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तमिलनाडु चुनाव: क्या ट्रांसजेंडर अधिकारों के मामले में राज्य अब अग्रणी भूमिका में नहीं रहा?

तमिलनाडु ने 2008 में डीएमके सरकार के शासनकाल के दौरान ट्रांसजेंडर (विपरीतलिंगियों) के लिए देश का पहला वेलफेयर बोर्ड स्थापित किया था।
ट्रांसजेंडर
तस्वीर स्रोत: द लॉजिकल इंडियन 

राज्य में आगामी चुनावों के मद्देनजर तमिलनाडु ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड के कामकाज को सुचारू रूप से चलाए जाने की महत्वपूर्ण मांग ट्रांसजेंडर समुदाय की ओर से की जा रही है। बोर्ड इस समुदाय के सशक्तिकरण के लिए जिम्मेदार है, जिसमें सबसे पहले उनकी पहचान को मान्यता देने और ‘अरावनी’ पहचान पत्र मुहैया कराने की आवश्यकता है। यह कार्ड ट्रांसजेंडर व्यक्ति के लिए आवास और राशन हासिल करने जैसी सभी सरकारी योजनाओं के लिए प्रवेश द्वार के तौर पर है।

यहाँ तक कि जिनके पास ये आईडी कार्ड हैं, उनके लिए भी यह सब हासिल कर पाना आसान नहीं है। विभिन्न सरकारी योजनायें उन तक पहुँच सकें, इसे सुनिश्चित करने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ रहा है। ट्रांसजेंडर कार्यकर्ताओं का कहना है कि यहाँ तक कि जिन कार्डधारक सदस्यों को कोरोना महामारी के शुरूआती तीन महीनों में 1,000 रूपये की मामूली राशि मुहैया कराई गई थी, उसे भी समुदाय की ओर से दबाव बनाये रखने के कारण संभव बनाया जा सका था। 

देश में ट्रांसजेंडर अधिकारों के मामले में अपनी अग्रणी भूमिका के बावजूद राज्य में शिक्षा और गरिमापूर्ण रोजगार के अवसर बेहद कठिन बने हुए हैं। समुदाय के सदस्यों का कहना है कि 2008 में वेलफेयर बोर्ड की स्थापना के पहले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण प्रगति देखने को मिली थी। हालांकि इसके बाद से इसमें गिरावट का दौर जारी है।

वेलफेयर बोर्ड लिमिटेड 

तमिलनाडु ने 2008 में डीएमके के शासनकाल में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए देश के पहले वेलफेयर बोर्ड का गठन किया था। बोर्ड और इसके ‘थिरुनांगई’ (‘थिरु’ का अर्थ है सम्मान और ‘नांगई’ का अर्थ है पुरुष से महिला में रूपांतरण) पहचान पत्र के जरिये, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को राज्य द्वारा गरिमापूर्ण मान्यता दी गई। हालांकि लैंगिक पहचान पत्र को हासिल कर पाना अभी भी काफी कठिन बना हुआ है।

राज्य-स्तरीय पंजीकृत यूनियन तामिल नाडु अरवनिगाल एसोसिएशन (था) के सदस्यों ने, जो लैंगिक पहचान पत्रों के लिए सरकार पर दबाव डालने में मुख्य भूमिका में रहे हैं, का कहना है कि “ट्रांसजेंडर्स की आजीविका” ‘अरवानी’ कार्ड पर निर्भर करती है। उनका कहना था “यदि हमारे पास कार्ड हैं, तभी हमें सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सकता है।”

एसोसिएशन के एक वरिष्ठ सदस्य का कहना था कि आईडी कार्ड्स की मांग करने पर वेलफेयर बोर्ड के सदस्यों का रवैया मददगार वाला नहीं रहता। उन्होंने बताया कि अधिकारियों की ओर कहा जाता है कि “हमारे पास डॉक्टर नहीं हैं, ऐसे में हम क्या कर सकते हैं? तुम लोग डॉक्टरों की मांग करो; इसके लिए जाकर उच्चाधिकारियों से बात करो।”

ट्रांसजेंडर पहचान पत्र के लिए केंद्र सरकार के नेशनल पोर्टल फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स के माध्यम से भी आवेदन किया जा सकता है। हालांकि कार्यकर्ता ग्रेस बानु का कहना था कि समुदाय के सदस्यों के बीच कंप्यूटर साक्षरता की दर कम है और यह “वेबसाइट सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी में ही काम करता है। हम लोग सिर्फ भीख मांगने और सेक्स वर्क के काम में ही लगे हुए हैं... हमारे पास उस तरह के विशेषाधिकार नहीं हैं...इस आवेदन में ढेर सारे सहायक दस्तावेजों की मांग की गई है।”

समुदाय के सदस्यों को लगता है कि वेलफेयर बोर्ड को, जिसे कोविड-19 महामारी के दौरान उनके बचाव के लिए आगे आना चाहिए था, ने उनके अस्तित्व की सुरक्षा को लेकर न के बराबर काम किया था। ट्रांस-एक्टिविस्ट एवं निर्दलीय विधायक उम्मीदवार राधा का कहना था: “यहाँ तक कि जो 1000 रूपये हमें मिले थे, वो भी काफी विरोध दर्ज कराने के बाद जाकर मिल पाया था। उन्होंने चावल दिया लेकिन वह खाने लायक नहीं था; वास्तव में यह आम जनता थी जिसने हमारी मदद की..।” वे आगे कहती हैं “लॉकडाउन के दौरान केरल सरकार ने सभी आवश्यक प्रावधानों के साथ किट बैग्स मुहैया कराये थे, जो कि इस बारे में एक सभ्य तरीका था।”

राधा के मुताबिक “हालाँकि तमिलनाडु ने ट्रांसजेंडर समुदाय की मुश्किलों को सबसे पहले चिन्हित करने का काम किया और उन्हें सशक्त बनाने के लिए शुरूआती कदम भी उठाये, लेकिन इसमें वह निरंतरता को बरक़रार नहीं रख सकी। वहीँ केरल सरकार शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति देने से लेकर, मुफ्त किताबें और स्कूल फीस सहित कई अन्य लाभ उपलब्ध कराती है। यहाँ तक कि सर्जरी के लिए उन्होंने दो लाख रूपये दिए हैं।”

डीएमके द्वारा जारी ‘थिरुनांगई’ उपाधि को एआईडीएमके द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया 

2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री एम. करुणानिधि ने पूर्व के टाइटल ‘अरवानी’ को बदल दिया था और इसकी जगह कहीं अधिक गरिमामई ‘थिरुनांगई’ टाइटल से प्रतिस्थापित कर दिया। ट्रांस समुदाय के सशक्तीकरण के उद्देश्य से सोशल वेलफेयर डिपार्टमेंट के तहत इस नाम से वेलफेयर बोर्ड का गठन किया गया था। 

था से सम्बद्ध, एक कार्यकर्त्ता प्रभा का कहना था “राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र, और पहचान पत्र; ये सभी हमारे अधिकार में शामिल हैं। 2008 के बाद जाकर कहीं हमें एक के बाद एक ये सब मिल पाए। कलईगनर द्वारा वेलफेयर बोर्डे के गठन के बाद जाकर ही ये सभी चीजें कर पाना संभव हो सका।” उनका यह भी कहना था कि 2015 तक बोर्ड ठीक काम कर रहा था, लेकिन 2016 के बाद से यह निष्क्रिय हो गया है।

2019 में एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिये अचानक से कदम उठाते हुए, एआईडीएमके की अगुआई वाली सरकार ने टाइटल में ‘थिरुनांगई’ शब्द को ‘मून्द्रम पालिनाथावर’ शब्द से (वे जो ‘तीसरे लैंगिक समुदाय’ से सम्बद्ध हैं) टाइटल बदल दिया। ‘थिरुनांगई’ शब्द समुदाय द्वारा सम्मानित माना जाता है, जिसे समुदाय से सुझाव लेने के बाद जाकर अपनाया गया था। इसलिए नाम में बदलाव से उन्हें झटका लगा है। ‘तीसरे लिंग’ शब्द को ट्रांसजेंडर समुदाय की ओर से काफी हद तक ख़ारिज कर दिया गया, क्योंकि यह लैंगिकता को संख्यात्मक आधार पर क्रमबद्ध करता है।

राज्य सभा में डीएमके सांसद तिरुची शिवा के द्वारा प्राइवेट मेम्बर बिल लाये जाने पर ट्रांसजेंडर समुदाय द्वारा भी डीएमके को सराहा गया है। इसने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप ट्रांसजेंडर समुदाय के अधिकारों को बरक़रार रखा है। इसमें समुदाय के लिए सुरक्षा, शिक्षा, रोजगार और पहचान के अधिकारों को शामिल किया गया है। 

भले ही डीएमके जिसे अतीत में ट्रांसजेंडर मुद्दों को उठाने और संबोधित करने के लिए जाना जाता है, ने इस बार अपने घोषणापत्र में इस समुदाय के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। ट्रांस-एक्टिविस्ट्स जो डीएमके के घोषणापत्र का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, को निराशा हाथ लगी है। उनमें से एक का कहना था: “अन्नाद्रमुक ने भी हमारा जिक्र नहीं किया है, लेकिन उनसे हम वैसे भी कोई उम्मीद नहीं कर रहे थे।”

समुदाय को लगता है कि चूँकि वे मतदाता संख्या के लिहाज से कोई अच्छी खासी आबादी नहीं हैं, इसलिए वे राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं हैं।

मतदान आबादी का कम होना 

तमिलनाडु में ट्रांसजेंडर लोगों की मतदाता जनसंख्या न के बराबर है। 2014 में यह बताया गया था कि संसदीय चुनावों में मात्र 2,996 ट्रांसजेंडर मतदान करने के हकदार पाए गए थे। 

यह देखते हुए कि अधिसंख्य ट्रांसजेंडर लोगों के पास सरकार द्वारा प्रमाणित लैंगिक कार्ड नहीं हैं, उन्हें अपने वोटर आईडी में ट्रांसजेंडर के तौर पर मान्यता नहीं दी गई है। यहाँ तक कि जिनके पास अपने आईडी कार्ड्स हैं, के बारे में पता चला है कि उन्होंने अपने वोटर आईडी में आवश्यक लैंगिक संशोधन नहीं करवाया है।

था के मुताबिक, अधिकांश ट्रांसजेंडर को महिला मतदाताओं के तौर पर वोटर आईडी मुहैय्या कराई जाती है। एसोसिएशन की एक वरिष्ठ सदस्य किरुबा अम्मा ने न्यूज़क्लिक को बताया कि “हरेक जिले में हम तकरीबन 500 की संख्या के आस-पास हैं, कुछ में तो हमारी संख्या 1000 से भी अधिक है, लेकिन वोटर आईडी में यह परिलक्षित नहीं होता है। हर (ट्रांसजेंडर) को एक महिला के बतौर मतदान करना पड़ता है।

प्रभा ने पूरे आत्मविश्वास से बताया कि “अकेले चेन्नई शहर में ही 10,000 ट्रांसजेंडर हैं।”

कार्यकर्ता रक्षिका राज का इस बारे में कहना था “तमिलनाडु में काफी संख्या में ट्रांसजेंडर पाए जाते हैं। हालाँकि जनगणना में यह संख्या बेहद कम देखने को मिलती है। 2014 में एनएएलएसए के फैसले के बाद कई लोग खुलकर सामने आये थे, और उन्होंने खुद की पहचान ट्रांसजेंडर के तौर पर कराई थी। अब यह संख्या निश्चित तौर पर बढ़ी है। सिर्फ डीएसडब्ल्यू के पास ही संख्या मिल सकती है।”

ट्रांस-एक्टिविस्ट ग्रेस बानु का कहना था “ट्रांस समुदाय में मतदाता जागरूकता काफी कम है और यही वजह है चुनावों में कम मतदाताओं के भाग लेने की।” वे जागरूकता बढ़ाने के लिए अपने ट्रांसजेंडर साथियों के बीच अभियान चला रही हैं।

बानु और अन्य युवा ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता , राष्ट्रीय वैधानिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत सरकार (एनएएलएसए बनाम यूओआई) में 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के तहत सरकारी रोजगार एवं शिक्षा के क्षेत्र में ट्रांसजेंडर आरक्षण के लिए संघर्षरत हैं। किन्तु ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) एक्ट, 2019 इस प्रस्ताव को समाहित करने में विफल रहा। वेलफेयर बोर्ड के पुनर्निर्माण के अलावा यह एक ऐसी मांग है जो समुदाय की भावना को दृढ़ता के साथ प्रतिध्वनित्व करता है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Tamil Nadu Elections: Is the State no Longer a Pioneer of Transgender Rights?

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