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ग्राउंड रिपोर्टः आख़िर कितना ‘सोना’ उगलेगी मानिकपुर की माटी?

सब्ज़ियों की खेती में रिकॉर्ड बनाने के बाद मानिकपुर कई बदलावों का गवाह बन रहा है।
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उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले के मानिकपुर गांव में स्ट्राबेरी की फसल लहलहा रही है और बनारस के बाजारों में पहुंच कर धूम मचा रही है। कलेक्टर ईशा दुहन  समेत तमाम अफसर स्ट्राबेरी के खेतों का मुआयना कर लौट चुके हैं। आपके जेहन में यह सवाल आ रहा होगा कि धान और गेहूं उगाने वाले चंदौली के सैकड़ों गांवों में से एक मानिकपुर में ऐसा क्या है जहां हर रोज अफसरों और नेताओं की गाड़ियां आकर रुकती हैं? ऐसा इसलिए क्योंकि मानिकपुर पूर्वांचल का एक ऐसा रिकार्डधारी गांव है जहां दो किसानों की जुगलजोड़ी ऐसी सब्जियों की खेती करती हैं, जिसे पूर्वांचल के लोगों ने अब तक न देखा है, न सुना है। चाहे वो सुर्ख स्ट्राबेरी हो, रंग-बिरंगे तरबूज हों, ब्लैक टमाटर हो या फिर गर्मी-बरसात में खराब न होने वाली अमेरिकन प्याज। प्रगतिशील किसान अनिल मौर्य और सुनील मेश्राम ने अपने लीज पर छह एकड़ जमीन लेकर खेतों को आधुनिक प्रयोगशाला बना दिया है। कई सालों से यह गांव लगातार चर्चा में है और ख़बरनवीसों के साथ-साथ दूसरे लोगों को आकर्षित करता रहा है।

प्रगतिशील किसान अनिल और सुनील के साथ चंदौली की कलेक्टर ईशा दुहन

धान के कटोरा के रूप में विख्यात चंदौली के मानिकपुर और उसके आसपास के इलाकों में क्या बदला है? रिकॉर्ड बनाने वाले किसान अब क्या कर रहे हैं? यह जानने के लिए ‘न्यूजक्लिक’ ने इस गांव का दौरा किया। चंदौली जिला मुख्यालय से बिहार की ओर जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग-दो पर नौबतपुर से थोड़ा पहले मोड़ से नीचे उतरने के बाद मानिकपुर की ओर जाने का रास्ता निकलता है। रंग-बिरंगी सब्जियों की खेती के लिए मशहूर अनिल मौर्य से मुलाकात हुई तो उनके साथी सुनील मेश्राम ने स्ट्राबेरी, रंग-बिरंगे ताइवानी तरबूज (लाल, पीला, हरा, नीला, सुनहरा, बैगनी), काला टमाटर, अमेरिकन प्याज, शिमला मिर्च से लकदक खेतों की ओर इशारा करते हुए कहा, "अब हमारा गांव बहुत मशहूर हो गया है। मानिकपुर की स्ट्राबेरी का हर कोई दीवाना है। हमारी स्ट्राबेरी जैसे ही बनारस पहुंचती है, लूट मच जाती है। हमारे खेतों पर सिर्फ अफसर ही नहीं, नेताओं का जमघट भी लगता है। सर्दियों में स्ट्राबेरी और गर्मियों में ताइवानी तरबूज और खरबूजा के दीवानों की लाइन लगती है।"

सब्जियों की खेती में रिकॉर्ड बनाने के बाद मानिकपुर कई बदलावों का गवाह बन रहा है। खेती की बात करें तो गांव में पहले के मुक़ाबले अधिक तादाद में किसान प्राकृतिक खेती करने लगे हैं। दरअसल, इस तकनीक को बढ़ावा दिया है प्रगतिशील किसान अनिल मौर्य ने। प्राकृतिक खेती से लागत पहले के मुक़ाबले लगभग आधा आती है और उत्पादकता दोगुनी हो जाती है। मौसम की मार झेलने के बावजूद प्रगतिशील किसान अनिल मौर्य रिकॉर्ड बनाते जा रहे हैं। वह कहते हैं, "करीब एक दशक पहले हमने नौली गांव में सब्जियों की खेती शुरू की। वहां वाटरलागिंग की समस्या पैदा हुई तो मानिकपुर में लीज जमीन ली और स्ट्राबेरी के साथ रंग-बिरंगी सब्जियां उगाने लगे। हमारे प्रयास से प्रेरित होकर कई किसानों ने खेती की प्राकृतिक पद्धति को अपनाया और सब्जियों के साथ-साथ धान-गेहूं में भी इसे आजमाया।"

अनिल मौर्य के प्रयास को देखते हुए इलाकाई किसान न सिर्फ़ धान की खेती में प्राकृतिक खेती को अपना रहे हैं बल्कि गेहूं, आलू, मटर आदि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। यह ऐसी खेती है जिसमें रासायनिक खादों व कीटनाशकों के इस्तेमाल पर रोक है। यह गाय के गोबर और मूत्र पर आधारित है। इसकी खाद गोबर, गौमूत्र, चने के बेसन, गुड़ और पानी से बनती है। अनिल चंदौली के पहले ऐसे किसान हैं जिन्होंने न सिर्फ प्राकृतिक खेती के महत्व को समझा, बल्कि उसे अपने खेतों में आजमाया भी।

अनिल की खेती को देखने के लिए पत्रकार  और सरकारी अधिकारी भी आते हैं

प्राकृतिक खेती के बल पर सब्जियों का बंपर उत्पादन करने वाले अनिल मौर्य पहले एक निजी बीमा कंपनी में काम करते थे। बाद में वह वैज्ञानिक तकनीक से खेती की ओर मुड़े। सबसे पहले उन्होंने अपने खेतों में मिट्टी की जांच कराई तो पता चला कि ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट गायब है। तब उन्होंने खुद इसे बढ़ाने का फार्मूला ईजाद किया। माइक्रोन्यूट्रेंट से लगायत डी-कंपोजर खुद बनाना सीखा और रासायनिक खादों का इस्तेमाल बंद कर दिया। माइक्रोन्यूट्रेंट बनाने में वह नीम, धतूरा, अदरक, हल्दी, घास-फूस के अलावा गोबर, गोमूत्र, गुड़ और सूखे पत्तों का इस्तेमाल करते हैं। अपने खेतों में अनिल खुद मित्र कीट पैदा करते हैं और खुद ही बनाई गई  आर्गेनिक कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं।

अनिल मौर्य कहते हैं, "ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट किसी खेत की मिट्टी को उपजाऊ बनाने में सबसे अहम भूमिका अदा करता है। जिस खेत में इसकी पर्याप्त मात्रा होती है उसमें पैदावार और उत्पाद की गुणवत्ता दोनों ही अच्छी होती हैं। प्राकृतिक तरीके से खेत में एक फीसदी ऑर्गेनिक कार्बन कंटेंट बढ़ने में 100 साल से अधिक का समय लगता है।"

"सामान्य रूप से जिस खेती की मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन कंटेट अधिक रहेगा उस खेत में पैदावार भी अच्छी होगी औऱ उपज की गुणवत्ता भी अच्छी रहेगी। साथ ही उत्पाद में पोषक तत्व भी भरपूर मात्रा में रहेंगे। आमतौर खेतों में रासायनिक खाद और कीटनाशक का इस्तेमाल करने पर मिट्टी में जैविक कार्बन कंटेंट की मात्रा घट जाती है, जिसके चलते पैदावार में कमी आ जाती है।"

अनिल मौर्य के मुताबिक, "एक देसी गाय को पालकर करीब 30 एकड़ कृषि भूमि पर प्राकृतिक खेती की जा सकती है। यह जीरो बजट प्राकृतिक खेती एक ऐसी कृषि पद्धति है जो जमीन की उर्वरता बढ़ाती है। पर्यावरण संरक्षक है। इंसान को जहरमुक्त भोजन उपलब्ध करने का भी एक यही तरीका है। स्वास्थ्य के लिए उपयोगी, किसानों की आय बढ़ाने वाली और गाय संवर्द्धक है। प्राकृतिक खेती में रासायनिक खेती की तुलना में महज 40 प्रतिशत ही पानी खर्च होता है। इसलिए रोग की संभावना घट जाती है। नेचुरल फार्मिंग से हमें सिर्फ स्ट्राबेरी के अच्छा मुनाफा हो रहा है, बल्कि उत्पादन बढ़ने से दाम भी ज्यादा मिलता है।"

खेतों को बनाया प्रयोगशाला

चंदौली का मानिकपुर एक मामूली गांव हैं जो कर्मनाशा नदी के किनारे बसा है। इस गांव के पूर्वी छोर पर नदी के पार बिहार की सीमा शुरू हो जाती है। मानिकपुर का हर किसान अनिल मौर्य और सुनील मेश्राम जैसा प्रयोगवादी नहीं है। दरअसल, अनिल ने पूर्वांचल की मिट्टी में तेजी से घटते ऑर्गेनिक कार्बन की मुश्किलों को पहचाना और अपने खेतों को आधुनिक प्रयोगशाला बना दिया। चंदौली में फर्टिलाईजर व कीटनाशक का इस्तेमाल करने वाले किसानों के खेतों में ऑर्गेनिक कार्बन का स्तर 0.2 से 0.4 से अधिक नहीं है, जबकि मानिकपुर में अनिल मौर्य के खेतों में यह स्तर 0.8 फीसदी से ज्यादा है। अनिल और सुनील की जोड़ी प्राकृतिक खेती (नेचुरल फार्मिंग) को बहुत ज्यादा अहमियत दे रही है, जिसे जीरो बजट फार्मिंग भी कहते हैं।

चंदौली कृषि विज्ञान केंद्र के विषय वस्तु विशेषज्ञ डा. हनुमान प्रसाद पांडेय कहते हैं, "स्वायल ऑर्गेनिक कार्बन में सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है। इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है। उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। कुछ साल पहले तक इंडो-गंगेटिक प्लेन में औसत आर्गेनिक कार्बन 0.5 फीसदी हुआ करता था, जो रासायनिक खादों के साइड इफेक्ट से अब घटकर 0.2 फीसदी रह गया है। आर्गेनिक कार्बन के मामले में पूर्वांचल में सबसे अच्छी जमीन चंदौली के नौगढ़ इलाके में है। इसी जिले के चकिया, चंदौली, चहनिया आदि इलाकों में आर्गेनिक कार्बन की स्थिति निम्न श्रेणी में है। जंगल और पहाड़ों के चलते नौगढ़ में आर्गेनिक कार्बन की मात्रा 0.5 तक है।"

"सिर्फ चंदौली ही नहीं, पूर्वांचल के वाराणसी, गाजीपुर, जौनपुर, मऊ, बलिया, देवरिया, गोरखपुर, भदोही, मिर्जापुर, सोनभद्र, प्रयागराज, कौशांबी तक की मांटी में आर्गेनिक कार्बन की मात्रा नहीं के बराबर रह गई है, जिसके चलते खेती-किसानी महंगी होती जा रही है। पैदावार बढ़ाने के लिए किसानों को जिंक, बोराना, सल्फर के अलावा तमाम दूसरे माइक्रो न्यूट्रेंट डालने पड़ रहे हैं। पूर्वांचल की माटी से नाइट्रोजन का दोहन बड़े पैमाने पर किए जाने के कारण न सिर्फ मिट्टी बीमार पड़ती जा रही है, बल्कि इन्वायरमेंट भी प्रदूषित हो रहा है।"

डा.पांडेय के मुताबिक, "वातावरण में मुक्त कार्बन डाई ऑक्साइड को पौधे कार्बन के जैविक रूप जैसे शर्करा, स्टार्च, सेल्यूलोज आदि कार्बोहाइड्रेट में परिवर्तित करते हैं। इस प्रकार प्राकृतिक रूप से पौधों की जड़ों व अन्य पादप अवशेषों में मौजूद कार्बन इन अवशेषों के विघटन के बाद मृदा कार्बन के रूप में संचित होता है। इसे ही मृदा जैविक या जीवांश कार्बन कहा जाता है। कार्बन पदार्थ कृषि के लिए बहुत लाभकारी है, क्योंकि यह भूमि को सामान्य बनाए रखता है। यह मिट्टी को ऊसर, बंजर, अम्लीय या क्षारीय होने से बचाता है। जमीन में इसकी मात्रा अधिक होने से मिट्टी की भौतिक एवं रासायनिक ताकत बढ़ जाती है तथा इसकी संरचना भी बेहतर हो जाती है। साथ ही जल को अवशोषित करने की क्षमता भी बढ़ जाती है।"

क्या है आर्गेनिक कार्बन

वाराणसी स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के प्रभारी एवं वरिष्ठ वैज्ञानिक डा. नरेंद्र रघुवंशी कहते हैं, "आर्गेनिक कार्बन व सल्फर मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्म तत्व होते हैं। इन्हीं से पौधों का विकास होता है। इनकी कमी से पौधे विकसित नहीं होते और रोगों से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। फसलों की पत्ती पीली पड़ने लगती है। उत्पादन क्षमता घट जाती है। किसी भी खेत की मिट्‌टी में यह फसलों के लिए बेसिक तत्व होता है। इसमें नाइट्रोजन व सल्फर होता है। आर्गेनिक कार्बन कम होने का सीधा असर नाइट्रोजन पर पड़ता है। नाइट्रोजन फसल का मुख्य पौषक तत्व होता है। इस वजह से यहां पर खेतों में घास बहुत ही कम उगती है। गर्मियों के दो महीने में आर्गेनिक कार्बन खत्म हो जाता है। यदि खेतों में घास भरपूर मात्रा में उगे तो आर्गनिक कार्बन का स्तर बढ़ सकता है। ऑर्गेनिक कार्बन में सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है। इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है। उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। कुछ साल पहले तक इंडो-गंगेटिक प्लेन में औसत आर्गेनिक कार्बन 0.5 फीसदी हुआ करता था, जो रासायनिक खादों के साइड इफेक्ट से अब घटकर 0.2 फीसदी रह गया है।"

"पूर्वांचल के किसानों को अगर आमदनी बढ़ानी है तो प्राकृतिक खेती की ओर जाना ही पड़ेगा। हमें क्वांटिटी के साथ क्वालिटी पर ध्यान देते हुए खेती करनी होगी। हरित क्रांति के जरिए हमने खाद्यान्न उत्पादन में नए आयाम स्थापित किए, लेकिन रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के इस्तेमाल से जमीन की उर्वरा शक्ति कम होती जा रही है। ऑर्गेनिक कार्बन सारे पोषक तत्वों का सोर्स होता है। इसकी कमी से पौधे का विकास रुक जाता है। उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है। ऑर्गेनिक कार्बन मिट्टी को इसकी जल-धारण क्षमता, संरचना और उर्वरता प्रदान करता है। ओएससी सामग्री में इतनी भारी गिरावट मिट्टी की उत्पादकता को प्रभावित करती है क्योंकि सूक्ष्म जीव जीवित नहीं रहते हैं, जो पौधों के लिए पोषक तत्व प्रदान करने का एक महत्वपूर्ण कारक हैं।"

डा. रघुवंशी करते हैं, "मृदा में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों में वांछित कार्बन को मृदा ऑर्गेनिक कार्बन कहते हैं। मृदा में मिलाए गए अथवा उपस्थित वानस्पतिक व जन्तु अवशेष, सूक्ष्मजीव, कीड़े, मकोड़े, अन्य जन्तुओं के मृत शरीर, गोबर की खाद, वर्मी कम्पोस्ट, हरी खाद, राख आदि मृदा कार्बनिक पदार्थ कहलाते हैं। यह मृदा कार्बनिक पदार्थ विच्छेदन व संश्लेषण प्रतिक्रियाओं द्वारा ह्यूमस बनाता है। मृदा ऑर्गेनिक कार्बन मृदा स्वास्थ्य में सुधार एवं बदलते जलवायु परिदृश्य में मृदा की उर्वरता बनाए रखता है। ताजे एवं बिना विच्छेदन के पौध अवशेष जैसे भूसा, ताजा गोबर एवं अन्य पदार्थ जो भूमि की सतह पर पड़े रहते हैं वे मृदा कार्बनिक पदार्थ की श्रेणी में नहीं आते हैं। कार्बन पदार्थ कृषि के लिए बहुत लाभकारी है, क्योंकि इससे भूमि का पीएच मान सामान्य रहता है। भूमि में इसकी अधिकता से मिट्टी की भौतिक और रासायनिक गुणवत्ता बढ़ती है। भूमि की भौतिक गुणवत्ता जैसे मृदा संरचना, जल ग्रहण शक्ति आदि ऑर्गेनिक कार्बन से बढ़ते हैं।"

"इसके अलावा पोषक तत्वों की उपलब्धता स्थानांतरण एवं रूपांतरण और सूक्ष्मजीवी पदार्थों व जीवों की वृद्धि के लिए भी ऑर्गेनिक कार्बन बहुत उपयोगी होता है। मृदा की रासायनिक दशा पर प्रभावः मृदा कार्बनिक पदार्थ पौधों के आवश्यक पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश अन्य सूक्ष्म तत्व के भंडार होते हैं जिनके अपघटन की क्रिया से आवश्यक पोषक तत्व पौधों को आसानी से उपलब्ध होते हैं। यह कई प्रकार के हार्मोंस एवं विटामिन प्रदान करते हैं जो कि पौधे की वृद्धि के लिए आवश्यक होता है। गोबर की खाद, हरी खाद आदि जैव उर्वरक जैसे एजोस्पाइरिलम, राइजोबियम, नील हरित शैवाल, फॉस्फोरस घुलनकारी सूक्ष्मजीव तथा वैस्कुलर आरबस्कुलर माइकोराइजा, फंफूद आदि वानस्पतिक आवरण भूमि में जैव कार्बन बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। इससे अधिक वानस्पतिक निवेश होता है तथा मृदा में ऑर्गेनिक कार्बन का घनत्व बढ़ता है।"

केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर किया जाए तो प्राकृतिक खेती से अब तक सिर्फ 4.09 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को ही कवर किया जा सका है। यह स्थिति तब है जब सरकार तीन वर्ष के लिए प्रति हेक्टेयर 12,200 रुपये की आर्थिक मदद दे रही है। अब वक्त सिंथेटिक उर्वरकों के बजाय जैव उर्वरकों को बढ़ावा देने का है। रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम करने ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर का इस्तेमाल बढ़ाना होगा।

कैमरे की नजर से देखें मानिकपुर की खेती-किसानी की झलक : 

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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