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श्रीलंकाई संकट के समय, क्या कूटनीतिक भूल कर रहा है भारत?

श्रीलंका में सेना की तैनाती के बावजूद 10 मई को कोलंबो में विरोध प्रदर्शन जारी रहा। 11 मई की सुबह भी संसद के सामने विरोध प्रदर्शन हुआ है।
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9 मई 2022 को लोकप्रिय जनउभार के माध्यम से श्रीलंका के प्रधान मंत्री महिंदा राजपक्षे को इस्तीफा देने के लिए मजबूर करने के बाद, स्थिति ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया है।

एक ओर, श्रीलंकाई सेना को तैनात किया गया है और राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे द्वारा स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए कहा गया है। सशस्त्र बलों ने सड़कों पर मार्च करना शुरू कर दिया है। 10 मई 2022 को, रक्षा मंत्रालय ने घोषित तौर पर सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करने के लिए किसी के भी खिलाफ सेना को देखते ही गोली मारने का निर्देश दिया, लेकिन यह आदेश वास्तव में बड़े पैमाने पर विरोध को दबाने के लिए है ।

दूसरी ओर, 9 मई को ही, महिंद्रा राजपक्षे द्वारा अपने छोटे भाई और राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को अपना इस्तीफा सौंपने के कुछ घंटे पहले, अपने हजारों सशस्त्र समर्थकों को प्रदर्शनकारियों के खिलाफ छोड़ दिया गया। कई शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर बेरहमी से हमला किया गया और उनमें से 80 से अधिक घायल हो गए, यहां तक कि राष्ट्रपति भवन के बाहर भी हमले हुए। फिर भी, लोकप्रिय गुस्सा इतना प्रबल था कि स्वयं महिंद्रा राजपक्षे को सेना द्वारा एक नौसैनिक अड्डे पर ले जाना पड़ा।

सेना की तैनाती के बावजूद 10 मई को कोलंबो में विरोध प्रदर्शन जारी रहा। 11 मई की सुबह भी संसद के सामने विरोध प्रदर्शन हुआ था। लेकिन प्रदर्शनकारियों को सेना ने केवल हिरासत में लिया और कोई गोलीबारी नहीं हुई। श्रीलंकाई चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ और सेना के कमांडर जनरल शैवेंद्र सिल्वा को एक सुलह बयान देना पड़ा कि सेना शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने जैसे किसी भी "अपमानजनक" (disgraceful) कृत्य का सहारा नहीं लेगी।

सेनाध्यक्ष का ऐसा सुलहकारी बयान समझ में आता है क्योंकि ये श्रीलंका में कोई सामान्य विरोध प्रदर्शन नहीं थे। जन-उभार (insurgency) ने विद्रोह (insurrection) का रूप धारण कर लिया था। जन विद्रोह का राजनीतिक प्रभाव इतना मजबूत था कि कई शहरों में पुलिस बलों ने भी घोषणा कर दी कि वे विद्रोही लोगों पर गोलियां नहीं चलाएंगे। इसलिए सेना को भी राष्ट्रव्यापी आपातकाल की घोषणा के बावजूद एक बहुत ही अस्थिर और विस्फोटक स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। और देखते ही गोली मारने के आदेश से लैस होने के बाद भी, सेना के लिए खूनी नरसंहार के बिना सड़क पर विरोध प्रदर्शन को रोकना आसान नहीं होगा।

आखिरकार, जनरल शैवेंद्र सिल्वा को गोटाबाया ने सेना प्रमुख के पद के लिए व्यक्तिगत रूप से चुना था और वह गोटाबाया के वफादार हैं। दरअसल, सेना पर गोटाबाया की पकड़ वैसे बहुत मजबूत है। पूर्व रक्षा मंत्री के रूप में, उन्होंने व्यक्तिगत रूप से सेना को गृहयुद्ध में लिट्टे को कुचलने का निर्देश दिया था। यह गोटाबाया ही थे जिन्होंने तमिलों के खिलाफ गृहयुद्ध में बहुसंख्यक सिंहल राज्य को व्यक्तिगत रूप से निर्देशित किया था। तो सेना के साथ उनके संबंध, जो कि चल रहे विद्रोह से प्रतिष्ठान को बचाने का अंतिम उपाय है, काफी गहरे हैं।

सैनिक हलकों में, गोटाबाया को उनकी निर्ममता के लिए "टर्मिनेटर" के रूप में भी जाना जाता था। अल्पसंख्यक तमिलों के खिलाफ गृहयुद्ध में सिंहली बहुमत वाली सेना का नेतृत्व करना एक बात है।  लेकिन इसी तरह भ्रष्ट और बदनाम राजपक्षे परिवार के खिलाफ लोकप्रिय सिंहली विद्रोह को कुचलना एकदम अलग समस्या है।

सेना को एक कठिन चुनाव का सामना करना पड़ रहा है- या तो वह क्रूर बल प्रयोग के जरिये लोकप्रिय विद्रोह को कुचलने के लिए आगे बढ़े अन्यथा गोटाबाया का बलिदान कर स्थिति को शांत करने हेतु कुछ सुलहकारी अंतरिम राजनीतिक समाधान पर जोर दे। खैर, सेना कुछ रक्तपात के बाद सड़क पर दैनिक विरोध प्रदर्शनों को अस्थायी रूप से रोकने में भी सफल हो सकती है। लेकिन वह श्रीलंका में चल रहे गंभीर आर्थिक संकट को समाप्त नहीं कर सकती, जिसने प्रथमतः लोकप्रिय विरोध को जन्म दिया। आज भी जरूरी दवाएं उपलब्ध नहीं हैं। दुकानों पर खाद्यान्न नहीं मिल रहा है। कई शहरों में बिजली और पानी की आपूर्ति ठप हो गई है। वाहनों के लिए ईंधन नहीं है और रसोई गैस भी नहीं है।

अगर सेना बंदूक की नोक पर "कानून-व्यवस्था" बहाल करती है, तो भी आपूर्ति लाइनों (supply lines) को बहाल नहीं किया जा सकता, क्योंकि देश में किसी के पास आपूर्ति करने के लिए कुछ है ही नहीं। श्रीलंका को भारत और अन्य अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों से जो भी अंतर्राष्ट्रीय सहायता मिलती है, वे पूरे देश को खिलाने के लिए बड़े पैमाने पर आयात नहीं कर सकते। यह पूरी आबादी के अस्तित्व का सवाल है और ऐसे में सेना क्या कर सकती है?

बढ़ता अंतरराष्ट्रीय दबाव

इस बीच अंतरराष्ट्रीय दबाव भी बढ़ रहा है। अमेरिकी विदेश विभाग ने 10 मई को श्रीलंका में सेना की तैनाती पर चिंता व्यक्त की और पिछले दिनों कोलंबो में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हुए हमलों की पूरी जांच का आह्वान किया। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने पिछले दिनों वाशिंगटन में अपनी दैनिक प्रेस ब्रीफिंग के दौरान राजपक्षे द्वारा की गई विजिलांटे हिंसा के स्पष्ट संदर्भ में 10 मई को मीडिया से कहा: "हम इस बात पर जोर देते हैं कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों को कभी भी हिंसा या धमकी का शिकार नहीं होना चाहिए, चाहे वह सैन्य बल द्वारा या नागरिक इकाई की ओर से हो"।

"और भी व्यापक तौर पर, हम पिछले कुछ दिनों में श्रीलंका में बढ़ती हिंसा की रिपोर्टों से बहुत चिंतित हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा, हम शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा की निंदा करते हैं।“ नेड प्राइस ने कहा, "हम पूरी जांच, गिरफ्तारी और हिंसा के कृत्यों में शामिल किसी भी व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा चलाने का आह्वान करते हैं।"

"हम सरकार और राजनीतिक नेताओं से आग्रह करते हैं कि वे सार्वजनिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए त्वरित कार्य करें और श्रीलंका में दीर्घकालिक आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता हासिल करने के लिए समाधानों की पहचान करने और उन्हें लागू करने के लिए मिलकर काम करें।“ अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता ने कहा कि “सरकार को बिजली, भोजन और दवा की कमी के साथ-साथ अपने देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में उनकी चिंताओं सहित आर्थिक संकट पर श्रीलंका के लोगों के असंतोष को दूर करना चाहिए।“

10 मई को, यूरोपीय संघ ने भी 9 मई को शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर "शातिराना हमलों" की निंदा की। यूरोपीय संघ के बयान में कहा गया है, "यूरोपीय संघ ने अधिकारियों से घटनाओं की जांच शुरू करने और हिंसा भड़काने या अपराध करने वालों को जवाबदेह ठहराने का आह्वान किया है।" बयान में आगे कहा गया है, "यूरोपीय संघ सभी नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा करने और उन समाधानों पर ध्यान केंद्रित करने के महत्व पर ज़ोर देता है जो वर्तमान में श्रीलंका के सामने आने वाली महत्वपूर्ण चुनौतियों का समाधान करेंगे।"
लेकिन, आश्चर्यजनक रूप से, न तो भारत और न ही चीन, श्रीलंका के दो बड़े पड़ोसियों ने, (श्रीलंका पर प्रभाव जमाने के लिए आपसी प्रतिद्वन्द्विता में कैद) सेना की तैनाती या श्रीलंका में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर हमलों की आलोचना नहीं की।

भारत की कूटनीतिक भूल

सच है, एक सामान्य नियम के बतौर, भारत जैसे बड़े देश को श्रीलंका जैसे छोटे पड़ोसी के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। लेकिन हर नियम के हमेशा अपवाद भी होते हैं। जब मौजूदा सरकार समस्त वैधता खो देती है, जहां प्रधान मंत्री खुद इस्तीफा दे देते हैं, श्रीलंका के लोगों के साथ एकजुटता व्यक्त करने और शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ हिंसा की आलोचना करने में भारत सरकार की विफलता विदेश नीति की एक प्रमुख गड़बड़ी है।

श्रीलंका के लोकप्रिय मानस में मोदी को राजपक्षे भाइयों का पूरा समर्थन करते देखा जा रहा है. श्रीलंकाई मीडिया के कुछ खेमों में भी अफवाहें थीं कि भारत श्रीलंका में "संघर्षों" को दबाने और गोटाबाया शासन की रक्षा करने के लिए सेना भेज सकता है। 11 मई को, कोलंबो में भारतीय उच्चायोग को एक बयान में स्पष्ट करना पड़ा: "उच्चायोग मीडिया और सोशल मीडिया के खेमों में भारत द्वारा श्रीलंका में अपनी सेना भेजने के बारे में अटकलों भरी रिपोर्टों का स्पष्ट रूप से खंडन करना चाहेगा।"

जब श्रीलंकाई संकट क्रिस्टलाइज़ होने लगा, भारत ने इस जनवरी की शुरुआत के बाद से अब तक श्रीलंका को 3 बिलियन डॉलर की सहायता दी है। वे मुख्य रूप से ईंधन सहायता और खाद्य सहायता के रूप में थे। भारत भी आवश्यक दवाओं की आपूर्ति और लोगों की दैनिक आवश्यकताओं के साथ श्रीलंका की मदद कर रहा था। श्रीलंका एक संप्रभु ऋण संकट (sovereign debt crisis) का सामना कर रहा था और दिवालिया होने के कगार पर था। यह मार्च 2022 में 21.5% की एक रफ्तार से बढ़ती मुद्रास्फीति और भोजन व अन्य आवश्यक वस्तुओं के अभाव की अकाल जैसी स्थिति का सामना कर रहा था। मुक्त व्यापार समझौतों और बढ़ते आर्थिक एकीकरण के बावजूद, भारतीय पूंजीवाद श्रीलंका, नेपाल और बांग्लादेश, और यहां तक कि छोटे मालदीव की अर्थव्यवस्थाओं को स्थिरता प्रदान करने में बुरी तरह विफल रहा। कोई आश्चर्य नहीं कि श्रीलंका में, 1997 के पूर्वी एशियाई संकट की तरह, एक चौथाई सदी के बाद विस्फोट पैदा हुआ।

लेकिन जिस बात ने भारत की सहायता को प्रेरित किया वह क्षेत्रीय आर्थिक स्थिरता और समृद्धि की दृष्टि नहीं थी बल्कि श्रीलंका पर चीन के प्रभाव का मुकाबला करने की मंशा थी। तमिलनाडु में स्वराज अभियान के नेता के. बालाकृष्णन ने न्यूज़क्लिक को बताया: "श्रीलंका में 3 अरब डॉलर की राशि उड़ेलते समय, जिस तरह से राजपक्षे श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का कुप्रबंधन कर रहे थे या लोकतांत्रिक विरोधों को कुचल रहे थे, उसकी आलोचना का एक भी शब्द भारत द्वारा व्यक्त नहीं किया गया। स्वाभाविक रूप से, श्रीलंका के विद्रोही लोगों ने भारत को राजपक्षे के पूर्ण समर्थक के रूप में देखा। राजपक्षे को मोदी और भारत के करीब और चीन से दूर जाते हुए भी देखा गया। यह मोदी सरकार की एक बड़ी कूटनीतिक चूक रही है।

आगे क्या?

गोटाबाया ने महिंदा के इस्तीफे को स्वीकार करते हुए कहा कि इस कदम से विपक्ष सहित एक अंतरिम संयुक्त राष्ट्रीय सरकार के गठन में सुविधा होगी। लेकिन महिंद्रा के इस्तीफे के 48 घंटे बाद भी उस दिशा में कोई कदम नजर नहीं आ रहा है; सिर्फ सेना की तैनाती है। इस बीच श्रीलंकाई विपक्ष ने ठान लिया है कि गोटाबाया को भी जाना चाहिए। श्रीलंकाई विपक्ष के नेता साजीत प्रेमदासा का नाम पहले से ही संभावित वैकल्पिक प्रधान मंत्री के रूप में चर्चा में रहा है, बशर्ते गोटाबाया भी इस्तीफा दे देते हैं। विपक्षी पार्टी नेशनल पीपुल्स पावर की नेता अनुरा कुमारा दिसानायके ने कहा है कि उनकी पार्टी छह महीने के लिए अंतरिम सरकार में शामिल होगी और नेतृत्व करेगी। लेकिन कोई भी विपक्षी दल गोटबाया से समझौता करने को तैयार नहीं है। गो गोटाबाया, जाओ!…यह उनका भी नारा है। देखना होगा कि श्रीलंकाई सेना इस गतिरोध को कैसे सुलझाती है।

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