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अफ़गानिस्तान के घटनाक्रमों पर एक नज़र- VII

यूएस-तालिबान के बीच का रिश्ता नाज़ुक स्थिति में है। ऐसे में चीन विजेता साबित हो सकता है।
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अफ़ग़ानिस्तान में काबुल से 40 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में लोगार प्रांत में ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों और टेढ़े-मेढ़े पहाड़ों पर स्थित मेस अयना का एक मनोरम दृश्य, जहां चीनी कंपनियों ने अबतक दुनिया के सबसे बड़े अनछुए तांबे के भंडार में से एक को लेकर हुए अनुबंध पर हस्ताक्षर कर दिये हैं, जिसमें कम से कम 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का 450 मिलियन मीट्रिक टन अयस्क होने का अनुमान है।

तालिबान ने चेतावनी दे दी है कि अगर जो बाइडेन प्रशासन ने काबुल हवाईअड्डे पर अपनी तैनाती की समयसीमा 31 अगस्त से आगे बढ़ायी, तो इसके नतीजे उसे भुगतने होंगे। अफ़ग़ानिस्तान के सिलसिले में ब्रिटेन ने मंगलवार को G7 की जिस बैठक का आह्वान किया है, वह इस समयसीमा पर फ़ैसला करेगी।  

ब्रिटेन (फ़्रांस और जर्मनी से समर्थित) इस समयसीमा के विस्तार को लेकर दबाव बना रहा है, जबकि राष्ट्रपति बाइडेन का रवैया अमेरिका में युद्ध लॉबी की तरफ़ से ख़ुद पर पड़ते दबाव के बावजूद दोतरफ़ा बना हुआ है।

धरातल पर काबुल हवाई अड्डे पर निकासी का काम बेहद चुनौतीपूर्ण है। निश्चित तौर पर इतने बड़े पैमाने पर निकासी का काम एक और सप्ताह में पूरा नहीं किया जा सकता है। अफ़ग़ानिस्तान में अभी भी कितने सौ या हज़ार अमेरिकी हो सकते हैं, इसके बारे में किसी को कुछ भी नहीं पता।

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यह कल्पना से बाहर की बात है कि तालिबान मोल-तोल नहीं करे। अमेरिका का सामना करने में उसकी हिचकिचाहट में अब तक उल्लेखनीय स्थिरता आ चुकी है। तय है कि पाकिस्तान भी आग भड़काने वाले इस मुद्दे को टालने के लिए पर्दे के पीछे से काम कर रहा होगा।

हालांकि, सोमवार को अमेरिका और जर्मन सैनिकों के बीच काबुल हवाईअड्डे पर हुई झड़प से पता चलता है कि जम़ीनी स्थिति लगातार बदल रही है और यह इसका घंटे-दर-घंटे बदलते जाना तय है। सोमवार को पेंटागन की ब्रीफिंग में इसे एक "आकस्मिक घटना" बताते हुए ज़्यादा अहमियत नहीं दी गयी और यह यह बात कही जाती रही कि अमेरिकी सेना और तालिबान (हक़्क़ानी नेटवर्क) के बीच अच्छे व्यावहारिक रिश्ते हैं।

निकासी में ढिलाई बरतने को लेकर बाइडेन बहुत ज़्यादा घरेलू दबाव में हैं। ऐसे में तालिबान का सहयोग अहम हो जाता है। लेकिन, तालिबान की योजना है कि वह नयी सरकार की घोषणा तभी करेगा, जब अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन विदेशी सैनिकों से पूरी तरह खाली हो जाये। तालिबान के प्रवक्ता ज़बीउल्लाह मुजाहिद के हवाले से कहा गया है, “अफ़ग़ानिस्तान में तब तक कोई नयी सरकार नहीं होगी, जब तक कि आख़िरी अमेरिकी सैनिक देश नहीं छोड़ जाता।”

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यहीं पेंच फंसा है। तालिबान की योजना अगले पखवाड़े के भीतर एक समावेशी सरकार के गठन के साथ आगे बढ़ने को थी, ताकि सरकार की वैधता को बढ़ाया जा सके। यही सलाह रूस, चीन और ईरान की भी होगी, जिनकी दिलचस्पी बिना किसी देरी के एक व्यवस्थित सत्ता हस्तांतरण में है।

शंघाई सहयोग संगठन (SCO) के एक बयान में सोमवार को सभी सामाजिक, राजनीतिक, जातीय और धार्मिक समूहों के हितों के साथ समावेशी शांतिपूर्ण बातचीत के ज़रिये "ज़िम्मेदाराना" सरकार की वैधता को बहाल करने की अहमियत को रेखांकित किया गया।”

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यह बात महत्वपूर्ण है कि एससीओ ने "संयुक्त राष्ट्र की केंद्रीय समन्वय भूमिका के साथ अफ़ग़ानिस्तान को स्थिर और विकसित करने के अंतर्राष्ट्रीय प्रयासों में शामिल होने " को लेकर अपने इरादे को हरी झंडी दे दी है।

कहना मुश्किल नहीं कि मंगलवार को हुई G7 की वर्चुअल बैठक के नतीजे का बेसब्री से इंतज़ार किया जायेगा। अगर G7 प्रतिबंध लगाने का रास्ता अपनाता है, तो इससे निश्चित रूप से तालिबान के साथ पश्चिम देशों के रचनात्मक जुड़ाव के दरवाज़े बंद हो जायेंगे। चीन और ईरान ऐसी स्थिति से निपटने के लिए अपनी ख़ुद की सीमा तय कर रहे हैं। ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान (तालिबान) को अपने तेल की आपूर्ति फिर से शुरू कर दी है।

ग्लोबल टाइम्स ने सोमवार को बताया कि तालिबान के ख़िलाफ़ पश्चिमी प्रतिबंधों की उम्मीद में चीन अफ़ग़ानिस्तान में अपनी निवेश रणनीतियों पर सक्रिय रूप से विचार कर रहा है। सरकारी स्वामित्व वाले उद्यम तो कथित तौर पर ‘इंतज़ार करो और नज़र रखो’ का नज़रिया अपनाना पसंद कर सकते हैं, लेकिन निजी कंपनियां "एक ऐसे बाज़ार से फ़ायदा उठाने के लिए बेसब्र हैं, जहां ' हज़ारों चीज़ें होने का इंतज़ार' है।"

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चीनी कंपनियां को तालिबान की सद्भावना पर भरोसा है और उन्हें पश्चिमी प्रतिबंधों को भुना लेने की उम्मीद है।

ग्लोबल टाइम्स की रिपोर्ट खुले तौर पर "तालिबान के साथ चीन की उस कामयाब कूटनीति को सामने रखती है, जो अफ़ग़ानिस्तान में चीनी कारोबार के सुरक्षित और सुचारू संचालन की बुनियाद डालती है।" दूसरी बात कि इस रिपोर्ट में सुरक्षा स्थिति में आमूलचूल सुधार की बात कही गयी है। मेस अयनाक में तांबे की विशाल खान परियोजना (यह परियोजना अभी तक इस्तेमाल में नहीं लाये गये दुनिया के सबसे बड़े तांबे के भंडारों में से एक के रूप में जानी जाती है, जिसमें कम से कम  50 बिलियन डॉलर का तक़रीबन 450 मिलियन टन अयस्क है।) पर काम शुरू होने को लेकर भी उम्मीदें जतायी जा रही है

पिछले हफ़्ते ग्लोबल टाइम्स की एक दूसरी टिप्पणी में यह दावा किया गया था कि चीन अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन में विशाल पैमाने पर पाये जाने वाले उन दुर्लभ धातुओं को निकालने के लिए तालिबान के साथ सहयोग करने को लेकर दृढ़ है, जिनकी क़ीमत  1-3 ट्रिलियन डॉलर के बीच होने का अनुमान है। इसमें यह ख़ुलासा किया गया है कि अज्ञात अमेरिकी खनन कंपनियों को अब तक अफ़ग़ानिस्तान में दुर्लभ संसाधनों के दोहन में ख़ास तौर पर विशेषाधिकार हासिल हैं, ऐसे में तालिबान का अधिग्रहण "निस्संदेह अमेरिकी आर्थिक हितों के लिए एक भारी झटका है।"

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सोमवार को चीनी विदेश मंत्रालय ने उम्मीद जतायी कि "अफ़ग़ानिस्तान एक खुली, समावेशी और व्यापक रूप से प्रतिनिधि सरकार बनायेगा, उदार और विवेकपूर्ण घरेलू और विदेशी नीतियों को अपनायेगा और यह अपने यहां के लोगों की आकांक्षाओं और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की आम अपेक्षाओं के अनुरूप होगी।"

इसी तरह, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने भी कहा कि बीजिंग को उम्मीद है कि "अफ़ग़ानिस्तान में अशांति का जल्द से जल्द अंत हो जायेगा और आर्थिक और वित्तीय व्यवस्था की बहाली होगी"। उन्होंने कहा, "चीन अफ़ग़ानिस्तान में शांति और पुनर्निर्माण को बढ़ावा देने और राष्ट्र के ख़ुद की प्रगति हासिल करने और लोगों की आजीविका में सुधार करने की क्षमता बढ़ाने में मदद करने के लिए सक्रिय भूमिका निभाने को लेकर तैयार है।"

अफग़ान पुनर्निर्माण की अगुआई करने के लिहाज़ से अपनी रणनीति को लेकर चीन की यह नवीनततम घोषणा है। कोई शक नहीं कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव इस क्षेत्र में एक बड़ी छलांग लगाने की ओर बढ़ रहा है। चीन उसी के मुताबिक़ अपनी स्थिति तय कर रहा है। पाकिस्तान और ईरान दोनों के क़रीबी सहयोगी के तौर पर चीन के आर्थिक और रणनीतिक पैरों के निशान का अभूतपूर्व विस्तार मध्य एशियाई और पश्चिम एशियाई क्षेत्र में होने की उम्मीद है।

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अमेरिका के साथ गठजोड़ और उसकी छाया में पड़े रहने के बजाय, भारतीय रणनीतिकारों को इन सब घटनाक्रमों का आकलन करना चाहिए। अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे घटनाक्रम का एकमात्र सबसे बड़ा नतीजा यही होने वाला है कि क्षेत्रीय राजनीति का सिद्धांत अब क्षेत्रीय अर्थशास्त्र की ओर बढ़ रहा है। और जैसी कि कहावत है कि जो सबसे पहले आगे क़दम रखेगा,कामयाबी उसी को मिलेगी।

दक्षिणपूर्वी ईरान के चाबहार बंदरगाह में निवेश बेकार नहीं जाना चाहिए। भारत-ईरान सहयोग की नयी शुरुआत करने की यह नयी सोच भारी आर्थिक चुनौतियों और अफ़ग़ान पुनर्निर्माण के अवसरों के साथ मेल खाती है। चीन की तरह भारत को भी बिखरे हुए बिंदुओं को जोड़ना चाहिए और एक पूरी तस्वीर सामने रखना चाहिए और दीर्घकालिक लिहाज़ से आगे बढ़ना चाहिए। लेकिन, दिक़्क़त यही है कि भारत तो अपनी ही परिधि में रहता है।

एम.के.भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वह उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रहे हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Reflections-on-Events-in-Afghanistan-VII

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