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धड़कती आज़ादी शाहीन बाग़ में...

"करोड़ों लोगों के निर्वासन का दुख/ इस ठंडी रात से बड़ा है क्या?” , 'इतवार की कविता' में पढ़ते हैं शोभा सिंह की एक नई कविता।
shaheen bagh

दिल्ली का शाहीन बाग़ इन दिनों देश ही नहीं दुनिया में मशहूर हो गया है। आप जानते ही होंगे कि क्यों?, क्योंकि यहां की जुझारू औरतें, अवाम का हक़ और देश का संविधान बचाने के लिए लगातार धरने पर हैं। संवेदनशील कवि शोभा सिंह ने शाहीन बाग़ में इन औरतों से मुलाकात कर, इस धरना-आंदोलन में शिरकत कर एक भावपूर्ण कविता लिखी है। आइए 'इतवार की कविता' में पढ़ते हैं शोभा सिंह की यही कविता।
 

धड़कती आज़ादी शाहीन बाग़ में


लगता था अपने ख़्वाबों से

मुलाकात हो रही हो

स्पष्ट विचारों का सैलाब लिए

अपने नीम अंधरे से

उठ कर आईं औरतें

चेतना का दिलेर स्वर बन

उन दिनों जब

संकट गहरा था

ठहरे हुए समाज में भी

आग धधक रही थी

सामान्य मुस्लिम महिलाओं ने आगे बढ़कर

संभाल लिया था मोर्चा

आज़ादी मिलने के बाद

एक नया बेमिसाल

इतिहास

रचा जा रहा था

बेख़ौफ़ आज़ादी का नया स्क्वायर (घेरा)

दमन के ख़िलाफ़

फासीवाद के नंगेपन और

इंसान विरोधी काले कानूनों के ख़िलाफ़

पहली बार घरों से निकल

चौबीस घंटे चलने वाले धरने में आईं

ज़बरदस्त ढंग से व्यवस्थित किया

घर और बाहर का काम

सामने एक ऐसी दुनिया थी

जिसमें अपनी नई पहचान बनानी थी

तय करना था अपना मुकाम


 

नवजात शिशु के साथ मां ने कहा-

कहां हैं वे

जो कहते हैं

हमें गुमराह किया गया है

कौन है गुमराह?

जामिया में हिंदू मुस्लिम में बांट कर

आप छल कर रहे

वहां हमारे बच्चे

मिलकर पढ़ते हैं

आपके दंगाई हमला करते हैं

अब आपसे ही लोकतंत्र को बचाना है

यह तो आज़ादी की लड़ाई है

हमें अपना संविधान

अपना देश बचाना है

दिल्ली का तापमान

एकदम निचले पायदान पर

कड़ाके की ठंड में

अलाव की मीठी आंच सी

जगी आवाज़ें, तकरीरें

संघर्ष से तपे चेहरे

जोश भरते

इंक़लाबी तराने

फ़ैज़ के गीत

“ जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ

रुई की तरह उड़ जायेंगे

लाज़िम है कि हम भी देखेंगे”


 

सीखचों के पीछे ज़बरन बंद

अपने मर्दों के लिए

ये तसल्ली और हौसलें की

बुलंद आवाजें थीं


 

अन्याय, ज़ुल्म से बगावत

जारी रहेगी

कामयाबी न मिलने तक

यूंही – अहद है

बिम्ब साकार हो रहे थे

नारे और जज़्बात

दो रंग की घुलावट में

ख़ुदमुख़्तारी का यह अनोखा रंग

जनतंत्र के पक्ष में

एनआरसी, सीएए के ख़िलाफ़

समूचे देश में

गहरा आक्रोश

दर्ज हो रहा था

सद्भाव और एकता की लहरें

ऊपर उठ फैलने लगीं

लोगों ने शुभ संदेश को पकड़ा

अमन सुकून की अहमियत समझते हुए

शांति पूर्ण तरीके से आगे बढ़े

नई मशालों से

रौशन हुए दूर तक

अंधरे कोने भी

अगुआई में

ज़िंदगी के आख़री मुकाम पर पहुंची

तीन दादियां

जांबाज़ निडर

शाइस्तगी से बोलीं

करोड़ों लोगों के निर्वासन का दुख

इस ठंडी रात से बड़ा है क्या?

अब तो ख़ामोशी को भी

आवाज़ दे रहीं हैं हम

यह आवाज़ की तरंगें

आने वाली खुशहाली की ख़बर सी

फैल जाएंगी

उनके सपने धुंधली आंखों में

झिलमिलाए

देश की मिट्टी में

कई रंग के फूलों में

हम यूं ही खिलेंगी

देखना

ज़माना हमें कैसे भूलेगा

यहां दादी नानी मां के साथ

बच्चे

सीख रहे

अपनी पहचान

हां अपनी राष्ट्रीयता का

वे पुनः दावा ठोंकते

अपने हिजाब के संग

हिंदू मुसलमान दोनों मिल

हुक्मरान को जवाब देती

ये देश हमारा है, साझी विरासत

हम उतने ही भारतीय हैं जितने तुम

छांटना बंद करो

इसी मिट्टी में दफ़न हैं हमारे पुरखे

यही मिट्टी

दस्तावेज़ है हमारा
 

(शोभा सिंह का 'अर्द्ध विधवा' नाम का कविता संग्रह 2014 में प्रकाशित हो चुका है।)

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