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मुद्दों और रणनीति को लेकर संघ-भाजपा का संकट: क्या विपक्ष उठा पाएगा फ़ायदा

संघ विचारक और शीर्ष भाजपा नेतृत्व 2024 में सामाजिक न्याय के नए ढंग से राष्ट्रीय मुद्दा बनने तथा भाषायी-आंचलिक अस्मिताओं के assertion की सम्भावना से घबराया हुआ है।
bhagwat and modi

2024 का काउंट-डाउन शुरू हो चुका है और भाजपा चुनावी मुद्दों और रणनीति को लेकर गहरे संकट और दुविधा में है।

अपने मुखपत्र ऑर्गनाइजर के संपादकीय के माध्यम से RSS अपना निचोड़ बता चुका है कि केवल हिंदुत्व और मोदी के भरोसे नैया पार होने वाली नहीं है। बेड़ा पार कैसे लगेगा, इस पर वह भी clueless लगती है। उसके पास एक ही  जादू की छड़ी ( magic wand ) है राज्यस्तर पर सुशासन और डिलीवरी की गारंटी करने वाला मजबूत नेतृत्व।

तो क्या यह मोदी मैजिक के उनके गृह-राज्य गुजरात तक सिमट जाने की पुष्टि है- जहां कमजोर स्थानीय नेतृत्व और कुशासन के बावजूद मोदी अपने दम पर भले चुनाव जिता पाये, पर कर्नाटक और किसी अन्य राज्य में अब उनके लिए यह सम्भव नहीं रहा ? विश्लेषकों की इस धारणा पर RSS ने भी ऑर्गनाइजर के सम्पादकीय के माध्यम से मुहर लगा दी है। 

RSS की यह आत्मस्वीकृति ब्रांड मोदी के फेल होने का सबसे बड़ा सबूत है, बावजूद इसके कि गोदी मीडिया और सत्ता-समर्थक बुद्धिजीवी अभी भी इसे जिलाये रखने में रात दिन एक कर रहे हैं।

अपने अर्थपूर्ण सम्पादकीय में प्रफुल्ल केतकर जब यह कहते हैं कि, ," आगामी चुनावों में क्षेत्रीय स्तर पर मजबूत नेतृत्व और प्रभावी डिलीवरी के बिना, प्रधान मंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व ही पर्याप्त नहीं होगा।", तो सम्भवतः उनके मन में योगी  का UP मॉडल होगा।

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पर योगी का मॉडल हिंदुत्व के सबसे उग्र मॉडल के अतिरिक्त और क्या है? वह कोई विकास, समृद्धि और सुशासन का मॉडल तो है नहीं। एक दौर में ऐसे ही गढ़े गए फर्जी गुजरात मॉडल को एक्सपोज़ होने में तो समय लगा, पर योगी मॉडल की तो पहचान ही बुलडोजर राज है, वह कोई उद्योग, व्यापार, कृषि आदि के पुनर्जीवन, रोजगार, शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं की उच्च गुणवत्ता के सुशासन ( good governance ) के लिए नहीं जाना जाता है।

योगी के मजबूत नेतृत्व वाला UP कोई सुशासन ( good governance ) का आदर्श मॉडल नहीं है। वहां कानून व्यवस्था का बुरा हाल है, लूट और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। तथाकथित माफ़िया विरोधी अभियान मूलतः selective basis पर मुस्लिम समुदाय के अपराधियों, सामाजिक-राजनीतिक शख्सियतों और आम मुसलमानों के ख़िलाफ़, नियम-कानून  ताक पर रखकर, कार्रवाई के माध्यम से अनवरत communal messaging और ध्रुवीकरण की रणनीति है। ठीक यही हेमंत विश्वशर्मा के कथित मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व का सच है। 

यहां प्रफुल्ल केतकर के बहाने हम संघ-भाजपा के सोच के अन्तर्विरोध और गहरे dielemma को समझ सकते हैं।

कर्नाटक में हिंदुत्व की सीमा ( limitation ) को रेखांकित करते हुए दरअसल वे हिंदुत्व के अधिक आक्रामक UP मॉडल की परोक्ष रूप से वकालत तक ही पहुंचते हैं।

हिंदुत्व के भरोसे चुनाव जीत पाने की limit का उन्होंने सही रेखांकन किया है। इसे आज कर्नाटक ने दिखाया है जो दक्षिण में साम्प्रदयिक राजनीति की सबसे बड़ी प्रयोगशाला थी, कल उत्तर प्रदेश भी इसे साबित करेगा। इस पर अब एक तरह का law of diminishing return काम करना शुरू कर चुका है। 

समाज के कमजोर, वंचित, हाशिये के तबकों के लिये जीवन के सवाल इतने भारी पड़ रहे हैं कि अब उन्हें और अधिक हिन्दू गौरव के नाम पर भुलावे में नहीं रखा जा सकता। वे अब सवाल पूछ रहे हैं कि de facto हिन्दूराज के 9 साल में आखिर हमें मिला क्या? और यहीं उन्हें विपक्ष के राहत और सामाजिक न्याय के वायदे अब आकर्षित करने लगे हैं। 

उधर, उग्र हिंदुत्व के कारण अस्तित्व का संकट झेल रहे अल्पसंख्यकों का reverse polarisation भी भाजपा के लिए मुसीबत का सबब बन रहा है। पर इससे यह उम्मीद करना कि वह हिंदुत्व की राजनीति से भाजपा retreat करेगी, अपने को गफलत में रखना होगा। क्योंकि जिस vision और नीतिगत ढांचे में वह काम करती है, उसके पास दूसरा विकल्प ही नहीं है। 

इसीलिए अनायास नहीं है कि कर्नाटक चुनावों के उक्त निष्कर्षों के बावजूद हम महाराष्ट्र से उत्तराखंड तक उग्र दंगाई अभियान का विस्तार ही देख रहे हैं।

संघ-भाजपा को जो दूसरी दुविधा परेशान कर  रही है वह है सामाजिक न्याय तथा भाषाई-आंचलिक स्वायत्ता का प्रश्न।

हिन्दू ध्रुवीकरण पर आधारित अपने बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवादी मॉडल को चुनौती मिलती देख, वह उत्पीड़ित जातियों/समुदायों और क्षेत्रीय विविधता-अस्मिता के स्वायत्त assertion को कठघरे में खड़ा कर रही है तथा उसे राष्ट्रीय एकता के लिए खतरनाक बता रही है !

जिस आरएसएस-भाजपा ने भारतीय राजनीति में जातियों की सोशल इंजीनियरिंग का जुमला ईजाद किया था और जो कर्नाटक में अंत-अंत तक आरक्षण की बंदर-बांट के माध्यम से साम्प्रदायिकता भड़काने तथा जातियों के जोड़-गणित के अभियान में लगी रही, उसे अब वहां के नतीजों के बाद इससे डर लग रहा है। केतकर कहते हैं, " कर्नाटक जैसे सूचना प्रौद्योगिकी केंद्र और विकसित क्षेत्र माने जाने वाले राज्य में जिस तरह से जाति आधारित लामबंदी का खुलेआम इस्तेमाल और चर्चा की जाती है, वह डराने  वाला है।"

दरअसल जाति जनगणना और आरक्षण के extension का मुद्दा, जिसे मंडल पार्ट 2 कहा जा रहा है, वह 2024 में विपक्ष की ओर से एक बड़े सवाल के रूप में उठने जा रहा है। कर्नाटक चुनाव में राहुल गांधी ने इसे forcefully उठाया और नतीजों से साफ है कि हाशिये के समुदायों में इसे सकारात्मक response मिला।

संघ विचारक और शीर्ष भाजपा नेतृत्व 2024 में सामाजिक न्याय के नए ढंग से राष्ट्रीय मुद्दा बनने तथा भाषायी-आंचलिक अस्मिताओं के assertion की सम्भावना से घबराया हुआ है। इससे उसका pan hindu unity पर आधारित पूरा हवा-महल ही ध्वस्त हो जाने का खतरा है !

ठीक इसी तरह लाभार्थी कार्ड पर भाजपा की दुविधा स्पष्ट है।

लाभार्थी कार्ड मोदी जी के ब्रह्मास्त्रों में से एक था जिसकी मदद से UP विधानसभा के crucial चुनाव समेत पिछले कई चुनाव जीते गए। पर कर्नाटक चुनाव के बाद वह भी अब भरोसेमंद नहीं रहा। दरअसल, विपक्ष ने अधिक कारगर ढंग से अब उसका इस्तेमाल शुरू कर दिया है। मोदी ने इस संभावना को  भाँपते हुए गुजरात चुनाव के पहले से ही विपक्ष के राहत के वायदों को target करना और कथित रेवड़ी कल्चर के नाम पर उसका मजाक बनाना शुरू कर दिया था।

कर्नाटक के बाद मोदी जी ने इस पर हमला तेज कर दिया है। विपक्ष पर ग़रीबों को गुमराह करने का आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि विपक्ष अपनी नाकामियां छिपाने के लिए अब झूठी गारंटी का नया फॉर्मूला लेकर आया है, जैसे कभी उसने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। उन्होंने कहा कि विपक्ष के चुनावी वायदों से देश दिवालिया हो जाएगा।

दरअसल, मोदी डरे हुए हैं कि विपक्ष ने कर्नाटक की तर्ज पर आगामी विधानसभा चुनावों और सबसे बढ़कर 2024 के लिए कुछ बड़े वायदे मसलन किसानों की कर्ज़ माफी, किसान पेंशन, MSP गारंटी कानून, नौकरियों-रोजगार सृजन, बेरोजगारों, महिलाओं के लिए बड़े पैकेज, गैस और पेट्रोल डीजल बिजली आदि को लेकर कुछ बड़े ऐलान कर दिए तो महंगाई-बेकारी से बदहाल जनता का रुख बदलते देर नहीं लगेगी और चुनाव की पूरी बाजी पलट जाएगी।

क्या इस मोर्चे पर विपक्ष से मुकाबले के लिए मोदी स्वयं कुछ बड़ी घोषणाएं करेंगे? सुनते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों की भारी कीमतों तथा कोविड के दौर के 5 किलो अतिरिक्त मुफ्त अनाज योजना को बंद कर आखिरी चरण की कुछ ऐसी योजनाओं के लिए पैसा जुटाया गया है।

बहरहाल, अर्थव्यवस्था का जिस तरह उन्होंने बंटाधार किया है, उनके पास इसकी कितनी क्षमता बची है, यह देखने की बात होगी। 

सवाल यह है कि एकजुट विपक्ष के जनकल्याण की चमकदार घोषणाओं के आगे मोदी जी का बासी लाभार्थी कार्ड अब कितना चल पाएगा, कहीं वह पूरी तरह बेअसर तो नहीं हो जाएगा ?

जाहिर है भाजपा मुद्दों और रणनीति को लेकर संकट और दुविधा में है। क्या विपक्ष इसका फायदा उठा पायेगा? क्या 23 जून की पटना बैठक में इस दिशा में निर्णायक पहल होगी और विपक्ष भाजपा को घेरने की कारगर रणनीति ईजाद कर पायेगा ?

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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