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वापस लौट रहे प्रवासी भारत के नए जल योद्धा साबित हो सकते हैं 

पानी की भूमिका गरीबी को मिटा देने या हमेशा के लिए बरकरार रखने में बेहद अहम है.इस महामारी ने हमें एक बार फिर से इस बात का अहसास कराया है कि गाँवों को पानी में आत्मनिर्भर बनाने के लिए मजबूत उपायों की आवश्यकता है।
प्रवासी

कोरोनावायरस महामारी के दौरान आत्मनिर्भरता शब्द एक नए मूलमंत्र के तौर पर खूब सुनने को मिल रहा है, लेकिन भारत के गांवों में आत्मनिर्भरता का लेशमात्र लक्षण भी अगर देखना हो तो वह इस बात पर निर्भर करता है कि आपके पास कितना पानी उपलब्ध है, और उसकी गुणवत्ता कैसी है। पानी अपनेआप में स्वायत्तता के एक प्रमुख निर्धारकों में से एक है और इसीलिए इसे "कोरोना योद्धा" के तौर पर मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है।

यदि पानी उपलब्ध है तो इससे खेतीबाड़ी, आजीविका का साधन, खाद्य और पोषण सुरक्षा बनी रहती है। पानी गरीबी को समाप्त करने या इसे चिरस्थायी बनाये रखने में एक महत्वपूर्ण कारक साबित हो सकता है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के 2020 की ग्लोबल रिस्क रिपोर्ट के अनुसार “ताजे पानी की उपलब्ध मात्रा और गुणवत्ता में भारी गिरावट देखने को मिल रही है, जिसके चलते मानव स्वास्थ्य और आर्थिक गतिविधि पर इसका हानिकारक प्रभाव पड़ा है” और सारी दुनिया को इससे गंभीर खतरा है। यह किस्सा कोविड-19 द्वारा दुनिया को पूरी तरह से “अपाहिज” बना देने से पहले का है। महामरी के बाद से तो जिन्दा रहने के लिए पानी की भूमिका और भी अधिक महत्वपूर्ण हो चुकी है।

आज उन लाखों प्रवासियों का भविष्य अधर में लटका पड़ा है जो अपने-अपने गाँवों को इस बीच लौट चुके थे। विशेषज्ञों का अनुमान है कि इनमें से कम से कम एक तिहाई लोग ऐसे हैं जो अपनी आजीविका के लिए अब गाँव छोड़कर दोबारा शहर नहीं जाना चाहते। लॉकडाउन के दौरान अपने घर वापसी की यातनापूर्ण यात्रा से राहत पाए इन लोगों के पास आज चिंता इस बात को लेकर है कि किस प्रकार से अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए दो जून की रोटी का इंतजाम किया जा सके। सौभाग्यवश देश भर में ऐसे अनेकों उदाहरण देखने को मिल रहे हैं जिसमें ग्रामीण, खासतौर पर प्रवासी और युवाओं ने जल संरक्षण और प्रकृति के पुनुरुत्थान की दिशा में काम करना शुरू कर दिया है।

भारत के विशाल हिस्से में खेतीबाड़ी का कामकाज पानी की कमी के चलते बाधित रहता है। नतीजे के तौर पर लोगों को जब अपने आस-पास के खेतों खलिहानों में जीवन निर्वाह के लिए काम नहीं मिलता तो वे गाँवों से पलायन के लिए मजबूर हो जाते हैं। यदि जल के संसाधनों को इस स्तर पर ले आया जाए जिससे कि ग्राम स्तर की पानी की जरूरतें पूरी हो सकें तो यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बेहतर करने में बेहद असरकारक साबित हो सकता है। यदि साफ़-सफाई और पोषण लायक पानी उपलब्ध हो जाता है तो निश्चित तौर पर यह मजबूरी में पलायन के स्तर में कमी लाने में सहायक सिद्ध हो सकता है। स्थानीय जल स्रोतों की स्थिति यदि ठीक बनी रहती है तो गाँव में खेती और ग्रामीण आधारित कुटीर उद्योगों पर गाँव के भीतर बेहतर ध्यान देने का मौका मिल सकता है। ऐसे में वापस लौटकर आने वाले प्रवासियों के लिए बेहतर व्यवसाय की स्थितियां और उनकी ओर से बेहतर भविष्य की खोज के लिए संसाधन घर पर ही उपलब्ध हो सकेंगे।

पानी की पर्याप्तता को बनाये रखने के लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध उपयुक्त जल संचयन प्रणालियों और संरचनाओं जैसे कि चेक-डैम, तालाब, बांध, कुँओं को रिचार्ज करना और अन्य माध्यम को अपनाकर वर्ष जल के संचयन का काम करना है। इस जल संरक्षण को सीधे इस्तेमाल में ला सकते हैं या इसके जरिये भू जल स्तर और जलाशयों के जलस्तर की स्थिति में सुधार लाया जा सकता है। इनके विवेकपूर्ण इस्तेमाल से जैसे कि पानी की उपलब्धता के हिसाब से फसलों को बोने से लेकर जल संरक्षण के सबसे बेहतरीन औजारों और तकनीक का इस्तेमाल कर सूखे जैसी स्थिति में भी घरों का गुजारा आराम से चलाया जा सकता है। पाइपलाइन के जरिये दूरस्थ इलाके से पानी की आपूर्ति पर निर्भरता को कम से कम रखना चाहिए, क्योंकि यह तरीका बेहद नाकाफी और खर्चीला साबित होता है। यही वह समय है जब किसानों को इजाजत दी गई कि वे पानी की उपलब्धता का खुद ही अनुमान लगाकर फसल चक्र का अपने लिए निर्धारण करें, जिसमें सही औजारों और समुचित निगरानी को उपयोग में लिया गया था,

इसे खामखयाली पुलाव पकाने वाली बात न समझें। भारत के विविध ग्रामीण परिदृश्य में ऐसे अनगिनत पहलकदमियों को पहले भी लिया जा चुका है। कुछ मिसाल तो हाल ही के दिनों में देखने को मिली हैं जब कई जगहों पर प्रवासियों ने बाकी के गाँव वालों के साथ मिलकर बुआई के सीजन से पहले संरचनाओ को बनाने की तैयारी शुरू कर दी थी। इन कहानियों से पता चलता है कि सरकार और नागरिक समाज की मदद से किस प्रकार से पानी का विवेकपूर्ण इस्तेमाल किया जा सकता है। इन हालिया जल संरक्षण और प्रबन्धन के प्रयासों ने इन प्रवासियों को नए जल योद्धाओं के तौर पर साबित करने का काम किया है।

मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में नागरिक समाज संगठन परमार्थ ने हाल ही में कोरोनावायरस के चलते लगे लॉकडाउन के कारण वापस लौटे कुशल श्रमिकों को मदद पहुंचाने का काम शुरू किया है। टीकमगढ और छतरपुर जिलों में 500 से भी अधिक की संख्या में मजदूर अपने गाँवों में लौटकर आ चुके हैं और पहले से ही मौजूद तालाबों और पोखरों की मरम्मत से लेकर उन्हें गहरा करने के काम के साथ नए तालाब बनाने के काम में लगे हुए हैं। जो लोग इस जल-संरक्षण के बुनियादी ढाँचे के निर्माण में लगे हुए हैं उनका नया नारा कुछ इस प्रकार है “अब परदेश नहीं जायेंगे, खेत में फसल उगायेंगे, गाँव को खुशहाल बनायेंगे।”

1,800 की आबादी वाले छत्तरपुर के अगरोथा गाँव में सरकार की ओर से 2010 में एक तालाब का निर्माण कार्य तकरीबन 1 करोड़ रूपये की लागत से करवाया गया था, जोकि कैचमेंट बहाव के अभाव और रिसाव के चलते किसी काम का नहीं रहा। इसके दस वर्षों के बाद आज जंगलात विभाग की मदद से यहाँ के सौ से भी ज्यादा लौटकर आये हुए प्रवासियों ने इस तालाब की मरम्मत के लिए धन से सहयोग कर जैसा कि मूल रूप में योजना बनी थी, के हिसाब से मिलकर एक नहर को खोदने का काम किया है, जिसका ड्रेनेज इस तालाब में जाकर खत्म होता है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के भंवरपुर गाँव में सूख चुकी घरार नदी में एक बार फिर से पानी की जलधारा बहने लगी है। 200 से अधिक की संख्या में गाँव में वापस आये श्रमिकों ने नदी के तली में से बैठ चुकी मिटटी और गाद को साफ़ कर दिया है। परमार्थ के सचिव संजय सिंह ने सूचित किया है कि बुआई के सीजन तक इन्तजार करने के कठिन समय को काटने के लिए और इस काम को पूरा करने के लिए प्रोत्साहन के तौर पर परमार्थ ने एक धनराशि का इंतजाम कर यहाँ के निवासियों के लिए 10 किलो गेंहूँ, 5 किलो चावल, दाल और अन्य आवश्यक सामग्री का इंतजाम किया है।

महाराष्ट्र के नंदुरबार और जलगाँव जिलों के आदिवासी इलाकों में सक्रिय एक संगठन, लोक संघर्ष मोर्चा की प्रतिभा शिंदे भी कहती हैं कि इन गांवों के प्रवासियों ने भी अपने गाँवों में ही रहने का फैसला किया है। वे कहती हैं “इस साल वे इस बात को लेकर स्पष्ट हैं कि वे वापस नहीं जायेंगे।” यहाँ पर मौजूद लौट कर आये प्रवासियों के साथ-साथ एनजीओ और किसान आपस में मिलकर संरचनाओं का संरक्षण कर स्थानीय सिंचाई और जल संसाधन को पुनर्जीवित करने के उद्यम में लगे हैं। यह काम उन 42,000 प्रवासी मजदूरों के अतिरिक्त है जिन्होंने नंदुरबार के 93 गाँवों में और जलगाँव के 52 गांवों में मनरेगा में काम शुरू कर दिया है। वृक्षारोपण का कार्य 25 हेक्टेयर जमीन पर पूरा हो चुका है, जिसमें 27,000 पौधों को लगा दिया गया है। एक के बाद एक खन्दक खोदने का काम किया जा रहा है, जिससे शुष्क क्षेत्रों में जल संरक्षण किया जा सके, कुओं की खुदाई के अतिरिक्त खेतों में बंध और अन्य ढाँचे खड़े करने का कार्य भी चल रहा है।

शिंदे कहते हैं “नंदुरबार और जलगाँव के 32 गाँवों में राज्य के आदिवासी विभाग के साथ हम नंगे पहाड़ी ढालों पर बाँस की खेती का काम कर रहे हैं, जिसके लिए यहाँ के आदिवसी मनरेगा के तहत लाभ के हकदार हैं। आदिवासियों में 80% से ज्यादा महिलाएं हैं। प्रवासियों के लिए जॉब कार्ड और जल और मृदा संरक्षण और वनीकरण में उनके साथ में जुड़ाव के साथ इस बात के प्रयास किये जा रहे हैं खेतिहर मजदूरों और भूमिहीन किसानों के संकटग्रस्तता में पलायन को रोकने के प्रयास किये जा सकें।

तरुण भारत संघ के साथ हमारे खुद के अनुभव को देखते हुए, जोकि अलवर आधारित एक एनजीओ है, जिसके अध्यक्ष भारत के वाटर मैन के तौर पर मशहूर राजेन्द्र सिंह हैं, जो इस बात की तस्दीक करते हैं कि जल संसाधनों के संरक्षण और पुनर्जीवित करने का काम कितना महत्वपूर्ण है और इन सबका परोक्ष असर लोगों की आय और रोजगार पर भी पड़ता है। तकरीबन 3,000 एकड़ से उपर के इलाके में जहाँ खेती कर पाना संभव नहीं था, जोकि भरतपुर, धोलपुर और करौली जिलों के कुछ 100 गाँवों में फैला हुआ है, में प्रवासी और नौजवान आज जल संरक्षण संरचनाओं को खड़ा कर अपनी दिहाड़ी मजदूरी कमा रहे हैं। सिंह कहते हैं “ये वे जमीनें हैं, जिन्हें अभी तक अनुत्पादक समझा जाता था। यह देखते हुए कि जिन समस्याओं के कारण उन्हें पलायन करना पड़ता था आज वे हल हो रही हैं, को देखकर लोगों का जीवनयापन के लिए स्थानीय संसाधनों पर भरोसा बढ़ा है।”

नौजवानों को वृक्षारोपण के लिए नर्सरी को बढ़ावा देने के साथ-साथ, पानी बचाने के स्थानीय ज्ञान के स्रोतों और संसाधनों से भी प्रशिक्षित किया जा रहा है। यह सच है कि आर्म-निर्भरता अपनेआप से नहीं आ जाती। इसकी शुरुआत मिट्टी से होती है। यह ग्रामीणों का अपने ही गांवों में रहते हुए अपनी जरूरतों को पूरा कर पाने में सफलता मिलने से आती है। जैसा कि सिंह कहते हैं “जिस दिन गाँव आत्म-निर्भर इकाई बन जायेंगे, उसी सूरत में कह सकते हैं कि भारत एक सच्चा गणतंत्र बन चुका है।”

भारत को चाहिए कि गांवों में अधिक समृद्धि लाने के उपायों को तलाशने की कोशिश करे, खासकर अपने प्राकृतिक संसाधनों और अप्रयुक्त मानव संसाधनों को ध्यान में रखकर। मृदा और जल संरक्षण और वनीकरण के माध्यम से प्रकृति के पुनर्जीवन को साकार करने से रोजगार सृजन के द्वार ही नहीं खुलते, अपितु इसमें आत्म-निर्भरता के कहीं ऊँचे स्तर का मार्ग प्रशस्त करने की क्षमता है। आजके जैसे कठिन दौर में, आम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण निधि उनके लिए उम्मीद ही है- लेकिन उम्मीद को भी निश्चित तौर पर ठोस तर्कों, वैज्ञानिक योजना और कार्य योजना की कसौटी पर कसने की आवश्यकता पड़ती है।

लेखक तरुण भारत संघ के उपाध्यक्ष और सफाई कर्मचारी आन्दोलन के अनुसंधान निदेशक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं-

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