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GM सरसों से जुड़े कुछ अहम सवाल

क्या वाकई खेती-किसानी के भले के बारे में सोचा जा रहा है या जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड के हवाले से भारत को GM कंपनियों के फायदे के गढ़ के तौर पर बनाने की कोशिश की जा रही है?
Genetically Modified mustard
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : पीटीआई

ज़रा सोचिये कि हमारे थाली तक अनाज कैसे पहुँचता है? उपजाऊ मिट्टी पर खेती की जाती है, जो फसल चाहिए होती है उसका बीज रोपा जाता है। फसल लगती है। मिट्टी की जरूरी मात्रा में उर्वरता बढ़ाने के लिए उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है। फसलों के साथ-साथ खर पतवार भी बढ़ते हैं। इससे बचने के लिए खरपतवार नाशक का इस्तेमाल किया जाता है।  फसलों को मौसम की मार भी झेलनी होती है। अगर ढंग का मौसम नहीं हुआ तो फसल मर जाती है।  ज्यादा गर्मी और ठंड पड़ी तो फसल की जान चली जाती है।  इसके साथ कीट पतंगों के मार से भी बचना होता है। इसलिए कीटनाशक का छिड़काव करना पड़ता है।  इस तरह सोचते चले जाइये तो आपको समझ में आएगा कई तरह की रुकावटों का प्रबंधन करने के बाद एक किसान की फसल खड़ी होती है। किसान फसल काटता है। फसल की पैदावार भी पूरी तरह से गुणवत्ता वाली नहीं होती है। कुछ साइज में छोटे होते हैं, कुछ बड़े होते हैं। उपज में पोषक तत्वों की कमी भी होती है।

मान लीजिये कि फसल लगाने के लिए ऐसा बीज रोपा जाए जिससे यह सारी परेशनियां कम से कम हो जाए। पहले के मुकाबले ज्यादा पैदावार हो। अच्छे पोषक तत्व वाली पैदावार मिले। कम से कम उर्वरक का इस्तेमाल करना पड़े। फसल बदलते मौसम के साथ ठीक-ठाक संतुलन बना ले। कीटनाशकों और खरपतवारों का कम से कम इस्तेमाल करना पड़ा। यकीनन यह किसानों के लिए और आनाज के पैदावार के लिए अच्छी बात होगी।

वैज्ञानिकों का लंबे समय से दावा है कि फसलों के बीज में जेनेटिक मोडिफिकेशन कर उन सब रुकावटों से पार पाया जा सकता है जिसका जिक्र यहां किया गया है। साल 2002 -03 से बीज में जेनेटिक मोडिफिकेशन का इस्तेमाल कर भारत में B.T कॉटन की खेती होते आ रही है। बीटी मोडिफिकेशन का मतलब यह है कि मिटटी में पाए जाने वाले बैसिलस थुरूनजेसिस बैक्ट्रिया के जीन के जरिए कॉटन के बीज में ऐसा बदलाव करना कि वह बॉलवर्म के कीटों से होने वाले फसलों पर होने वाले हमले को सहन कर सके। 

इसके बाद अब इसी साल 18 अक्टूबर को पर्यावरण मंत्रालय की तरफ से जेनेटिक पौधों का रेगुलेश करने वाली संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमिटी ने जेनेटिक मोडिफिकेशन कर सरसों के फसल की कमर्सिअल कल्टीवेशन की इजाजत दी है। साल 2017 में भी इस संस्था ने जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड यानि सरसों के कमर्सियल इस्तेमाल की इजाजत दे दी थी। मगर पर्यावरण मंत्रालय की तरफ से उठाये गए कुछ गंभीर सवालों की वजह से कमर्सियल कल्टीवेशन को रोक दिया गया। फिर से जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमिटी ने जेनेटिक मोडिफिकेशन कर सरसों के फसल की कमर्सिअल कल्टीवेशन की इजाजत दी है। अब देखने वाली बात यह होगी कि पर्यारण मंत्रालय मंजूरी देती है या नहीं ?

मामला सुप्रीम कोर्ट में भी पहुंच गया है। जेनेटिक मॉडिफाइड फसलों को पर्यवरण के लिए खतरा मानने वाले कार्यकर्त्ता अरुण रोटरिगेज ने सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर याचिका डाली। इस याचिका की वकालत करने के लिए वकील प्रशांत भूषण पेश हुए।  प्रशांत भूषण ने कहा कि जेनटिक मॉडिफाइड क्रॉप्स की जाँच परख के लिए जो कमिटी बनी है, उसका कहना है कि खरपतवार नाशक बीज से पैदा हुए फसल से  सेहत पर गंभीर असर पड़ सकता है। इससे कैंसर होने की भी संभावना पैदा होती है। भारत में यह बीज इस्तेमाल होने लायक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने अंतरिम आदेश देते हुए पर्यावरण मंत्रालय से कहा है कि जब तक वह इसकी जांच परख नहीं कर लेता तब तक इसकी मंजूरी न दी जाए।

अब थोड़ा बात को सिलसिलेवार तरीके से समझते हैं। जेनेटिक मॉडिफाइड करने का मतलब ही होता है कि किसी जीवन के जीवन में इस तरह से बदलाव कर दिया जाए ताकि हम जो जीवन से चाहते हैं वह हासिल हो जाए। बड़े पैमाने पर इंसुलिन और वैक्सीन बनाने के लिए इसका इस्तेमाल वैज्ञानिक करते आए हैं।

फसलों के मामले में बीजों के जीन में परिवर्तन किया जाता है। बीजों के जीन में परिवर्तन के लिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला में बीजों के जीन में दूसरे जीवन से लिया गया ऐसा जीन डालते हैं ताकि बीजों के डीएनए में वह परिवर्तन हो जाए जिससे वह उस तरह से काम करने लगे जिसकी चाहत होती है। जैसे बीज से खड़ी हो रही फसल खरपतवार नाशक हो, कम उर्वरक में बेहतर पैदावार करने में संभव हो, सूखा सहन कर सकती हो आदि।

साल 2003 में कॉटन की पैदावार के लिए जीन मॉडिफिकेशन कर जिस बीटी कॉटन का इस्तेमाल किया जाने लगा, उसका साल 2014 तक का हाल यह है कि भारत की 96% कॉटन की खेती बीटी कॉटन के जरिए होती है। क्षेत्रफल के हिसाब से भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा बीटी कॉटन की खेती करने वाला देश है और उत्पादन के लिहाज से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है।

कृषि मामलों के जाने-माने जानकार देवेंद्र शर्मा अपने ब्लॉग ग्राउंड रियलिटी पर लिखते हैं कि बीटी कॉटन की सफलता का जैसा बखान कॉरपोरेट मीडिया करता है उसकी हकीकत ठीक वैसी नहीं है. विश्व की जानी-मानी विज्ञान की पत्रिका नेचर का मानना है कि 2000 के दशक में भारत में बीटी कॉटन की खेती की शुरुआत हुई। इसके जरिए बीटी कॉटन की खेती किसानी से जुड़े पक्ष पर किसी भी तरह का सकारात्मक असर नहीं पड़ा है। पैदावार में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। बल्कि इसकी खेती पहले से ज्यादा महंगी हुई है। उर्वरक और कीटनाशकों पहले से ज्यादा खर्च बढ़ा है। इसलिए जेनेटिक मॉडिफाइड क्रॉप्स से जुड़े जितने भी बखान हो रहे हैं उन्हें बड़े ध्यान से जांचने परखने की जरूरत है।

जेनेटिक इंजीनियर अप्रेजल कमिटी का काम केवल इतना नहीं होता है कि वह बीज को कमर्शियल कल्टीवेशन करने के लिए इजाजत दे दे। बल्कि उसका इस संस्था का काम यह भी है कि वह देखें कि इन बीजों का खेती किसानी पर क्या असर पड़ रहा है? जैव विविधता पर क्या असर पड़ रहा है? प्रकृति पर क्या असर पड़ रहा है? मानव शरीर पर क्या असर पड़ रहा है?

जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड बीजों पर हो रहे विरोध को अगर संक्षिप्त में पेश किया जाए तो बात यह है कि विरोध करने वालों का मानना है कि जेनेटिक मॉडिफाइड सरसों के बीजों को कमर्शियल कल्टीवेशन की अनुमति मिल जाने के बाद भारत में जेनेटिक मॉडिफाइड फसलों अनाजों और खादों की बाढ़ आने का दरवाजा खुल जाएगा। विज्ञान और तकनीकी का समागम करके  मानव जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश होनी चाहिए मगर इसका मतलब यह नहीं कि विज्ञान और तकनीकी के समागम का तर्क देकर मानव जीवन को नुकसान पहुंचाने वाले परिवर्तनों को अपना लिया जाए। यूरोपियन यूनियन,  फ्रांस और रूस जैसे देशों ने जेनेटिक मॉडिफाइड फसलों पर कड़ा प्रतिबंध लगा रखा है। लेकिन हम इसे अपनाने जा रहे हैं। यह क्यों?

जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड के नाम पर सरसों के DMH 11 की वैरायटी को मंजूरी दी गई है। GEAC के जरिए इसे ही कमर्शियल कल्टीवेशन के लिए इजाजत मिली है।  कमेटी के वैज्ञानिकों का दावा है कि इसके जरिए सरसों के तेल के पैदावार में 30% का इजाफा होगा। जब 30% का इजाफा होगा तो इंपोर्ट बिल में तकरीबन 76 हजार करोड रुपए की कमी आएगी। अखबारों के एडिटोरियल और कॉलम में यही लिखा जा रहा है। मगर विरोध करने वाले कार्यकर्ताओं और कृषि मामलों के जानकारों का कहना है कि DMH 11 के सरसों के बीज की वैरायटी की तुलना सरसों के बीज की वैरायटी से की गई है उस की उत्पादन क्षमता पहले ही कम है। आसान शब्दों में समझिए तो यह कि पैदावार में 30% की बढ़ोतरी दिखाने के लिए जिस से तुलना की गई उसकी औकात ही छोटी थी।  DMH 11 से भी भीतर नंद जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड की वैरायटी मौजूद है। इनकी उत्पादन क्षमता DMH 11 से ज्यादा है।

इस कमिटी की जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड के जांच परख पर भी कई तरह के सवाल उठते हैं। आखिरकार ऐसी कौन सी बात थी जिसकी वजह से कमिटी ने इस तरह की मंजूरी दी जिस पर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं? क्या वाकई खेती-किसानी के भले के बारे में सोचा जा रहा है या जेनेटिक मॉडिफाइड मस्टर्ड के हवाले से भारत को GM कंपनियों के फायदे के गढ़ के तौर पर बनाने की कोशिश की जा रही है?

अंत में चलते-चलते यह समझते हैं कि वैचारिक विरोधाभास क्या है? विज्ञान और तकनीक को आपस में मिलाकर बीजों में वैसा बदलाव तो किया जा सकता है जिससे यह उम्मीद की जा सके कि बीज से वैसे फसल मिले जिसकी चाहत है। मगर दिक्कत यह है कि प्रकृति पर उसका क्या असर पड़ेगा? इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल काम है। स्वाभाविक तौर से जीवन और प्रकृति की आपसी संघर्ष और समागम से प्रकृति और जीवन में परिवर्तन होते रहता है। मगर यहां समझने वाली बात यह है कि यह परिवर्तन स्वभाविक होता है। इसमें जबरन कुछ भी नहीं होता। कहने का मतलब यह है कि इस परिवर्तन के लिए प्रकृति ही खुद को तैयार करती है और प्रकृति के साथ चलने वाला जीवन में। मगर जब हम प्रयोगशाला में बीजों को इस तरह से बदलते हैं जिससे वांछित परिणाम हासिल की जा सके तो इससे बीच में बदलाव होता है प्रकृति में बदलाव नहीं होता। इसकी प्रतिक्रिया प्रकृति कैसे देगी? इसी का अंदाजा लगाना सबसे मुश्किल है। यही सबसे गंभीर चौनौती है।

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