या फिर प्रत्यक्ष परोक्ष सहयोगी दलों के पास। राज्य सभा में वाईएसआर कांग्रेस की स्थिति सरकार के सहयोगी दल जैसी ही रही है। समिति में भोजपुरी कलाकार निरहुआ, मनोज तिवारी और सोनल मान सिंह ऐसे सदस्य हैं, जिनका कला की दुनिया से वास्ता है। लेकिन ये भाजपा के हैं।

समिति ने साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, सीसीआरटी, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जैसी संस्थाओं की पड़ताल की है जिन पर सरकार सालाना करीब 401 करोड़ रुपए व्यय करती है। यह भारत सरकार के कुल बजट का 0.075 फीसदी है। समिति ने इसका बजट बढ़ाने की सिफारिश करते हुए जिक्र खास तौर पर किया है कि ब्रिटेन, अमेरिका, सिंगापुर और आस्ट्रेलिया जैसे देशों में बजट का 2 से पांच फीसदी तक कला और संस्कृति पर व्यय होता है। समिति ने कई अच्छी सिफारिशें की हैं और अकादमियों को और चाक चौबंद करने को कहा है। लेकिन उसकी एक सिफारिश ने काफी बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है।

पूरी रिपोर्ट का अध्ययन करने पर लगता है कि सरकार को मुख्यतया शिकायत साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर ही है। संस्कृति मंत्रालय ने समिति को बताया कि 2015 में 39 लेखकों ने साहित्य अकादमी को अपना पुरस्कार लौटाया। अकादमी के कार्यकारी बोर्ड ने उनसे अपने फैसले पर पुनर्विचार का अनुरोध किया। समिति ने इसे आधार बनाया है तो सवाल उठता है कि 2015 की घटना को 2023 में आधार बनाने का औचित्य क्या है। फिर भी समिति ने कहा है कि पुरस्कार लौटाने से जुड़ी अनुचित घटनाएं अन्य पुरस्कार विजेताओं की उपलब्धियों को कमतर करती हैं और पुरस्कारों की समग्र प्रतिष्ठा और ख्याति पर भी असर डालती हैं। समिति ने 'ऐसे पुरस्कार विजेताओं की दोबारा नियुक्ति पर भी सवाल उठाया जो अकादमी का अपमान करके इसमें शामिल हुए।'

समिति ने साहित्य अकादमी ही नहीं सभी अकादमियों का जिक्र करते हुए कहा है कि उनके द्वारा दिए गए पुरस्कार किसी भी कलाकार के लिए सर्वोच्च सम्मान बने हुए हैं। ये अराजनीतिक संगठन हैं, लिहाजा पुरस्कार दिया जाये तो यह सहमति ली जाये कि राजनीतिक कारणों से उसे न लौटाया जाए। यह देश के लिए अपमानजनक है। समिति चाहती है कि ऐसी प्रणाली बने कि पुरस्कार विजेता की स्वीकृति के साथ संकल्प लिया जाए। साथ ही जो पुरस्कार लौटाए उस के लिए भविष्य में किसी दूसरे पुरस्कार के लिए विचार नहीं किया जाए।

इस बात का खुलासा समिति की रिपोर्ट में नहीं हुआ है कि कौन से दो सदस्यों ने इस सिफारिश का विरोध किया लेकिन रिपोर्ट में यह जिक्र है कि एक सदस्य ने इसे गलत माना और कहा कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और संविधान ने हर नागरिक को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतता के साथ किसी भी रूप में विरोध करने की आजादी भी दी है। पुरस्कार लौटाना विरोध का ही एक रूप है। इस नाते समिति को सरकार को उन वास्तविक मुद्दों पर गौर की पुरजोर सिफारिश करनी चाहिए जिसके विरोध में पुरस्कार लौटाए गए। इन बातों का एक दूसरे सदस्य ने पूरा समर्थन किया।

वास्तविकता यह है कि 2015 में प्रोफेसर एम.एम. कलबुर्गी की हत्या के बाद जब 39 अकादमी पुरस्कार विजेताओं ने पुरस्कार वापसी की थी तब सरकार के रवैये पर गहन सवाल खड़े हुए थे। वे खुद एक अकादमी पुरस्कार विजेता थे जिनकी हत्या पर साहित्य अकादमी ने शोकसभा तो दूर शोक प्रस्ताव तक नहीं किया था। सीधे तौर पर लेखक के प्रति इस अपमानजनक रवैये को लेकर तब लेखक बिरादरी की नाराजगी थी। लेखकों का कहना था कि उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला किया जा रहा है और अकादमी इस मुद्दे पर चुप है। बाद में दादरी तथा दूसरे मसलों को लेकर कई जाने माने लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाए थे। इस पर लेखकों के ही दो खेमे बन गए और कुछ ने माना कि ऐसा प्रधानमंत्री को नीचा दिखाने के लिए किया गया। खुद अरूण जेटली ने लेखकों के पुरस्कार लौटाने को कागजी विद्रोह करार दिया था। लेकिन सरकारी पक्ष से इसे ‘राजनीतिक कारण’ बताने और इसी रूप में प्रचारित करना अब तक जारी है।

जनवादी लेखक संघ ने इसका विरोध किया है और कहा कि यह एक विडंबना ही है कि समिति ने तर्कशील बुद्धिजीवियों की हत्या जैसी घटनाओं को देश के लिए अपमानजनक मानने की जगह लेखकों की प्रतिक्रिया को देश के लिए अपमानजनक माना है। सरकार का यह रवैया देश में घट रही सभी शर्मनाक और निंदास्पद घटनाओं को लेकर है। मणिपुर में महिलाओं के सार्वजनिक रूप से किए गए अपमान और बलात्कार से वह विचलित नहीं है बल्कि उस घटना की वीडियो वाइरल होने से बाद वह उसकी जांच करवा रही है कि यह किस जरिए से सोशल मीडिया तक पहुंचा। जलेस ने कहा है कि लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को संसदीय समिति के इस प्रस्ताव का पुरजोर विरोध करना चाहिए। यह शर्त एक लेखक और नागरिक के रूप में उसके लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला है।

विरोध स्वरूप पुरस्कारों को लौटाने का एक लंबा इतिहास है। केवल अकादमी या सरकारी पुरस्कार ही लौटाए नहीं गए हैं, बल्कि अंग्रेजी राज में जलियांवाला नरसंहार के विरोध में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने 'नाइटहुड' की उपाधि वायसराय को लौटा दी थी और गांधीजी ने बोअर युद्ध के दौरान मिला 'कैसर-ए-हिंद पुरस्कार' वापस कर दिया था। 1954 में आशादेवी आर्यनायकम ने पद्मश्री लौटाया, 1991 में सरदार सरोवर बांध के निर्माण के विरोध में बाबा आमटे ने पद्म विभूषण और 1971 में मिला पद्मश्री लौटाया था। इसी सरकार में कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और सांसद सुखदेव सिंह ढींढसा ने पद्म भूषण पुरस्कार लौटा दिया था। तमाम खिलाड़ियों और लेखकों ने भी ऐसा किया। कुछ समय पहले भारतीय कुश्ती संघ के पूर्व अध्यक्ष और भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह के खिलाफ देश के चोटी के पहलवानों ने हरिद्वार के गंगा नदी में अपने पदकों को विसर्जित करने का फैसला कर लिया था पर बाद में किसान नेता नरेश टिकैत के अनुरोध पर टाल दिया।

पिछले सालों में पुरस्कार वापसी की घटनाओं के बाद भाजपा के आईटी सेल ने अलग विचारों के लेखकों के लिए एक नया नाम दिया है अवार्ड वापसी गैंग। अवार्ड वापसी गैंग शब्द भाजपा आईटी सेल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी के बाद लोकप्रिय किया और इसका एक इरादा लेखक बिरादरी के प्रति घृणा अभियान बनाना भी था। हाल में बंगाल पंचायत चुनाव के दौरान हुए हिंसा को लेकर केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने एक बयान दिया कि मैं विपक्ष और अवॉर्ड वापसी गैंग से पूछता हूं कि क्या उन्हें बंगाल में लोकतंत्र की हत्या नहीं दिख रही है। ऐसे बयान लेखकों के प्रति सरकारी नजरिए का द्योतक हैं।

असली सवाल तो यह है कि आजादी के बाद देश में साहित्य कला और संस्कृति के विकास और संरक्षण के लिए बनी अकादमियां क्या अपना मकसद हासिल कर पाई हैं, इसकी गहन पड़ताल की दरकार है। पहले 2011-12 में संसद की परिवहन, पर्यटन और संस्कृति संबंधी स्थायी समिति ने इन संस्थाओं के कामकाज की पड़ताल करके सरकारी रवैये पर नाराजगी जतायी थी। समिति ने चार दशक पहले गठित पी.एन.हक्सर कमेटी की सिफारिशों का जायजा लिया और पाया था कि उसकी भावना के तहत सीमित काम हुआ। 1964 में डॉ. होमी जहंगीर भाभा और 1970 में जस्टिस जी.डी.खोसला ने भी इन संस्थाओं की पड़ताल कर कई अहम सुझाव दिए थे, जिनको सरकार ने सीमित दायरे में माना।

समिति ने कहा था कि डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन, पंडित जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद जैसे राष्ट्रनायकों ने पचास के दशक में ललित कला अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, साहित्य अकादमी की स्थापना जिन कल्पनाओं के साथ की थी वो उस पर खरी नहीं उतरी हैं। पुरस्कारों को लेकर विवाद होता रहा, जिसे सुलझाने में संस्कृति मंत्रालय असहाय स्थिति में है। समिति का कहना था कि इनके कामकाज को पारदर्शी बनाने के लिए संस्कृति मंत्रालय को कई पहल करने की जरूरत है। समिति की राय में कला और संस्कृति को सहेजना बेहद जरूरी है लेकिन यह काम नौकरशाही के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। संस्थाओं का प्रबंधन केवल कलाकारों के हाथ है और स्वायत्ता के साथ जवाबदेही भी हो।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों के जानकार हैं। विचार व्‍यक्तिगत हैं।)

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