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कर्नाटक विधानसभा में सावरकर की तस्वीर ने भाजपा के हिंदुत्व अभियान को दी नई गति 

हिंदुत्व अभियान को बढ़ावा देने के अलावा द्विभाषी ज़िले पर महाराष्ट्र के दावे को ख़ारिज करते हुए यह पार्टी के दोहरे उद्देश्य को आगे बढ़ाने की नई कार्रवाई है।
Karnataka Assembly
फ़ोटो साभार: पीटीआई

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार ने बेलगावी में सुवर्ण विधान सौधा (राज्य विधानसभा भवन) में हिंदुत्व आइकन विनायक दामोदर सावरकर की तस्वीर  लगाने का कदम उठाया है, जिसे पार्टी के उस दोहरे उद्देश्य को पूरा करने के लिए उठाया गया है जिसमें उसने द्विभाषी जिले पर महाराष्ट्र का दावा खारिज कर दिया है और साथ ही साथ देश के राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य महान नेताओं के साथ हिंदू राष्ट्रवादी आइकन को स्थापित करने के हिंदुत्व अभियान को गति दी है।

कर्नाटक और महाराष्ट्र के बीच उन इलाकों को लेकर विवाद है, जिन्हे दोनों ही राज्य अपने होने का दावा करते हैं, हाल के सप्ताहों में हिंसा के साथ छिटपुट घटनाओं ने द्वेषपूर्ण रूप ले लिया है। जबकि तथ्य यह है कि, दोनों राज्यों में भाजपा का शासन है, संघर्ष ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया है।

संघर्ष जिसने केंद्र सरकार, विशेष रूप से केंद्रीय गृह मंत्री, अमित शाह को हस्तक्षेप करने पर मजबूर किया है, वह चुनावी और राजनीतिक अभियान का विस्तार करने के साधन के रूप में भाषाई संकीर्णता को उजागर करने वाले राजनीतिक दलों की सीमाओं का पर्दाफ़ाश करता है।

यहीं वह बात है जो सावरकर की तस्वीर/प्रतिमा भाजपा को एक उपयोगी उपकरण के रूप में कार्य करने की क्षमता रखती है, साथ ही साथ यह एक कील के रूप में भी काम करती है और दोनों राज्यों के युद्धरत लोगों के बीच संघर्ष को हल करने में सहायता करती है।

यहां सावरकर की याद का सहारा लिया जा सकता है और उसके बाद दोनों राज्यों के लोगों को एकजुट करने वाली शक्ति और बहुसंख्यकवादी विचारधारा के प्रतीक के रूप में उसे प्रस्तुत किया जा सकता है, जिसे दोनों राज्यों में बड़ी संख्या में लोग साझा करते हैं।

कर्नाटक के लोगों पर मराठी नेता की तस्वीर थोपने से दो उप-राष्ट्रीयताओं के बीच दुश्मनी कम करने में काफी मदद मिलेगी।

सावरकर के प्रति सर्वसम्मत स्वीकृति हासिल करने के लिए दोनों को इस परियोजना में शामिल किया जा सकता है और उन्हें यह बताया जा सकता है कि यह कुछ सौ वर्ग किलोमीटर भूमि पर सर फोड़ने की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक परियोजना है जो वास्तव में अपने बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक चरित्र की खासियत है।

भाजपा की समस्या का एक बड़ा हिस्सा इसमें निहित है कि पिछले कई दशकों से जब यह  टकराब पैदा हो रहा था, तो भाजपा उन वर्षों में इसे पैदा करने में सहायता कर रही थी क्योंकि तब वह महाराष्ट्र और कर्नाटक में कभी सत्ता में नहीं थी।

बेलगावी, जिसे पहले बेलगाम कहा जाता था, को शामिल करने की मांग को महाराष्ट्र में 1960 के बाद से छिटपुट समर्थन मिला था, जब दोनों राज्यों के इलाकों को फिर से परिभाषित किया गया था। उस वक़्त बेलगावी शहर सहित कई सौ गांवों को महाराष्ट्र में शामिल करने की मांग को काफी समर्थन मिला था।

1966 में, महाजन आयोग, जिसे केंद्र सरकार ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश मेहर चंद महाजन की अध्यक्षता में गठित किया था, उस वक़्त कांग्रेस दोनों राज्यों में एक प्रमुख पार्टी थी, ने कर्नाटक के पक्ष में फैसला सुनाया था।

लेकिन क्योंकि धार्मिक उग्रवाद राजनीतिक दलों के लिए अपने पक्ष में भुनाने का एक उपयोगी उपकरण है, भाजपा और शिवसेना ने इस बात को नहीं महसूस किया कि यदि भावनाओं को हवा दी तो उनके सत्ता में आने के बाद यह मुद्दा उन पर उलटा पड़ जाएगा।

समस्या का एक हिस्सा बेलगावी और कई सीमावर्ती कस्बों और बहुभाषी आबादी वाले कई गांवों से पैदा हुआ। यह बता दें कि भारत में, भाषाई राज्यों के सिद्धांत का केवल आंशिक रूप से पालन किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों के बीच भूमि विवाद होते रहे हैं, और जिन्हे लगातार रूढ़िवाद ताकतों और यहां तक ​​कि मुख्यधारा की पार्टियों द्वारा भड़काया जाता रहा है, खासकर तब-जब भी उन्हें इससे किसी विशेष राज्य में लाभ होने का आभास होता है।

विपक्षी दलों के रुख से भाजपा पर भी दबाव बढ़ जाता है। गौरतलब है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने पिछले दिनों महाराष्ट्र एकीकरण समिति के ज़रिए विरोध प्रदर्शन किया था।

महाराष्ट्र-कर्नाटक सीमा मुद्दे पर शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे ने राज्य सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि, "कर्नाटक हमारे इलाकों, गांवों को लेने की बात कर रहा है ..."।

भाजपा पर हमले तेज करते हुए उन्होंने आगे सवाल किया, ''क्या महाराष्ट्र में कोई सरकार है? जैसे गुजरात (विधानसभा) चुनाव से पहले (नवंबर-दिसंबर 2022 में), कुछ व्यवसाय वहां स्थानांतरित कर दिए गए थे, तो क्या कर्नाटक चुनाव से पहले हमारे गांव कर्नाटक को दे दिए जाएंगे?

भाजपा की कर्नाटक इकाई द्वारा सावरकर की स्मृति और विरासत को गले लगाने को कर्नाटक में राजनीतिक ताकतों से हमले को रोकने की रणनीति के रूप में देखा जाना चाहिए। यह अभियान का एक स्तर पर है, जिसका उद्देश्य उत्तर में सीमावर्ती क्षेत्रों में मराठी भाषी इलाकों में कर्नाटक की वैधता को स्थापित करना है।

यह रणनीति एक दशक से अधिक पुरानी है और कर्नाटक की हर पार्टी महाराष्ट्र के बेलागवी अभियान को रोकने में राज्य के प्रयासों में एक भूमिका निभाई है।

दूसरी ओर, कर्नाटक भाजपा का 'प्रोजेक्ट सावरकर' देश के महान लोगों के बीच सावरकर की छवि और स्थिति को सुधारने के पार्टी के राष्ट्रव्यापी अभियान को आगे बढ़ाता है। इसके अलावा, कर्नाटक में भाजपा के व्यवस्थित अभियान से राज्य में उनके सार्वभौमिक अनुसरण के साथ महाराष्ट्र में लोगों के महत्वपूर्ण वर्गों का इस मौन समर्थन हासिल हो जाएगा। 

सावरकर की विरासत के प्रति अपनाए जाने वाले रुख के संबंध में भाजपा ने विपक्षी दलों, विशेषकर कांग्रेस में निरंतरता की कमी का फायदा उठाया है। समस्या का एक बड़ा हिस्सा सावरकर पर बहस को दूसरे स्तर पर न ले जाने से उपजा है, जो कि मराठी विचारक 'वीर'  देशभक्त थे या नहीं, और क्या उन्होंने कभी औपनिवेशिक सरकार को माफीनामे की याचिकाएँ लिखी थी या नहीं।

जैसा कि राहुल गांधी ने सावरकर की विरासत पर हाल ही में हमला तब किया – तब भारत जोड़ो यात्रा महाराष्ट्र से गुजर रही थी - वैचारिक विरोधियों ने उनकी सार्वजनिक और निजी गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया है, न कि उन पर जिन के ज़रिए सावरकर ने अपने लेखन और भाषणों के माध्यम से क्या उपदेश दिया है।

उन्होंने सावरकर को दोषी ठहराने से पहले उनकी भूमिका और बाद में मुख्य भूमि से अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की सेलुलर जेल में निर्वासन की भूमिका के बारे में संघ परिवार की रणनीति के विरोधाभास को उजागर नहीं किया, जिसके ज़रिए उन्होने हिंदुत्व के विचार का  संहिताकरण किया और उन्हे एक राजनीतिक गुरु माना गया। उनका 1923 का प्रेरणादायक टेक्स्ट/लेखन, जिसमें हिंदुत्व की अनिवार्यता को दर्शया गया है, और जिसने केबी हेडगेवार को बहु-सरों वाली हिंदू राष्ट्रवादी बिरादरी की नींव रखने के लिए प्रेरित किया था।

समस्या का एक हिस्सा यह है कि हाल के दशकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)-भाजपा के विरोधियों ने सावरकर का विरोध न केवल स्पष्ट रूप से नहीं किया, बल्कि लगता ऐसा है कि जैसे सावरकर की विरासत की आलोचना करने पर उन्हे 'अपराध बोध' हो रहा है। 

बेलगावी में भव्य सुवर्ण विधान सौधा दस साल पुरानी है। नवंबर 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इसका उद्घाटन किया था। कर्नाटक में लगभग हर पार्टी ने इस परियोजना का समर्थन किया था, जिसकी कई लोगों ने यहां केवल एक सत्र लगाने की आलोचना की थी और कई लोगों ने पूछा कि क्या इतनी बड़ी राशि केवल सरकार ने महाराष्ट्र के दावे को बेअसर करने के इरादे से ख़र्च की थी। 

महात्मा गांधी की हत्या की साजिश के आरोप में गिरफ्तार किए जाने के बाद उनके बरी होने के बावजूद, सावरकर फरवरी 1966 में अपनी मृत्यु तक अपमान के साये में जिए। गांधी हत्या मामले में अन्य दोषियों की रिहाई के बाद उए हंगामे के बाद सरकार ने 1964 में एक न्यायिक आयोग नियुक्त किया था।

भारत के बाद में बने उपराष्ट्रपति, गोपाल स्वरूप पाठक की अध्यक्षता में, आयोग का नेतृत्व न्यायमूर्ति जीवनलाल कपूर ने किया, जिन्होंने 1969 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, "तथ्यों (आयोग द्वारा पता लगाए या पाए गए) के आधार पर, कि किसी भी उस सिद्धांत के प्रति विनाशकारी थे जिसमें सावरकर और उनके समूह द्वारा हत्या की साजिश बताया गया।"

इसके बावजूद सावरकर को राजनीतिक रूप से अपमानित नहीं किया गया और न ही कांग्रेस पार्टी ने उनकी हिंसक और विभाजनकारी राजनीति को उजागर करने का कोई अभियान शुरू किया। इसके बजाय, उनके पुनरुत्थान की प्रक्रिया 1970 में तब शुरू हुई जब इंदिरा गांधी ने सावरकर को उनकी जयंती के अवसर पर याद किया। स्टाम्प के ब्रोशर में 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर पुस्तक के लेखक को "वीर सावरकर" के रूप में संदर्भित किया गया था और "अस्पृश्यता को हटाने" के संदर्भ में महासभा के साथ उनके सहयोग का उल्लेख किया था।

1983 में, जनवरी 1980 में सत्ता में लौटने के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधान मंत्री थीं, तो फिल्म डिवीजन ने सावरकर के जीवन पर एक वृत्तचित्र फिल्म बनाई थी। जाने-माने फिल्म निर्देशक प्रेम वैद्य ने इसे निर्देशित किया, विभाग की वेबसाइट पर फिल्म के विवरण में कहा गया है कि सावरकर "भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिनका जन्म 28 मई, 1883 कोमहाराष्ट्र में नासिक के भागुर गांव में हुआ था। इसने विवादों की उनकी सारी विरासतों को हटा दिया। 

नतीजतन, जब फरवरी 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी ने सावरकर की तस्वीर लगाई, तो इसे लंबे समय से विलंबित सम्मान के रूप में देखा गया और तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने कांग्रेस और अन्य सभी विपक्षी दिग्गजों के उद्घाटन समारोह के बहिष्कार को गुस्सैल व्यवहार की मिसाल का नाम दिया।  

लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन ने सावरकर को भारत रत्न देने के सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। अब बस कुछ ही समय की बात है जब हिंदुत्व आइकन को यह सम्मान दिया जाएगा।

संसद में चित्र की स्थापना के दो महीने बाद, महाराष्ट्र राज्य विधानसभा में भी सावरकर के चित्र का अनावरण किया गया था। हालाँकि इस समय तक सावरकर के बारे में कई भूले-बिसरे तथ्य सार्वजनिक हो गए थे, लेकिन सरकार ने इस मूहीम को बेशर्मी से चलाया और सावरकर को गांधी और अन्य लोगों के साथ राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में ऊंचा दिखाने की प्रक्रिया को नहीं रोका।

इस समय तक, फरवरी 1948 में जवाहरलाल नेहरू को सरदार पटेल का पत्र भी प्रचारित हो चुका था। इसमें उन्होंने लिखा था कि "यह सीधे सावरकर के तहत हिंदू महासभा का कट्टर विंग था जिसने (साजिश रची) और इसे पूरा किया था।" (सरदार पटेल के पत्राचार का खंड 6, पृष्ठ 56)।

सावरकर को लोकप्रिय बनाने और राज्य के लोगों के साथ उसे मिलाने के लिए भाजपा की  कर्नाटक इकाई ने अपने अभियान में बताने की कोशिश की है कि हिंदुत्व संहिता बनाने वाले  को लोगों द्वारा गले लगाया जाना चाहिए, और पार्टी और राज्य सरकार ने इस बाबत इस साल अगस्त में यह कार्यक्रम शुरू किया था।

इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस समारोह के दौरान शिमोगा और कुछ अन्य स्थानों पर विनायक दामोदर सावरकर और टीपू सुल्तान के पोस्टरों को लेकर राज्य में कई स्थानों पर भाजपा और कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच झड़पें हुईं हैं।

भाजपा कार्यकर्ताओं ने सावरकर के "स्वतंत्रता सेनानी के रूप में योगदान" के बारे में "जागरूकता बढ़ाने" के लिए एक निरंतर अभियान चलाया ही। सावरकर के कुछ चित्र जबरन कांग्रेस कार्यालयों के अंदर भी लगाए गए हैं।

महात्मा गांधी, सरदार पटेल, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, स्वामी विवेकानंद, बीआर अंबेडकर और बसवेश्वर के साथ-साथ सावरकर के चित्र लगाए गई लेकिन भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को जगह नहीं दी गई, यह कदम राज्य सरकार और कर्नाटक राज्य विधानसभा के अध्यक्ष कावह नया कदम है, या उसी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसे पिछले कई दशकों से आरएसएस-बीजेपी द्वारा अपनाया जा रहा है।

बस कुछ ही समय की बात है कि भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं की पहल पर महाराष्ट्र और कर्नाटक के बीच टकराव का समाधान हो जाएगा। इसके बाद मुख्य जोर सावरकर को उस स्थिति तक पहुंचाने की योजना पर होगा जो वर्तमान में उनकी विरासत से कहीं अधिक है।

(लेखक एनसीआर स्थित लेखक और पत्रकार हैं। विचार उनके निजी हैं। उनसे @NilanjanUdwin पर संपर्क किया जा सकता है) 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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