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चाटुकारिता की तो हद हो गई: मोदी की तुलना शिवाजी से ?

आज जब देश में बीजेपी और ब्राह्मणवादी ताकतें शिवाजी को ब्राह्मणों और गायों के उपासक के रूप में पेश करना चाहती हैं, तो गैर-सवर्ण लोगों ने उनकी इस युक्ति को मानने से इंकार कर दिया हैं।
Sycophancy in Action
.Image Courtesy : The Indian Express

महाराष्ट्र में शिवाजी एक महान व्यक्तित्व हैं। समाज के हर एक वर्गों ने उन्हें बहुत ऊंचा दर्जा दिया है, हालांकि सबके कारण अलग-अलग हैं। राज्य में उनके बारे में लोक कथाओं का होना लाजिमी है। उनकी प्रतिमाएं और उन पर लिखे गए गीत लोकप्रिय और बहुत प्रचलित हैं। ये लोक गीत (जिन्हें पोवादा कहते हैं) उनके द्वारा किए गए कार्यों की प्रशंसा करते हैं। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, जब जयभगवान गोयल ने अपनी पुस्तक, ‘आज का शिवाजी: नरेन्द्र मोदी’ का दिल्ली भाजपा द्वारा आयोजित एक धार्मिक-सांस्कृतिक समारोह में विमोचन किया, तो इसने महाराष्ट्र में तीव्र आक्रोश को जन्म दे दिया।

महाराष्ट्र के कई नेता इस पर नाराज़ हो गए। शिवसेना नेता संजय राउत ने इस मुद्दे पर शिवाजी के वंशज और भाजपा के राज्यसभा सदस्य संभाजी राजे को चुनौती दी है और इस्तीफा मांगा है। इस पर संभाजी राजे ने प्रतिक्रिया में कहा, "हम नरेंद्र मोदी का इसलिए सम्मान करते हैं कि वे दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में चुने गए हैं। लेकिन न तो नरेंद्र मोदी और न ही दुनिया में किसी भी व्यक्ति से छत्रपति शिवाजी महाराज की तुलना की जा सकती है।"

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता जितेंद्र अवहाद भी इस मामले में पीछे नहीं रहे और उन्होंने कहा कि उन्हें लगता है कि मोदी और भाजपा महाराष्ट्र के गौरव का अपमान कर रहे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि मराठा योद्धा के इर्द-गिर्द विवाद खड़ा हुआ है। इससे पहले, संभाजी ब्रिगेड ने जेम्स लेन की किताब शिवाजी: ए हिंदू किंग इन इस्लामिक किंगडम पर इसलिए प्रतिबंध लगाने की मांग की थी कि उसमें आपत्तिजनक सामग्री थी। इस पुस्तक के लिए किए गए शोध में जेम्स लेन की मदद करने वाले पुणे स्थित भंडारकर इंस्टिट्यूट में भी तोड़-फोड़ की गई।

दूसरे स्तर पर भी चर्चा थी कि एक ब्राह्मण बाबासाहेब पुरंदरे जिन्होंने शिवाजी पर कुछ लोकप्रिय सामग्री लिखी है उनको शिवाजी की प्रतिमा बनाने वाली समिति का चेयरमैन बनाया जाएगा। तब, मराठा महासंघ और शिव धर्म के अधिकारियों ने ब्राह्मण को मराठा योद्धा की प्रतिमा बनाने वाली समिति का प्रमुख बनाने की आशंका पर आपत्ति जताई थी। शिवाजी के मामले में जातिगत नज़रिया काफी समय से सामने आ रहा है।

जबकि शिवाजी के ईर्द गिर्द विवादों की कोई कमी नहीं है, यह भी सच है कि प्रत्येक राजनीतिक विचारधारा ने अपने राजनीतिक दृष्टिकोण के माध्यम से शिवाजी की एक छवि बना ली है। अब सवाल यह उठता है कि असली शिवाजी कौन थे? कोई भी इस मामले की दो स्पष्ट धाराओं को देख सकता है। एक तरफ, शिवाजी को मुस्लिम विरोधी राजा के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता रहा है, एक ऐसा राजा जो गायों और ब्राह्मणों (गौ ब्राह्मण प्रतिपालक) का सम्मान करता था। यह दृष्टिकोण लोकमान्य तिलक के समय आगे लाया गया था और इसे हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा आगे बढ़ाया गया, जो अपने राजनीतिक एजेंडे के अनुरूप इतिहास की तलाश में हैं। गांधी की आलोचना करते हुए नाथूराम गोडसे का कहना था कि गांधीजी का राष्ट्रवाद शिवाजी या राणा प्रताप के सामने काफी बौना था।

इस तरह हिंदू राष्ट्रवादी दोनों को हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में प्रचारित कर रहे हैं और पूरे प्रचार में वे इन्हें एक मुस्लिम विरोधी योद्धा बताते हैं। यही विचार हिंदू राष्ट्रवाद के ब्राह्मणवादी एजेंडे में भी छिपा है क्योंकि गायों और ब्राह्मणों को शिवाजी द्वारा की जाने वाली उपासना के मुख्य उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। शिवाजी की यह छवि हिंदू राष्ट्रवादियों के वर्तमान एजेंडे में अच्छी तरह से फिट बैठती है जो कि आरएसएस घटकों द्वारा उठाया जा रहा है।

इसके चलते ही 2014 के चुनावों से पहले मुंबई में वोट मांगते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा था कि शिवाजी ने औरंगजेब के खजाने को लूटने के लिए सूरत पर हमला किया था। यह शिवाजी-औरंगजेब या शिवाजी-अफजल खान के बीच की लड़ाईयों को हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की लड़ाई के रूप में प्रस्तुत करता है। जबकि सच्चाई यह है कि सूरत को उसकी बेइंतहा दौलत के लिए लूटा गया था क्योंकि यह एक समृद्ध बंदरगाह वाला शहर था और इस विषय पर बाल सामंत की पुस्तक गहराई से वर्णन करती है। यह उल्लेखनीय है कि शिवाजी ने अपने वास्तविक भविष्य की शुरुआत 1656 ई॰ में की थी जब उन्होंने मराठा प्रमुख चंद्र राव मोरे पर जवाली में विजय हासिल की थी। 

उन्होंने इस राज्य के खजाने को ज़ब्त कर लिया था। यह कोई हिंदू मुस्लिम लड़ाई नहीं थी यह तथ्य इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि औरंगजेब के साथ टकराव के समय उनके साथ मिर्जा राजा जयसिंह थे जो औरंगजेब की ओर से शिवाजी के साथ बातचीत कर रहे थे। और शिवाजी के पास काज़ी हैदर जैसे मुस्लिम अधिकारी थे जो उनके निजी सचिव थे और उनकी सेना में कई अन्य मुस्लिम सेनापति भी थे।

दरिया सारंग शस्त्र विभाग के प्रमुख थे; दौलत खान नौसेना विभाग के प्रभारी थे; इब्राहिम खान का सेना में एक बड़ा महत्व था। शिवाजी का मिश्रित प्रशासन यह दर्शाता है कि शासकों के पास उनके धर्म के आधार पर उनके प्रशासन के हिस्से के रूप में हिंदू या मुसलमान नहीं थे। शिवाजी और अफजल खान के बीच टकराव के समय, रुस्तम-ए-जमन शिवाजी की तरफ था और अफजल खान की तरफ कृष्णजी भास्कर कुलकर्णी थे।

जहां तक शिवाजी की लोकप्रियता का सवाल है, यह उनके राजा होने के कारण था, जिनके मन में अपनी जनता का कल्याण करना था। उन्होंने औसत किसानों पर कराधान का बोझ हल्का किया था और कृषि मज़दूरों पर जमींदारों के वर्चस्व को कम किया था। शिवाजी की इस तस्वीर को कॉमरेड गोविंद पानसरे की पुस्तक शिवाजी कौन? और जयंत गडकरी की पुस्तक शिवाजी: एक लोक कल्याणकारी राजा में अच्छी तरह से वर्णित किया गया है। शिवाजी योद्धा जाति से संबंध नहीं रखते थे इसलिए ब्राह्मणों ने उनका राज्याभिषेक करने से मना कर दिया था। परिणामस्वरूप, काशी के एक ब्राह्मण गागा भट्ट को लाया गया जिन्होंने मोटी रकम लेकर यह काम किया था.. शिक्षकों के लिए इतिहास विषय पर तीस्ता सीतलवाड़ की पुस्तिका इस तथ्य को रेखांकित करती है।

आज जबकि बीजेपी और ब्राह्मणवादी ताकतें शिवाजी को ब्राह्मणों और गायों के उपासक के रूप में पेश करना चाहती हैं तो गैर-सवर्ण उनकी इस युक्ति को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे ज्योतिराव फुले ही थे जो शिवाजी के जातिगत दृष्टिकोण को सामने लाए थे क्योंकि उन्होंने उनके सम्मान में एक पोवादा (कविता) लिखा था। और अब इस मामले में दलित बहुजन लोग हिंदू राष्ट्रवादियों के एजेंडे को नहीं मानते हैं।

बीजेपी के जयभगवान गोयल जैसे लोग दो तरह का संदेश देने की कोशिश कर रहे है। एक तरफ, वे शिवाजी को मुस्लिम विरोधी और ब्राह्मणवादी रंग में रंगना चाहते हैं, साथ ही वे एक सूक्ष्म संदेश के तहत यह भी बताना चाहते हैं कि मोदी कुछ वैसा ही कर रहे हैं, जो उन्हें शिवाजी की इस प्रस्तुति के समान खड़ा करता है। हालांकि, गैर-भाजपा ताकतों ने इस बात को महसूस किया है कि उन्हें अब शिवाजी की दूसरी तस्वीर को पेश करना चाहिए जिसे ज्योतिराव फुले ने पेश किया था।

आज जो लोग या जो ताक़तें दलित-बहुजन के अधिकारों के लिए खड़ी हैं उनमें से कई लोग इसे स्पष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। वापस ली गई उक्त पुस्तक की आलोचना दो दृष्टिकोण पर है। एक, शिवाजी की उस तस्वीर के बारे में कि वे किसानों के कल्याण के बारे में चिंतित थे और दूसरा, सभी धर्मों के लोगों के लिए उनके दिल में सम्मान था।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Sycophancy in Action: Comparing Modi to Shivaji

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